01 January 2014

केजरीवाल की खैरात की सौगात का राज़ !

रामलीला मैदान पर अरविंद केजरीवाल एंड नौटंकी कंपनी के शपथग्रहण के साथ बीते एक पखवाड़े से जारी बुद्धू बक्से के तमाशे का एक चरण पूरा हुआ। अब घोषणापत्र के घोषणा को बारी बारी से पूरा करने के दावे के साथ आम आदमी पार्टी अपने तमाशे का दूसरा चरण पूरा कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या केजरीवाल एण्ड कंपनी सचमुच लोकतंत्र को मजबूत कर रही है या फिर सस्ती लोकप्रियता के लिए वह नागरिकों को दिग्भ्रमित कर रही है। 

आंदोलन की अवैध उपज

समाप्तप्राय वर्ष 2013 दुनिया के तमाम देशों में जनांदोलन का वर्ष रहा। इजिप्त, ब्राजील, ट्यूनीशिया जैसे देशों में जनांदोलनों का दौर २०११ में ही प्रारंभ हो गया था। ब्राजील, रूस और चीन में भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के बगलबच्चे एनजीओ 2011 से ही जनांदोलनों को हवा दे रहे हैं। 2013 आते-आते इजिप्त की जनतांत्रिक क्रांति मजहबी रक्तपात में तब्दील हो गई। इजिप्त के तहरीर स्क्वेयर से दिल्ली के जंतर-मंतर की तुलना हो रही थी। जिस तरह इजिप्त की क्रांति से मोहम्मद मोरसी जन्मे उसी तरह जंतर-मंतर आंदोलन की अवैध औलाद का नाम है केजरीवाल। मोहम्मद मोरसी ने जनक्रांति को अराजक मजहबी तानाशाही में तब्दील किया तो केजरीवाल खैराती चुनावी वादों से सत्ता में पहुंच कर जनतंत्र को खैराततंत्र में बदलने का नया अध्याय शुरू कर चुके हैं। वह दिल्ली का चुनाव भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बजाय दिल्लीवासियों को मुफ्त पानी, सस्ती बिजली और अवैध झुग्गी-झोपड़ियों को नियमित किए जाने के वादे के बल जीतने में कामयाब हुए हैं।

चुनावी वादों का पोस्टमॉर्टम

अग्रणी वित्तीय सूचना कंपनी जायफिन के वरिष्ठ सलाहकार सुरजीत एस. भल्ला ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) के चुनावी वादों का बेहतरीन पोस्टमॉर्टम किया है। श्री भल्ला ने जो पोस्टपार्टम किया था वह सही साबित हुआ। अरविन्द केजरीवाल की घोषणा के अनुसार ‘आप’ पार्टी दिल्ली के हर परिवार को प्रति दिन करीब पौने सात सौ लीटर पानी मुफ्त देगी। इस तरह हर परिवार को 20 किलोलीटर पानी प्रति माह मुफ्त प्राप्त होगा। परंतु कोई परिवार यदि 22 हजार लीटर से एक भी लीटर पानी अतिरिक्त उपभोग करता है तो उसे पूरे 21 हजार लीटर पानी का बिल अदा करना पड़ेगा। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन लगभग 150 लीटर पानी उपभोग करता है। दिल्ली में हर परिवार के सदस्यों की औसत संख्या 4 है। ‘आप’ मुफ्त में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 175 लीटर पानी का वादा कर चुकी है। पानी के उपभोग का यह परिमाण उन्नत देशों जर्मनी और डेनमार्क के औसत से कहीं ज्यादा है। रहस्य इस बात का भी है कि ‘आप’ ने यह सूत्र कहां से हासिल किया? एक दशक पहले दक्षिण अफ्रीका में थाबो म्बेकी ने गरीब अफ्रीकियों के लिए प्रति माह 6 हजार लीटर पानी मुफ्त उपलब्ध कराने का वादा कर चुनाव जीता था। इससे अधिक मासिक पानी उपभोग करने पर दक्षिण अफ्रीका में भी पूरा बिल वसूलने का प्रावधान था। दक्षिण अफ्रीका में पाया गया कि मुफ्त पानी योजना का लाभ गरीबों की बजाय पानी के बिल का भुगतान करने में समर्थ मध्यमवर्गीयों को मिला। दिल्ली में भी मुफ्त जल योजना का यही हाल होना है।’ भल्ला के शोधपूर्ण दावे का जवाब शायद ही ‘आप’ के किसी नीतिकार के पास हो। हवा पानी मुफ्त होना चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती लेकिन वहां जहां हवा और पानी प्राकृतिक रूप से उपलब्ध हो। जब पानी कहीं और से ढोकर कहीं और लाया जाएगा तब वह मुफ्त कैसे रह पायेगा?

केजरीवाल का खैरात तंत्र

झुग्गी-झोपड़ियों को पक्के मकान और सस्ती बिजली का वादा भी कुछ इसी तरह का है। तमाम विद्युतविशेषज्ञ ‘आप’ के दावों को हवाई करार देते हैं। यदि जिद वश ‘आप’ इन वादों को पूरा भी कर दे तो इस खैरात के लिए राजस्व कहां से आएगा? इस सवाल का जवाब अब तक किसी के पास नहीं। यदि खैराततंत्र ही लोकतंत्र का उत्तम तंत्र मान लिया जाए तो फिर केजरीवाल के वैचारिक काका तमिलनाडु के एम. करुणानिधि को मानना पड़ेगा। उन्होंने तो तमाम घरों में रंगीन टेलीविजन पहुंचा दिया। अखिलेश सिंह यादव आज भी मुफ्त के लैपटॉप बांट रहे हैं। फिर छत्तीसगढ़ के रमण सिंह और मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान केजरीवाल के तो अग्रज हुए। केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे 2004 में जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो चुनाव जीतने के लिए उन्होंने किसानों को मुफ्त में बिजली देने का वादा किया। चुनाव कांग्रेस जीत गई। पर साल भर बीतते-बीतते मुफ्त की बिजली तो दूर बिल भुगतान करने की तैयारी दिखाने पर भी बिजली अनुपलब्ध हो गई। कांग्रेसी खैरात तंत्र ने सरप्लस बिजलीवाले महाराष्ट्र को आज दिन तक लोडशेडिंग के लिए मजबूर कर रखा है। दिल्ली जलबोर्ड को वित्त वर्ष 2012-13 में 466 करोड़ रुपयों का मुनाफा हुआ। ‘आप’ का दावा है कि हम यह मुनाफा जनता में बांट देंगे। योगेंद्र यादव और अरविंद केजरीवाल के फौरी दावे इस आधार पर विश्वसनीय लगते हैं। दिल्ली में 7 लाख घरों को अब तक पाइप लाइन से पानी उपलब्ध कराना बाकी है। ७ लाख घरों को पाइपलाइन से जोड़ने के खर्च का जुगाड़ ‘आप’ वाले कहां से करेंगे? शायद यह आंकड़ा अभी तक उनके विश्व बैंक के ‘हैंडलर्स’ ने उपलब्ध नहीं कराया है।

केजरी से सभी के हुए संबंध विच्छेद

‘आप’ के कर्ताधर्ता केजरीवाल 2011 से 2013 के ढाई वर्षों के सार्वजनिक जीवन में लगातार संबंध विच्छेदों के कारण जाने जाते हैं। पहले उन्होंने जन लोकपाल आंदोलन से स्वामी अग्निवेश को काटा, फिर एन. संतोष हेगड़े दूर हो लिए, मौलाना काजमी धकिया कर हटा दिए गए। अण्णा हजारे से उन्होंने किनारा कर लिया। किरण बेदी खारिज कर दी गर्इं। अब उनके पास पुरानी चौकड़ी में केवल प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास, संजय सिंह और योगेंद्र यादव ही बचे हैं। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण चुनाव के समय जितने सक्रिय थे, सरकार संस्थापना में उतने ही निष्क्रिय नजर आए। बचे हुए कुमार विश्वास और संजय सिंह साख विहीन होने के चलते केजरीवाल की दुम बने रहने को मजबूर हैं। सो, जिस कांग्रेस को बीते 36 महीनों से केजरीवाल भ्रष्ट कहते आए हैं उसी के वंâधों पर सवार होकर सरकार में जा बैठे हैं। देखना है उनकी यह खैराती सियासत कितने माह चलती है? जिनको लगता है कि ‘आप’ पार्टी किसी चमत्कारी जनांदोलन की उपज है, उन्हें एक बार दिल्ली के सियासी दड़बे से बाहर वैश्विक परिदृश्य पर नजर घुमानी चाहिए। सिर्फ 2013 के जनांदोलनों को देख लें तो यूव्रेâन से थाईलैंड तक तमाम जनांदोलन नजर तो आते हैं, पर कोई सफलता चूमता नजर नहीं आता।

जनांदोलनों का फायदा जनता को नहीं

ब्राजील, टर्की, यूव्रेâन, इटली, रूस, इजिप्त, सिंगापुर और थाईलैंड की सड़कों ने जनप्रदर्शनों का दीदार किया। हर आंदोलन में सोशल मीडिया का प्रभाव, नागरिकों का अपेक्षाभंग, सत्तातंत्र का अनिर्णय और भ्रष्टाचार ‘कॉमन फैक्टर’ रहा। इनके परिणामों में भी कोई विशेष अंतर नहीं नजर आता। उदाहरण के तौर पर टर्की को देखें। टर्की में एनजीओ प्रेरित आंदोलनों की परिणति तानाशाही के शिकंजे में कसाव के रूप में हुई। सड़कों पर व्यापक प्रदर्शन हुए तो टर्की के प्रधानमंत्री रिसेप तय्यिप एर्डोगन ने अधिकारों को अपने पास केन्द्रीकृत कर लिया। यूक्रेन के जनांदोलन ने वहां की सरकार को यूरोपियन यूनियन के साथ समझौते को तो मजबूर किया। पर यूव्रेâन के प्रदर्शनकारियों के लिए लोकतंत्र अभी बहुत दूर नजर आ रहा है। इजिप्त में मोहम्मद मोर्शी के समर्थकों और सेना के बीच आए दिन हिंसक वारदात हो रही है। ब्राजील के साओ पावलो शहर में मेट्रो के किराए में वृद्धि को लेकर जून 2013 में जनांदोलन खड़ा हुआ। जून में हिंदुस्तानी मुद्रा रुपया डॉलर के मुकाबले गत्र्त में जा रहा था, पर ब्राजील की मुद्रा स्थिर थी। ब्राजील ने 2 वर्ष पहले ‘ब्रिक’ देशों की अपनी मुद्रा की बात की थी और विश्व बैंक की तर्ज पर ‘ब्रिक’ देशों के बैंक अथवा इंटरनेशनल मोनेटरी फंड में ‘ब्रिक’ के ‘वोटिंग पॉवर’ को बढ़ाने की मांग रखी थी। मेट्रो जनांदोलन के बाद ब्राजील की राष्ट्राध्यक्ष दिल्मा रौसेफ को पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर औचक 50 बिलियन रियाल खर्च करने का पैâसला लेना पड़ा। परिणामस्वरूप ब्राजील के चालू खाते का घाटा बढ़ा और ब्राजील रियाल के मूल्य में 10 प्रतिशत की गिरावट आ गई। फायदा किसे हुआ? ब्राजील की जनता को नहीं बल्कि आईएमएफ और वल्र्ड बैंक को।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के पीछे कौन?

रूस की राजधानी मॉस्को में ‘एंटी ऑरेंज प्रोटेस्ट’ का प्रभाव सरकारी दमनशाही के बावजूद जारी है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन खुद आरोप लगा चुके हैं कि रूसी जनांदोलन अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने प्रायोजित किए। रूसी जनांदोलन का नेतृत्व करनेवाले थैलीशाह मिखाइल खोद्रोवस्की को महीनों की कैद के बाद अब जाकर रिहा किया गया है। थाईलैंड में 4 नवंबर से प्रस्तावित ‘एमनेस्टी बिल’ के खिलाफ जो जनांदोलन छिड़ा तो वह अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। तमाम सरकारी इमारतें आंदोलनकारियों के कब्जे में हैं। थाईलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री ठकसिन शिनावात्रा के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को माफ न किया जाए की मांग से जारी आंदोलन अब वर्तमान प्रधानमंत्री यिंगलुक शिनावात्रा की कुर्सी के लिए खतरा बन गया है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शुरू में चीन में जारी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों पर नरम रहे। अब उन्होंने लिइयु पिंग, वी झोंगपिंग और ली सिहुआ जैसे आंदोलनकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का निर्देश दे दिया है। शी जिनपिंग का मानना है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नाम पर विदेशी ताकतें चीन में आंतरिक हस्तक्षेप करना चाहती हैं। ब्राजील हो, रूस, टर्की या चीन हर देश भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों को विश्व बैंक/ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा पोषित एनजीओ का कुचक्र करार देता है। फिर भी हम केजरीवाल को माथे पर बैठाए नाच रहे हैं। यह बिसार कर कि केजरीवाल का उद्भव और हिंदुस्तान के अर्थतंत्र-सत्तातंत्र का नीतिगत लकवा समानांतर परिघटना है। ब्राजील की मुद्रा की गिरावट और रुपए के अवमूल्यन का लाभ अंतत: किसको हुआ? क्या इस तथ्य को हम आमजनों तक पहुंचा पाएंगे? जब तक लोग सयाने होंगे तब तक खजाना लुट चुका होगा।

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