23 January 2014

एक था मुजफ्फरनगर !

पिछले महीनों में उन्होंने अपने घर छोड़े, गांव छोड़ा और अपनी पुस्तैनी जमीनों से ज़िंदगी का नाता भी छूट गया. हर रोज उनके लिए मुश्किलें हैं, शहर की, सरकार की, मौसम की, बाज़ार की. इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि साम्प्रदायिक दंगों के बाद किसी शहर की सूरत में कोई बदलाव आता है? शायद वक्त के साथ लोगों के चेहरों से खौफ थोड़ा उतर जाता है. शायद वह खौफ कहीं बहुत भीतर गुजर जाता है. कहना यह भी मुश्किल है कि चार महीने पहले हुए मुजफ्फर नगर दंगे के वक्त स्टेशन के बाहर टंगी यह बड़ी वाली होर्डिंग थी या नहीं. जो फिलहाल नई-नई सी दिख रही है और जिस पर लिखा है- हर-हर मोदी, घर-घर मोदी. 

बहुत कम समय में यह भी कहना मुश्किल है कि होर्डिंग पर लिखा यह सिर्फ तुकबंदी है या हर घर में मोदी को पैदा किए जाने की कवायद. हर शहर अपनी छोटी-छोटी चीजों के जरिए सवाल पैदा करता है और अपने छोटे-छोटे प्रतीकों में जवाब देता है. शहरों के मोड़ पर लगी होर्डिंगें शहर की कलाई पर बधी घड़ियां होती हैं जो शहर की संस्कृति और राजनीति के मिजाज का समय बताती हैं. ऐसा क्यों होता है कि जिन शहरों में दंगे होते हैं वहां मोदी की होर्डिंग का कद बढ़ जाता है. ऐसा क्यों होता है कि ऑटो के स्टीयरिंग पर चिपका किसी मस्जिद का फोटो उधड़ जाता है. हमशक्ल दिखते लोगों के बीच वह कौन सा संतुलन है जो कुछ दिनों के भीतर इतना बिगड़ जाता है कि वे अपने पड़ोसी का कत्ल कर देते हैं. हाजिरा खातून जिन पडोसियों के घर रोटियां खाती थी वे इतने उन्मादी कैसे हो गए कि खा़तून को अपना गांव खेड़ी छोड़ना पड़ गया. इन सवालों के जवाब संसद के दरवाजे खोलकर आते हैं. जहां देश का हर नागरिक, धर्म और जाति में बांटकर वोट बन जाता है. जो संसद जाने की तैयारी में जुटी पार्टियों के लिए एक ‘ओट’ का काम करता है.

पिछले चार महीने से मुजफ्फर नगर, दंगे होने और दंगे गुजर जाने के बाद का शहर बना हुआ है. दंगाईयों के उन्माद कुछ दिनों के थे अब उन्माद के बाद का भय है, असुरक्षा है और कहीं पनाह न मिल पाने की बेबसी और एकजुट रहने का साहस है. दंगे में पीड़ित ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग अपना गांव छोड़कर कई किलोमीटर दूर चले आए हैं. उनके घर छूट चुके हैं, जानवर भी छूट चुके हैं. कई लोगों से बात करते हुए ऐसा लगा कि वे खुद को भी छोड़ आए हैं, उनके साथ बस एक मुसलमान चला आया है. शिविरों में मौलवियों का भाषण जिसे और मजबूत बना रहा है. उनके बच्चे, उनका परिवार है और उन सबके साथ उनके गांवों का भुगता हुआ का डर है. किन्हीं सड़क के किनारे उन्होंने झुग्गियां बना ली हैं. कई-कई गांव एक साथ हो गए हैं. हजार झुग्गियों वाले गांव, जिसने आसमान और जमीन के बीच लाल-नीली पालीथीन से खुद को ढक लिया है. एक साथ और एकजुट होना शायद उनके भय को थोड़ा कम करता है. हिन्दू उन्मादियों जो मुजफ्फर नगर की स्थानीयता में जाट हैं, उनसे खुद को उन्होंने बचा लिया है. सरकारों के लिए उनका जीवन-मौत, भय-आक्रोश, उजड़ना-बसना २०१४ के चुनाव में किन्हीं तारीखों का सवाल है. सभी पार्टियां इस सवाल को ठीक ढंग से हल कर लेना चाहती है.            

अलग-अलग पार्टियों के काफिले यहां घूम रहे हैं. सब यहां रोटियां सेंकना चाहते हैं और राहत शिविरों के लोग अपने चूल्हे पर रोटी छोड़कर यह देखने के लिए जुट रहे हैं कि बात-बेबात से रोटियां कैसे सेंकी जाती हैं. थोड़ी देर बाद भूख उन्हें फिर से उनकी झुग्गियों की तरफ लेकर चली जाती है. इस बीच मौत की संभावनाएं और बढ़ती गई है. कई बच्चों को निमोनिया ने जकड़ रखा है. इन मौतों को ठीक-ठीक सरकार के द्वारा की गई हत्या नहीं कहा जाता क्योंकि ऐसी हत्याएं ईश्वर की मंजूरी के बिनाह पर होती हैं. जबकि इतनी सारी हत्याओं के बाद ईश्वर को भी हत्यारा कहना मुमकिन नहीं. वोट की राजनैतिक विद्रूपताओं ने पिछले कुछ वषों में प्राकृतिक आपदाओं और मौसमों के बदलाओं को अपने सियासती संभावनाओं में तब्दील करने की प्रवृत्ति अपनाई है. साम्प्रदायिक दंगे में हुई हत्याओं से उपजी जन असुरक्षा, सरकारों और पार्टियों के लिए राजनैतिक रूप से सुरक्षा और सुविधा मुहैया कराती है. यह अखबारों के लिए ख़बर, गैर-सरकारी संगठनों के लिए ‘समाज-सेवा’, राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं के लिए जन ‘पक्षधर’ होने का समय है. वे सब व्यस्त हैं और एक मामूली हो चुकी सड़क की अहमियत बढ़ गई है. कई सफेद गाड़ियां उन पर घूम रही हैं. 
  
४ जनवरी वह आखिरी तारीख थी जब मुजफ्फर नगर के दंगा पीड़ितों को अपने कैम्प खाली कर देने का आदेश सरकार ने दिया था. एक कैम्प की कुछ झुग्गियां उठकर सांझक के कब्रिस्तान में जा चुकी हैं. यह अखबार की खबर है जिसने सरकार की भाषा में लोगों के शिविरों में बसने पर आपत्ति सी दर्ज की है. अमर उजाला अहमियत देते हुए अपनी पहली ख़बर में शिइर में बसे पीड़ित लोगों फटकार रहा है. उसका ऐसा मानना है कि मुख्यमंत्री यह तय करेगा कि राज्य में कौन कहां रहे, कहां न रहे, जिए या मर जाए. जनता ने उसे पांच साल के लिए यह अधिकार दे रखा है. झुग्गियों में बसने की बेबसी को दुसाहस की तरह दर्ज किया गया है. मौत और हत्याओं के पहले कब्रिस्तान में बसना एक प्रतीक सरीखे है. जैसे दफ्न होने से पहले अपनी कब्र का मुआयना कर लेना, जैसे कब्र में जाने की पूरी तैयारी खुद करना, जैसे दंगे में बचकर सरकारी आदेश से मर जाना. कई कैम्प के लोगों ने कैम्प छोड़ने से मना कर दिया है. लगातार पुलिस की गाड़ियां आकर झुग्गियां हटाने का दबाव बना रही हैं. प्रदेश का मुख्यमंत्री झुग्गियों में बसे लोगों को भाजपा और कांग्रेस के लोग कह रहा है. क्योंकि सरकार ने दंगे में हुई हत्याओं के मुआवजे दे दिए हैं. पर हत्याओं और मौतों की संभावनाओं से उपजे व्यापक भय का कोई मुआवजा किसी सरकार के पास नही है. किन्ही और हत्याओं के बाद सरकार फिर से उनकी मौत के मुआवजे दे सकती है. सरकारों का यही चलन है वह जिंदा लोगों के लिए कुछ नहीं करती. मुआवजे देकर वह लोगों के लाशों की कीमत अदा कर देती है. अलग-अलग हत्याओं में मारे गए लाशों की दरें तय कर दी जाती हैं. जो दो लाख से पांच लाख तक हो सकती है.

मलकपुर कैम्प दंगा पीड़ितों का सबसे बड़ा कैम्प है. कुल छः वार्डों का कैम्प और हजार से ज्यादा झुग्गियों वाला कैम्प. दोनों किनारों पर अस्थाई रूप से दो मस्जिदें भी बनाई जा चुकी हैं. इसलिए अस्थाई रूप से अल्लाह को भी यहां रहने की मजबूरी सी है और उसकी गवाही में ३२ लोगों की मौतें इस ठंड में यहां हो चुकी हैं. लोगों की जिंदगियां बचाने में जैसे वह असफल सा रहा हो. बोराखुर्द, कैथल, सिसोली अलग-अलग गांवों के लोग अब पड़ोसी हो चुके हैं. ये सब के सब पीड़ित हैं और सब के सब मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. यह कहते हुए मोदी, आडवानी और भाजपा के नेताओं का वह वाक्य याद आता है जिसे आतंकवाद और मुस्लिम के लिए वे अक्सर अपनी जन सभाओं में दुहराते रहते हैं. जिस समुदाय के आतंक में ये मुसलमान, झुग्गियों में रहने पर विवश हैं वे सब के सब हिन्दू हैं और शायद हिन्दू होने का उन्हें गर्व भी है. कैम्प छोड़ने के सरकारी आदेश पर बाते करते हुए अयूब, यासीन और सादिक खुद को अलाव से गर्म कर रहे हैं. कुछ झुग्गियों में चाय बन रही है और कुछ चूल्हों पर रोटियां सेंकी जा रही है. इन अस्थाई कैम्पों से जो बच्चे पढ़ने के लिए बगल के स्कूलों में जाते थे वे आज नहीं गए हैं. नजदीकी कस्बे में जो कुछ लोग मजदूरी के लिए जाते थे उनका काम आज बंद है. सरकार के आदेश को न मानने के लिए एक साथ और एकजुट रहना जरूरी है. सरकार उन्हें उनके घर लौटने का दबाव बना रही है. अनवर बताते हैं कि दंगे के कुछ दिन बाद उनका भाई काशिम घर के हालात देखने के लिए गांव की तरफ गया और दो महीने से नहीं लौटा. फिलहाल अनवर अपने भाई के न लौटने की आशंकाओं से घिरे हैं पर पड़ोसी उनकी आशंका को यकीन की तरह मान रहे हैं. उन्हें यकीन है कि अब वह कभी नहीं लौटेगा. यह उनकी असुरक्षा के प्रमाण हैं और यही वजहे हैं कि वे अपने गांव नहीं लौटना चाहते. कैम्पों में रहना मुश्किल है, अस्थायी जिंदगियां बसर करना दुरूह भी पर यह सब जीवन बच जाने के बाद की बातें हैं.

शम्सुद्दीन, मलकपुर कैम्प के पांच नम्बर वार्ड में रहते हैं. वे कहते हैं कि वे सभी वार्डों में रहते हैं, वे घूमते रहते हैं और अपनी स्थितियों के साथ शिविर के और परिवारों का जायज़ा लेते रहते हैं. वे नज़्म लिखते हैं और शिविर के बच्चों को नजदीक के मदरसे में भेजने के लिए कहते हैं. एक अस्थायी जिंदगी में यह स्थायीत्व सा प्रयास है. वे हमे स्थानीय और उर्दू भाषा में मिश्रित अपनी लिखी एक नज्म सुनाते हैं. जिसके मायने हैं कि लफंगे, चौधरी हो गए हैं. चुनाव और वोट की राजनीति गुंडों का त्योहार बन गई है. जब इनका काम निकल जाता है तो नेता अपनी नज़र घुमा लेते हैं और ओड़ी-सोड़ी बात करते हैं. शमसुद्दीन कहते हैं कि हमे कोई सरकार नहीं बचाएगी. जब हमे कैम्पों से हटा दिया जाएगा तो हर जगह ऊपर आसमान है और नीचे जमीन हम इसी के बीच कहीं ठहर जाएंगे. यह एक बड़ा दायरा है और इसके बीच ठहरना नाउम्मीदी की हद तक गुजर जाने की बयानी है. कैम्प से कुछ लोग आज आसपास के गांवों की तरफ गए हैं. ताकि समर्थन जुटाया जा सके. ताकि कैम्प हटाने से बचाया जा सके. ज्यादातर महिलाएं चूल्हे पर कुछ न कुछ पका रही हैं, जैसे वे पकाती आई हैं. थोड़ी आग और थोड़ा धुआं हर झुग्गी पर दिख रहा है. 

नूरपुर खुरगान कैम्प में राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए हैं. किसी दिन की गुनगुनी धूप में यहां आकर राहुल गांधी ने अपना ‘फर्ज अदा’ कर दिया है. बच्चों को कपड़े बांटे गए हैं जिस पर ‘कांग्रेस’ लिखा हुआ है. इसी ‘कांग्रेस’ को पहनकर वे दिनभर झुग्गियों और सड़कों पर घूमते हैं. बच्चों के लिए यह ठंड से बचने की मजबूरी है और उनकी पीठ कांग्रेस के प्रचार के लिए जरूरी है. २०१४ के गर्मियों तक सभी पार्टियों को इस तरह के पीठ की जरूरत है. भाजपा कुछ पीठों को नंगा करती है और कुछ पार्टियां उसे ढक देती हैं. इस तरह से नंगा करने वाला भाजपा का और नंगा होने वाला ढंकने वाले का हो जाता है. साइस्ता इस कैम्प के पहले छोर पर रहती है, वे बागपत के तिलवाड़ा गांव से हैं. वे मानती हैं कि सब गड़बड़ हैं, कांग्रेस थोड़ी ठीक है. उसने ही हमारी थोड़ी मदद की है. उनके पति मोहसिन पेंटर का काम करते थे. पिछले तीन महीने से वे इसी कैम्प में रह रही हैं. यहां से उनके नातेदारों के घर नजदीक हैं. गांव में कुल दस घर मुस्लिमों के थे. दंगे के भय से सब चले आए. सब के सब अब नूरपुर कैम्प की झुग्गियों में रह रहे हैं. वे गांव जाने के बजाय यहां मरने को बेहतर मानती हैं. वे कहती हैं कि यहां अपने लोग हैं. कम से कम मरने के बाद वे दफन तो कर देंगे. कम से कम हमारी इज्जत तो बची रहेगी. उनके पड़ोस की झुग्गी डूंगर गांव मुजफ्फर नगर की है.

 दंगे के वक्त जब रात में वे लोग भागे तो अपने साथ एक बूढ़े को न ला सके. बाद में उन्हें पता चला कि मेरू नाम के उस बूढ़े को फासी लटकाकर मार दिया गया. दंगाई उनके जानवर अपने घर लेकर चले गए. इन सबके पास गांव में जमीने नहीं थी. जितना बड़ा इनका घर था उतनी ही बड़ी कुल जमीन थी. पर वह जमीन इन झुग्गियों से बड़ी थी और स्थाई भी. मौत और हत्याओं के भय से अपने घर को फिर से पाने की उम्मीद उन्होंने छोड़ दी है. ज़ाकिर कहते हैं कि आने वाले चुनावों के चलते यह सब और ज्यादा बढ़ सकता है. वे बेहद गरीब लोग है, बहुत कम पढ़े-लिखे, मुसलमानों की स्थिति के लिए बरसों पहले बनाई गई सच्चर कमेटी की फाइलों में दर्ज ये वे लोग हैं जिनके हालात पिछले कई सालों से सरकारें सुधारने का वायदा कर रही थी और कर रही हैं. अपने जीवन के अनुभवों से उन्होंने चुनाव, हिंसा और भय को पढ़ लिया है. इस बार ये समाजवादी पार्टी से नाराज है और कांग्रेस को ठीक मान रहे हैं, इसके पहले नाराज हुए थे तो बहुजन समाज पार्टी की तरफ गए थे. वे अपनी हालातों और प्रायोजित दुर्घटनाओं के चलते पार्टियां बदल देते हैं पर इस सब के बीच जो स्थायी बचा रह जाता है वह है उनके हालात.

इसके अगले पड़ाव में कुछ ही दूरी पर एक मदरसा है. जिसके बगल में बनाए गए कैम्प को मदरसा कैम्प कहा जाता है. यह पिछले कैम्पों से छोटा है. शाहीन, फातिमा, ज़ोया ये बच्चियां है जिनकी ठंड और बीमारी से मौत हो चुकी है. इसके अलावा भी और कई बच्चे मर चुके हैं. जुवैदा और अनवरी खा़तून सरकारी आदेश से क्रोधित हैं. वे कहती हैं कि इस मौसम में कैम्पों में रहना हमारी चाहत नही है, यह हमारी मजबूरी है. यहां हम सब एक साथ हैं. अगर सरकार ने हमे यहां से भी हटाया तो हम कहां जाएंगे पर उनमे निराशा या हताशा के भाव नहीं हैं. वे एक मोटा सा डंडा उठाती हैं और कहती हैं कि हमने तय कर लिया है कि अगर हमे हटाया गया तो हम कहीं नहीं जाएंगे. हम सरकार को मार देंगे या मर जाएंगे. मर्दों से यह न होगा, हम ही लड़ेंगे उनसे, हम यहीं पर रहेंगे.

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