05 January 2014

दंगाईयों से धर्म के अधार पर भेदभाव करना कितना सही?

उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने लोक सभा चुनाव पास आते ही वोट बैंक के लिए अपने सियासी एजेंडे में जुट गई है। मुजफ्फरनगर में दंगों से पहले भड़काऊ भाषण देने के आरोपी बीएसपी और कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं से सरकार केस वापस लेने की तैयारी कर रही है। जिन नेताओं पर उकसाने वाला भाषण देने का आरोप है उनमें बीएसपी सांसद कादिर राना, उनके भाई और बीएसपी विधायक नूर सलीम राना, विधायक मौलाना जमील, पूर्व गृह राज्यमंत्री सईदुज्जमा समेत कई नेता शामिल हैं। यूपी सरकार के इस फैसले से सवाल भी उठने लगा है कि क्या ये दंगा किसी सोची समझी राजनीति का हिस्सा था। जिसे अंजाम देने के बाद अब खानापूर्ती करने की तैयारी शुरू हो गई है।

यूपी सरकार के इस फैसले को लेकर बीजेपी और कांग्रेस ने हल्ला बोल दिया है। दोनों पार्टियों ने इस कदम को महज सरकार की वोट बैंक नीति करार दिया है। अखिलेश सरकार कि किरकिरी इससे पहले भी वोट बैंक को लेकर किए गए मुआवजे के ऐलान पर हो चुकी है। पांच लाख लो और राहत शिविर छोड़ो पॉलिसी की लोगों ने जमकर आलोचना कि थी। अल्पसंख्यक नेताओं के खिलाफ दंगे का केस वापस लेने की अखिलेश सरकार की कोशिश पर कानून के जानकारों का मानना हैं कि केस की जांच के दौरान इसे वापस लेने की ये कोशिश सिर्फ एक वर्ग को खुश करने की राजनीति है।

स्थानीय अदालत द्वारा आरोपियों के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट भी जारी किया जा चुका है। सईदुज्जमां और 3 अन्य आरोपियों को छोड़कर कादिर राणा सहित अन्य सभी आरोपी फिलहाल जमानत पर हैं। एसआईटी इस मामले की जांच कर रही है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि दंगाईयों से धर्म के अधार पर भेदभाव करना कितना सही?

दंगा पीडितों से भेदभाव

यूपी सरकार द्वारा भेदभाव करना कोई नई बात नहीं है। इससे पहले कई ऐसे मौके आये हैं जब अखिलेश सरकार कि भदपीट चुकी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरनगर दंगा पीडितों से नीतिगत तौरपे भेदभाव करने पर उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी। कोर्ट ने अखिलेश सरकार की अधिसूचना रद्द कर नई अधिसूचना जारी करने का आदेश दिया था।

संविधान के 42वें संशोधन में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष षब्द को जोड़ा गया था ताकी सभी लोगों को देश में एकसूत्र में बांध करन चलने की परंपरा कायम हो सके। साथ ही किसी के साथ धर्म के अधार पर भेदवाव नहीं हो सके। मगर अपने आप को समाजवाद का पुरोध्दा बताने वाली पार्टी आज खुद दंगापीडि़तों के साथ भेदभाव करके कटखरे में है। राज्य सरकार की ओर से जारी अधिसूचना में कहा गया था कि 90 करोड़ रुपये मुस्लिम परिवारों के पुनर्वास दी जारही है। इनमें से पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा मुस्लिम पीडितों को देने की व्यवस्था की गई थी।

दंगा पीडि़तों में इस वक्त कंबल बांटने की भी होड़ मची हुई है। मगर वहीं दुसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जो जिसे ‘ऊन के कंबल’ की जगह ‘इंसाफ के कंबल’ की जरूरत है। जिससे वह अपने पीड़ा को सकून दे सके। फिर भी अखिलेश सरकार को लोगों को इंसाफ देने की जगह अपनी वोट बैक ही नज़र आरही है। आज जहां पर दिलों में आई दरार को पाटना। नफरत की बारिश में प्यार के गुलमुहर खिलाने कि जरूरत है वहा सरकार भेदभाव करके लोगों में कभी नहीं भरने वाला जख्म को बार बार किसी न किसी बहाने उभार कर राजनीति का प्यादा बनाना चाहती है। ऐसे में आज के बदले सियासत ने समाजवाद की परिभाशा को नये सिरे से सोचने पर मजबूर करता है।

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