भले ही कुछ दिग्गज वित्तीय/बैंकिंग, कारोबारी
या मेगा औद्योगिक कॉरपोरेट-समूहों में महिलाएँ शीर्ष पदों पर पहुँच जायँ
लेकिन वहाँ की श्रमशक्ति में स्त्रियों की हिस्सेदारी बहुत ही कम है।
भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के ‘सेण्टर ऑफ एक्सीलेंस फॉर सस्टेनेबुल
डेवलपमेण्ट’ (सीईएसडी) ने अभी एक सर्वेक्षण पूरा किया है जो ‘बिज़नेस
रेसपांसिबिलिटी इण्डिया सर्वे, 2013’ के नाम से जारी हुआ है। उस सर्वेक्षण
में बाज़ार पूँजीकरण की दृष्टि से चोटी की 200 कम्पनियों को शामिल किया गया
है। उनमें 56 प्रतिशत कम्पनियाँ ऐसी हैं जिनकी श्रमशक्ति में स्त्रियों की
भागीदारी 10 प्रतिशत से भी कम है।
अमरीकी पत्रिका ‘फोर्ब्स’ ने कॉरपोरेट कारोबारी दुनिया की उन 50
महिला लीडरों की ‘ग्लोबल’ सूची जारी की है, जो सबसे ज़्यादा रुतबा या
रसूख़ रखती हैं। इस सूची में 4 भारतीय महिलाएँ भी शामिल हैं। इसमें
आईसीआईसीआई बैंक की एमडी एवं सीईओ चन्दा कोचर को चौथा स्थान मिला है। 17
वें स्थान पर हैं चित्रा रामकृष्णा, जो नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की एमडी एवं
सीईओ हैं। एक्सिस बैंक की एमडी एवं सीईओ शिखा शर्मा 32वें स्थान पर तथा इसी
प्रकार भारत में एचएसबीसी की कंट्री हेड व एचएसबीसी एशिया-पैसिफ़िक की
निदेशक नैना लाल किदवई 42वें स्थान पर हैं। ‘फोर्ब्स’ की सूची आने से काफ़ी
पहले अगर अरुन्धती भट्टाचार्य भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन के पद पर
आसीन रही होतीं, तो सम्भवतः उनका नाम भी इस सूची में शामिल रहता। ध्यान रहे
कि गत 13 अक्टूबर को सुश्री भट्टाचार्या ने स्टेट बैंक की कमान सँभाली थी
और ‘फोर्ब्स’ द्वारा तैयार सूची उजागर हुई 20 अक्टूबर को। अमरीका के लिए
अलग से ऐसी सूची जारी हुई है, जिसमें भारतीय मूल की इन्दिरा नूयी ने अपना
दूसरा स्थान बरकरार रखा है।
वर्ष 2011 से ‘फॉर्च्यून इण्डिया’ भारत की 50 सबसे ज़्यादा ताक़तवर
कारोबारी नेत्रियों की सूची जारी कर रहा है। इस बार यानी वर्ष 2013 में
आईसीआईसीआई बैंक की एमडी एवं सीईओ चन्दा कोछड़ इस सूची में पहला नाम है। वे
लगातार तीसरी बार प्रथम स्थान पर क़ाबिज़ रहने में कामयाब रही हैं। शिखा
शर्मा (एक्सिस बैंक), अरुणा जयन्ती (कैपजेमिनी इण्डिया), प्रीता रेड्डी
(अपोलो हॉस्पिटल्स), मल्लिका श्रीनिवासन (टैªक्टर्स ऐण्ड फॉर्म
इक्विपमेण्ट), शोभना भरतिया (एचटी मीडिया), किरण मजूमदार-शॉ (बॉयोकान),
जिया मोदी (एजे़डबी), विनीता बाली (ब्रिटानिया) और नैना लाल किदवई
(एचएसबीसी) क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठें, सातवें, आठवें,
नौवें और दसवें स्थान पर हैं। इस बार उक्त सूची में 7 नये शामिल भी हुए
हैं- यास्मीन हिल्टन (चेयर पर्सन, शैल इण्डिया), वनिता नारायण (एमडी,
आईबीएम इण्डिया), अनीता डोंगरे (फैशन डिज़ाइनर), एन भुवनेश्वरी
(वाइस-चेयरपर्सन एवं एमडी, हेरिटेज फूड्स), आशु सुयश (सीईओ, एल ऐण्ड टी
इंवेस्टमेण्ट मैनेजमेण्ट) और अवनि सागलानी दावदा (सीईओ, टाटा-स्टारबक्स
इण्डिया)। इसमें अन्य जिन लोगों के नाम उल्लेखनीय हैं वे हैं - बालाजी
टेलीफ़िल्मस की एकता कपूर, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की चित्रा रामकृष्णा और
एचडीएसी की रेणु सूद कार्नाड।
कॉरपोरेट-नीत भूमण्डलीकरण के दौर में देश की कुछ महिला बिज़नेस लीडर
वैश्विक स्तर पर अगर अपनी पहचान, साख़ या प्रभुता स्थापित कर लेती हैं, तो
इससे यह भ्रम बिल्कुल नहीं पालना चाहिए कि आम औरतें आर्थिक या कारोबारी व
वित्तीय दृष्टि से सम्पन्न, सशक्त या स्वावलम्बी हो चुकी हैं। दरअसल
वैश्वीकृत अर्थतन्त्र के चलते दरिद्रता के महासिन्धु में अतिशय समृद्धि के
कुछ टापू ज़रूर उभरे हैं जहाँ विशिष्ट सुविधाभोगी, विशेषाधिकार-सम्पन्न,
शक्तिसामन्त और सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र अभिजन रहते हैं। इन महामहिम धनकुबेरों
में शामिल स्त्रियों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि आधी आबादी को ईमान
की रोटी और इज़्ज़त की ज़िन्दगी मयस्सर है।
देश की कुल कामकाजी आबादी में पिछले दो दशकों 1981-91 एवं 1991-2001 के
मुकाबले 2001-2011 के दशक के दौरान स्त्री कामगारों या श्रमजीवियों के
अनुपात में कमी आयी है। 1981 के दौरान कुल कामकाजी आबादी में स्त्रियों की
भागीदारी 19.7 फ़ीसदी थी जो 1991 में बढ़कर 22.3 फ़ीसदी हो गयी थी। यह आँकड़ा
बढ़कर 2001 में 25.6 फ़ीसदी तक पहुँच गया था जो अब घटकर 2011-12 में 21.9
फ़ीसदी हो गया है। यह बात उजागर हुई है राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 68वें
चक्र के निष्कर्षों से। विशेषज्ञ तरह-तरह से इन आँकड़ों की व्याख्या कर सकते
हैं लेकिन एक बात तो तय है कि वर्ष 2001 से कॉरपोरेट -हितैषी आर्थिक
सुधारों की दूसरी खेप की शुरुआत होती है और उसी समय से कामकाजी आबादी में
महिलाओं की संख्या घटती जाती है। 2001 में महिलाओं की लगभग एक-चौथाई
हिस्सेदारी कुल श्रम शक्ति में थी जो क्रमशः घटकर 2011-12 में लगभग पाँचवें
हिस्से पर जा पहुँचती है। दरअसल यही वह दौर है जब कुछ कारोबारी महिलाएँ
व्यावसायिक, वित्तीय या विनिर्माता कॉरपोरेट-समूहों में शीर्ष पदों पर
क़ाबिज हो जाती हैं। इन्हीं चुनिंदा नामचीन महिलाओं के हवाले से यह कहा जा
रहा है कि भूमण्डलीकरण के दौर में जिस प्रकार पुरुष महाबली बनकर वैश्विक
स्तर पर कॉरपोरेट-समूहों के साम्राज्य-विस्तार या बाज़ार-अधिग्रहण के
दिग्विजय अभियानों का नेतृत्व कर सकते हैं, उसी प्रकार महिलाएँ भी सबला या
महाबला बनकर ग्लोबल बिज़नेस लीडर बन सकती हैं और इण्टरनेशनल पावर 50 या 100
में शामिल हो सकती हैं।
इस समय देश में कोई 17 करोड़ स्त्रियाँ खेतीबाड़ी और उससे जुड़ी अनगिनत
गतिविधियों से सीधे-सीधे जुड़ी हुई हैं। वे 60 से लेकर 80 फ़ीसदी तक अनाजों,
फल-सब्ज़ियों जैसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन करती हैं। डेयरी के कारोबार
में उनकी 90 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। जहाँ तक खेतिहर ज़मीनों के मालिकाना हक़ का
सवाल है, उनके नाम सिर्फ़ 13 फ़ीसदी ज़मीन दर्ज है। ज़्यादात़र गाँवों और
खेतिहर समाजों में किसान के तौर पर स्त्री की पहचान अभी भी नहीं बन पायी
है, वह सिर्फ़ गृहिणी-भर है। ऑक्सफाम इण्डिया ने 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य
दिवस के अवसर पर जो तथ्य-पत्र जारी किया है, उससे ये खुलासे हुए हैं।
तथ्य-पत्र में यह भी कहा गया है कि एक फ़सल उगाने के दौरान एक महिला किसान
आम तौर पर 3,300 घण्टे काम करती है जबकि पुरुष किसान 1,860 घण्टे। इस देश
में किसानी की परख कृषि कर्म से नहीं होती, बल्कि इस बात से होती है कि
सरकारी अभिलेखों में ज़मीन किसके नाम दर्ज है! सरकारी तन्त्र उसी को किसान
मानता है जो भूस्वामी है।
गाँवों में स्त्रियाँ खेत-खलिहान में मर-खप रही हैं। वे फ़सलें उगाने के
लिए ज़मीन तैयार करती हैं, बीज बोती हैं, उगने पर पौधों की परवरिश करती हैं,
फ़सलें काटती हैं, दुधारू पशुओं की देखभाल करती हैं, उपज का रखरखाव करती
हैं और आखि़रकार खाना पकाकर थाली में परोसती हैं, लेकिन विडम्बना है कि वे
किसान नहीं हैं, जबकि वे ज़मीन पर हैं, भले ही कागज़ में न हों। खेती-किसानी
में अब स्थानीय स्तर पर बनने वाले उपकरणों या औज़ारों का इस्तेमाल तेज़ी से
घटता जा रहा है। उनके स्थान पर कॉरपोरेट-समूहों द्वारा बनायी जा रही मशीनों
की खपत बेतहाशा बढ़ती जा रही है। बड़े-बड़े यन्त्र आने से खेतिहर मज़दूरों और
यहाँ तक कि किसान परिवारों के घरेलू सदस्यों की भागीदारी कृषिकार्यों में
कमतर होती जा रही है। खेतीबाड़ी में इस्तेमाल की जा रही मशीनें पुरुष ही
चलाते हैं क्योंकि दैत्याकार मशीनों पर एकाधिकार या वर्चस्व पुरुषों का
हैं। पहले कृषि कार्यवृत्त में स्त्री केन्द्र में थी पर अब उसे परिधि पर
धकेला जा रहा है।
हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था में हमेशा से अनौपचारिक या परम्परागत
क्षेत्र का दबदबा रहा है जिसमें अधिकांशतः स्त्रियाँ स्वरोज़गाररत हैं। इस
क्षेत्र में तरह-तरह के बेशुमार उत्पादक, कारोबारी और सेवामूलक व्यवसायों
का जाल बिछा रहा है। इन घरेलू-स्थानीय या आंचलिक छोटे-मझोले उद्योग-धन्धों
में स्त्रियाँ बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती रही हैं। आज ऐसी अनगिनत रोज़गारदायी
उत्पादक इकाइयों, गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों का लोप होता जा रहा है।
दोहरी मार पड़ रही है- एक तरफ बाहर से बेरोकटोक जारी भारी मात्रा में सस्ते
आयात इनकी क़मर तोड़ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ बड़े-बड़े प्रौद्योगिकी-प्रधान,
पूँजी-सघन और रोज़गारभक्षी विनिर्माण-संयन्त्र, उत्पादन-संकुल या
कल-कारख़ाने लग रहे हैं जिनसे खेतीबाड़ी उजड़ रही है, रोज़ी रोटी के पुश्तैनी
या बुनियादी स्रोत सूख रहे हैं, स्थानीय लोगों या समुदायों का विस्थापन हो
रहा है और पर्यावरण का सर्वनाश हो रहा है। बहुमात्र उत्पादन पर टिका
कॉरपोरेट-केन्द्रित मॉडल समूल विनाश कर रहा है उस मॉडल का, जो मॉडल ‘लोगों
द्वारा उत्पादन’ पर टिका हुआ है। कुल मिलाकर इन सबके फलस्वरूप अनौद्योगीकरण
का भीषण संक्रामक रोग देश-भर में फैला हुआ है जिसकी चपेट में सबसे पहले
महिलाएँ आ रही हैं।
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