बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ नाइंसाफी और
मजहबी हिंसा कोई नयी बात नहीं है। बांग्लादेश निर्माण के साथ ही हिन्दुओं
के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ गया था। 1971 के युद्ध में हिन्दुओं के बड़े नेता
ज्योतिरमोय गुहा ठाकुरता, गोविन्द चन्द्र देब और धीरेन्द्र नाथ दत्ता की
हत्या मजहबी मानसिकता से ग्रसित व पाकिस्तानी सेना के समर्थक संगठनों ने कर
दी थी। तीसरी बार सत्ता संभाल रहीं बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना
ने हिन्दुओं पर हो रही हिंसा को रोकने के आदेश विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों
को दिये हैं फिर भी हिन्दुओं पर बीएनपी और जमात ए इस्लामी के कार्यकर्ताओं
के हमले बंद नहीं हुए हैं। पूरे बांग्लादेश में हिन्दुओं को निशाना बनाया
गया है, सैकड़ों हिन्दुओं के घरों को आग के हवाले कर दिया गया है और उनकी
सम्पत्तियां लूट ली गयी हैं। बांग्लादेश में उदारवादी और भारत समर्थक शेख
हसीना की सरकार है जो अभी-अभी एकतरफा चुनावों में जीत हासिल की है और फिर
से सरकार का कार्यकाल संभाल लिया है।
शेख हसीना की बीएनपी के नेता जिया और जमात ए इस्लामी पार्टी के
साथ राजनीतिक टकराव चरम पर है। बीएनपी और जमता ए इस्लामी पार्टी यह मानती
है कि बांग्लादेश की हिन्दू आबादी शेख हसीना की समर्थक है, जिसके कारण शेख
हसीना को संसदीय चुनावों में जीत मिलती है। बांग्लादेश की बिगड़ती राजनीतिक
स्थिति और उत्पन्न होती गृहयुद्ध जैसी स्थिति से भारत की चुनौतियां बढ़
जाती हैं। भारत को बांग्लादेश की लगातार बिगड़ती स्थिति, हिन्दुओं के
कत्लेआम और सत्ता-विपक्ष के बीच राजनीतिक तकरार पर पैनी दृष्टि रखनी होगी
और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के साथ मिलकर बांग्लादेश में राजनीतिक तकरार पर
विराम लगाने के प्रयास करने होंगे, अगर भारत ऐसा करने में विफल रहा तो फिर
बांग्लादेश में भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान की तरह असहज और ग्रास जैसी
कूटनीति का सामना करना होगा।
बांग्लादेश के निर्माण में भारत की भूमिका सर्वविदित है, अगर भारत ने
सैनिक हस्तक्षेप नहीं किया होता और मुक्ति वाहिणी को सैनिक, आर्थिक और
राजनीतिक संरक्षण-सहायता नहीं की होती तो हम निश्चित तौर कह सकते हैं कि
बांग्लादेश का निर्माण सं व ही नहीं होता? पाकिस्तान की सैनिक हिंसा का
शिकार तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के लोग होते रहते और उनके राजनीतिक अधिकार
वैसे ही कुचलते रहते जैसे कुचले जा रहे थे। पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति
वाहिनी के झंडे तले हिन्दू-मुस्लिम बंगालियों ने साथ-साथ लड़ाई लड़ी थी, उस
समय मजहबी आधार पर राजनीतिक-सामाजिक सोच जैसी कोई विखंडन भी नहीं था।
मुक्ति वाहिनी के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान की
हत्या से पाकिस्तान को एक बार फिर बांग्लादेश में घुसपैठ और मजहबी आधार पर
घृणा करने का अवसर मिला था। शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या में पाकिस्तान
समर्थकों और मजहबी मानसिकता से ग्रसित संगठनों का प्रत्यक्ष हाथ था।
बांग्लादेश पर मुक्ति वाहिणी के संघर्ष, पाकिस्तान विरोध की अस्मिता लगातार
कमजोर पड़ी। इसका लाभ पाकिस्तान ने भारत विरोधी भावनाएं फैलाकर उठाया।
पाकिस्तान ने बांग्लादेश में मजहबी आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी
के बीच विखंडन की खतरनाक स्थितियां उत्पन्न करने में कामयाब हुआ, और आईएसआई
के मजहबी आधार पर बुने हुए जाल बांग्लादेश की उदारता व अल्पसंख्यक अधिकार
फंसते-कुचलते चलते गये। बांग्लादेश में जमात ए इस्लामी पार्टी सीधेतौर पर
मजहबी शासन की पैरवीकार है।
बांग्लादेश में राजनीतिक रार कैसे समाप्त हो और अल्पसंख्यक हिन्दुओं की
सुरक्षा कैसे संभव हो सके, यह एक बड़ी और अंतर्राष्ट्रीय चिंता की बात है।
शेख हसीना की सरकार ने मजहबी हिंसा को जमींदोज करने के साथ ही साथ उदारवादी
राजनीतिक प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाने के लिए जरूर कृतसंकल्प हैं। एक नहीं
बल्कि कई वैसे मजहबी नेताओं को फांसी पर लटकाया जा चुका है जिन्होंने 1971
के युद्ध में पाकिस्तान सैनिकों के साथ दिया था और अल्पसंख्यक हिन्दुओं के
कत्लेआम के दोषी थे। शेख हसीना ने अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या
में शामिल जमात ए इस्लामी के नेताओं को खोज-खोज कर निकाला और उन्हें कानूनी
प्रक्रिया के तहत दोषी ठहरा कर फांसी पर लटकाया है। आतंकवादी मानसिकताओं
को भी जमींदोज करने की कोशिश हुई है। शेख हसीना को इसमें पुलिस-सेना और
न्यायापालिका का भी साथ मिला है।
सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश का न्यायापालिका अभी भी न केवल उदार है
बल्कि वह मजहबी रंग में नहीं रंगी है। मुस्लिम बहुलता वाले देशों में
सरकार, पुलिस, सेना और न्यायपालिका भी मजहबी रंग में रंगी होती है, जिस
कारण अल्पसंख्यकों के प्राकृतिक और नैतिक अधिकारों को संरक्षण नहीं मिल
पाता है, इसका उदाहरण पाकिस्तान है, अरब देश हैं, जहां पर अल्पसंख्यक मजहबी
हिंसा के लगातार-नियमित शिकार हैं और उनकी संख्या लगातार घट रही है। कभी
बांग्लादेश की जिया सरकार ने भी बांग्लादेश को जमात ए इस्लामी के साथ मिलकर
मजहबी कार्ड खेले थे और मजहबी खतरनाक हिंसा-मानसिकताओं को संरक्षण दिया
था। बांग्लादेश भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह आतंकवाद की फांस में
कैद हो गया था। जिया सरकार के सत्ता से बाहर होना, बांग्लादेश के लिए वरदान
साबित हुआ है। शेख हसीना ने बांग्लादेश को चरमपंथ से बाहर निकालने की जो
कोशिश की है और बहादुरी दिखायी है, उसके लिए पूरी दुनिया उन्हें शाबासी
देती है। खासकर भारत के लिए भी राहतकारी स्थिति बनी हुई है। बांग्लादेश की
ओर से होने वाली आतंकवादी घटनाओं में एक हद तक रोकने में हमें कामयाबी मिली
हुई है।
शेख हसीना साहसी हैं, दृढ़ संकल्पित भी हैं पर राजनीति टकराव को टालने
में वह दूरदर्शी साबित नहीं हुई है और उन पर भी तानाशाही जैसी स्थितियां
कायम करने के आरोप लगे हैं। लोकतंत्र में जय-पराजय का आधार जनादेश है।
बांग्लादेश के संविधान में एक निष्पक्ष सरकार में संसदीय चुनाव कराने का
प्रावधान था। शेख हसीना भी निष्पक्ष सरकार के अधीन हुए संसदीय चुनाव में
जीत दर्ज की थी। सत्ता में आने के बाद शेख हसीना ने संविधान में संशोधन कर
निष्पक्ष सरकार के अधीन संसदीय चुनाव कराने के प्रावधान को समाप्त कर दिया।
इस प्रावधान को समाप्त करने का विरोध बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी ने
किया था। शेख हसीना सरकार के पांच साल पूरे होने के बाद हुए संसदीय चुनाव
का विपक्ष ने बहिष्कार कर दिया। विपक्षी पार्टी बीएनपी और उसके नेता जिया
का कहना था कि जब तक निष्पक्ष सरकार के अधीन संसदीय चुनाव नहीं कराये
जायेंगे तब तक वह संसदीय चुनाव में भाग नहीं लेंगी।
शेख हसीना की तमाम कोशिशें बेकार गयी। बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी
अपनी मांगों पर अड़ी रहीं। बांग्लादेश में लंबी हड़तालें हुईं, हिंसा की
लपटों ने कई जानें ले लीं। अतंराष्ट्रीय स्तर पर भी बांग्लादेश के इस
राजनीतिक रार ने घ्यान खींचा। अमेरिका-यूरोप के पर्यवेक्षण में बांग्लादेश
में संसदीय चुनाव हुए, जिसमें शेख हसीना को जीत मिली है, शेख हसीना को लग ग
आधे संसदीय सीटों पर निर्विरोध जीत मिली है। जहां तक आम आदमी का सवाल है
तो संसदीय चुनावों में उनकी दिलचस्पी बहुत ज्यादा नहीं रही है, वोटिंग
प्रतिशत भी काफी कम रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में शेख हसीना भी यह दावा
नहीं कर सकती कि उन्हें जनता का निर्णायक समर्थन हासिल है और उनके पक्ष में
बांग्लादेश की जनता है। अमेरिकी-यूरोपीय कूटनीति भी यह चिंता जाहिर कर
चुकी है कि बांग्लादेश के राजनीतिक टकराव को टाला जाना चाहिए और सत्ता व
विपक्ष के बीच सर्वानुमति के आधार पर सरकार का गठन किया जाना चाहिए।
बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी को इस आधार पर हिन्दुओं के कत्लेआम या
फिर हिन्दुओं की सम्पत्तियों के लूट का अधिकार नहीं मिल जाता कि हिन्दू
सत्ताधारी आवामी लीग और शेख हसीना के समर्थक हैं। यह भी सही है कि शेख
हसीना की सरकार के दौरान हिन्दू आबादी अपने आप को ज्यादा सुरक्षित और
संरक्षित महसूस करती हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में अल्पसंख्यकों
के प्राकृतिक-नैतिक अधिकार सुरक्षित और संरक्षित हैं। बांग्लादेश संयुक्त
राष्ट्र संघ का सदस्य है, इसलिए वह हिन्दुओं ही नहीं बल्कि अन्य सभी
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए जिम्मेवार है। भारत और
अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति को हिन्दुओं की हत्या रोकने के लिए बीएनपी-जमात ए
इस्लामी पार्टी पर दबाव बनाना चाहिए।
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