जनता ने सादगी की जितनी अपेक्षाएं केजरीवाल
सरकार से लगा ली हैं, उनमें यही होना था, जो हो रहा है। उनकी हर हरकत पर
पैनी नजर रखी जा रही है। तभी तो लोगों ने अरविंद केजरीवाल को टाइप सिक्स का
डबल डुप्लेक्स बंगला मिलने पर इसका सबब पूछ लिया। ‘मुख्यधारा’ के किसी
राजनीतिक दल के किसी मुख्यमंत्री को इससे भी बड़े फ्लैट अलॉट हो जाते, तो
यकीनी तौर पर सवाल नहीं उठते। अभी तक उठे भी नहीं हैं। अरविंद केजरीवाल
सरकार के सामने सुशासन देने से ज्यादा बड़ी अपनी ‘कमीज’ उजली रखने की चुनौती
दरपेश है। कहीं ऐसा न हो कि ‘आप’ न तो अपनी कमीज उजली रख पाए और न ऐसा
सुशासन दे पाए, जिसकी उम्मीद पूरे हिंदुस्तान और दीगर दुनिया ने भी लगा रखी
है। गाड़ी बंगला विवाद के बाद केजरीवाल का छोटे घर में रहने का फैसला
संकेत है कि वे विरोधियों और मीडिया के दबाव में आ गए हैं। इसे अच्छा संकेत
नहीं कहा जा सकता।
यह समझ से परे है कि आखिर उनके विरोधी और आलोचक चाहते क्या हैं?
क्या यह कि किसी राज्य का मुख्यमंत्री दीन-हीन बनकर रहे और वे सुविधाएं भी
न ले, जो उसका अधिकार, और जरूरत हैं? किसी भी मुख्यमंत्री को इतनी जगह
मिलनी ही चाहिए, जहां बैठकर वह उन वादों को पूरा कर सके, जो उसने जनता से
किए हैं। ठीक है कि अरविंद ने दबाव में आकर छोटी जगह लेने की बात कही है,
लेकिन सवाल यह है कि क्या वह छोटी जगह पर अपने काम को ठीक तरह से अंजाम दे
पाएंगे? यदि अरविंद सरकार को छोटी-छोटी बातों पर घेरा जाएगा, तो शायद वह
ऐसा कुछ न कर पाए, जिसकी आशा जनता ने उससे लगा रखी हैं। सादगी का मतलब यह
नहीं होता कि मुख्यमंत्री सरकारी काम के लिए भी अपनी गाड़ी का इस्तेमाल करे।
अगर वह ऐसा करेगा, तो इतना पैसा कहां से लाएगा? व्यक्तिगत आवास में रहेगा,
तो उसके मेंटिनेंस का खर्च कौन उठाएगा? क्या मुख्यमंत्री भी पुलिस की तरह
सरकारी जीप में तेल डलवाने के लिए भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाए? क्या ऐसा
करना किसी को भी भ्रष्टाचार की ओर ले जाना नहीं होगा? हां, जब किसी को यह
दिखाई दे कि दिल्ली का मुख्यमंत्री या कोई मंत्री-विधायक अपने बच्चों को
सरकार गाड़ी में कनॉट प्लेस पर आइसक्रीम खिलाने ले जा रहा है, तो वाकई यह
बुरी बात होगी।
जब गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तो उनके सामने एक
बैठक में हुए खर्च का बिल आया, जिसमें चाय के साथ नाश्ते का बिल भी जुड़ा
था। पंत ने कहा कि सरकार की ओर से तो सिर्फ चाय का प्रावधान है, यह नाश्ते
का बिल किसलिए? जवाब आया कि चाय के साथ नाश्ता भी है, तो क्या फर्क पड़ता
है? पंत जी ने नाश्ते के पैसे अपनी जेब से दिए और सिर्फ चाय का बिल पास
किया। यानी उन्होंने नाश्ते का बोझ सरकारी खजाने पर नहीं डाला। दरअसल,
अरविंद केजरीवाल से यही उम्मीद है कि वह सरकारी खजाने का दुरुपयोग नहीं
होने देंगे, लेकिन चाय का बिल भी केजरीवाल ही भरें, यह तो मुमकिन नहीं हो
सकता। देखा जाए, तो जिस तरह से सरकारी खजाने को लुटाया जा रहा है, उसे
रोकने की जरूरत है और केजरीवाल का मिशन भी यही है। सरकारी खजाने की लूट ही
वह भ्रष्टाचार है, जो पूरे देश में मची है। यही लूट देश के विकास में सबसे
बड़ा रोड़ा भी है। सवाल यह है कि आप सरकार पर होने वाले न्यूनतम सरकारी खर्च
ज्यादा अहमियत रखते हैं या करोड़ों हजार रुपये के घोटालों को रोकना?
हमारे देश की जनता की त्रासदी है कि वह ऐसे राजनीतिक दलों को तो बार-बार
मौका देती रहेगी, जिन्होंने इस देश को रसातल में ले जाने में कोई कसर बाकी
नहीं रखी, लेकिन अलग हटकर चलने का वादा करने वाले राजनीतिक दल से उम्मीद
करेगी कि उनके नेता ‘देवता’ सरीखे हों। कोई शख्स सर्वगुण संपन्न नहीं होता।
थोड़े बहुत अवगुण होना मानवीय कमजोरी है, जिन्हें बड़े मकसद के लिए नजरअंदाज
किया जाना चाहिए। 1977 में जब जेपी के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ
आंदोलन चला और जनता पार्टी ‘संपूर्ण क्रांति’ के नाम पर देश की सत्ता पर
काबिज हुई, तो उससे भी ऐसी ही अपेक्षाएं रखी गईं थीं, जो आज ‘आप’ से लगाई
जा रही हैं। नतीजा यह हुआ था कि जनता पार्टी सरकार ‘अपेक्षाओं’ के बोझ से
19 महीने में ऐसी धराशायी हुई कि दोबारा नहीं पनप सकी। ऐसा ही 1989 में
वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी जनता दल सरकार के साथ हुआ था। ‘आप’ के साथ
ऐसा न हो, इसके लिए यह जरूरी है कि उससे सौ प्रतिशत परिणाम देने की अपेक्षा
न रखी जाए। कोई भी सरकार सड़ चुके सिस्टम को दो-चार महीने में तो क्या पांच
साल में भी नहीं बदल सकती। हां, उसमें कुछ कमी जरूर ला सकती है। हमें नहीं
भूलना चाहिए कि मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ की रमन सिंह
सरकार ने सब कुछ सही नहीं कर दिया, जो जनता ने उन्हें दोबारा मौका दिया है।
बस, उन्होंने दूसरों की अपेक्षा बेहतर शासन दिया है।
समस्या यह है कि जनता या कह लीजिए कि विरोधी ‘आप’ को ‘जीरो टॉलरेंस’ की
कसौटी पर कस रहे हैं। कह नहीं सकते कि ‘आप’ की सरकार कितने दिन चलेगी,
लेकिन जितने दिन भी चले, उससे उम्मीद यही है कि वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी,
जिससे यह साबित हो जाए कि सत्ता में आने के बाद सभी की कमीजों पर दाग लग
ही जाता है। लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि सरकार चलाने वालों को मिले
अधिकार को ही ‘दाग’ कहकर इतना प्रचारित कर दिया जाए कि वह असली लगने लगें?
देश में अपने विरोधियों को चित करने के लिए कौन छद्म दुष्प्रचार करता है,
इसे भी केजरीवाल अच्छी तरह समझते हैं। यह भी नहीं समझना चाहिए कि ‘आप’ के
सभी कार्यकर्ता, विधायक या मंत्री दूध के धुले ही होंगे। इनमें कुछ ऐसी
‘खरपतवार’ भी होगी, जो खेत की फसल को खाने का काम करेगी। उस खरपतवार से
केजरीवाल कैसे निपटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। आज तो अरविंद के ऊपर दो
बड़े घर लेने पर उंगलियां उठी हैं। अभी तो उनके हर कदम पर सबकी बहुत बारीक
और पैनी नजर रहेगी। लेकिन यदि केजरीवाल यही सोचते रहे कि कहीं उनकी कमीज पर
दाग न लग जाए, तो शायद न इधर के रहेंगे, न उधर के। सरकार उनकी है, उनके
पास अधिकार हैं। विरोधियों और मीडिया का काम है आलोचना करना। इनसे डरकर कदम
वापस खींचना उनके लिए घातक हो सकता है।
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