आजादी के बाद बनी भारतीय वननीति की समीक्षा सन
1988 में की गई थी। लेकिन परिस्थितियों के अनुसार उसमें हेर-फेर किए बिना
फिर से उसे यथावत लागू कर दिया गया, जबकि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र
द्वारा अपनाई गई वननीति का भारतीय वनों पर प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों
का विपरीत प्रभाव पड़ा है। किंतु छत्तीस साल व्यतीत हो जाने पर भी भारतीय
वनों पर पड़ रहे कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये भारत सरकार द्वारा
अभी तक कोई ठोस वननीति नहीं तैयार की गई है। जबकि भारत-नेपाल सीमावर्ती
भारतीय वनों पर बढ़ रहे नेपालियों के दबाव को रोकने, वन संपदा व जैव-विविधता
की सुरक्षा के लिये वर्तमान वननीति में बदलाव किया जाना अतिआवश्यक हो गया
है।
भारत के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं वंयजीव विहारों में दक्षिण
भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के हिमालय की तराई में आबाद राष्ट्रीय उद्यान
एवं वन्यपशु बिहार सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। देश के वनों
की सुरक्षा के लिये आजादी के बाद 1952 में पहली ‘वननीति’ बनी थी। इसके बाद
बदलते परिवेश तथा समय की मांग के अनुरूप वर्ष 1978 में दूसरी वननीति बनी,
जो अद्यतन अभी यही लागू है। हालांकि वन्यजीवों के अवैध शिकार को रोकने के
लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1976 भी बनाया जा चुका है। विडम्बना यह कही
जाएगी कि भारत की वननीति में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर स्थित महत्वपूर्ण
जैव विविधता के संरक्षण एवं वनों की सुरक्षा को नजरन्दाज किया गया है। जबकि
मित्र राष्ट्र नेपाल से भारत की लगभग 1400 किमी लम्बी सीमा सटी हुई है।
सन् 1975 से पूर्व भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर घने और विशाल वनक्षेत्र
स्थित थे, सीमा पर समृद्ध वनक्षेत्र होने के कारण वन्य-पशुओं का आवागमन
निर्बाध रूप से होता था।
उत्तर भारत में हिमालय की तराई में फैले अधिकांश
वनक्षेत्र की सीमा पूर्व में पश्चिम बंगाल, दार्जलिंग जिले से लेकर पष्चिम
में उत्तरांचल में पिथौरागढ़ तक स्थित है। पिथौरागढ़ में काली नदी के दोनों
तरफ नेपाल राष्ट्र का इलाका एवं भारत का धारचूला कस्बा आबाद है। आवागमन की
दृष्टि से दुर्गम होने के बाद भी यह क्षेत्र तिब्बत में पाए जाने वाले
‘चीरू’ नामक हिरन के बालो से बने ‘शाहतूष शालों’ की तस्करी के लिये विश्व
विख्यात है। अपनी अति विशेष खासियत के कारण उच्च वर्ग में इस शाहतूस शालों
की खासी मांग बनी रहती है। यही कारण है कि अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव
तस्कर बाघ, तेदुंआ आदि विलुप्तप्राय वन्यजीवों के अंगों के बदले शाहतूस शाल
प्राप्त करके उसकी तस्करी करते हैं।
सन् 1975 में नेपाल सरकार द्वारा अपनाई गई ‘सरपट वन कटान नीति’ के कारण
हिमालय की तराई के वनाच्छादित भू-भाग से नेपाल के इलाकों से वनों का सफाया
हो गया। नेपाल सरकार ने अपनी सुनियोजित नीति के तहत सीमा पर वनकटान के बाद
खाली हुए क्षेत्रों में सेवानिवृत्त नेपाली सैनिकों को बसा दिया। जिसका
प्रमुख उदेश्य भारतीय सीमा पर मजबूत नेपाली नागरिकों की ‘सामाजिक फौज‘ की
स्थापना था। खाली हुई वनभूमि पर आबाद हुए पूर्व नेपाली फौजियों को नेपाल
सरकार द्वारा प्राथमिकता से असलहों के लाईसेंस भी प्रदान किए गए। हालांकि
कालान्तर में नेपाल की लोकतात्रिंक सरकारों की स्थिति आयाराम-गयाराम की रही
इसके कारण इन क्षेत्रों में आबाद हुए गांव माओवादियों के गुप्त शरणगाह बन
गए थे, जो अब भी नेपाल सरकार के लिये समस्या का प्रमुख कारण बने हुए हैं।
नेपाल की सरपट वन कटान नीति का भारतीय वनों पर अच्छा-खासा प्राकृतिक एवं
मानवजनित कारणों से भारी विपरीत प्रभाव पड़ा है। नेपाल की ओर से वनों के
कट जाने के कारण भारतीय क्षेत्र में स्थित प्रमुख जैवविविधता से परिपूर्ण
क्षेत्रों में जलप्लावन के साथ मिट्टी एवं बालू आदि की गाद (सिल्टिंग) जमा
होने की समस्या बढ़ी है। पिछले आधा दशक से नेपाल से सटे भारतीय क्षेत्रों
में बाढ़ की विनाशलीला का कहर लगातार जारी है। इसके परिणाम में सीमावर्ती
वनक्षेत्रों का हरा-भरा जंगल सूख गया है साथ ही जंगल के अंदर भी घास के
मैदानों पर भी इसका भारी कुप्रभाव पड़ा है। इससे चारा की पैदा हुई विकट
परिस्थियों के कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव जंगल के बाहर आने को विबश हैं,
इनके पीछे बाघों के बाहर आने लगे हैं, वन्यपशु फसलों का खासा नुकसान
पहुंचाते हैं। जिससे अब जंगल के सीमावर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में वन्यजीव
और मानव के बीच संघर्ष का नया अध्याय शुरू हो गया है। जबकि मानवजनित कारणों
से आबादी का दबाव जंगलों पर लगातार बढ़ रहा है और साथ ही वनों की सुरक्षा
भी प्रभावित हुई है।
यह भी सर्वविदित है कि नेपाल, चीन, कोरिया, ताईवान आदि कई देश
वंयजीव-जंतु उत्पाद के प्रमुख व्यवसायिक केंद्र हैं। जिसमें भारी मात्रा
में ऊँचे दामों पर वंयजीव उत्पादों की खरीद-फरोख्त होती है। जिनके लिये
कच्चा माल हिमालय एवं हिमालय की तराई में बसे जैव-विविधता क्षेत्रों में
उलब्ध है। ये राष्ट्र वंयजीव एवं उससे निर्मित सामग्री का आयात-निर्यात
करने वाले देषों की भूमिका अदा करते हैं। इन्ही क्षेत्रों में सारा सामान
विश्व बाजार में प्रवेश करता है। जहां प्रतिवर्ष 2-5 बिलियन अमेरिकी डालर
का व्यापार होता है। वयंजीवों के अंगो का यह अवैध कारोबार नारकोटिक्स के
बाद दूसरे नम्बर पर आता है। यह भी जगजाहिर हो चुका है कि वन्यजीवों के
अंगों की तस्करी के अवैध कारोबार का चीन सबसे बड़ा खुला बाजार है। जहां
वंयजीवों के अंगों के उत्पादों की खरीद-फरोख्त और बिक्री खुलेआम होती है।
इस स्थिति की गंभीरता का अनुमान नेपाल सरकार ने पहले ही समझ लिया था।
शायद इसी का परिणाम है कि नेपाल सरकार ने अपने प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों
के वंयजीवों की सुरक्षा का दायित्व नेपाल आर्मी को सौंप दिया था। इसका
परिणाम यह निकला कि नेपाली सैनिकांे के दबाव के कारण वंयजीव तस्कर भारत,
श्रीलंका, म्यांमार, मलेशिया जैसे देशों में सक्रिय हो गए। हाल ही में यहां
पकड़े गए वंयजीव अंगो के तस्कर भी अपने बयानों में स्वीकार कर चुके हैं कि
नेपाल के प्रमुख बाजारों में निर्बाध वंयजीवों के उत्पादों की तस्करी जारी
है तथा नेपाल में एकत्र होने के बाद वंयजीवों के अंग तिब्बत, चीन, कोरिया
पहुंचकर ऊँचे दामों पर बिकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है अपनी वनसंपदा
एवं वयंजीवों की सुरक्षा के लिये नेपाल सरकार ने यथोचित प्रबंध कर रखा है
लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी के मार्गो पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।
नेपाल द्वारा ‘सरपट वन कटान नीति’ के अन्तर्गत बृहद पैमाने पर किए गए वन
कटान का भारतीय क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से क्या
प्रभाव पड़ा अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं किया गया है। इतना ही नहीं उपरोक्त
नीति के कारण भारतीय वन क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रतिप्रभाव को निष्प्रभावी
करने के लिये भी कोई नीति भारत सरकार द्वारा नहीं अपनाई गई है। ऐसा प्रतीत
होता है कि इस गंभीर स्थिति का मूल्यांकन किए बगैर इसे राज्यों के ऊपर छोड़
दिया गया है। यदि पूर्व में पश्चिम बंगाल से पश्चिमम में उत्तराखंड तक
फैले महानंदा वंयजीव बिहार, मानस वंयजीव बिहार, बुक्सा टाइगर रिजर्व,
बाल्मीकी टाइगर रिजर्व, सोहागीबरवा वन्यजीव प्रभाग, सुहेलदेव वंयजीव
प्रभाग, कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग, दुधवा टाइगर रिजर्व, किशनपुर वंयजीव
बिहार, पीलीभीत का लग्गा-भग्गा वनक्षेत्र और उत्तराखंड के जंगलों की स्थिति
को देखा जाए तो ज्ञात होता है कि भारतीय सीमा की ओर नियंत्रण एवं संरक्षण
की यथोचित व्यवस्था है, परंतु नेपाल की तरफ इन क्षेत्रों में पड़ने वाले
विपरीत प्रभावों को न्यूनतम स्तर पर ले जाने के लिये वनकर्मी अपने को असहज
महसूस करते हैं।
भारतीय वनों पर लगातार नेपाली नागरिकों का दबाब बढ़ता जा रहा है। जिससे
वंयजीवों का अवैध शिकार हो अथवा पेड़ों को काटना हो, इसमें नेपाल नागरिक जरा
भी कोताही नहीं बरतते हैं। स्थानीय स्तर के प्रंबध को यदि नजरन्दाज कर
दिया जाए तो छत्तीस वर्ष बाद भी हमारे देश की वननीति में उपरोक्त
कुप्रभावों को समाप्त करने के लिये अभी तक न तो कोई मूल्याकंन किया गया है
और न ही नई वननीति तैयार की गई है, तथा भविष्य में भी ऐसी कोई आशा दिखाई
नही पड़ती है। परंतु बदलते परिवेश में अब यह आवश्यक हो गया है कि हिमालय एवं
हिमालय की तराई में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर भारतीय क्षेत्र में बसे
जैव-विविधता क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु एक व्यवहारिक ठोस ‘वननीति‘ बनाई
जाए, अन्यथा की स्थिति में भारतीय वनों पर नेपाल की तरफ से पड़ रहे
दुष्प्रभावों के भविष्य में और भी घातक परिणाम निकल सकते हैं, इस बात से भी
कतई इंकार नही किया जा सकता है।
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