राजनीतिक माहौल है सो राजनीति चरम पर है। उसपर से कांग्रेस और भाजपा को
चुनौती देती ‘आप’ ने सारे समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है। दिल्ली में ‘आप’
की सरकार बनने के बाद पूरे देश में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की लहर फ़ैल
गयी है। बड़ी संख्या में आम और खास लोग पार्टी से जुड़ रहे हैं। पत्रकार भी
इसमें पीछे नहीं। इस खबर के बाद ये कयास लगाया जाने
लगा कि टेलीविजन के कई और नामी-गिरामी पत्रकार ‘आप’ के साथ जुड़ सकते हैं।
समस्या जिससे मुंह मोड़ते आये हैं ऐसे सभी पत्रकार
देश भर में खुले आम युवा पत्रकारों का शोषणहो हो रहा है। दुनिया
की प्रतिष्ठित फोर्ब्स पत्रिका के एक सर्वेक्षण के अनुसार एक रिपोर्टर
की नौकरी से अच्छा काम वेटर का होता है। फोर्ब्स की रिपोर्ट तो पूरी दुनिया
में हुए सर्वे पर आधारित है। वास्तव में देखा जाये तो भारत में ता स्थिति
और भी ज्यादा खराब है। यहां तमाम अखबार ऐसे हैं, जहां के रिपोर्टर वेटर तो
दूर, उनका वेतन मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी से भी कम है। यह वो समस्या
है, जिससे तमाम पत्रकार जो राजनीति में आये, सांसद बने, महत्वपूर्ण पदों तक
पहुंचे लेकिन हल करने की कोशिश कभी नहीं की। और इस समस्या से भारत के
मीडिया को उबरना बेहद जरूरी है।
हर साल 63000 नये पत्रकार
90 के दशक में देश भर में जब कुकुरमुत्ते की तरह इंजीनियरिंग और मेडिकल
कॉलेज खुलने शुरू हुए थे, तब भारतीय मीडिया ने क्वालिटी पर सवाल उठाया था
अब जब यही हाल मास कम्युनिकेशन और जर्नलिज्म संस्थानों का है, तो मीडिया
में एक भी खबर ऐसी नहीं दिखाई देती है, जिसमें किसी जर्नलिज्म कॉलेज की
क्वालिटी की चर्चा की गई हो या फिर किसी मास कॉम संस्थान पर उंगली उठाई गई
हो। अगर शिक्षा डॉट कॉम की मानें तो देश भर में 450 से ज्यादा पत्रकारिता
के संस्थान हैं। इनमें विश्वविद्यालयों में चलने वाले पत्रकारिता विभाग भी
शामिल हैं। प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, रेडियो जर्नलिज्म, टीवी
जर्नलिज्म, एडवर्टीजमेंट, क्रिएटिव राइटिंग, पीजी डिप्लोमा , अंडर ग्रेजुएट
डिग्री, पोस्टग्रेजुएट कोर्स आदि में से औसतन 4 कोर्स एक संस्थान में चलते
हैं। प्रत्येक कोर्स में औसतन 35 सीटें होती हैं। यानी कुल मिलाकर सभी
पाठयक्रमों से देश भर में 63 हजार से ज्यादा छात्र पत्रकार बनकर निकलते
हैं।
अगर फीस की बात करें तो सरकारी संस्थानों में 20 से 30 हजार रुपए प्रति
सेमेस्टर और निजी संस्थानों में 50 हजार से 1 लाख रुपए प्रति सेमेस्टर फीस
होती है, जिसे देने में तमाम माता-पिता शायद कर्जे में डूब जाते होंगे।
लेकिन इन बच्चों के करियर की शुरुआत इतनी खराब होती है, शायद उतनी किसी भी
क्षेत्र में नहीं होती होगी। सैलरी की शुरुआत 1 हजार से ढाई हजार तक होती
है। अगर दिल्ली, नोएडा जैसे शहर में हैं, तो 4 से 5 हजार से शुरुआत हो सकती
है। ऐसा सिर्फ छोटे अखबारों में नहीं बल्कि कई प्रतिष्ठित मीडिया हाउस इसी
स्ट्रक्चर पर रिपोर्टर रखते हैं। यही नहीं चाहे वो नरेंद्र मोदी का गुजरात
हो या अखिलेश यादव का उत्तर प्रदेश या फिर पृथ्वीराज चव्हाण का
महाराष्ट्र हर जगह ऐसे तमाम चैनल व अन्य मीडिया हाउस हैं, जहां पर चार-चार
महीने तक वेतन नहीं मिलता।
सालों साल हो जाता है अखबारों व इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में सैलरी बढ़ती
नहीं, और नौकरी से कब निकाल दिया जाये, किसी को पता नहीं होता है। तमाम
मीडिया हाउस में तो पत्रकार सुबह ड्यूटी पर निकलते हैं, तो उन्हें यह भी
विश्वास नहीं होता है, कि शाम तक उनकी नौकरी रहेगी या नहीं। अगर श्रम कानून
की धज्जियां किसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा उड़ाई जाती हैं, तो वो मीडिया
है। एक दर्जन से भी कम मीडिया हाउस हैं, जो वेतन आयोग की सिफारिशों को
लागू करते हैं। जबकि देश में चैनलों को अलग कर दिया जाये तो सिर्फ प्रिंट
में ही 94,067 समाचार पत्र, पत्रिकाएं शामिल हैं। रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज
पेपर्स इन इंडिया से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रिंट मीडिया
8.43 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। जबकि भारत की जीडीपी 4.8 प्रतिशत की दर
से बढ़ रही है। बीते 2013 में 21,897 नई एप्लीकेशन आयीं।
क्यों पकड़ते हैं गलत राह
पत्रकारिता की दुनिया में कार्यरत हजारों लोग कम सैलरी और दिन भर खुद को
आग की भठ्ठी में झोंकने के बाद भी खुश रहते हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण
समाज के लिये कुछ करने की इच्छा होती है, जो उसके मनोबल को टूटने नहीं
देती। लोगों के बीच सम्मान होता है, जो उसके मनोबल को हमेशा ऊंचा रखता है
और दिल में औरों से कम सैलरी का दर्द होता है, जो वो किसी से नहीं बांटते
हैं। इस दर्द को तमाम मीडिया हाउस न तो समझते हैं और न ही समझना चाहते हैं।
यही कारण है कि तमाम पत्रकार, जिनके परिवार का पेट वेतन से नहीं भर पाता
है, तो वो गलत राह पकड़ लेते हैं, और देखते ही देखते दलाली के दलदल में ऐसे
फंसते हैं, कि जीवन भर नहीं निकल पाते हैं।
देश की जीडीपी की दुगनी रफ्तार से बढ़ रहे मीडिया में किस कदर मानव
संसाधन का दोहन हो रहा है, इसका अंदाजा आपको लग गया होगा। लेकिन अफसोस इस
बात का है कि देश में प्रहरी के रूप में काम करने वाला यह क्षेत्र अपने ही
घर की बदहाली के ख़िलाफ आवाज नहीं उठा पा रहा है। अरविंद केजरीवाल की आम
आदमी पार्टी जनता के हक की बात करती है। इसी जनता के बीच खड़े पत्रकारों को
उनका हक दिलाने की बात कभी नहीं करती।
तमाम एसोसिएशन लेकिन सशक्त कोई नहीं
पत्रकारों के संगठनों की बात करें तो देश भर में 500 से ज्यादा
जर्नलिस्ट एसोसिएशन हैं। अगर राष्ट्रीय स्तर की बात करें तो श्रमजीवी
पत्रकार यूनियन, न्यूज पेपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया,
ऑल इंडिया प्रेस एसोसिएशन, ऑल इंडिया मीडिया एसोसिएशन, ऑल इंडिया वर्किंग
जर्नलिस्ट एसोसिएशन समेत तमाम संगठन हैं, लेकिन कोई भी मीडिया जगत में इस
अव्यवस्था के ख़िलाफ आवाज़ को बुलंद नहीं कर पाया।
पत्रकारों का हक कभी नहीं दिला पायेंगे राजनीतिक दल
इसे खराब चलन कहें या अच्छा, लेकिन भारत पर यह बात बिलकुल फिट बैठती है,
“जो दिखता है वही बिकता है”। इसका जीता जागता उदाहरण आम आदमी पार्टी है।
कहीं न कहीं पार्टी को दिल्ली की सल्तनत दिलाने में मीडिया की अहम भूमिका
रही है। जाहिर सी बात है, जिस मीडिया ने सत्ता तक पहुंचाया है, उस मीडिया
के ख़िलाफ आम आदमी पार्टी क्यों आवाज उठायेगी। यही बात भारतीय जनता पार्टी,
कांग्रेस, बसपा, सपा, सभी पर लागू होती है। सभी जानते हैं कि उन्होंने
पत्रकारों को हक दिलाने की बात की नहीं, कि मीडिया हाउस चिढ़ जायेंगे और
उन्हें कवरेज मिलना बंद हो जायेगा।
1- एमजे अकबर- जिन्होंने 1989 में बिहार के किशनगंज से चुनाव लड़ा और सांसद बने। बाद में 1991 में लोकसभा चुनाव हार गये, लेकिन राजीव गांधी के सलाहकार व प्रवक्ता बने।
- अहम बात: यह कि वो देश के सबसे शक्तिशाली यानी प्रधानमंत्री के सबसे करीब रहे।
- अहम बात: पिछले 10 सालों से आपकी सरकार केंद्र में कई बड़े फैसले ले रही है।
- अहम बात: आपके कार्यकाल में संचार एवं सूचना तकनीक मंत्रालय इन्हीं के पास रहा।
अहम बात: दुनिया की समस्याएं लेकर तमाम मंचों पर गये, लेकिन जिस समस्या की हम बात करने जा रहे हैं, उस पर नजर तक नहीं डाली।
5- चंदन मित्रा- एक पत्रकार से राज्य सभा के सांसद तक का सफर तय किया।
- अहम बात: वर्तमान में एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं।
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