11 January 2014

तो अब जन आंदोलनों को साफ करेगी ‘आप’ की झाड़ू !

कुछ साधन संपन्न सिविल सोसाइटी समूहों ने सोशल मीडिया, विदेशी धन, बेहतरीन साज-सरंजाम, कुशल प्रबंधन और अण्णा के त्यागतप के सहारे ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ (आईएसी) का गठन किया। उन्होंने ऐसे समय जन लोकपाल का मुद्दा खड़ा किया जब देश में घोटाले पर घोटाले हो रहे थे और आम जन सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त था। इण्डिया के मुखर मध्यवर्ग के खाये-पिये और अघाये लोगों को इस आंदोलन ने अपने से जोड़ लिया। गहराई से देखा जाय, तो आंदोलन के निशाने पर भ्रष्टाचार या उसका उद्गम स्थल बिल्कुल भी नहीं था। वह तो सिर्फ़ एक कानून के बनने-भर से काफ़ी हद तक भ्रष्टाचार के ख़त्म होने की बात करता था। आगे चलकर आंदोलन ही दो फाँड़ हो गया। एक आंदोलन के रास्ते पर आगे बढ़ा तो दूसरा धड़ा सीधे सत्ता और दल की राजनीति में उतर गया। 

दिन रात चौबीसों घंटे आईएसी के आंदोलन का इतना ज़बरदस्त प्रचार-प्रसार होने लगा कि भारत में बुनियादी मुद्दे से जुड़े तृणमूल स्तर पर जगह-जगह चल रहे अन्य जन आंदोलनों की गूँज अनसुनी हो गयी और वे नेपथ्य में चले गये। दरअसल वे ज़मीनी आंदोलन कॉरपोरेट-नीत भूमण्डलीकरण की व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे जो सरकारी तंत्र और राजनीतिक नेतृत्व में व्याप्त बड़े भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है। उस भ्रष्टाचार के वाहक नेता और नौकरशाह बने हुए हैं। आईएसी भ्रष्टाचार के मूल स्रोत कॉरपोरेट-नीत बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के खि़लाफ नहीं था। वह केवल भ्रष्टाचार के वाहक एजेंटों यानी नेताओं और नौकरशाहों को एक सर्वसत्तात्मक संस्था जन लोकपाल के अन्तर्गत लाना चाहता था। भ्रष्टाचार कॉरपोरेट-केंद्रित विश्वव्यवस्था का एक लक्षण मात्र है। सच कहा जाय, तो आईएसी उस व्यवस्था की छाया से लड़ रहा था, व्यवस्था से नहीं। स्वाँगयुक्त इस छाया-युद्ध का एक ख़तरनाक पहलू यह था कि कॉरपोरेटीकरण, अंधाधुंध शहरीकरण, मेगा औद्योगीकरण, बहुराष्ट्रीयकरण, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तथा विकास के नाम पर विनाश के खि़लाफ़ देश-भर में जगह-जगह चल रहे ज़मीनी आंदोलनों का तेज़ और ताप मंद पड़ता गया।

इन जन आंदोलनों के मुद्दे मूलगामी हैं। देश के जल, जंगल, जमीन, खनिज या धात्विक पदार्थ जैसे अनमोल प्राकृतिक संसाधन भीमकाय प्रकल्पों और संयंत्रों की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। बड़े पैमाने पर स्थानीय या देशज समुदायों के लोग भारी संख्या में अपनी आबादियों या बस्तियों से जबरन उजाड़े जा रहे हैं। उनकी  आजीविका के बुनियादी या परंपरागत स्रोतों को ख़त्म किया जा रहा है। विदेशों से होने वाले सस्ते आयातों के चलते छोटी-मझोली उत्पादन इकाइयाँ और अनौपचारिक क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली अनगिनत रोज़गारदायी या  स्वरोज़गारी कारोबारी गतिविधियाँ ख़त्म हो रही हैं। इस प्रकार भारी पैमाने पर देश का अनौद्योगीकरण हो रहा है।

जन लोकपाल के लिए जब अण्णा टीम मुहिम चला रही थी तब उसकी तरफ स्थानीय जन आंदोलनों से जुड़े तमाम समाजकर्मी, कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी खिंचे चले गये क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसा करने से उनकी  लड़ाइयाँ भी मज़बूत होंगी और आगे बढ़ेंगी। वे अण्णा टीम के मंच पर अथवा उसके इर्द गिर्द नज़र आने लगे। उनमें से कइयों को बोलने का मौक़ा मिला और उन्होंने अपने आंदोलन के मुद्दे भी उठाये। जन लोकपाल का मुद्दा प्रमुख हो गया। अन्य मुद्दे उसमें सर्वथा विलीन हो गये अथवा एकदम गौण हो गये।

आईएसी का वह धड़ा जो सत्ता और दल की राजनीति में है, अब आम आदमी पार्टी (‘आप’) के रूप में उभरकर सामने आ चुका है। दिल्ली में 28 सीटें फ़तह करने के बाद ‘आप’ के हौसले बुलंद हैं। वह आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में ताल ठोंकने जा रहा है। देश-भर में उसे उम्मीदवारों, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की भारी संख्या में तलाश है। संभवतः उसे संसाधनों की क़िल्लत नहीं है। एनआरआई- एनजीओ-कॉरपोरेट गठबंधन उसकी मदद के लिए है। उसे बस नेता चाहिए, कार्यकर्ता चाहिए। अब उसकी निगाहें तृणमूल स्तर पर चल रहे आंदोलनों के उन कार्यकर्ताओं की तरफ़ है जिनका स्थानीय जनाधार है, लोगों के बीच जिनकी साख़ है, जिनकी साफ़-सुथरी छवि है और जो अच्छे वक्ता हैं। इन निर्दलीय लोगों को अपनी ओर खींचने की कोशिशें चल रही हैं। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में देश-भर से ऐसे लोग पहुँचे भी थे जिन्होंने ‘आप’ के उम्मीदवारों को जिताने के लिए मतदाताओं के बीच काम किया था।

देश में कई ऐसे छोटे-छोटे प्रतिबद्ध राजनीतिक दल या जनसंगठन हैं जो चुनावी राजनीति से परहेज़ नहीं रखते हैं। वे ‘आप’ की ओर जा सकते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नायिका मेधा पाटकर का नाम सामने आने ही लगा है। किशन पटनायक द्वारा गठित समाजवादी जन परिषद् उनमें से एक है। वह तो आम आदमी पार्टी में लगभग विलीन हो चुकी है। पुराने लोहियावादियों ने सोशलिस्ट पार्टी को पुनरुज्जीवित किया है। उसके भी अधिकांश लोग ‘आप’ की ओर झुके हुए हैं। लेकिन यह बहुत बड़ी दुर्घटना होगी यदि देश के ज़मीनी आंदोलन अपने बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर एक राजनीतिक दल के पुरजे बन जाते हैं। ये आंदोलन एक नयी समाज-रचना के पैरोकार हैं। एक तरफ़ वे विकास के मौजूदा मॉडल को चुनौती दे रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वे लोगों को जनता के बुनियादी सवालों पर संवदेनशील और जागरूक बना रहे हैं। इन आंदोलनों में देश का भविष्य छिपा हुआ है। शांतिपूर्ण ढंग से सामूहिक तौर पर एकजुट होकर अन्याय का प्रतिकार, सड़ी-गली व्यवस्था से असहयोग, ग़लत क़ानूनों के खि़लाफ़ सिविल नाफ़रमानी तथा लोकशक्ति के जरिये नयी समाज रचना का अधिष्ठान - ये सब तत्त्व इन आंदोलनों के कार्यक्रमों में अक़्सर दिख जाते हैं।

अगर ये आंदोलन तेज़ होंगे, तो तृणमूल स्तर पर लोगों के बीच से परिवर्तनधर्मी ऱाजनीति की प्रक्रिया शुरू होगी जिससे नया नेतृत्व प्रकट होगा। स्वतः स्फूर्त आंदोलनों के जरिये नीचे से लोकशक्ति पर टिकी जिस वैकल्पिक राजनीति का चक्रप्रवर्तन या उभार होगा वह बुनियाद से लेकर ऊपर तक सारी व्यवस्था का कायाकल्प कर सकती है। एक दूसरे को ऊर्जा देते हुए और एक दूसरे से ऊर्जा लेते हुए परस्पर मैत्री भाव रखकर देश-भर के जन आंदोलनों को एक नया राजनीतिक ढाँचा गढ़ना है। क्या वे इस चुनौती को स्वीकार करेंगे अथवा यथास्थितिवादी राजनीति के बियाबान में खो जायेंगे? जेपी (जयप्रकाश नारायण) कहा करते थे कि आंदोलनों के गर्भ से नयी राजनीतिक ताक़त पैदा होगी जो सामाजिक बदलाव करेगी। अब ज़रूरत है इस मूलमंत्र को गाँठ बाँध रखने की। आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने लिखा था, ‘‘इस प्रक्रिया में नीचे से राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा होगी, नया नेतृत्व उभरेगा, वह नीचे से बढ़ता-बढ़ता ऊपर तक की राजनीति को चलायेगा। एक नयी राजनीति का जन्म होगा।’’

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