रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून। वर्षों पुराना यह दोहा कभी नीतिवाद से प्रेरित लगता था, लेकिन आज यह सच
साबित होता दिख रहा है। बढ़ते जल संकट को लेकर पर्यावरणविद् सुंदरलाल
बहुगुणा का यह कहना कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर लड़ा जाए, भविष्य में पानी के भयावह संकट की चेतावनी देते हैं। महाराष्ट्र के 34 जिले इस समय भयंकर सूखे की चपेट में हैं।सूखे ने पिछले
चालीस सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। लगातार दूसरे साल भी बारिश कम होने
से ऐसी स्थिति बनी हुई है। मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के कई इलाके
1972 के बाद सबसे बड़े सूखे का सामना कर रहे हैं।इस भीषण सूखे का अंदाजा
इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य के जलाशयों में इस वक्त महज 38 प्रतिशत
पानी है और मराठवाड़ा जोन के जलाशयों में तो 13 प्रतिशत पानी ही बचा है।
इलाके में गन्ना, हल्दी, केले की फसलें पानी न मिलने से बर्बाद हो गई हैं।
नतीजतन, यहां के किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। साफ है कि स्थिति विकट है। तालाबों, नदियों, कुओं- सभी से पानी गायब हो गया
है। पानी बस यहां के लोगों की आंखों में दिखता है। सूखे का सबसे ज्यादा
असर मराठवाड़ा में है। याद करें, 1972 में सूखे से देश भर में खाद्यान्न की
कमी हुई थी और सारे खाद्य उत्पादों के दाम बढ़ गए थे। भारत सरकार को फिर
खाद्यान्न आयात बढ़ाने पड़े थे। कुछ ऐसी हालत 2009 में भी हुई। इस बार भी
महाराष्ट्र में सूखे ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यह ठीक है कि सरकारी नीतियों में सूखा पीड़ितों की फिक्र दिखने लगी है, पर
किसी भी योजना तक उनकी पहुंच आसान नहीं दिखती। अभी आलम यह है कि किसानों को
समय चलते मदद नहीं मिली तो वे कर्ज और आर्थिक नुकसान के बोझ तले दिनोंदिन
और दबते चले जाएंगे।
यह जगजाहिर है कि हाल के वर्षों में कर्ज न चुका पाने
के कारण ही ज्यादातर किसान जान दे रहे हैं। पूरे देश में विदर्भ ऐसा क्षेत्र है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने कर्ज से
परेशान होकर आत्महत्या की है। जाहिर है, सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद
आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। कहने का तात्पर्य यह है कि इतनी बड़ी आपदा
के बावजूद अब तक सरकार ने किसानों के हित में कोई सीधा और कारगर कदम नहीं
उठाया है। महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है, जो कृषि के मुकाबले उद्योगों को पानी
उपलब्ध कराने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। इसलिए यहां जो सिंचाई योजनाएं
बनती हैं, उनका पानी शहरों में उद्योगों की जरूरतों पर खर्च कर दिया जाता
है। अमरावती जिले में ही, जो सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त इलाका है, प्रधानमंत्री
राहत योजना के तहत अपर वर्धा सिंचाई प्रोजेक्ट बनाया गया, लेकिन जब यह बनकर
तैयार हुआ तो राज्य सरकार ने निर्णय लिया कि इसका पानी एक थर्मल पावर
प्रोजेक्ट को दे दिया जाए। बहरहाल, सूखे की अब तक जो भयावह तस्वीर दिख रही है, उससे स्पष्ट है कि इस
बार खेती-किसानी को बुरी तरह प्रभावित होने वाली है और इसका असर उन किसानों
पर पड़ना तय है, जिन्होंने भारी कर्ज लिया है। यह ठीक है कि सूखे से अकाल
की समस्या अब तक नहीं है पर मौजूदा परिस्थितियां डराने वाली हैं। यही वजह है कि सूखे से उत्पन्न स्थिति को लेकर अब केंद्र सरकार भी चिंता
में दिखने लगी है। कृषि मंत्री शरद पवार भी सूखे को लेकर अपनी चिंता जाहिर
कर चुके हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार
प्राप्त समूह (ईजीओएम) ने महाराष्ट्र के लिए 1,207 करोड़ रुपये का सूखा
राहत पैकेज मंजूर कर दिया है। लंबे समय से महाराष्ट्र सरकार इसकी मांग कर रही थी। सूखे की विकरालता को
देखते हुए यह राशि बहुत ज्यादा नहीं है, परंतु कम भी नहीं है। यदि इसका
ईमानदारी के साथ सौ फीसद उपयोग किया जाए तो काफी हद तक सूखे की समस्या से
निजात पायी जा सकती है। खैर, इस पैकेज का कितना सही इस्तेमाल हो पाएगा, इस
पर बड़ा सवाल बना हुआ है।
महाराष्ट्र में कुल 34 जिलों में से सोलापुर, अहमदनगर, सांगली, पुणे, सतारा, बीड़ और नासिक सूखे से सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं। बुलढाना, लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड़, औरंगाबाद, जालना, जलगांव और धुले जिलों में भी स्थिति गंभीर है। राज्य में कुछ जिले पशुचारे और पेयजल की गंभीर किल्लत का सामना कर रहे हैं। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में सूखे के हालात को देखते हुए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने लोगों से अपील की है कि वे सूखा पीड़ितों की मदद के लिए आगे आएं और सूखे से निपटने के लिए बनाए गए मुख्यमंत्री राहत कोष में अधिकाधिक दान कर राज्य सरकार की मदद करें। राज्य सरकार ने इस बार के सूखे को पिछले चालीस सालों में सबसे भयंकर सूखा घोषित किया है। अकाल का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था से है। व्यापक शहरीकरण के बावजूद महाराष्ट्र में कृषि ही अर्थव्यवस्था का पूरक आधार है। अब राज्य को अपने संसाधन अकाल से निपटने में लगाने पड़ेंगे। बड़ा संकट यह है कि भूजल स्तर राज्य के उन हिस्सों में भी नीचे जा रहा है जहां पर्याप्त वर्षा हुई थी। राज्य में ढेरों सिंचाई परियोजनाएं कई दशकों से किसी न किसी छोटे-मोटे कारण से अधूरी पड़ी हैं। यहां दशकों पूर्व जो महत्वाकांक्षी जल संवंर्धन योजना शुरू की थी, वह अब सिर्फ दिखावा रह गई हैं। वास्तव में देश के किसानों के लिए मौसमी बारिश बड़ी अहमियत रखती है क्योंकि देश के केवल 40 फीसद कृषि क्षेत्र के बारे में यह कहा जा सकता है कि वहां सिचाई की सुविधाएं हैं और एकाध मानसून में गड़बड़ी वह बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन शेष 60 फीसद इलाका पूरी तरह मौसमी बारिश पर निर्भर होता है और ऐसे में अगर बारिश सामान्य से कम हुई, तो मुश्किल होना स्वाभाविक है।
इस तरह कहा जा सकता है कि अभी भी भारतीय कृषि बहुत हद तक प्राकृतित बारिश पर निर्भर है। अगर महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति इसी तरह बनी रहती है तो आने वाले कुछ समय में देश की अर्थव्यवस्था पर इसका विपरीत असर पड़ेगा। क्योंकि ग्रामीण आमदनी और उपभोक्ता खर्च के लिए मौसमी बारिश अहम कारक है, साथ ही सूखे से भारतीय अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्रों- आर्थिक विकास, खाद्यान्न संकट और मुद्रास्फीति- पर असर पड़ना सुनिश्चित है। जाहिर है जिस तरह से सिंचाई भगवान भरोसे है और ग्लोबल वार्मिंग से बारिश का चक्र बदल रहा है उसका सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है। दिन-प्रतिदिन हमारी जरूरतें बढ़ रही हैं। ऐसे में बिना सिंचित क्षेत्र में वृद्धि के सिर्फ मानसून के भरोसे इसे हासिल करना असंभव है। आज भी देश की 60 फीसद आबादी कृषि पर निर्भर है, जीडीपी का लगभग 13.6 प्रतिशत अब भी कृषि एवं सहायक गतिविधियों से प्राप्त होता है। इस तरह देश की अर्थव्यवस्था के लिए अभी भी कृषि का विशेष महत्व है और कृषि के लिए मानसून का। यह देश की विडंबना है कि आजादी के छह दशक बाद भी हम कृषि के संदर्भ में मानसून पर अपनी निर्भरता कम नहीं कर पाए।
1972 के बाद महाराष्ट्र सबसे बड़े सूखे की चपेट में है, करीब आधा महाराष्ट्र बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है।हमारे देश में 72 प्रतिशत आबादी के पास जरूरत भर भी पानी नहीं है, वह पानी क्या बचाएगी। 28 प्रतिशत पानी वाले लोग ही पानी बचाने की क्षुद्रताभरी बातें करते हैं। आजादी के तुरंत बाद गाँवों को छोड़कर हमारी सरकार ने नगर में पानी की जो व्यवस्था खड़ी की थी, उस व्यवस्था का कालक्रम में उसने सही-सही संरक्षण, संवर्धन और अनुरक्षण नहीं किया। तो क्या ऐसे में पानी की किल्लत नहीं होगी? वैज्ञानिक हमें डराते हैं, बुद्धीजीवी भरमाते हैं। किसी के पास पानी बनाने का वैकल्पिक उपाय नहीं है। पानी प्रकृति की अनुपम देन है। हम इसका दुरुपयोग होने से रोक सकते हैं। कहने को हम कह सकते हैं कि नदियाँ सूख रहीं हैं, ताल-तलैया सूख रहे हैं, जलप्रपात सूख रहे हैं, नदी का स्रोत सूख रहा है, लेकिन उसे रोकने के उपाय हमारे पास नहीं हैं। अगर उपाय होता तो देश में कई जगहों पर रेगिस्तान बनने से रोक सकते थे, लेकिन हमारे वैज्ञानिक के पास डराने के अलावा कोई समाधन नहीं है। यह प्रकृति का चक्र है, जिसे कोई रोक नहीं सकता है। जल के लिए जो मारा-मारी है, वह हमारी क्षुद्र मानसिकता का परिचायक ही है। ऐसी परिस्थिति में यह कहीं और बढ़कर दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक है कि समस्याओं को लेकर भी कुछ लोग सरकारी संगठन बनाकर माल बटोरने में लगे हैं, उनकी कार्यशालाएँ शानदार होटलों में चलती हैं। नदी के किनारे की गंदगी को साफ करने के लिए उनके पास न समय है और न ही कुदाल और न ही देह गंदा करने का इरादा। पानी बचाने की बात बेमानी है, हाँ, हमें पानी का दुरुपयोग अवश्य रोकना चाहिए। इसका हम संकल्प लें।
गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि तर्को, तथ्यों और हकीकत के धरातल पर वाकई हम खतरनाक हालात की ओर बढ़ रहे हैं।पानी की कमी की बात करते ही एक बात हमेशा सामने आती है कि दुनिया में कहीं भी पानी की कमी नहीं है।धरती से पानी खत्म हो गया तो क्या होगा। कुछ ही सालों बाद ऐसा हो जाए तो ताजुब नहीं होना चाहिए। भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से कम हो रहा है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। यही सही समय है कि पानी को लेकर कुछ तो सोचा जाए। पानी खत्म हो गया तो कैसा होगा हमारा जीवन। आमतौर पर ऐसे सवालों को हम अनसुना कर देते हैं और ये मान लेते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि तर्को, तथ्यों और हकीकत के धरातल पर वाकई हम खतरनाक हालात की ओर बढ़ रहे हैं। पानी की कमी की बात करते ही एक बात हमेशा सामने आती है कि दुनिया में कहीं भी पानी की कमी नहीं है। दुनिया के दो तिहाई हिस्से में तो पानी ही पानी भरा है तो भला कमी कैसे होगी। पर मानवीय जीवन जिस पानी से चलता है उसकी मात्रा पूरी दुनिया में पांच से दस फीसदी से यादा नहीं है। नदियां सूख रही हैं। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। झीलें और तालाब लुप्त हो चुके हैं। कुएं, कुंड और बावडियों का रखरखाव नहीं होता। भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से कम होता जा रहा है। हालत चिंताजनक है-आखिर किस ओर बढ़ रहे हैं हम।
नासा के सेटेलाइट के आंकड़ें कहते हैं कि अब भी चेता और पानी को बचा लो अन्यथा पूरी धरती बंजर हो जाएगी, लेकिन दुनिया से पहले अपनी बात करते हैं यानि अपने देश की। जिसके बारे में विश्व बैंक की रिपोर्ट का कहना है कि अगले कुछ सालों के बाद भारत में पानी को लेकर त्राहि-त्राहि मचने वाली है। सब कुछ होगा, लेकिन हलक के नीचे दो घूंट पानी के उतारना ही मुश्किल हो जाएगा। हजारों साल पहले देश में जितना पानी था वो तो बढ़ा नहीं, स्रोत बढ़े नहीं, लेकिन जनसंख्या कई गुना बढ़ गई। मांग उससे यादा बढ़ गई। पानी के स्रोत भी अक्षय नहीं हैं, लिहाजा उन्हें भी एक दिन खत्म होना है। विश्व बैंक की रिपोर्ट को लेकर बहुत लोग उसे कामर्शियल दबावों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश से जोडक़र देख सकते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी इस रिपोर्ट के जरिए यूरोपीय देशों का पैरवीकार माना जाने वाला विश्व बैंक कोई नई गोटियां बिठाना चाहता हो, लेकिन इस रिपोर्ट से अपने देश के तमाम विशेषज्ञ इत्तफाक रखते हैं। पर्यावरणविज्ञानी कहते रहे हैं कि पानी को बचाओ। बात सही है कि जायरे और कनाडा के बाद दुनिया में सबसे यादा पानी भारत में है। अभी भी समय है कि हम चेतें और अपने पानी के स्रोतों को अक्षय ही बनाए रखें। एक सदी पहले हम देशी तरीके से पानी का यादा बेहतर संरक्षण करते थे, लेकिन नई जीवनशैली के नाम पर हम उन सब बातों को भूल गए। हम भूल गए कि कुछ ही दशक पहले तक हमारी नदियों में कल-कल करके शुध्द जल बहता था। अब ऐसा नहीं रहा। तथाकथित विकास की दौड़ में शुध्द पानी और इसके स्रोत प्रदूषित होते चले गए। अनियोजित और नासमझी से भरे विकास ने नदियों को प्रदूषित और विषाक्त कर दिया। जल संरचना तैयार करने पर ध्यान तो दिया गया, लेकिन कुछ ही समय तक जबकि ये एक सतत प्रक्रिया थी, जो चलती रहनी चाहिए थी। एशिया के 27 बड़े शहरों में, जिनकी आबादी 10 लाख या इससे ऊपर है, में चेन्नई और दिल्ली की जल उपलब्धता की स्थिति सबसे खराब है। मुंबई इस मामले में दूसरे नंबर पर है। जबकि कोलकाता चैथे नंबर पर। दिल्ली में तो पानी बेचने के लिए माफिया की समानांतर व्यवस्था ही सक्रिय हो चुकी है। हालत ये है कि पानी का कारोबार करने वाले इन लोगों ने कई इलाको में अपनी पाइप लाइनें तक बिछा रखी हैं। इनके टैंकर पैसों के बदले पानी बेचते हैं।
पानी की कमी को लेकर टकराव तो अभी से पैदा हो गया है। कई राज्यों में नदियों के जल बंटवारे को लेकर दशको से विवाद जारी है। कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में टकराव, गोदावरी के जल को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में तनातनी और नर्मदा जल पर गुजरात और मध्यप्रदेश में टकराव की स्थिति। ये टकराव कभी रायों के बीच गुस्सा पैदा करते रहे हैं तो कभी राजनीतिक विद्वेष का कारण बनते रहे हैं। दरअसल भारत का नब्बे फीसदी हिस्सा नदियों के जल पर निर्भर करता है, जो विभिन्न रायों के बीच बहती हैं। हमारे देश में अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि नदी का कितने जल पर किसका हक है। दूसरे देशों में जहां पानी को लेकर दिक्कतें हैं, वहां जल अधिकारों को साफतौर पर परिभाषित किया गया है। इनमें चिली, मैक्सिको, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश शामिल हैं। पाकिस्तान और चीन भी पानी के अधिकारों को लेकर सिस्टम बनाने में लगे हैं। मौसम में बदलाव से भारत में पानी की समस्या और विकराल होगी। मानसून के प्रभावित होने और ग्लेशियर्स के पिघलने से भारत को स्थिति से निपटने के बारे में सोचना होगा। भारत में दोनों ही स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। कुछ इलाको में बाढ़ आ जाती है तो कुछ इलाके सूखे का शिकार हो जाते हैं। भारत के कृषि सेक्टर को मानसून के बजाए दूसरे विकल्प तलाशने अगर जरूरी हो चले हैं तो पानी के उचित संरक्षण की भी।
भारत के बांध प्रति व्यक्ति करीब 200 क्यूबिक मीटर पानी स्टोर करते हैं, जो अन्य देशों चीन, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका प्रति व्यक्ति 1000 मीटर से खासा कम है। पूर्वोत्तर रायों में, जहां साल भर खासी बारिश होती है। बेहतर जल संरचना से मिलने वाला धन यहां की तस्वीर बदल सकता है। छोटे स्तर पर सामुदायिक जल एकत्रीकरण और वाटर हार्वेस्टिंग प्रोजेक्ट्स भी भविष्य में काम की चीज साबित हो सकते हैं। दुनिया में पानी की मात्रा बहुत ही सीमित है। इस पर ज़िंदा रहने वाली मानव जाति और दूसरी प्रजातियों को इस बात की उम्मीद नही रखनी चाहिए कि उन्हें हमेशा पानी मिलता रहेगा। धरती का दो-तिहाई हिस्सा पानी से घिरा है। लेकिन इसमें से ज़्यादातर हिस्सा इतना खारा है कि उसे काम में नहीं ला सकते। सिर्फ ढाई फ़ीसदी पानी ही खारा नहीं है। हैरानी की बात ये है कि इस ढाई फ़ीसदी मीठे पानी का भी दो-तिहाई हिस्सा बर्फ़ के रूप में पहाड़ों और झीलों में जमा हुआ है। अब जो बाकी बचता है उसका भी 20 फ़ीसदी हिस्सा दूर-दराज़ के इलाक़ों में है। बाकी का मीठा पानी ग़लत वक़्त और जगह पर आता है मसलन मानसून या बाढ़ से। कुल जमा बात ये है कि दुनिया में जितना पानी है उसका सिर्फ़ 0.08 फ़ीसदी इंसानों के लिए मुहैया है। इसके बावजूद अंदाज़ा है कि अगले बीस वर्षों में हमारी माँग करीब चालीस फ़ीसदी बढ़ जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी ने 1999 में एक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें कहा गया था कि पचास देशों में 200 से भी ज़्यादा वैज्ञानिकों ने पानी की कमी को नई शताब्दी की दो सबसे गंभीर समस्याओं में से एक बताया था। दूसरी समस्या धरती का बढ़ता तापमान थी। हम अपने पास उपलब्ध पानी का 70 फ़ीसदी खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन विश्व जल परिषद का मानना है कि सन् 2020 तक पूरी दुनिया को खाना खिलाने के लिए हमें अभी मौजूद पानी से 17 फ़ीसदी ज़्यादा पानी चाहिएगा। हम इसी ढर्रे पर चलते रहे तो आने वाले दिनों में आज के मुक़ाबले ऐसे लाखों लोग ज़्यादा होंगे जो हर रात सोते वक्ते भूखे-प्यासे होंगे। आज पूरी दुनिया में हर पाँच में से एक आदमी को पीने के साफ़ पानी की सुविधा नही है। हर दो में से एक को साफ़-सुधरे शौचालय की सुविधा नहीं है। हर रोज़ क़रीब तीस हज़ार बच्चे पांच साल की उम्र पूरी कर पाने से पहले ही मर जाते हैं। इनकी मौत या तो भूख से या फिर उन बीमारियों से होती हैं जिनकी आसानी से रोक-थाम की जा सकती थी। पीने का साफ़ पानी अच्छी सेहत और खुराक की चाबी है। जैसे चीन में एक टन चावल पैदा करने के लिए एक हज़ार टन पानी का इस्तेमाल होता है।
जल संकट के कई कारण हैं। एक तो बड़ा ही साफ़ है। जनसंख्या में बढोत्तरी और जीवन का स्तर ऊँचा करने की चाह। दूसरा है पानी को इस्तेमाल करने के तरीक़े के बारे में हमारी अक्षमता। सिँचाई के कुछ तरीक़ों में फ़सलों तक पानी पहुंचने से पहले ही हवा हो जाता है। प्रदूषण की वजह से हमें अभी जो पानी उपलब्ध है वो भी गंदा होता जा रहा है। मध्य एशिया में अराल समुद्र एक ऐसा ही उदहारण है कि किस तरह प्रदूषण ज़मीन और पानी को बर्बाद कर सकता है। दिलचस्प बात ये है कि सरकारें पानी की अपनी समस्याओं को बरसाती पानी और धरती पर मौजूद पानी पर निर्भरता बढ़ाने के बजाए भूमिगत पानी का इस्तेमाल कर सुलझाना चाहती हैं। लेकिन इसका मतलब ये हुआ कि बैंक खाते में पैसा जमाए कराए बिना लगातार पैसे निकाले जाना। नदियों और झीलों का पानी भूमिगत जल से आता है और ये सूख सकता है। ज़मीन के भीतर से निकाले गए मीठे पानी की जगह खारा पानी ले सकता है। और ज़मीन के भीतर से पानी निकालने के बाद जो जगह खाली बच जाती है वो कई बार तबाही पैदा कर सकती है। जैसा कि बैंकाक, मेक्सिको शहर और वेनिस में हुआ। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ रास्तों पर काम शुरु किया जा सकता है। सिंचाई के लिए फव्वारे वाली सिंचाई जिसमें कि सीधा पौधों की जड़ों में पानी की बूंदे डाली जाती हैं। एक रास्ता ऐसी फ़सलें बोना का भी है जो पानी पर ज़्यादा निर्भर न रहती हों। या फिर खारे पानी को मीठा किया जाए लेकिन इसमें काफी ऊर्जा लगेगी और कचरा फैलेगा। मौसम बदलने से कुछ इलाक़ों में ज़्यादा पानी गिरेगा तो कुछ में कम। साफ़ बात है कि कुल मिलाकर असर मिला-जुला ही रहेगा। लेकिन अगर हमें जल संकट से उबरना है तो हमें यूएनईपी की रिपोर्ट पर ध्यान देना होगा जिसमें कहा गया है कि पूरे ब्रहांड में सिर्फ पृथ्वी ही है जहां पानी है और जल ही जीवन है।
आज देश की 14 बड़ी नदियां बड़े संकट की शिकार हैं। छोटी नदियां मर रही हैं। नदियां मरती रहीं तो हमारा अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा। नदियों के बहाव क्षेत्र में वास स्थान बनाये जा रहे हैं और नदियां उफान को तैयार हैं। आज स्थिति यह बनती है कि कहीं बाढ़ से परेशानी है, तो कहीं सुखाड़ से। लेकिन साथ ही साथ यह भी सही है कि नदियां लाखों सालों का कैलेंडर बनाकर चलती हैं। वे लाखों साल में बनती हैं। न मालूम कौन सी नदी कितने बरस बाद फिर कब जिंदा हो जाये? कुछ पता नहीं। लेकिन हमें सजगता तो बरतनी ही होगी। 20 वर्ष में गंगा की साफ-सफाई के मद में सरकार 39,226 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है, लेकिन सामाजिक व बुनियादी मसलों को ध्यान न देने की वजह से अब तक नाकामी हाथ लगी है। इसलिए हमें कानूनी पक्ष को मजबूत करने के साथ ही सामाजिक पक्ष पर भी लोगों की सोच बदलनी होगी। केवल कभी-कभार आंदोलन करने मात्र से स्थिति में सुधार नहीं होगा। इसके लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि आगे आने वाले समय में देश के समक्ष जल संकट एक बड़ी चुनौती बन कर उभरेगा। आज भी जगह-जगह पर पानी की कमी की वजह से संघर्ष की स्थिति है। लेकिन यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हम इस समस्या के प्रति सजग हुए हैं। जवाब यही है कि – नहीं। तो फिर जब हम ही सजग नहीं हैं, तो देश के नीति नियंताओं से यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे इस मसले पर गंभीर होंगे।
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