05 April 2013

क्या देश की सारी नदीयों को एक साथ जोड़ी जाएं ?

मैं नदी हूँ, अब नहीं मै ऊछलूंगी। सूख गए कण्ठ गर मेरे तो, बन्द बोतल नीर का पता मैं पूछ लूंगी। कितनी लाशों और कितने ढेर को कब तलक मै सम्भालूँ, और क्यों ? अधमरी तो हूँ मैं सालों-साल से, उम्मीद बंधती है नहीं इस चाल से। सुध मेरी लो, नहीं और कुछ लूंगी मैं नदी हूँ।

ये नदी का दर्द है जीसकी पीड़ा को आज हम सब भूला दिए है। जिस नदी ने हमारे देश की नाम और विरासत को नई पहचान दी, जिन नदीयों के नाम के आसरे ही हम सब की पहचान दुनिया के देषों में हुई, जिसे कभी अंग्रेजों ने इंडस नदी के नाम पर हमारे देष को इंडिया कहा, तो दुसरी ओर देषप्रेमियों ने हिंडन के नाम पर इसे हिन्दुस्तान कहा। मगर आज नदी अपने वजूद को बचाने के लिए तड़प रही है। देश के उत्तर की नदियों को दक्षिण की नदियों से जोड़ने का पहला प्रस्ताव 1970 में पेश किया गया था। सूखी हुई नदियों की इसी तड़प को तरलता देने के लिए इंदरागांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक ने कई बार जितोड़ प्रयास किए मगर नतीजा कुछ भी नही निकला। भीषण सूखे के बाद नदियों को आपस में जोड़ने के लिए 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके लिए विशेष कायदल गठित किया था। 5 लाख करोड़ रुपये की यह पूरी परियोजना थी, जिसे 2016 तक पूरा किया जाना था। मगर आज भी जमीनी हकीकत कोसों दूर है। 30 नदियों को आपस में जोड़ने की योजना इस परियोजना के अंतगत प्रस्तावित की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को देश में नदियों को जोड़ने संबंधी महत्वाकांक्षी परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करने का निदेश भी दे चूकी है।

 यह योजना 1980 में विकसित हुए नेशनल पसपेक्टिव प्लान का सुधरा हुआ रूप है। इस योजना का मकसद था सहायक नदियों के पानी को इकट्ठा कर सिंचाइ और जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल करना। आज ये परियोजना लागू हो गई होती तो महाराश्ट्र में भिशण सूखे से कुछ हद तक निजात पाई जा सकती था। साथ ही बिहार जैसे राज्यों को हर साल बाढ़ से होने वाली माल जाल की क्षती से बचा जा सकता है। मगर अब तक यूपीए सरकार इस परियोजना को लागू करने के बजाय इसके उपर कुण्डली मार कर बैठी हुई है। सरकार इस परियोजना को लागू करने में हुई देरी को लेकर अंतराश्ट्रीय समझौते का हवाला दे रही है सरकार का कहना है कि गंगा नदी के पानी के बंटवारे के बारे में दिसंबर 1996 की भारत-बंग्लादेश के बिच हुई समझौते का क्या होगा। अगर गंगा का पानी दूसरे नदियों की ओर मोड़ा गया तो इस संधि की शर्तो को कैसे पूरा किया जाएगा। 

इस परियोजना को लेकर सिर्फ आर्थिक पक्ष ही नहीं है, बल्कि उसके साथ सामाजिक, भौगोलिक, पर्यावरणीय और राजनीतिक मुद्दे भी जुड़े हैं। जिससे परियोजना को लागू करने में अड़चने आरही है। साथ ही पड़ोसी देष के बीच जल-विवाद का क्या होगा? ये भी एक बड़ा सवाल है। राज्य भी इस परियोजना को लेकर आपती जता रहे है। ओडिशा इसे मानने को तैयार नहीं है, आंध्रप्रदेश भी अपना कदम आगे बढ़ाने के मूड में नहीं है। विदेशी पूंजी पर चलने वाले कई एनजीओ भी स्थानीय निवासियों के विस्थापन के मुद्दे को जोर-शोर से उठाते रहे है, जिसके कारण राज्य सरकारें भी हिचकीचा रही है। राहुल गांधी ने इस कार्यक्रम को विनाशकारी विचार कहकर खारिज कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह योजना देश के पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है। भारत की सत्ताधारी पार्टी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के इस बयान से प्रभावित होकर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे मानव, आर्थिक और पारिस्थितिक विनाश बताया था। केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने के बाद यह योजना दलगत राजनीति की भेंट चढ़ गई और नई सरकार को पुरानी सरकार के फैसले में खोट दिखाई देने लगा। मगर एक बार फिर से इस परियोजना ने सबका ध्यान खिंचा है, तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या देश की सारी नदीयों को एक साथ जोड़ी जाएं ?

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