06 April 2013

मुलायम की चाहत और सियासी चालबाजी !

राजनीति में वह ताकत है जो होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी में बदलने का माद्दा रखती है। राजनीति में कभी कोई स्थाई विरोधी और स्थाई दोस्त नहीं होता। कब क्या होगा यह कोई नहीं जानता। कल तक एक दूसरे की आलोचना करने वाले राजनेता कब एक दूसरे का समर्थन करने लगें इसे भी कोई नहीं जनता। लेकिन इतना जरूर है कि राजनीति अवसरों को भुनाने का सुपर एक्शन खेल है। जो इस खेल के हर बिशात को समझ जाता है केन्द्रिय राजनीत की चाभी उसी के हाथ में होती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव राजनीत के इस खेल के एक ऐसे ही खिलाडी है जिसकी हर चाल के अपने आप में एक अलग मायने होते है। वो कब किस के साथ होंगे ये समझना किसी के बस की बात नहीं होती। वक़्त से साथ अपने रुख को कैसे बदलना है ये मुलायम सिंह यादव बेहतर भला कौन समझ सकता है ? यही कारण है कि कल तक कांग्रेस के संकटमोचक रहे मुलायम आज उसके लिए चिंता का विषय बन गए हैं। कांग्रेस को डर है कि कहीं सपा उससे अपने समर्थन वापस न ले। दरअसल मुलायम सिंह की खासियत ही यही है कि वो जब भी अपनी चाल चलते है तो हुकुम का इक्का अपने हाथ में रखते है। यही कारण है कि क्या साथी और क्या विरोधी ? सभी सब कुछ जान कर भी मुलायम का खुला विरोध नहीं कर पाते। मौजदा दौर में कांग्रेस अपनों में उलझी है एक-एक करके उसके सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे है, ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास अपनी सरकार बचाने के लिए सिवाए सपा की बातों को मानने के आलावा कोई चारा नहीं है। हलाकि बसपा एक विकल्प के तौर पर है लेकिन कांग्रेस अच्छी तरीके से जानती है कि सिर्फ बसपा के दम पर वो अपनी सरकार नहीं बचा पायेगी इसलिए वो सपा की हर जायज  ना-जायज बातों को मान रही है। 

जिसकी बानगी पिछले दिनों देखने को मिली जब बेनी के बयान पर सपा ने लोकसभा में हंगामा किया और उनके इस्तीफे की मांग की। सपा अच्छी तरह से जानती थी की अपने सहयोगियों से परेशान कांग्रेस हर कीमत पर सपा को मनायेगी कि वो बेनी के इस्तीफे मांग छोड़ दे और हुआ भी यही, चलते सदन में कांग्रेस प्रमुख ने मुलायम के पास जाकर उनसे बेनी के इस्तीफे की मांग न करने का अनुरोध किया जिसे सपा प्रमुख ने मान लिया। हालाँकि एक बार फिर बेनी ने मुलयम के खिलाफ तल्ख़ टिपण्णी की है। एक बार फिर सपा ने उनका इस्तीफा माँगा है पर अंततः परिणाम फिर वही होंगे जो पिछली बार हुए। कांग्रेस सपा को मनायेगी और सपा मान भी जाएगी। दरासल बेनी का इस्तीफा तो सपा भी नहीं चाहती थी, सपा तो ये बताना चाहती थी कि तुम क्या तुम्हारी पार्टी प्रमुख भी हमारे सामने झुकेगी जो वो लगातार करके दिखा रही है । समर्थन वापसी के डर चलते कांग्रेस लगातार सपा के दबाव में आ रही है। यही कारण है कि पिछले एक महीनो कई बार सपा प्रमुख ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ तल्ख़ टिपण्णी की और कांग्रेस उसे सुनती आई। अधिकृत तौर पर कांग्रेस का कोई भी नेता मुलायम की टिप्पड़ी के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है पर अनधिकृत तौर कांग्रेस ने बेनी वर्मा आगे कर दिया है। बेनी लगातार बयानबाजी कर रहे है। दरअसल कांग्रेस की रणनीत है कि जब तक यूपी में कांग्रेस लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत न हो जाये बेनी अघोषित तौर पर पार्टी के लिए सपा के खिलाफ बयानबाजी करते है ताकि मुस्लिम मतदाताओ में सपा की छवि कुछ हद तक ख़राब हो। 

मुलायम कांग्रेस की इस रणनीत का बखूबी समझ रहे है। यही कारण है कि जब भी केंद्र की कांग्रेस सरकार से समर्थन वापसी की बात आती है मुलायम सांप्रदायिक शक्तियों के नाम कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस लेने से इनकार कर देते है। दरसल मुलायम इस बात को अच्छी तरीके से समझ रहे है कि यदि अभी केंद्र से समर्थन वापस लिया गया तो राजनैतिक रूप से सपा का नुक्सान होगा और उस पर एक धर्मनिरपेक्ष सरकार गिराने की तोहमत लगेगी जो सपा पर बेनी के लगाये आरोपों को प्रमाणित करेगा। इसलिए राजनीत में 60 बरस बिताने वाले मुलायम अभी समर्थन वापसी के पक्ष में नहीं है। मुलायम जानते है कि लोकसभा चुनावो के हिसाब से अभी सपा यूपी में तैयार नहीं है। यूपी में स्थापित उनकी सरकार कानून व्यवस्था के नाम पर पूरी तरह से विफल है। मुलायम की दृष्टि यू.पी. की बिगड़ती कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार से उपजी सरकार विरोधी आवाजों को पहचान रही है। वे अच्छी तरह जान गए हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव सपा के लिए सरल नहीं हैं। यदि यही स्थिति रही तो उनकी हार निश्चित है। वे यह भी जानते हैं कि चुनाव की दृष्टि से केन्द्र सरकार की नाकामियों, भ्रष्टाचार और घोटालों के कारण कांग्रेस की स्थिति दयनीय है। पिछले साल हुए यू.पी. विधानसभा चुनावों में युवराज राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार के बाद भी कांग्रेस की शर्मनाक पराजय को भी वे अच्छी तरह जानते हैं।

 वे यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि राज्य की बिगडती कानून व्यवसथ के चलते वर्तमान में यू.पी. में भाजपा की स्थिति मजबूत होती जा रही है और सपा के खिलाफ बड़ा चुनवी मुद्दा भाजपा के हाथ में है जिसका लाभ भाजपा को लोकसभा चुनावों में मिलना तय है। ऐसी स्थिति में अभी केंद्र सरकार को गिरना कही न कही अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। इसलिए अब वो यूपी में सपा का बिगड़ता जनाधार सँभालने में लगे हुए है। और इसके लिए उनका सबसे मुफीद हथियार साम्प्रदायिकता है। इसलिए वो लगातार ऐसी बयानबाजी कर रहे है जिसका सीधा असर मुस्लिम वोट बैंक पर हो। इसी क्रम में उन्होंने उतर प्रदेश की बिगडती कानून व्यवस्था को मीडिया का दोगलापन करार देते हुए उसे दिल्ली और गुजरात की कानून व्यवस्था से जोड़ते है। वस्तुतः मुलायम की यह पैंतरेबाज़ी एक तीर से दो निशाने लगाने वाली है। एक तरफ जहाँ वो दिल्ली की कांग्रेस सरकार के खिलाफ बने महौल को भुनाना चाहते है वो वही दूसरी तरफ गुजरात को जोड़कर मुस्लिम मतदाताओ में ये जता रहे है कि किस तरह मीडिया जान बूझकर सांप्रदायिक शक्तियों को मजबूत कर रही है। उनकी कोशिश है कि साम्प्रदायिकता की धार को प्रदेश में इतना मजबूत कर दिया जाये कि आगमी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा के खिलाफ बिगडती कानून व्यवस्था को विपक्ष चुनावी मुद्दा न बना पाए । वो चाहते है की उत्तर प्रदेश का लोकसभा चुनाव साम्प्रदायिकता के ऐसे चूल्हे पर सेका जाये जहाँ से उत्तर प्रदेश के मुलिस्मो के वोटो को पूरी तरह से सपा के लिए केन्द्रित किया जा सके।

 और जब तक पूरी तरह से यूपी में सिक नहीं जायेगा  मुलायम केंद्र की कांग्रेस सरकार अपना समर्थन वापस नहीं लेंगे। अब देखना ये होगा कि प्रदेश में साम्प्रदायिकता को मजबूत करने की मुलायम ये कोशिश लोकसभा चुनाव में क्या गुल खिलाती है? और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश से सपा के लिए कितनी सीट निकाल पाते हैं ? रही बात मुलायम के तीसरे मोर्चे की। तो मुलायम ये बात अच्छी तरह से समझ रहे है कि मौजूदा दौर कांग्रेस और भाजपा दोनों के खिलाफ है एक तरफ जहाँ आम जनता कांग्रेस की महंगाई और भ्रष्टाचार से उबी है तो वही दूसरी अल्पसंख्यक वर्ग भाजपा के मोदी प्रेम के चलते उससे अलग हो जायेगा। ऐसे में उन्हें अपनी बरसो पुरानी हसरत पूरी होती दिख रही है। हसरत इस देश का प्रधानमंत्री बनने की। उन्हें लग रहा है कि अगर इस मौके को भुनाया जाये तो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचना आसन होगा। मुलायम जानते है कि प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना तीसरे मोर्चे की सरकार आने पर ही पूरा हो सकता है इसलिए वो लगातार जनता के सामने तीसरे मोर्चे को विकल्प के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है। हालाँकि ये कोई पहली बार नहीं हो रहा जब तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प बनाने के प्रयास किये जा रहे हो इससे पहले भी कई बार तीसरे मोर्चे को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिशे वामपंथी दलों विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में की गयी जो हर बार विफल रही। 

तीसरे मोर्चे के गठन की अब तक कवायद पर गौर करे तो पता चलता है जब भी इस तरह की जब भी कोई कोशिश हुई, वो कोशिश मुह के बल गिरी। १९९६ में जब अटल सरकार अल्पमत में आ गयी तो वामपंथी पार्टियों ने छोटे दलों को जोड़ कर तीसरे मोर्चे का गठन किया। कांग्रेस और सी.पी.एम ने इस मोर्चे को बाहर से समर्थन दिया जबकि प्रमुख वामपंथी पार्टी सी.पी.आई सरकार में शामिल हुई और एच.डी देवगौड़ा के नेतृत्व में केंद्र में तीसरे मोर्चे ने सरकार बनायीं किन्तु देवगौड़ा के नेतृत्व में बनी सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पायी और देवगौड़ा की जगह पर तीसरे मोर्चे ने इंद्र कुमार गुजराल को देश का प्रधानमंत्री बनाया पर गुजराल की सरकार भी ज्यादा नहीं चल पायी और तीसरे मोर्चे की यह सरकार लगभग दो साल के कार्यकाल में ही सिमट कर रह गयी। वर्तमान दौर में मुलायम की जो तीसरे मोर्चे को स्वरुप में लाने की चाहत उभरी है वो वस्तुतः १९९६ की इसी घटना की देन है जब एच.डी. देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद लेफ्ट के सपोर्ट से मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद के बेहद नजदीक पहुंच गए थे पर अपने ही समाजवादी नेताओं की यादवी लड़ाई में मुलायम उस समय पीएम बनते-बनते रह गए और आइ.के. गुजराल पीएम बन गए। अप्रैल १९९७ की वो कसक सपा प्रमुख के दिल में अभी तक है और उन्हें लगता है की अब वो समय आ गया जब उनका १५ साल पुराना सपना पूरा हो सकता है इसीलिए वे राष्टीय स्तर पर इस कोशिश में लगे है कि सभी छोटे दलों को मिलाकर तीसरे मोर्चे का गठन किया जाये।

 हलाकि की तीसरे मोर्चे के गठन की सम्भावना काफी कम दिखती है क्योकि संभावित रूप से तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाले दलों की अपनी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा है लेकिन फिर भी चूँकि राजनीत अंतहीन समझौतो और संभावनाओ का खेल है इसलिए अभी से कुछ भी कहना सही नहीं होगा। पर इतन तय है कि तीसरा मोर्चा की सरकार न आने की स्थिति में भी मुलायम सत्ता के लिए अपना मोह नहीं छोड़ पाएंगे और जरुरत पड़ने पर वो भाजपा के साथ भी जायेंगे जिसका इजहार वो आडवानी प्रेम के रूप में कर चुके हैं।

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