भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी की घोषणा कर दी है, यह अनुमानों के अनुसार ही था। जैसा कि सभी
को पहले से पता था कि इस बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी को
शामिल किया जाएगा। मोदी को ना सिर्फ इस शीर्ष समिति में शामिल किया गया
बल्कि उनके नजदीकी गुजरात के गृहमंत्री रहे अमित शाह को शामिल किया जो कथित
तौर पर सोहराबुद्दीन फर्जी इनकाउंटर मामले में लिप्त हैं और कोर्ट में इस
संबंध में केस चल रहा है। एक बार तो शाह को राज्य से बाहर यानि की तड़ीपार
भी किया गया था। अमित शाह को गुजरात में नरेंद्र मोदी के बाद मुख्यमंत्री
के तौर पर देखा जा रहा है। शाह, मोदी के सबसे प्रमुख विश्वासपात्रों में से
एक हैं। बिडंबना देखिए कि राजनाथ सिंह ने ही छह साल पहले नरेंद्र मोदी को यह
कहते हुए पार्टी की केंद्रीय समिति से बाहर कर दिया था कि जब कोई अन्य
मुख्यमंत्री समिति में नहीं हैं तो मोदी क्यों? लेकिन इस बार तो सब कुछ
जैसे मोदीमय लग रहा है। वैसे भी पुरानी कहावत है कि समय होत बलवान जगत में,
समय होत बलवान। और अभी मोदी सभी पर भारी पड़ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ, पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर मीनाक्षी लेखी को लाया
गया है जो मोदी की धुर प्रशंसक हैं और उनकी तरफ से विभिन्न टेलीविजन चैनलों
पर बहस हिस्सा लेती रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भाजपा इस बार फिर से
अपने पुराने राग पर लौट आई है, लेकिन इस बीच पार्टी का चाल,चेहरा और चरित्र
पूरी तरह से बदल चुका है और वह सत्ता प्राप्त करने के लिए हर तरह के
हथकंडे अपनाना चाहती है चाहे वह कथित तौर पर कट्टर हिदुत्व का मामला हो या
कोई और। भाजपा की केंद्रीय समिति में वरुण गांधी, उमा भारती जैसे चेहरों को
शामिल करके पार्टी यही संदेश देना चाह रही है।
केंद्रीय समिति में बिहार से नीतीश कुमार के आलोचक और पूर्व बिहार भाजपा
अध्यक्ष और प्रसिद्ध चिकित्सक सी.पी.ठाकुर को शामिल करके पार्टी ने नीतीश
कुमार को स्पष्ट तौर पर संदेश दे दिया है। बिहार से ही मोतिहारी के सांसद,
राधामोहन सिंह को पार्टी अनुशासन समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। जबसे नरेंद्र मोदी ने गुजरात में तीसरी बार सफलता हासिल की है तभी से
भारतीय जनता पार्टी में उनका कद लगातार बढ़ता जा रहा था। मोदी ने गुजरात
में 2002 में हुए गोधरा दंगों को भूलाकर गुजरात को विकास की नई पटरी पर
खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है और इसे उनके घोर विरोधी भी स्वीकार करते
हैं। हां, ये बात अलग है कि हरेक राजनीतिक दल की तरह उनकी कृपा भी अन्य
उद्ममियों की अपेक्षा में एक विशेष समूह अडानी समूह पर ज्यादा बनी रही और
उनके शासन के दौरान यह देखने आया कि अडानी समूह ने बड़ी तेजी के साथ हर
क्षेत्र में विकास की। चाहे वह बिजली परियोजना हो या कोई और अडानी समूह का
हस्तक्षेप हर जगह है, दूसरे उद्ममियों को भी गुजरात ने इस बीच अपनी ओर
आकर्षित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। पश्चिम बंगाल के सिंगुर विवाद के
बाद टाटा को अपनी फैक्ट्री लगाने के लिए नरेंद्र मोदी ने हर तरह की सुविधा
उपलब्ध कराने में सहयोग किया। आज गुजरात में भरपूर बिजली मिल रही है और
इसका परिणाम यह है कि हर उद्ममी के लिए वह प्राथमिकता सूची में पहले स्थान
पर कायम है।
गुजरात में नरेंद्र मोदी विकास के लाख वादें करें लेकिन राज्य में
कुपोषण की दर काफी है, ऐसा लगता है जैसे प्रमुख शहरों में दिन-रात चमकती
बिजली और औद्योगिकीरण के बाद राज्य के दूर-दराज और गांवों में रहने वाले
लोगों की अपेक्षा हुई है। जैसा कि दिल्ली और अन्य राज्यों के महानगरों में
भी देखने को मिलता है। बड़ी-बड़ी सड़के और अट्टालिकाओं के बीच मध्यम वर्ग
और गरीब तथा झोपड़ियों में रहने वालों की सुध लेना नेताओं के लिए जरूरी
नहीं रह गया है। जब-जब कांग्रेस पार्टी और अन्य दल नरेंद्र मोदी और गोधरा कांड की चर्चा
करते हैं, तब-तब नरेंद्र मोदी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण तेजी से होता
है। दूसरी पार्टियां जहां मुस्लिम वोटों के लिए गोधरा कांड को चर्चा में
बनाए रखना चाहती है तो इसी कारण से कांग्रेस को तीसरी बार गुजरात में हार
का सामना करना पड़ा है। हाल के दिनों में यह देखने को मिला है कि नरेंद्र मोदी के या तो पक्ष
में बातें की जाती है या उनके धुर विरोध में, लेकिन चर्चा का केंद्र मोदी
ही रहते हैं। राजनाथ सिंह भली-भांति से इस स्थिति को समझते हैं और उन्होंने
पार्टी की नैया पार लगाने के लिए नरेंद्र मोदी पर दांव लगाने का निर्णय
लिया है। नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए के कुछ घटक दल नाराज हो सकते हैं,
लेकिन आज की परिस्थिति में भाजपा के लिए यह भी उचित नहीं है कि वह नमो यानि
नरेंद्र मोदी को नकार सके।
बिहार में जनता दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी का संयुक्त गठबंधन
शासन कर रहा है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धमकी देते रहे हैं कि वे
नरेंद्र मोदी को आगे करने पर पार्टी के साथ अपना गठबंधन तोड़ देंगे, लेकिन
अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा है। हां, पर्दे के पीछे से नीतीश
कुमार कांग्रेस के साथ जरूर गलबहियां कर रहे थे, जिसका परिणाम बजट सत्र के
दौरान दखने को मिला जब नीतीश कुमार ने केंद्रीय बजट को सराहा और वित्त
मंत्री पी.चिदंबरम ने विशेष राज्य के दर्जा के लिए जरूरी बदलाव के संकेत
दिए। लेकिन यह बात नीतीश कुमार को अच्छी तरह से पता है कि मौजूदा समय में
बिहार और देश में कांग्रेस की हालत अच्छी नहीं है और देश भर में कांग्रेस
के खिलाफ एक लहर सी है। यूपीए-2 के दौरान आए दिन भ्रष्टाचार के मामले देखने को मिले। यहां तक कि
पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री और डीएमके के नेता ए.राजा ने कहा कि 2जी
स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले का बारे प्रधानमंत्री को सारी बातें मालूम थीं और
प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष सचिव पुलक चटर्जी भी सारी बातों से अवगत
थे, तो फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश के सामने झूठ बोला कि उन्हें हकीकत
मालूम नहीं था, जबकि स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। सभी ने देखा कि किस तरह से
डीएमके के द्वारा समर्थन वापस लेने के अगले ही दिन सीबीआई या दूसरे शब्दों
में कहें तो कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन ने किस तरह से डीएमके प्रमुख
करुणानिधि के पुत्र स्टालिन के बेटे के घर पर छापा मारा और छापा मारने का
कारण दो महीने पहले खरीदी गई विदेशी गाड़ी पर आयात शुल्क ना चुकाना कारण
बताया गया।
सीबीआई छापे से केंद्र सरकार मायावती और मुलायम को संदेश देने में
कामयाब रही, क्योंकि दोनों नेताओं के खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति का मामला
सीबीआई के यहां लंबित है। छापे का परिणाम यह हुआ कि मायावती और मुलायम ने
अपना समर्थन जारी रखने का एलान कर दिया। यह केंद्र सरकार के लिए राहत की
ख़बर थी क्योंकि केंद्र सरकार डीएमके के समर्थन लेने के बाद से अल्पमत में
चल रही है और उसे बचाए रखने के लिए मायावती, मुलायम के समर्थन की बेहद
जरूरत है। देश भर में मंहगाई और भ्रष्टाचार के कारण सत्ताधारी दल के विरुद्ध माहौल
बन रहा है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि विपक्षी पार्टियां इस
माहौल को अपने पक्ष में किस तरह से भुनाती हैं, क्योंकि विपक्षी पार्टियों
द्वारा शासित राज्यों में भी अच्छी स्थिति नहीं है। अब नरेंद्र मोदी के सामने आने वाले विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन
करने की चुनौती है। पार्टी में एकमात्र वे ऐसे नेता हैं जिनका कद राज्य के
बाहर है और उनमें वोटों के ध्रुवीकरण की क्षमता भी है।
कर्नाटक और दिल्ली विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव नमो के लिए एक
परीक्षा की घड़ी है और पूरे देश पर इसका असर पड़ने की संभावना है। वैसे सभी
दलों की नज़र यूपी में अधिक से अधिक लोकसभा सीट लाने पर है, क्योंकि यूपी
में 80 लोकसभा सीट है और जो भी पार्टी यहां अच्छा प्रदर्शन करेगी। आगामी
सरकार के गठन में उसकी भूमिका निश्चित तौर पर निर्णायक होगी।
मुलायम सिंह यादव ने साल भर पहले से इस संबंध में तैयारी शुरू कर दी है
और पार्टी प्रत्याशियों के नाम भी घोषित कर दिए हैं, लेकिन हाल के दिनों
में यूपी में प्रशासन की कमजोरी और दंगों के भड़कने से समाजवादी पार्टी का
मुस्लिम वोट प्रभावित हुआ है। इसके अलावा, मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस की
अगुवाई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से सौदेबाजी के लिए एनडीए के शासन
को बेहतर तक बता डाला। सपा का एकमात्र मकसद कांग्रेस से अधिक से अधिक वित्तीय मदद झटकना है
जिससे कि अखिलेश सरकार विभिन्न योजनाओं को पूरा कर सके और आगे के लिए
संभावना भी बनाई रखी जा सके। यानि कि दोनों हाथों में लड्डू, लेकिन यह कई
बार भारी भी पड़ता है जैसा कि पहले कल्याण सिंह और साक्षी महाराज का सपा
में शामिल करके पार्टी भुगत चुकी है, लेकिन पहलवान मुलायम सिंह कब कौन
पैंतरा बदल दें, ये तो वही जाने। आखिर में वे कुश्ती के पुराने खिलाड़ी रहे
हैं और राजनीति में दांव-पेंच बहुत मायने रखता है। खैर, हम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा आगामी चुनाव लड़ने की
बात कर रहे थे और अभी देखना बाकि है कि राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है।
यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
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