केंन्द्रीय सत्ता बनाम नक्सलवाद की लड़ाई में सरकार तीसरें रास्तें के आसरे विकल्प तलास रहीं है। ये विकल्प केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से नक्सलियों के आत्मसमर्पण को लेकर जारी की गई नई नीति केंद्रीय सत्ता के समर्पण को बयान कर रही है। नक्सलियों को मुख्यधारा में शामिल करने के उद्देश्य से जिन तमाम उपायों की घोषणा की गई है, उससे तो यही लगता है कि उन्हें शासन के खिलाफ बगावत करने के लिए पुरस्कृत किया जा रहा है। और सरकार इन नक्सलियों के आगे घुटने टेक रही है। इस नई नीति के तहत नक्सली संगठनों की केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो में शामिल कथित बड़े नक्सलियों को ढाई लाख रुपये और राज्य कमेटी में शामिल सदस्यों और कमांडर कहे जाने वाले नक्सलियों को डेढ़ लाख रुपये की सहायता दी जाएगी। इसके अलावा उन्हें रोजगार के लिए तीन साल तक प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस दौरान उन्हें चार हजार रुपये की मासिक सहायता भी प्रदान की जाएगी। साथ ही यदि वे हथियारों के साथ समर्पण करते हैं तो उन्हें उसके लिए अलग से पैसा दिया जाएगा। इतना ही नहीं उनके मामलों का निपटारा फास्ट ट्रैक अदालतों में होगा और इस दौरान सरकार उन्हें कानूनी सहायता भी देगी? छोटे-मोटे मामलों में शामिल रहे नक्सलियों को माफी देने का भी प्रावधान है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या लोगों को नक्सली बनने के लिए इनाम दिया जा रहा है।
देष में जब भी नक्सल आत्मसर्मपण की पेषकष हुई है, तो इसे नक्सली संगठनों ने ठुकराने का ही काम किया है। जब कभी भी संघर्ष विराम हुआ भी तो नक्सलियों ने उस अवधि का इस्तेमाल खुद को संगठित करने और अपने आप को ताकतवर बनाने में किया। तो सवाल यहा भी खड़ा होता है की फिर सरकार किस अधार पर इस नीति को लागू करना चाहती है? क्या यहा भी उसे वोट की सियासत नज़र आ रही है? या फिर मनरेगा जैसा कोई नया घोटाले का समंदर ? ये सवाल यहा हम इसलिए भी उठा रहे है क्योंकि अब तक सरकार के पास एैसी कोई अधिकारिक आकड़ा मौजूद नहीं है जिसके अधार सरकार ये तय कर पायेगी की कौन से गांव में कौन नक्सली है और कौन आम नागरीक। भारत सरकार नक्सलियों से जिस तरह निपट रही है उससे दुनिया भर में पहले से ही उसकी भद पिट रही है। आंतरिक सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने के मामले में भारत एक नरम राष्ट्र के रूप में उभर सामने आया है। एैसे में नक्सलियों के साथ सरकार की इस नीति से कई अहम सवाल खड़े हो रहे है।
देष में जब भी नक्सल आत्मसर्मपण की पेषकष हुई है, तो इसे नक्सली संगठनों ने ठुकराने का ही काम किया है। जब कभी भी संघर्ष विराम हुआ भी तो नक्सलियों ने उस अवधि का इस्तेमाल खुद को संगठित करने और अपने आप को ताकतवर बनाने में किया। तो सवाल यहा भी खड़ा होता है की फिर सरकार किस अधार पर इस नीति को लागू करना चाहती है? क्या यहा भी उसे वोट की सियासत नज़र आ रही है? या फिर मनरेगा जैसा कोई नया घोटाले का समंदर ? ये सवाल यहा हम इसलिए भी उठा रहे है क्योंकि अब तक सरकार के पास एैसी कोई अधिकारिक आकड़ा मौजूद नहीं है जिसके अधार सरकार ये तय कर पायेगी की कौन से गांव में कौन नक्सली है और कौन आम नागरीक। भारत सरकार नक्सलियों से जिस तरह निपट रही है उससे दुनिया भर में पहले से ही उसकी भद पिट रही है। आंतरिक सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने के मामले में भारत एक नरम राष्ट्र के रूप में उभर सामने आया है। एैसे में नक्सलियों के साथ सरकार की इस नीति से कई अहम सवाल खड़े हो रहे है।
जहानाबाद जेल ब्रेक से लेकर लालगढ के दौर में न सिर्फ नक्सलवादी की मारक क्षमता बढ़ती हुई दिखायी दे रही है बल्कि संसदीय राजनीति और राज्य व्यवस्था नक्सलवादी प्रभावित इलाकों में प्रभावहीन होकर उभर रही है। तो वही सरकार कर्रवाई करने के बजाय नरमी दिखा रही है, जो पूरी तरह से सरकार की संवेदनहीनता को दर्षा रही है। आज संसदीय राजनीति में हाथ जलाये बगैर राजनीतिक दलों को भी नक्सलियों ने अपने प्रयोग में मोहरा बनाया है। षायद यही कारण है की सरकार इस प्रकार के नक्सल समर्थित नीति को आगे बढ़ाने की दिषा में बल दे रही है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या, नक्सली बनों पैसा पाओ जैसी ये नीति सही है ?
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