12 April 2013

क्या रिस्तें पैसें की बली चढ़ रहे है ?

                                इनसानों ने पैसे के लिए आपस का प्यार मिटा डाला,
                               हँसते बसते घर फूँक दिए धरती को नर्क बना डाला।

                                मिट्टी से निकाला सोने को सोने से बनाए महल मगर,
                               जज़बातों के नाज़ूक रिश्ते को मिट्टी के तले दफ़ना डाला।

इंसानियत का रिश्ता इंसानों को जानवरों से अलग करता है लेकिन इंसान उस रिश्ते की ही बलि चढ़ा दे तो फिर फर्क क्या रहेगा ? जी हां, आज हम एैसा इसलिए कह रहें है की क्योंकि इस भौतिकवादीता के आंधी में कुछ भी शाश्वत नहीं रह गया है। बदलते जमाने ने मौसमों की तरह रिश्तों की तासीर को बदल डाली है। खून और पानी में कोई अंतर नहीं दीख रहा है, क्योंकि रुपए-पैसों और जमीन-जायदाद के आगे सारे रिश्ते बेमानी हो गए है। हर आंगन और परिवार कुरुक्षेत्र बन गया है और जमीन का टुकड़ा हस्तिनापुर। तो एैसे में सवाल भी खड़े होने लगे है, की क्या आज रिस्ते नाते पैसे की बली चढ़ रहे है। हर भाई धृतराष्ट्र की भूमिका में नज़र आ रहा है तो बेटा दुर्योधन बन बैठा।


शेक्सपियर की नाटक किंग लियर के तरह आज हू बहू रिस्तें कलंकीत होने लगे है, जो आज के समकालीन संदर्भ में सटीक बैठता है। खून पानी ही होता होगा शायद, तभी तो चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे पर रिवॉल्वर तानते हुए एक बार भी नहीं सोचा। तो वही रीयल स्टेट कारोबारी दीपक भारद्वाज की हत्या सुपारी देकर उसके अपने ही बेटे ने करवा दी। हाल ही में घटीत ये दोनों घटनाए सिर्फ उदाहरण मात्र है। लेकीन शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब अखबारों में रिश्तों के बली चढ़ने की खबरें न होती होंगी। आज देष में हर रोज एैसी हजारों घटनाए आम आम बात हो गई है, जो इस ओर इषारा कर रही है की रिस्तें पैसे की बली चढ़ रहे है। पैसे की मोह में आज रिस्तें दरकने की बात हर रोज सामने आ रही है। ये घटनाए एक सभ्य समाज के विनाश के पूर्व की आहट है, जिसे हम सब को समझने की दरकार है।

 तेजी से विकसित हो रहे शहरीकरण में ऐसी घटनाएं भारतीय समाज पर सवालिया निशान लगाती हैं। समाज रूपी परंपरा आज टूट रही है और भौतिकता हर ओर अपना पैर पसार रही है। हर रिश्ते की अपनी एक मर्यादा होती है लेकिन जब कोई मर्यादा को लांघ जाता है तो रिश्ते अपनी गरिमा ही नहीं विश्वास भी खो बैठते हैं। एैसे में आज हम सब को इसकी चिंता करनी की जरूरत है। इस रिस्तें की पतझड़ में आधुनिकता की तूफ़ान हमारे समाज को जड़ से न उखाड़ दे, इसकी चिंता आज लोगों को सताने लगी है। सांस्कृतिक आदर्शांे की बलि भोगवादी परंपरा को जन्म दे रही है, जहा पैसें रिस्तेंकी अहमीयत को तय करते है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या रिस्तें पैसें की बली चढ़ रहे है?

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