बात अँग्रेजों के ज़माने की है। तब हमारा मुल्क गुलाम था। अँग्रेज़ तो
हम पर हुकूमत के ही इरादे से आए थे। लिहाजा सत्ता-व्यवस्था में भारतीयों की
भागीदारी उन्हें मंज़ूर न थी। इसीलिए शासक हमेशा ग्रेट ब्रिटेन से
एक्सपोर्ट किए जाते थे। सन सत्तावन के विद्रोह से यही कोई चार साल पहले ब्रिटिश क्राउन को अहसास
हुआ कि भारत में भी शिक्षित लोग रहते हैं। उन्हें भी अँग्रेज़ों की ही तरह
पढ़ने-बढ़ने का अधिकार है। लिहाजा 1853 में क़ानून बना। भारतीय अब आईसीएस
की परीक्षा में बैठ सकते थे। शर्त यह थी कि परीक्षा के लिए ब्रिटेन जाना
पड़ेगा। अधिकतम आयु सीमा 23 साल तय की गई थी। और भी कई छोटे-मोटे पेंच थे।
मतलब क़ानून और क्राउन की मंशा एक ही थी। असंतोष का साँप मरा, अँग्रेज़ों की लाठी भी नहीं टूटी। कहने की ज़रूरत नहीं
कि 1864 से पहले तक एक भी भारतीय आईसीएस की परीक्षा पास नहीं कर पाया।
भारतीयों में शिक्षा के प्रसार से जैसे-जैसे उनके आईसीएस बनने के आसार
बढ़े, नियम भी कड़े होते चले गए। 1853 में जो आयु-सीमा 23 साल थी, वह 1879
में महज 19 साल पर आ अटकी। 1861 में भारत लोक सेवा अधिनियम बना। कुछ उच्च और महत्वपूर्ण पदों को
आरक्षित कर दिया गया। 1864 में रविन्द्र नाथ टैगोर के बड़े भाई सत्येन्द्र
नाथ ठाकुर ने इतिहास रचा। वह आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले पहले
भारतीय बने। लीक बनी और इस तरह 1876 तक 12 भारतीय आईसीएस अधिकारी बनने में
कामयाब रहे। अंग्रेजों की परेशानी अब बढ़ने लगी। शासितों और गुलामों की शासन में
भागीदारी, सिस्टम के लिए ख़तरनाक मानी गई। लिहाजा 1879 में लॉर्ड लिटन के
प्रयासों से नया प्रादेशिक सिविल सेवा क़ानून बना।
अब उच्च सामाजिक स्थिति
वाले व्यक्तियों को परीक्षा के झंझटों से मुक्ति दे दी गई और उनके मनोनयन
की जिम्मेदारी प्रांतीय सरकारों को सौंप दी गई। अँग्रेज़ी कुचक्र के कारण आईसीएस अधिकारी बन पाने में विफल रहे
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने इसका विरोध किया। 1885 में कांग्रेस के पहले
अधिवेशन में यह मुद्दा उठा। लॉर्ड डफरिन को चार्ल्स एचिसन की अध्यक्षता में
आयोग गठित करना पड़ा। हमारी जिज्ञासा का केन्द्र यह इतिहास नहीं है। हम तो यह जानना चाहते हैं कि
लिटन का ‘मोटिव’ क्या था? आईसीएस की परीक्षा तो सन 1922 तक ब्रिटेन में ही
होती रही। देश के तमाम लोग सामंत और साभ्रांत नहीं थे। जो सामंत और
साभ्रांत थे, वही अंग्रेज़ी की पढ़ाई और परीक्षा के लिए ब्रिटेन जाने की
औक़ात भी रखते थे। फिर उच्च सामाजिक स्थिति से लिटन का क्या तात्पर्य था? कहीं ऐसा तो नहीं कि लॉर्ड लिटन की दृष्टि में वही व्यक्ति उच्च-सामाजिक
स्थिति वाला हो सकता था, जिसकी अंग्रेजों(सिस्टम) के प्रति स्वामी-भक्ति
असंदिग्ध हो! ताकि व्यवस्था में उसकी भागीदारी क्राउन के लिए ख़तरा नहीं बन
सके! निस्संदेह आईसीएस परीक्षा के लिए शर्तों को कठोरतम बनाने और मनोनयन
द्वारा अपने विश्वासपात्रों में पद बांटने के लिए ही लिटन ने यह क़ानून
बनवाया था। आज़ादी से पहले क्राउन के ‘बिहाफ’ में ईस्ट-इंडिया कम्पनी और वायसराय शासन
करते थे। आज़ादी के बाद जनता के ‘बिहाफ’ में ‘देसी लॉर्ड’ का शासन स्थापित
हुआ। मान्यता थी कि आज़ाद मुल्क की अपनी भाषा भी होती है। लिहाजा
सर्वसम्मति से ‘हिन्दी’ भारत की ‘राजभाषा’ घोषित कर दी गई। लेकिन हिन्दी
जनता की भाषा थी। और जनता की भाषा में राजकाज का कोई इतिहास नहीं था।
इसीलिए ‘भारत का संविधान’, दरअसल ‘कंस्टिच्यूशन ऑव इंडिया’ का अनुवाद है।
आज़ादी के बाद भी कई दशकों तक यूपीएससी(आईसीएस का पोस्ट-इंडिपेंडेंट
फॉर्म) की परीक्षाओं में अँग्रेज़ी की अनिवार्यता बनी रही। बाद में
क्षेत्रीय राजनीति की मजबूरी ने ‘हिन्दी’ और अन्य भारतीय भाषाओं को भी जगह
दिलवा दी। आज़ादी के दशकों बाद तक, आम-आदमी तो क्लर्क और चपरासी से ऊँचे
ओहदे का सपना भी नहीं देख पाया। लिहाजा व्यवस्था का संकट पैदा नहीं हुआ।
शिक्षा के प्रसार और निम्न-मध्यवर्गों में आई चेतना ने ‘सिस्टम’ के सामने
जब नई चुनौतियां पेश करनी शुरू कर दीं तो परेशानी बढ़ी। खुली प्रतियोगिता के कारण आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में ग़रीब
परिवारों के बच्चे योग्यता और प्रतिभा के बल पर दाखिला लेने लगे। अँग्रेजी
की अनिवार्यता खत्म होने के बाद यूपीएससी में भी इसी वर्ग के युवा ‘इंग्लिश
स्पोकेन’ अभिजात्य पर भारी पड़ने लगे। चूँकि भारत अब ब्रिटिश उपनिवेश नहीं
है, लिहाजा इन पर अंकुश लगाने में व्यवस्था को थोड़ी हिचक हो रही थी।
इसलिए पहले इन नये रंग-रूटों की ‘मशरूमिंग’ कर उन्हें अपने रंग में ढाला
गया। लेकिन अब प्रतिभा की बाढ़ ने परंपरागत अभिजात्य तबके के सामने
अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। महंगे इंग्लिश स्कूल-कॉलेजों में मोटी फीस के एवज़ में उपहार स्वरूप मिले
95-99% वाले अंक-पत्रों और अँग्रेजी में महारथ के बाद भी यह लोग सिस्टम में
अपनी धाक बनाए रखने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इनकी विशेषता ‘इंग्लिश
स्पोकन’ होना ही है।
एक और अहम कारण यह कि निम्न और निम्न-मध्यवर्ग के आईएएस-आईपीएस सिस्टम को
ठीक उसी तरह सपोर्ट नहीं कर सकते, जैसा कि अभिजात्य वर्ग से आनेवाले
अधिकारी करते रहे हैं। पिछले दो दशकों से भूमंडलीकरण और उद्योगीकरण की
घुड़दौड़ ने व्यवस्था को जनता की नज़रों में नंगा किया है। कई आलाधिकारियों
ने सरकारी नीतियों पर सवाल उठाए हैं। ऐसे में सिस्टम को ऐसे रंगरूटों की
ज़रूरत है जो सिर्फ उसके आदेशों का पालन करे। ऐसे में मैकॉले के बाद लॉर्ड
लिटन की याद स्वभाविक थी। अगर आज़ादी के बाद से भारतीय शासन-व्यवस्था को
आपने क़रीब से देखा है, तो यह प्रयास अस्वभाविक नहीं था। सरकार पहले आईआईटी को लेकर गंभीर हुई।
प्रवेश पानेवाले बच्चों के ‘लेवल’ को
लेकर चिंता ज़ाहिर की और जो नया ‘फॉर्मूला’ दिया, उससे यह मंशा जाहिर हो
गई कि सरकार आखिर किन छात्रों का प्रवेश रोकना चाहती है। और अब सिविल
सर्विसेज में अँग्रेज़ी को अनिवार्य करने का कुचक्र रचा गया। मानो
आईएएस-आईपीएस बनने के बाद आपको भारत में नहीं, यूरोप और अमेरिका में काम
करना है! या कि भारत की जनता अँग्रेजी ही बोलती और समझती है? मतलब साफ है कि सरकार वैसे अधिकारी चाहती है, जो जनता की नहीं, बल्कि
सिस्टम की भाषा को समझे। सिस्टम का फ़र्माबरदार बन सके। यह काम तो
सुविधाभोगी वर्ग ही कर सकता है। पैटर्न में बदलाव का मक़सद भी यही था। लिटन
टर्मिनोलॉजी में कहें तो सिविल सर्विसेज को अब सीधे-सीधे समाज में
परंपरागत रूप से उच्च-स्थान प्राप्त व्यक्तियों के लिए ‘रिज़र्व’ करने की
साजिश चल रही है। आईआईटी जेईई के पैटर्न में बदलाव का मकसद भी यही था। खनिज-सम्पदा वाले राज्यों में निरंकुश पुलिस-तंत्र। जनता के साथ गुलामों
जैसा सलूक। प्रतिभाओं को कुचलने के लिए प्रतिकूल नीतियाँ। करीब सात दशक बाद
भी अँग्रेज़ी की अनिवार्यता! यह परिदृश्य इस बात का सबूत है कि देश छोड़कर
सिर्फ अँग्रेज़ ही गए थे। भारत अँग्रेजों का तो नहीं, अँग्रेज़ी का
उपनिवेश आज भी है।
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