पश्चिम बंगाल में इन दिनों शायद ही कोई
ऐसा दिन गुज़रता है जब राजनीतिक हिंसा की कोई ख़बर ना सुनाई देती हो. कभी किसी
पार्टी दफ़्तर पर हमला हो जाता है तो कभी किसी पार्टी कार्यकर्ता की हत्या होजाती
है, तो
कहीं पार्टी समर्थक आपस में भिड़ जाते है. इसलिए अब ये सवाल उठने लगा है की क्या
वाकई बंगाल में लोकतंत्र है..?
इतना हीं नहीं 9 फ़रवरी 2019 को नदिया ज़िले की कृष्णागंज सीट से तृणमूल कांग्रेस के विधायक सत्यजीत बिस्वास पर सरस्वती पूजा के एक कार्यक्रम में दिन-दहाड़े गोलियां चलाई गईं. कुछ महीने पहले 4 अक्तूबर 2020 को कोलकाता के पास उत्तर 24 परगना ज़िले के टीटागढ़ शहर में बीजेपी के एक स्थानीय युवा नेता मनीष शुक्ला को सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया गया. थाने से महज़ 50 मीटर दूर हुई इस हत्या के लिए भी तृणमूल कांग्रेस पर आरोप लगा क्योंकि मनीष पहले टीएमसी के पार्षद थे.
2018 के मई महीने में पुरुलिया ज़िले में बीजेपी कार्यकर्ता त्रिलोचन महतो की लाश पेड़ से लटकी मिली थी, साथ ही उसके कपड़े पर एक संदेश भी लिखा मिला था. पिछले महीने 10 दिसंबर की घटना भी सुर्खियों में आई जब कोलकाता में भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और पार्टी के पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय के काफ़िले पर TMC के हमलावरों ने धावा बोल दिया.
बीजेपी ने इसे 'गुंडाराज' क़रार दिया तो ममता बनर्जी ने इसे 'नौटंकी' बताया. पश्चिम बंगाल में आए दिन हिंसा
की घटनाओं का सिलसिला जारी है, बयानों में बांग्ला भाषा का एक शब्द आजकल सबसे प्रचलित है- ‘खेला होबे’ इस खेला में न जाने अब तक कितने
अलोकतान्त्रिक खेल होचुका है. बंगाल आतंक, दहशत और खूनी ख़बरों से सना हुआ है.
माहौल डरावनी और भयावह है और इस दहशत भरी भीड़ में लोकतंत्र की धुंधली तस्वीर एक नई
उम्मीद भरी निगाहों से अब भी टकटकी लगाई बैठी है की कब बंगाल की तक़दीर और तस्वीर
बदलेगी.
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