13 April 2021

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट व उसके सहयोगी दलों का खूनी इतिहास

बंगाल में लेफ्ट उसके सहयोगी दलों का एक लंबा खूनी इतिहास रहा है. राजनीतिक हिंसा में बंगाल कई दशकों से खून से सना हुआ है. बंगाल की सियासत हिंसा और अपराध के इर्दगिर्द घूमते रही है. बीते लगभग पांच दशकों के दौरान यह राजनीतिक बर्चस्व की लड़ाई में हत्याओं और हिंसा को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. इस दौरान सत्ता संभालने वाले चेहरे जरूर बदलते रहे, लेकिन उनका चाल-चरित्र रत्ती भर भी नहीं बदला.


मशहूर बांग्ला कहावत है 'जेई जाए लंका सेई होए रावण' यानी जो लंका जाता है वही रावण बन जाता है. इसी तर्ज पर सत्ता संभालने वाले वाम सहित तमाम दलों ने इस दौरान हथियार को और धारदार बनाया है. अब राज्य के लोग भी इसके आदी हो चुके हैं. एक अनुमान के मुताबिक, बीते छह दशकों में राज्य में लगभग 30 हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं. इस मामले में देश के शीर्ष तीन राज्यों में बंगाल शीर्ष पर शुमार रहा है. सत्तर-अस्सी के दशक की हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह खून का बदला खून की तर्ज पर यहां खूनी राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी मजबूत हैं.


वर्ष 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े. वर्ष 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए लेफ्ट फ्रंट ने सत्ता पाने के बाद हत्या को संगठित तरीके से राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया. सीपीएम काडरों ने वर्ष 1969 में ही बर्दवान जिले के सेन भाइयों की हत्या कर अपने राजनीतिक नजरिए का परिचय दिया था. 


वह हत्याएं बंगाल के राजनीतिक इतिहास में सेनबाड़ी हत्या के तौर पर दर्ज है. वर्ष 1977 से 2011 के 34 वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान जितने नरसंहार हुए उतने शायद देश के किसी दूसरे राज्य में नहीं हुए. अप्रैल, 1982 में सीपीएम काडरों ने महानगर में 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था. ऐसे अनेकों खूनी इतिहास लेफ्ट के नाम दर्ज है. जो आज भी ममता की शासनकाल में जारी है.

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