आज समाज में अधिकांश बुजुर्ग अपमान
झेलने को मजबूर हैं. उन्हें यंत्रणाएं मिल रही हैं. बुजुर्गों की समस्याओं के
प्रति परिवार, समाज और सरकार सब उदासीन हैं. ये आज के
दौर का कटु सत्य है. बुजुर्ग समाज का बड़ा प्रतिशत स्वयं को समाज से कटा हुआ और
मानसिक रूप से दमित महसूस कर रहा है. यह असंवेदनशीलता बुजुर्गों के लिए काफी
पीड़ादायी है. बदलते दौर ने लोगों की सोच में बदलाव लाने के साथ-साथ बुजुर्गों के
प्रति आदर का भाव भी खत्म कर दिया है.
आधुनिक समाज में बुजुर्गों को वृद्धाश्रम
में धकेल कर उन्हें समाज से अलग कर दिया है. या फिर वे घर में इतने प्रताडि़त किए
जाते हैं कि खुद ही घर छोड़कर चले जाते हैं. वृद्धजन
हमारी अनुभवों से निर्मित एक पूंजी हैं, हमारी परंपरा और संस्कृति भी हैं. मगर आज तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना
बनाने वाली पुरानी पीढ़ी के ये लोग अब खुद आशियाने की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे
हैं.
आज स्थिति ये है कि वृद्धाश्रम में उनके सिर पर छत है और ना हीं पेट भरने के लिए भोजन. मां-बाप ने अपना खून-पसीना एक करके जिन बच्चों को पढ़ाया-लिखाया था, आज वही संतान इन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिए हैं. देश में बुजुर्ग बेहद दयनीय दशा में हैं,
बुजुर्गों की दयनीय होती जा रही स्थिति
के लिए जिम्मेदार है पश्चिमी संस्कृति. जिसका अनुसरण करने की होड़ में हम लगे हुए
हैं। बगैर कुछ सोचे-समझे हम भी दूसरों की देखा-देखी एकल परिवार प्रणाली को अपना कर
अपनों से ही किनारा कर रहे हैं. ऐसा करके हम अपने हाथों अपने बच्चों को उस प्यार, संस्कार, आशीर्वाद व स्पर्श से वंचित कर रहे हैं, जो उनकी जिंदगी को संवार सकता है.
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि परिवार में आरंभ से ही
बुजुर्गों के प्रति अपनेपन का भाव विकसित किया जाए. विश्व में भारत ही ऐसा देश है
जहां आयु को आशीर्वाद व शुभ-कामनाओं के साथ जोड़ा गया है. जुग-जुग जियो, शतायु हो जैसे आशीर्वचन आज भी सुनने को
मिलते हैं. ऐसे में नई भावनात्मक सोच विकसित करने की जरूरत है ताकि हमारे बुजुर्ग
परिवार व समाज में खोया सम्मान पा सकें और अपनापन महसूस कर सकें. परिवार की शान
कहे जाने वाले हमारे बड़े-बुजुर्ग आज परिवार में अपने ही अस्तित्व को तलाशते नजर आ
रहे हैं, यह हमारे लिए गंभीर चिंतन का विषय है. वृद्धजन
जीवंत तीर्थ हैं, आओ उनका सम्मान करें.
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