22 September 2012

सड़क पर विरोध और संसद में ड्रामा कितना सही ?

एक बार फिर आंकड़ों के सियासी खेल में राजनीतिक दलों की साख दांव पर है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीति का सरोकार आम आदमी से होता है। लेकिन आज के इस दौर में भारतीय राजनीति की जो नई नई परिभाशा गढ़ी जा रही है, उसको लेकर आम आदमी के मन में कई सारे सवाल उभरने लगा है। दिल्ली में दोस्ती और राज्यों में नुराकुस्ती का खेल अब हद से ज्यादा आगे निकल चुकी है, जहा न तो आम आदमी की कोई नुमाइंदगी का सवाल है, और ना ही उससे जुड़े मुलभुत कोई आवष्यकताओ का मुद्दा। बात चाहे माया या मुलायम के बैषाखी के सहारे केन्द्र में सत्ता चालाने की हो या, फिर संसद के अंदर न्यूक्लियर डील पर अविष्वास प्रस्ताव के दौरान सरकार को बचाने की, ये दोनो दल हर बार सरकार की संजीवनी बन कर साथ देते है। तो ऐसे में सवाल फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो जाता है की क्या माया मुलायम की ये दोगली नीति उस मतदाताओं के विष्वास के साथ खिलवाड़ नही है जिसने एक उमिद के साथ अपने जनप्रतीनिधियों को जिता कर संसद के अंदर भेजता है। इस बात से स्पश्ट है की आज पार्टियों की अपनी कोई विचारधारा नहीं रह गई है। हर दल सिर्फ अपने स्वार्थों को पूर्ण करने में लगी हैं। यही कारण है की राश्ट्रीय दल केंन्द्रीय सत्ता में काबिच है। लेकिन डीएमके, एआईडीएमके, जद यू या शिवसेना सहित सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल और क्षत्रप सिर्फ अवसर की ताक में दिखाई दे रहे हैं, कि कब बड़ा मौका हाथ लगे और वे अपने आप को ब्लैकमेल करने की स्थिति में पहुंचा सकें। कोई भी ऐसा गठबंधन नहीं है जिसे लेकर यह कहा जा सके कि उनका गठबंधन किसी विचारधारा पर आधारित है। गठबंधन की राजनीति में हर दल इसलिए शामिल होना चाहता ताकी विभिन्न प्रकार के हितों की पूर्ति हो सके। और जिस दिन उन हितों की पूर्ति में अड़चन आने लगती है उस दिन समर्थन वापसी की राजनीति खेली दि जाती है। जाहिर है राजनीति का यह रंग यहीं नहीं रुकता बल्कि नवीन पटनायक, बालासाहेब ठाकरे और राजठाकरे ने भी रंग बदला और नीतीश कुमार भी बिहार के विशेष पैकेज के लिये पटरी से उतरते दिखे। सभी अपने अपने प्रभावित इलाकों की दुहाई देते हुये विपक्ष की भूमिका से इतर बिसात बिछाने लगे है। तो कांग्रेस अब यह दिखाना और बताना चाहती है कि सरकार चलाना भी महत्वपूर्ण है चाहे नीतियों को लेकर विरोध हो मगर आंकड़े साथ रहे। कहा जा सकता है कि हर दल एक दूसरे के खिलाफ है लेकिन चेक एंड बैलेंस ऐसा है कि कांग्रेस की नीतियों को जनविरोधी मानकर भी एक साथ खड़े होकर राजनीतिक सत्ता की सहमति बनाकर, मलाई बटोरने में लगे हुए है। हालात ये है की ममता बनर्जी की साख भी मायने नहीं रखती है और मनमोहन सरकार के दौर के घोटाले भी। यानी राजनीति में जब मलाई खाने की बात हो तो सब कुछ जायज है। यही कारण है की तमाम पार्टियां सरकार की बिरोध करने के बावजूद भी वह जनता के साथ खडे होकर अपने आप को आम आदमी की हितैसी बताने से परहेज नही कर रही हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या इन दलो की दोगली नीति देष हीत में सही है ।

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