14 June 2013

अदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं ?

अदालतों में अंग्रेजी की अनिवार्यता हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक है, और इसी गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए आज समाज में अब ये मांग भी उठने लगी है, की कदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं की जाए। लार्ड मैकाले अंगे्रजी में भारतीय दण्ड संहिता आईपीसी की रचना कर भारत पर अंग्रेजी न्याय व्यवस्था थोप दी। और आज हम उसी को ढो रहे है। आज देश की सिर्फ 3 प्रतिशत आबादी ही भली-भान्ति अंग्रेजी बोल और लिख लेती है। केवल 10 प्रतिशत लोग ही इसे समझ सकते हैं। फिर भी यह हमारी सभी भारतीय भाषाओं व मातृभाषाओं पर हावी है। एैसे में ये सवाल खड़ा होने लगा है की आखिर ये कानून किसके लिए है।

आज हमारे देश में केवल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार के हाई कोर्टों में हिंदी के वैकल्पिक प्रयोग की इजाजत दी गई है। भारतीय भाशाओं में कोर्ट की कार्यवाही करने के लिए छत्तीसगढ़ ने 2002 में तमिलनाडू ने 2010 में और 2012 में गुजरात ने गुजराती में विकल्प की मांग केंद्र सरकार से की, लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। एैसे में सवाल सत्ता में बैठे उन हुक्मरानों से भी है की आखिर वे लोगों पर अग्रेजी को क्यों थोप रहे है !

अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते आज तक इन अदालतों में महज तीन फीसद लोगों का कब्जा है जो अंगेजी बोलते है। इससे संविधान में मिले आम आदमी के अधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन हो रहा है। साथ ही आम जन का न्याय चंद अग्रेजी लिखने पढ़ने वाले लोगों की मुट्ठी के अंदर बंद होकर रह गया है। इन कठीन समस्या का कारण संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) के उपखंड (क) है, जिसमे कहा गया है की उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। जो पूरी तरह से अग्रेजी मानसिकता को दर्शाता है।

2001 में हुए जनगणना के अनुसार अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा मानने वाले लोगों की कुल जनसंख्या दो लाख छब्बीस हजार के आसपास है, जो तत्कालीन कुल जनसंख्या की 0.2 प्रतिशत के लगभग है। एैसे में यहा भी सवाल उठता है कि क्या इन्हीं 0.2 प्रतिशत लोगों को ध्यान में रख कर न्यायिक प्रक्रिया का यह भाषाई पैमाना तय किया गया है या इसके पीछे सरकार का कोई और तर्क भी है? जिस देश 99.98 प्रतिशत आबादी अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार तक नहीं करती है उस देश की समूची उच्च न्यायिक प्रक्रिया में ना सिर्फ अंग्रेजी का अनिवार्य होना अपने आप में एक बेहद गंभिर सवाल खड़ा करता है।

1958 में 14वें लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन एम.सी. सीतलवाड़ ने भारत की अदालतों का दौरा करने के बाद कहा था कि देश की सभी बारों के सदस्यों ने एक सुर से कार्यवाही भारतीय भाशाओं में करने का समर्थन किया था। मगर अब तक इसके उपर विचार नहीं किया गया। गांव-देहात से जुड़े आज सैकड़ों ऐसे वकील हैं, जिन्हें भारतीय भाशाओं में कानून की अच्छी समझ है, परंतु अंग्रेजी अनिवार्य होने के कारण वे अपने मुअक्किल को न्याय नहीं दिला पाते है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या अदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं ?

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