न रहा अब मेरा स्कूल वहा
न रहा अब मेरा घर वहा
रहा न अब वहा कोई जो सच को सच बतलाएं
न है कोई अब अपना वहा जो कोई हल बतलाएं
जी हां ये दर्द है उस गांव का, उस घर का जहा अब न तो अपना कोई बचा है जिसे वह अपने पीड़ा को बता सके दुःख दर्द को बांट सके। ये दर्द और पुकार है उस मासूम का जो जिसका न तो अब रहने के लिए घर बचा है और पढ़ने के लिए स्कूल जहा वह अपने जिंदगी को संवार सके। उत्तराखंड में आए महाप्रलय ने जिस कदर कहर बरपाया है उसे देख कर क्या आम क्या खास हर कोई अपना आपा खो बैठा है। ऐसे में अब जरूरत इस बात को लेकर है की उत्तराखंड में आप राहत और पुर्नवास कैसे करेंगे ताकी एक बार फिर से लोगों को एक नया जीवन दिया जा सके। उत्तराखंड राज्य बने 13 साल हो चुके हैं। इस दौरान विकास के नाम पर राज्य के पहाड़ और नदियों का जमकर दोहन हुआ है। विभिन्न निजी डेवलपर्स को उत्तराखंड में विकास के लिए न्योता दिया गया। इन सबने मिलकर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। अलकनंदा के तटों पर अतिक्रमण कर बहुमंजिले होटल और अर्पाटमेंट्स खड़े कर दिए गए। विकास के नाम पर जंगल साफ कर उनकी जगह कंक्रीट के जंगल बना दिए गए, मगर जल, जंगल और जमीन की पूजा करने वाले आज अपने वजूद को बचाने के लिए प्राकृति के प्रकोप से लड़ रहे है और मर रहे है।
एक जमाने में उत्तरकाशी सुदंरता और शांत वातारण के लिए प्रसिद्ध था। वहां विद्वान साधना करते थे। लेकिन आज इस शहर को नजर लग गई है। यहां के निवासी खौफ में जी रहे हैं। आज राज्य की स्थिति यह है कि राज्य में आपदा प्रभावितों को बसाने के लिए भूमि नहीं है। टिहरी बांध से हो रहे नये विस्थापन के लिए भूमि का प्रश्न सामने मुह बाएं खड़ा है। राज्य में खेती की मात्र 13 प्रतिशत भूमि बच पाई है। बेहद संवेदनशील माने जाने वाले उत्तराखंड में इन आपदाओ से मुकाबले के लिए अलग से आपदा प्रबंधन मंत्रालय गठित किया जा चुका है। मगर आपदा राहत के नाम पर हवा हवाई काम हो रहे हैं जिसका जमीन से कोई सरोकार नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आपदा राहत और पुर्नवास के नाम पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में ही लगे हुए हैं। आपदा से प्रभावित इलाको की जमीनी सच्चाई से उत्तराखंड के राजनेताओ का कोई सरोकार नहीं रह गया है।
सरकारी आंकड़ो के लिहाज से उत्तराखंड के 233 गाँव विस्थापन के मुहाने पर खड़े हैं। मगर उत्तराखंड सरकार अभी से ही इन इलाको में पुनर्वास के नाम पर मोटे बजट के खर्च होने का रोना रोने लगी है। ऐसे में पुनर्वास तो बहुत दूर की गोटी है। इससे पहले भी कई गांव नदियों के गोद में समा चुके है। मगर राज्य के 13 साल के इतिहास में अब तक एक भी गाँव का पुनर्वास नहीं हो पाया है। इस बार आए प्राकृतिक आपदा ने बता दिया है कि राज्य में आज पानी कितना जयादा सर से उपर बह चुका है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की उत्तराखंड में कैसे करें पुनर्वास
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