महर्षि दयानंद सरस्वती 19वीं सदी के समय के बहुत बड़े सामाजिक सुधारक और राष्ट्रीय दृष्टि से
भारत के आजादी के आंदोलन में अपने जीवन की आहुति देने वाले महापुरुषों में से एक
थे। स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ग्रहण करने के बाद इनका नाम
दयानंद सरस्वती पड़ा। महर्षि दयानंद सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक सदस्यों में से
एक रहे हैं और इन्हीं से प्रेरित होकर बाद में बाल गंगाधर तिलक, राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद जैसे
राष्ट्रभक्तों ने देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान दिया
महर्षि दयानंद सरस्वती जीवन परिचय
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी,
1824 को गुजरात के टंकारा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ
था
उनके माता-पिता यशोधाबाई और लालजी तिवारी रूढ़िवादी
ब्राह्मण थे
मूल नक्षत्र के दौरान जन्म होने के कारण उन्हें पहले
मूल शंकर तिवारी नाम दिया गया था
सत्य की खोज में वे पंद्रह वर्ष 1845-60 तक तपस्वी के रूप में भटकते रहे
दयानंद के विचार उनकी प्रसिद्ध कृति सत्यार्थ प्रकाश
में प्रकाशित हुए थे
महर्षि दयानंद सरस्वती का जिक्र हिंदू
धर्म की कई प्रमुख पुस्तकों में मिलता है। महर्षि सरस्वती जयंती हर वर्ष दयानंद
सरस्वती जी के सम्मान में मनाई जाती है। इसके अलावा इन्होंने शिक्षा प्रणाली में
बदलाव भी किया था जिसके सहारे महिलाओं को शिक्षा और अन्य अधिकार मिले। इन्होंने उस
समय पूरे भारत में अंग्रेजों द्वारा प्रचलित औपचारिक धारणाओं की भी आलोचना की। साथ
ही दयानंद जी ने "सत्यार्थ
प्रकाश" नामक ग्रंथ भी लिखा था जोकि आज भी प्रासंगिक है। समाज में वैदिक
मूल्यों के पुनरुद्धार के लिए भी इन्होंने अहम योगदान दिया
समाज के लिये योगदान
महर्षि दयानंद सरस्वती भारतीय दार्शनिक, सामाजिक
नेता और आर्य समाज के संस्थापक थे
वह वर्ष 1876 में "भारत
भारतीयों के लिए" के रूप में स्वराज का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे
वह एक स्व-प्रबोधित व्यक्ति और
भारत के महान नेता थे जिन्होंने भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव छोड़ा
उनके द्वारा आर्य समाज की पहली
इकाई की स्थापना औपचारिक रूप से 1875 में
मुंबई में की गई थी
बाद में इसका मुख्यालय लाहौर में
स्थापित किया गया था
महर्षि दयानंद सरस्वती ने "वेदों की ओर लौटो" का
नारा दिया
राजनीतिक
पराधीनता के कारण विचलित, निराश व हताश भारतीय जनमानस को महर्षि दयानंद
सरस्वती ने आत्मबोध, आत्मगौरव, स्वाभिमान एवं
स्वाधीनता का मंत्र प्रदान किया। स्वामी दयानंद नवजागरण के सूर्य थे, जिन्होंने मध्ययुगीन अंधकार का नाश किया। महर्षि
दयानंद के प्रादुर्भाव के समय भारत धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से अतिजर्जर और
छिन्न-भिन्न हो गया था। ऐसे विकट समय में जन्म लेकर महर्षि ने देश के आत्मगौरव के
पुनरुत्थान का अभूतपूर्व कार्य किया। लोक कल्याण के निमित्त अपने मोक्ष के आनंद को
वरीयता न देकर जनजागरण करते हुए अंधविश्वासों का प्रखरता से खंडन किया। अज्ञान, अन्याय और अभाव से ग्रस्त लोगों का उद्धार करने
हेतु वे जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे। महर्षि दयानंद ने सत्य की खोज के लिए अपने
वैभवसंपन्न परिवार का त्याग किया।
1875 में स्वामी
दयानंद ने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने वेदों को समस्त ज्ञान एवं
धर्म के मूल स्रोत और प्रमाण ग्रंथ के रूप में स्थापित किया। अनेक प्रचलित मिथ्या
धारणाओं को तोड़ा और अनुचित पुरातन परंपराओं का खंडन किया। उस अंधकार के युग में
महर्षि दयानंद ने सर्वप्रथम उद्घोष किया कि, च्वेद सब सत्य
विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढऩा-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म
है।च् संपूर्ण भारतीय जनमानस को उन्होंने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया। वेद
के प्रति यह दृष्टि ही स्वामी दयानंद की विलक्षणता है। महर्षि दयानंद ने मनुष्य
मात्र के लिए वेदों के अध्ययन के द्वार खोले थे, जिसके माध्यम से
उन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।
महर्षि दयानंद वेद ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक थे, जिन्होंने भारतवर्ष के सुप्त पड़े हुए आध्यात्मिक
स्वाभिमान व स्वावलंबन को पुन: जाग्रत किया। स्वामी दयानंद सबसे पहले ऐसे
धर्माचार्य थे, जिन्होंने धार्मिक विषयों को
केवल आस्था व श्रद्धा के आधार पर मानने से इनकार कर उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी
पर कसने के उपरांत ही मानने का सिद्धांत दिया। उन्होंने राष्ट्रवाद के सभी प्रमुख
सोपानों जैसे कि स्वदेश, स्वराच्य, स्वधर्म और स्वभाषा इन सभी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण
योगदान दिया। अंग्रेजों की दासता में आकंठ डूबे देश में राष्ट्र गौरव, स्वाभिमान व स्वराच्य की भावना से युक्त राष्ट्रवादी
विचारों की शुरुआत करने तथा उपदेश, लेखों
और अपने कृत्यों से निरंतर राष्ट्रवादी विचारों को पोषित करने के कारण महर्षि
दयानंद आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के जनक थे।
No comments:
Post a Comment