12 November 2013

राजनीति का व्यवसायीकरण कितना सही ?

राजनीति में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो पंच, सरपंच हो, विधायक मंत्री हो अथवा सांसद या प्रधानमंत्री। एक दो व्यक्ति विशेष को छोड़कर लगभग सभी राजनीति को व्यवसाय के रूप में देखने लगे हैं। कुछ लोग अब भी अपने मुख्य व्यवसाय के साथ साथ आंशिक रूप से राजनीति का व्यवसाय करते हैं तो कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपने सारे व्यवसायिक काम छोड़कर पूरा समय इसी व्यवसाय में लगाते हैं। भारतीय व्यवस्था में समाज की भूमिका सर्वोच्च होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति या समूह के कार्य समाज केंन्द्रित होते हैं। यदि कोई विद्वान् होता है तो वह विद्वता के माध्यम से समाज को सशक्त करता है, उसे ब्राह्मण कहा जाता है। इन ब्राह्मणों का हीं अतिवादी स्वरुप धर्मगुरु अथवा सन्यासी के रूप में दिखाई देता है। जो समाज को न्याय और सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं उन्हें राजनेता कहा जाता है जो प्राचीन समय में क्षत्रिय कहे जाते थे। इनका अतिवादी स्वरुप राजा के रूप में प्रकट होता था। जो समाज को आर्थिक दृष्टि से सहायता करते थे उन्हें वैश्य कहा जाता था, जिन्हें आज कल व्यपारी कहते हैं। जो लोग इन तीन प्रकार की योग्यताओं से अक्षम होते थे वे स्वयं या तीनों वर्गों की सहायता करके समाज को सशक्त करते थे। इन्हें वर्त्तमान में श्रमिक तथा प्राचीन समय में शुद्र कहा जाता था। 

वैश्य के अतिरिक्त कोई अन्य वर्ग यदि व्यवसाय करता या अथवा सीमा से अधिक धन संग्रह करता था तो उसे अपना वर्ण बदलकर वैश्य या व्यापारी मान लिया जाता था। इस तरह चारो वर्ग अपनी अपनी सीमाओं में रहकर अपनी अपनी क्षमतानुसार समाज सशक्तिकरण का काम करते थे। जब से अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार समाज को तोडा और समाज सशक्तिकरण में लगे चारो वर्णों का व्यवसायीकरण कर दिया जो स्वतंत्रता के बाद भी न सिर्फ जारी है बल्कि बहुत तेजी से फल फूल रहा है।

वर्त्तमान समय में सब प्रकार के क्षेत्र अपने अपने सामाजिक कार्य को व्यवसाय मानकर करने लगे हैं। धर्म क्षेत्र में लगे चाहे निर्मल बाबा हों या आशाराम बापू, चाहे बाबा रामदेव हो अथवा रवि शंकर महाराज, सभी अधिकतम धन संग्रह करने और धन के माध्यम से स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं। इनके सभी कार्य चाहे वे कोई भी कार्य क्यों न हो शुद्ध रूप से व्यवसाय है या शुद्ध रूप से व्यापार है। यदि हम खिलाडियों की चर्चा करें तो खेल के नाम पर जो भी लोग आगे आ रहे हैं वे अपने कार्य को शुद्ध व्यापार का स्वरुप दे रहे हैं। न खेलों में कहीं समाज सेवा का भाव छुपा है और न देश सेवा का। सिर्फ और सिर्फ अपना घर भरने का हीं भाव छिपा है, जिसे कभी समाज सेवा का नाम दे दिया जाता है तो कभी देश सेवा का। सामाजिक संगठन के नाम पर एनजीओ या अन्य संगठन भी इसी व्यावसायिक दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। साहित्य, समाचार पत्र अथवा मीडिया के अन्य साधन भी अप्रत्यक्षतः व्यवसायी हो चुके हैं। धर्म गुरुओं, खिलाडिओं अथवा एनजीओ वालों ने तो व्यवसाय और समाज सेवा के बीच अब भी एक हल्का पर्दा बनाये रखा है परन्तु मीडियावालों ने तो वह पर्दा भी हटा दिया है। फिर भी यह लेख लिखने का हमारा मुख्य उद्देश्य राजनीति के व्यावसायिकरण से जुड़ा है।

जिस तरह व्यवसाय करने वालों को व्यावसायिक ठेके प्राप्त होते हैं तथा जिसे ठेका कहीं नहीं मिलता वह निराश हो जाता है उसी तरह राजनीति में भी सत्ता के पद व्यवसायीक ठेके के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मीडिया में तो एक परदे का आभास भी होता है परन्तु राजनीति ने तो वह आभास भी कराना बंद कर दिया है। वैसे तो अब राजनीति से न समाज सेवा का कोई सम्बन्ध रहा है न दलीय सिद्धांतों का किन्तु वर्त्तमान समय में तो जिस तरह दलीय निष्ठाएं मिनटो में बदली जा रही है और वह भी सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लालच में और वह भी बिल्कुल सड़क पर नंगे होकर वह वास्तव में चिंता का विषय है।

हम देख रहे हैं कि बड़े बड़े नेता टिकट न मिलने की घोषणा होते हीं राजनीति की दुकान बदल देते हैं। उससे तो दर्शकों को भी शर्म आने लग जाती है। ऐसी नग्नता तो सिनेमा के ऐक्टर भी एडल्ट फिल्मों में भी नहीं दिखाते। वहाँ भी कलाकार कामुकता को उभारते समय कुछ सीमा में रहते हैं परन्तु राजनीति में तो अब वह सीमा भी नहीं रही। कांग्रेस का टिकट नहीं मिलते ही उसके एक नेता ने मध्य प्रदेश में जहर खाकर अपनी जान दे दी। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की छत्तीसगढ़ की स्थापित नेत्री करुणा शुक्ला ने टिकट नहीं मिलते ही कांग्रेस पार्टी के साथ आँख मिलाना शुरू कर दिया। देश भर में हर पार्टी के प्रमुख लोगों ने या तो टिकट बेचे या टिकर न प्राप्त होने वालों ने उन पर टिकट बेचने के आरोप लगाये। मायावती सरीखे दलों पर तो ऐसे आरोप लगते हीं हैं किन्तु अब तो कांग्रेस और भाजपा भी ऐसे आरोपों से दूर नहीं है। राज्य सभा की सीटें पूंजीपतिओं को बेचने की तो लगभग परंपरा हीं बन गई है। चुनावो में जीतने के लिए करोडो रूपया खर्च करना और जीतने के बाद अरबों रूपया कमाने की व्यवस्था करना हीं वर्त्तमान रजनीति का एक मात्र कार्य रह गया है। मनमोहन सिंह सरीखे जो लोग ऐसे व्यवसाय में फिट नहीं रहे हैं उनकी दुर्गति भी दिख रही है। संघ परिवार ने बहुत समय तक चरित्र की राजनीति की उसे भी हार थक कर अब नरेंद्र मोदी सरीखे अति चालाक राजनेता की शरण में जाना पड़ा है। लगता है कि अब राजनीति भी पूरी तरह खिलाडियों, कलाकारों, पाखंडी धर्म गुरुओं से भिन्न कोई अलग आदर्श की सम्भावना में नहीं रही है।

प्रश्न उठता है कि जब विद्वान लेखक, कलाकार, राजनेता धर्मगुरु सरीखे समाज सशक्तिकरण के स्तम्भ हीं समाज कमजोरीकरण में लग जायेंगे तो समाज का क्या होगा यह चिंता का विषय है। ये लोग न सिर्फ समाज को कमजोर कर रहे हैं बल्कि राजनेता तथा धर्म गुरु तो समाज को धोखा भी दे रहे हैं। फिर भी यदि हम साहित्यकारों, धर्मगुरुओं, खिलाडियों, कलाकारों, मीडियाकर्मियों की राजनेताओं से तुलना करें तो राजनेताओं को छोड़ कर अन्य सब लोग भले हीं समाज को धोखा दे रहे हो किन्तु वे समाज को किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहे हैं। आम लोग भले हीं इनके प्रभाव में आकर इनसे चिपक जावें या ठगे जावें लेकिन इनका कोई कार्य समाज पर बंधनकारी नहीं है। जबकि राजनेताओं के आदेश समाज पर बंधनकारी होते है, वे जब चाहें जितना चाहे टैक्स लगा सकते हैं। चिंता का विषय है कि समाज सशक्तिकरण का कार्य कहाँ से शुरू होगा? कैसे शुरू होगा? कौन शुरू करेगा? अभी तो राजनेताओं का चरित्र देख देख कर गहरा अँधेरा हीं दिखता है।

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