21 November 2013

जेहादी आतंकवाद पर मुसलमान चुप क्यों हैं ?

यह बहुत बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हमारा भारतीय मुस्लिम समाज उनके धर्म के नाम पर हो रहे देशविरोधी आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता वहीं जब उसके मजहब को आतंकवादियों का धर्म कहकर आलोचना की जाती है तो विफर उठता है। अगर हम वैश्विक स्तर पर इस्लामिक आतंकवाद के पैदा होने और पनपने के कारणों की विवेचना करें तो हमारे कई ऐसे मित्र हैं जो मानते हैं कि जेहादी आतंक गरीबी की वजह से फलता-फूलता है। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। मैं नहीं मानता कि सिर्फ मुस्लिम समाज में व्याप्त गरीबी के चलते जेहादी आतंकवाद में बढ़ोत्तरी होती है। उदाहरण के लिए इस युग का दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन तो अरबपति था फिर वो आतंकवादी क्यों बना? उसको कौन-से रोटी के लाले पड़े हुए थे कि वो पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद का प्रतीक बन गया?

जहाँ तक बिहार में जेहादी आतंकवाद के पैर फैलाने का सवाल है तो प्रश्न उठता है कि जब वर्ष 2011 में चिन्नास्वामी स्टेडियम बम ब्लॉस्ट के मामले में दरभंगा से कबीर अख्तर को गिरफ्तार किया गया था तब से बिहार के मुस्लिम समाज ने आतंकवाद को मौन सहमति क्यों दे रखी थी? तब क्या सोंचकर राजद ने गिरफ्तारी के विरूद्ध धरना दिया था? क्या सोंचकर तब से लेकर अब तक नीतीश सरकार सबकुछ जानते हुए भी कान में तेल डाले पड़ी हुई थी? क्यों जेसीटीसी की बैठक में नीतीश ने केंद्र पर आतंकवाद के नाम पर बिहारी मुसलमानों को तंग करने का आरोप लगाया था? क्या राजद और जदयू का ऐसा मानना नहीं है कि एक आम मुसलमान उनके धर्म के नाम पर की जा रही देशविरोधी हिंसा को उचित मानता है?

सवाल तो यह भी उठता है कि क्यों आजतक मुस्लिम समाज ने कभी किसी आतंकी को पकड़कर स्वयं पुलिस के हवाले नहीं किया? जिस तरह बिहार में आतंकवाद के खिलाफ मुसलमान सड़कों पर उतरने लगे हैं इससे पहले उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? जिस तरह मोदी के प्रबल विरोधियों में 99 प्रतिशत हिन्दू हैं उसी तरह की स्थिति जेहादी आतंकवाद के संदर्भ में क्यों नहीं है? अगर किसी कौम का आतंक नहीं होता और आतंकवादी इस्लाम के नाम का दुरूपयोग कर रहे हैं तो फिर क्यों मुस्लिम समाज चुपचाप ऐसा अन्याय होने दे रहा है? क्यों कभी 56 इस्लामिक राष्ट्रों के संगठन में आतंकवाद को गैर इस्लामी घोषित और आतंकवाद की किसी भी तरह से मदद नहीं करने का संकल्प पारित नहीं किया गया? इस्लाम के नाम पर जेहाद तो उन इस्लामिक राष्ट्रों में भी चल रहा है और उन देशों में तो मुसलमान ही इस्लाम की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को मार रहे हैं। क्या इससे यह समझना चाहिए कि मुसलमान दूसरों के विश्वास का यहाँ तक कि इस्लाम के दूसरे सिलसिलों या पंथों का भी सम्मान नहीं कर पा रहे हैं और इसलिए मार-काट मचाकर अपने मत की श्रेष्ठता को जबर्दस्ती स्थापित करना चाहते हैं?

वास्तविकता तो यह है कि न तो मुस्लिम समाज और न ही भारत के सत्ता प्रतिष्ठान मुसलमानों की असली जरुरत को समझ रहे हैं। सत्ता यह नहीं समझ पा रही है कि अगर कोई मुसलमान युवक देशद्रोही आतंकी कार्रवाई में लिप्त पाया जाता है तो उसको संरक्षण देने या बचाव करने से मुसलमानों का भला नहीं होनेवाला बल्कि अंततोगत्वा नुकसान ही होगा। आप किसी भी छोटे बच्चे को गोद से नहीं उतारिए जबकि उसकी उम्र चलना सीखने की हो। क्या आप उस बच्चे से वास्तव में प्यार करते हैं? क्या आप ऐसा करके उसको जीवनभर के लिए अपंग नहीं बना रहे हैं? ऐसा अक्सर देखा जाता है कि घर के जिस बच्चे को बेजा दुलार-प्यार देते हैं,बाँकियों को नीचा दिखाकर सिर पर चढ़ाते हैं वो बच्चा बिगड़ जाता है। इसी तरह अगर हम किसी बच्चे को सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ टॉफी खिलाएँ तो न केवल उसके दाँत सड़ जाएंगे बल्कि उसका स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा। बटाला-हाऊस मुठभेड़ पर प्रश्न-चिन्ह लगाकर जेहादी आतंकियों के मनोबल को बढ़ाना,मजहब के नाम पर आरक्षण देना,बाँकी मजहबों से ईतर अंधाधुंध अतिरिक्त सरकारी सुविधाएँ देना,दंगा करने की खुली छूट देना,अरब देशों से मदरसों और मस्जिदों के निर्माण और संचालन के लिए अकूत धन की आमद की खुली छूट देना छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों के कुछ ऐसे ही कदम हैं जो अंततः मुस्लिम समाज को नुकसान ही पहुँचाएंगे। यदि इस्लाम का आतंक से कोई रिशता नहीं है या आतंकी मुसलमान हो ही नहीं सकते तो क्या कारण है कि इस्लामिक आतंकवाद का प्रश्न ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन की बैठकों में चिंता का विषय नहीं बनता? क्या इस संस्था को इसका जवाब नहीं देना चाहिए और इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठानी चाहिए? इस्लाम आज शांति के बजाए खून-खराबी करनेवालों का मजहब क्यों बन गया है क्या इसका कोई सीधा उत्तर ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के पास है? वो कौन-सी ताकतें हैं जो दुनियाभर में जेहादी आतंकवाद के पक्ष में फंडिंग करती हैं क्या ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन ने कभी इसका पता लगाने की कोशिश की?

पैगम्बर ए इस्लाम (स. अ.व.अ.) के उत्तराधिकारी और दामाद हज़रत अली(अ.स.) के अनुसार तो वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है तो फिर जो लोग शत्रु देशों के हाथों में खेलकर हमारे देश के निवासियों के खून के ही प्यासे हो रहे हैं क्या उनको मुसलमान माना या कहा जाना चाहिए? अभी देश में जिस तरह से आतंक का माहौल बन गया है वैसा माहौल तो आजादी के समय में भी नहीं था। क्यों मुसलमानों को गुजरात के दंगे तो नजर आते हैं,मुम्बई के दंगे तो नजर आते हैं लेकिन गोधरा की आग दिखाई नहीं देती,मुम्बई के बम-विस्फोट नजर नहीं आते? जब सीधी बात है कि जो आतंकी है वो मुसलमान हो ही नहीं सकता तो फिर वो कौन-से लोग हैं जो इनको अपने घरों में पनाह देते हैं? क्या ऐसे तत्त्वों की मदद करना गैर इस्लामी नहीं है? मैं पूछता हूँ कि क्या यही सब करने के लिए उन्होंने और उनके पूर्वजों ने 1947 में मुसलमानों के लिए बने नए मुल्क पाकिस्तान को ठुकराकर भारत को अपनी मातृभूमि स्वीकार किया था? भारत और दुनिया के सारे मुसलमानों में अगर इसी तरह का जज्बा आ जाए तो वह दिन दूर नहीं कि जब इस धरती से इस्लामिक आतंकवाद का नामोनिशान ही मिट जाएगा।

अगर ऐसा न हुआ और अगर मुस्लिम समाज आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता है तो मेरा मानना है कि फिर उसको कोई हक नहीं है तब बुरा मानने या विरोध करने का जब कोई उसके मजहब को आतंकियों का मजहब कहता है। अगर मुस्लिम समाज अपनी आधी आबादी की बाजिब मांगों को कुचलने के लिए बमों और बंदूकों का सहारा लेता है तो उसे कोई अधिकार नहीं है कि वो खुद को तरक्कीपसंद कहे और तब आलोचक का विरोध करे जब उसके मजहब को दकियानूसी या कट्टर कहा जाता है। इसी प्रकार अगर मुस्लिम समाज आधुनिक शिक्षा और आधुनिक संचार उपकरणों के समुचित प्रयोग का विरोध करता है तो मेरा मानना कि उसे कोई हक नहीं है कि वो सरकार से नौकरियों में आरक्षण की मांग करे।

No comments:

Post a Comment