गोवा और गुजरात का मौसम उतना भी गर्म न होगा
कि उसकी तपिश से दिल्ली गर्म हो जाए। लेकिन नवंबर के इस महीने में दिल्ली
गोवा और गुजरात की तपिश से गर्म है। देश के दो शीर्ष दल इस गर्मी से उबल
रहे हैं। कांग्रेस को गुजरात में एक महिला पीड़िता को न्याय दिलाना है
जिसकी गैर कानूनी तरीके से जासूसी की गई तो भाजपावाले गोवा में न्याय का
सागर बहाना चाहते हैं। गुजरात में अनचाहे सर्वेलेन्स का शिकार बनी युवती को
लेकर कांग्रेस पीड़ित है तो गोवा में तरुण तेजपाल की नशाखोरी के कारण
पीड़ित हुई लड़की को लेकर भाजपा बाहें चढ़ा चुकी है। न्याय की इस राजनीतिक
जंग में सबकुछ जायज ठहराया जा रहा है।
और तमाशा देखिए कि गुजरात में पीड़ित लड़की के पिता बार बार कह
रहे हैं कि उन्हें कोई पुलिस शिकायत नहीं करनी है। उन्हें किसी से कोई
शिकायत नहीं है। लेकिन कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी हों कि पत्रकार पीड़िता
की पीड़ा में इतने पीड़ित हुए हैं कि प्राणलाल सोनी को सलाह दे रहे हैं, यह
आप क्या कर रहे हैं। आपको अपनी लड़की से ज्यादा चिंता एक राजनीतिक पार्टी
की क्योंकर हो रही है। आगे बढ़िए। शिकायत करिए। पीड़ा की इस घड़ी में हम सब
आपके साथ हैं।
कुछ कुछ इसी तर्ज पर इधर भाजपा वाले तरुण तेजपाल द्वारा पीड़ित बनाई जा
चुकी लड़की को न्याय दिलाने की दरियादिली दिखा रहे हैं। पीड़ित लड़की के
साथ जो कुछ हुआ उसकी जानकारी उसने एक आंतरिक मेल के जरिए पहले अपने प्रबंध
संपादक को दिया और उन्हीं से गुजारिश किया कि वे यह जानकारी सारे कार्यालय
को बांट दें। पीड़ित लड़की का यह 'सत्याग्रह' बेकार नहीं गया। शिकायत के
साथ ही तरुण तेजपाल को वह तहलका छोड़ना पड़ा जिसकी बुनियाद उन्होंने ही रखी
थी। लेकिन जैसे ही यह जानकारी सार्वजनिक हुई भाजपा की बांछे खिल गईं। पहले
प्रवक्ता, फिर कानून के जानकार जेटली। पीड़िता को न्याय दिलाने के अपने
अभियान पर निकल पड़े। नागरिक अधिकारों की दुहाई पीछे छूट गई। नागरिक किस
तरीके से न्याय हासिल करेगा यह भी न्याय पानेवाला नहीं बल्कि न्याया
दिलानेवाला तय कर रहा है।
हालांकि न तो प्राणलाल सोनी ने पुलिस में कोई औपचारिक शिकायत की है और न
ही तेजपाल के मामले में पीड़ित लड़की ने पुलिस के दरवाजे पर दस्तक दी है
लेकिन उधर कांग्रेस वाले जांच करवाने का आश्वासन दे रहे हैं तो इधर
बीजेपीवाले सिर्फ आश्वासन तक नहीं सिमटे हैं। तत्काल स्वत: संज्ञान लेकर
गोवा पुलिस ने मामला भी दर्ज कर लिया और जांच करते हुए गोवा के पंचसितारा
होटल होते हुए दिल्ली भी पहुंच गई। त्याग के जरिए "पाप" का प्रायश्चित करने
के लिए तेजपाल ने भी अपने ईमेल में यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि उनसे
जो हुआ वह गलत था। लेकिन पुलिस को किसी के त्याग तपस्या से क्या? त्याग के
वशीभूत लिखे तरुण का ईमेल गोवा पुलिस के लिए अकाट्य सबूत है जिसमें वे
अपराध को स्वीकार करते हैं।
बाकी काम उसने स्वत: संज्ञान से कर ही लिया है। दिल्ली में कांग्रेस ने
वोट की लालच में महिला सशक्तीकरण की दिशा में जो महान कानून (उस वक्त सुशील
कुमार शिंदे का बयान) पारित किया था, अब उसी कानून का इस्तेमाल भारतीय
जनता पार्टी की एक राज्य सरकार उन तरुण तेजपाल के खिलाफ कर रही है जिनके
लिखे पढ़े से सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को होता था और सबसे अधिक फायदे में
कांग्रेस रहती थी। लेकिन कानून है तो है। और वह सबके लिए एक समान है।
इसलिए सिर्फ गोवा पुलिस ही स्वत: संज्ञान को कानूनन सही नहीं बता रही है
बल्कि अरुण जेटली बार बार दुहाई दे रहे हैं कि पीड़िता को न्याय दिलाना
पहला कर्तव्य है। पीड़िता द्वारा आंतरिक शिकायत कानूनी कार्रवाई का विकल्प
नहीं हो सकता, पूरक है। यानी, पीड़िता न्याय के मंदिर में आये न आये, पुलिस
उसके घर में जरूर घुसेगी। जब न्याय देने की राजनीति शुरू होती है तो
नागरिक अधिकार भी बेकार की बात होकर रह जाते हैं। यह राज्य (स्टेट) है जो
तय करेगा कि न्याय देना तो देना है, भले ही न्याय पानेवाला स्टेट से उसकी
मांग करे या न करे।
निजता, गोपनीयता और नागरिक अधिकारों पर न्याय के नाम पर स्टेट के इस
अनपेक्षित प्रवेश पर मानवाधिकार वाले आज नहीं तो कल जरूर कुछ बोल ही देंगे
लेकिन कुछ लोग अभी भी सवाल उठा रहे हैं कि पुलिस किसी अपराध के मामले में
स्वत: संज्ञान नहीं ले सकती, जब तक कि कोई शिकायत न करे। कानूनन ऐसा नहीं
है। अगर गंभीर प्रकृति का अपराध घटित हुआ है तो पुलिस स्वत: संज्ञान ले
सकती है। तो क्या किसी लड़की से छेड़छाड़ गंभीर प्रकृति का अपराध होता है
जो गोवा पुलिस ने स्वत: संज्ञान ले लिया? बिल्कुल है। 16 दिसंबर की घटना के
बाद सरकार ने जो कानूनी संशोधन किये हैं उसमें बलात्कार की परिभाषा को
बहुत विस्तृत कर दिया गया है। गलत इरादे से स्त्री के अंगों को छूने या
उसकी मर्जी के बिना उसे यौनक्रिया के लिए उकसाने को छेड़छाड़ से आगे
बलात्कार का प्रयास की श्रेणी में पहुंचा दिया गया है जिससे यह भी उसी तरह
का गंभीर प्रकृति का अपराध हो जाता है जितना की बलात्कार। दोनों की सजा में
अंतर हो सकता है लेकिन बाकी पुलिस और न्यायालय की कार्रवाई उसी प्रकार
होगी जैसे कि बलात्कार के मामले में।
अब इस देश में किसे बताने की जरूरत है कि यहां अदालत की सजा से बड़ी सजा
अदालत की कार्रवाई है? पुलिस जांच का मतलब क्या होता है, यह भी किसी को
बताने की जरूरत नहीं है। अपने देश में पुलिस और न्यायालय का कैसा महान
गठजोड़ है कि पुलिस अपराध की प्रकृति के अनुसार खुद ही निर्धारित करती है
कि आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की किस धारा के तहत मुकदमा दर्ज किया जाए।
फिर निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उसी दायरे में बड़े बड़े
कानूनविद अपना ज्ञान प्रकट करते हैं जिसका निर्धारण वास्तव में एक
कांस्टेबल या फिर एएसआई रैंक का पुलिस कर्मचारी करता है। कानून के राज में
यह बहुत महीन सी कमी कितने महान हादसों को जन्म देती है इसकी गवाही पूरा
देश दे सकता है। लेकिन देश है तो है। कानून है तो है। पीड़ा है तो है और
पीड़ित हैं तो हैं। पीड़ित भी अपने तरीके से अपने लिए न्याय का निर्धारण
नहीं कर सकता। पता नहीं सुप्रीम कोर्ट जी ने इस लिहाज से इस बारे में कभी
कोई दिशा निर्देश दिया है या नहीं लेकिन एक न्याय का मौलिक सिद्धांत तो यही
कहता है कि न्याय का तरीका निर्धारित करना यह पीड़ित का मूल अधिकार है,
न्याय देनेवाली प्रणाली का नहीं। क्योंकि अगर इस एक तथ्य को नजरअंदाज कर
दिया जाए तो तालिबान की न्याय प्रणाली और हमारी न्याय प्रणाली में कोई अंतर
नहीं रह जाएगा। तो क्या हम ऐसे स्वत: संज्ञान की राजनीति से न्याय का
तालिबानीकरण तो नहीं कर रहे हैं?
एक नियंत्रित राज्य में न्याय तब पाने से ज्यादा 'देने' की वस्तु हो
जाती है जब राज्य के नियंत्रकों का राजनीतिक हित जुड़ जाता है। फिर वह कोई
तालिबानी समूह हो कि कोई राजनीतिक दल। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और मुद्दा
राजनीतिक हो तो विरोधी दल के पेट में ज्यादा बड़ा दर्द उभर आना अस्वाभाविक
नहीं है। इसलिए अगर कांग्रेस को गुजरात की पीड़िता का दर्द सता रहा है तो
गोवा में जो कुछ हुआ वह भाजपा के गले नहीं उतर रहा है। राजनीतिक जमातें
हैं। सबके अपने अपने पीड़ादायक दर्द हैं जिनका इलाज ऐसे ही मौकों पर किया
जाता है। लेकिन क्या कोई यह जानने की कोशिश करेगा कि अगर पीड़िता ने
न्यायालय के समक्ष न्याय मांगने से ही मना कर दिया तब पुलिस के स्वत:
संज्ञान का क्या होगा? जिस दिन वह होने का दिन आयेगा न्यायपालिका की कच्छप
गति इतना वक्त बिता देगी कि पीड़ित और पीड़िता दोनों ही मन में पीड़ा के
साथ ही प्रस्थान करेंगे। लेकिन तब की तब देखी जाएगी। अभी तो उनकी पीड़ा का
निवारण जरूरी है जो पीड़िता की पीड़ा से परेशान है। हों भी क्यों नहीं? जनता की पीड़ा से नेता को राजनीतिक फायदा मिले तो कौन नेता होगा जो अपने घड़ियाली आंसू रोककर रखेगा?
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