12 November 2013

मदनी- मदीना और मतदान !

आम चुनाव की आहट लगते ही राजनीति की सेकुलर कवायद एक बार फिर शुरू हो गई है। नब्बे के दशक से देश के भीतर मुस्लिम तुष्टीकरण की जो राजनीति उफान मार रही है वह इक्कीसवीं सदी में कमजोर पड़ने की बजाय और मजबूत होती जा रही है। अति तो यह है कि अब मुस्लिम तुष्टीकरण की सेकुलर नीति को वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मान्यता देने को तैयार दिख रहा है जो भारतीय जनता पार्टी का निर्माता और नियंता है। समाजवादी राष्ट्रवाद के जनक अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में इस सेकुलरिज्म का जामा पहनने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हो सका। भाजपा न राष्ट्रवादी रह पाई और न सेकुलर बन पाई। न खुदा ही मिला न बिसाले सनम। लेकिन भाजपा के सेकुलर छवि से भी बड़ा और बुनियादी सवाल यह है कि क्या यह देश सिर्फ मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में उलझा रहेगा? या फिर मुस्लिम विश्व की बदलती सियासत के समझने और उसे तमाम हिंदुस्तानियों के हित में विश्लेषित करने का प्रयास भी करेगा।

देश मुस्लिम तुष्टीकरण में उलझा रहेगा?

बीते दशक भर में मुस्लिम विश्व की सियासत में व्यापक बदलाव हुआ है। मुस्लिम विश्व की चौधराहट को लेकर दांव-प्रतिदांव का दौर तेजा हुआ है। इस बदलते हालात की क्या हमारे सियासी जमात को खबर भी है? वह जो जामा मस्जिद के इमाम सैयद बुखारी, देवबंद शरीफ के रैक्टर मौलाना मदनी, शिया संप्रदाय के धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक और मौलाना कल्बे जव्वाद की दाढ़ी में मक्खन लगाकर वोट हासिल करने की जुगत के आगे सोच ही नहीं पाता। मौलवियों की दाढ़ी में मक्खन लगाना उन्हें मुफीद है। ईरान, इजिप्त, सीरिया और सऊदी अरेबिया का समीकरण विश्लेषित करने की किसी को फुरसत नहीं है। हम पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ से दो इस्लामी देशों से घिरे हुए हैं। हमारे देश की अपनी कोख में १५ फीसदी मुस्लिम आबादी मौजूद है। इस आबादी के मनो-मस्तिष्क में जो घटनाक्रम चल रहा है उसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। १९२० के दशक में जब तुर्की से खलीफा की खिलाफत खत्म कर दी गई तब हिंदुस्तान के मुसलमान के पास तुर्की के खलीफा का भाषण सुनने का कोई माध्यम मौजूद नहीं था। फिर भी मुस्लिम समुदाय में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बजाय ‘खिलाफत आंदोलन’ के प्रति रुचि का भाव ज्यादा था। महात्मा गांधी ने मुस्लिम नेता मोहम्मद अली और शौकत अली से ‘खिलाफत आंदोलन’ को समर्थन देने के लिए हाथ ही न मिलाया होता यदि तुर्की में बैठे खलीफा के प्रति हिंदुस्तान के मुसलमान के मन में आदर का भाव नहीं होता। जब जन-जन तक संचार माध्यमों की पहुंच नहीं थी तब भी हिंदुस्तान का मुसलमान तुर्की के इस्लामी सल्तनत की सलामती को लेकर चिंतित था।

एहसास क्यों नहीं?

मक्का और मदीना के प्रति हिंदुस्तान के हर मुसलमान में श्रद्धा का भाव है इसलिए यूपी, बिहार के खेतों-खलिहानों में खड़े जाहिल मुसलमान के मुंह से भी यह सुनना आम है ‘मदीने से ठंडी हवा आ रही है...’ पुरवइया चले या पछवा मुसलमान को तो सिर्फ मदीनेवाली हवा के प्रति श्रद्धाभाव है इसलिए आजादी के पहले के भी तमाम नायकों ने मुस्लिम राजनीति के इस मर्म को समझा। आजकल का राजनीतिक नेतृत्व इस समझ को विकसित ही नहीं करना चाहता। उसने आसान रास्ता अपना रखा है। मुस्लिम वोटों के लिए मुल्लों या जमात के कुछ ठेकेदारों को सत्ता में हिस्सेदारी देकर वोट बैंक कब्जा कर लेना। वोट बैंक की सरसरी समझ रखने से परिस्थितियां नहीं बदल जातीं। हिंदुस्तान के मुसलमान पर ईरान और सऊदी अरेबिया के संबंधों के वैमनस्य का असर पड़ता है। शिया समुदाय ईरान को अपना नेता मानता है। देवबंदी और वहाबी की श्रद्धा सऊदी अरेबिया के प्रति है। सुन्नी मुसलमानों के समूहों को सद्दाम के प्रति आकर्षण था। इसलिए जब अंतर्राष्ट्रीय मुस्लिम राजनीति के शिया, सुन्नी और सलाफी (वहाबी) अंतर्संबंधों में बदलाव आता है तो हिंदुस्तान का मुस्लिम विश्व प्रभावित होता है। इसलिए यह जानना जरूरी है कि पाकिस्तान मुस्लिम सियासी समीकरण में कहां खड़ा है?

पड़ोस के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी

पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम के नाम पर हिंदुस्तान के विरोध के लिए किया गया। पाकिस्तान बीते छह दशकों से इस्लामी राष्ट्रों की सर्वोच्च संस्था ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक वंâट्रीज (ओआईसी) में हिंदुस्तान की मुखालफत करता आया है। हिंदुस्तान के समर्थन में परंपरागत तौर पर ईरान खड़ा रहा। सऊदी अरेबिया ने हमेशा पाकिस्तान का पक्ष लिया। ईरान और अमेरिका के संबंध बीते तीन दशकों से बिगड़े हुए हैं। जबकि सऊदी अरबिया अमेरिका का लाड़ला देश रहा है। ऐसे में अमेरिका और सऊदी अरब के संबंधों में आनेवाले बदलाव को विश्लेषित करना जरूरी है। तेहरान और वॉशिंगटन के राजनय में क्या नया मोड़ है? इजिप्त में सऊदी अरब क्या कर रहा है? बांग्लादेश में सऊदी प्रभाव कहां तक पहुंचा है? पाकिस्तान और सऊदी अरेबिया के संबंधों में नया मोड़ कहां और क्यों आया? सीरिया के मुद्दे पर ईरान के समर्थन में रूस के उतर जाने और ईरान से अहमदीनेजाद के जाने और रोहानी के आने से इस्लामी जगत की सियासत में क्या फेर-बदल हुआ? सऊदी अरब संयुक्त राष्ट्र की अस्थायी सदस्यता को क्यों नकार गया? ईरान के परमाणु शस्त्र संपन्न होते ही परमाणु हथियार हासिल करने की दिशा में सऊदी शासक परिवार क्या कर रहा है? इन सबको जानना इस देश के हित में है। राजनेताओं ने तो चुनाव जीतने के अलावा कुछ और न करने की कसम खा ली है। मीडिया के लोग इस तरह के घटनाक्रमों को कभी नजरअंदाज नहीं करते थे। पर बीते दो दशकों में मीडिया भी बिकाऊ खबरों के अलावा कहीं और देखने के लिए तैयार नहीं। हम पास-पड़ोस के घटनाक्रम पर नजर न रखें यह हमारी लापरवाही होगी।
 

राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे बड़ा संकट इस्लामी आतंकवाद

एक राष्ट्र के रूप में सरकार के अलावा एक नागरिक की भी हैसियत से भी हर किसी को सोचना जरूरी है और जो भी निष्पक्ष भाव से एक नागरिक के तौर पर राष्ट्र की वर्तमान दशा-दिशा पर नजर दौड़ाएगा तो वह जरूर पाएगा कि आज राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़े संकटों में प्रमुख है इस्लामी आतंकवाद। भले ही दिग्विजय सिंह जैसे दगे हुए राजनेताओं के भ्रष्ट मार्गदर्शन के चलते कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी हिंदू आतंकवाद को सबसे बड़ा संकट करार दे रहे हों, पर सच यह है कि उनकी इस शुतुरमुर्गी सियासत से हालात नहीं बदलनेवाले। पाकिस्तान से प्रायोजित आतंकवाद की नृशंसता में कोई कमी नहीं आनेवाली। हिंदुस्तान में इस्लामी आतंकवाद का प्रायोजन पिछले तीन दशकों से पाकिस्तान करता आया है। पाकिस्तान को इस्लामी आतंकवाद के प्रायोजकत्व का आर्थिक बल सऊदी अरेबिया से प्राप्त है। १९७० के दशक में अफगानिस्तान से साम्यवाद को भगाने के लिए पूंजीवादी अमेरिका के इशारे पर इस्लामवादी सऊदी अरेबिया ने जो पेट्रो डॉलर भेजे उसी से वर्तमान इस्लामी आतंकवाद का जन्म हुआ। ‘हिजबुल्ला’ फिलिस्तीन में आतंकी वारदातें करता था। हिजबुल्ला शिया ईरान की राजनीतिक औलाद था। उस हिजबुल्ला ने कभी हिंदुस्तान के हितों पर चोट नहीं पहुंचाई। सलाफी संप्रदाय के आतंकी बल से पाकिस्तान के पेट में जिस जिहाद ने जन्म लिया वह पहले कश्मीर आया और आज हिंदुस्तान के चप्पे-चप्पे तक उसकी पहुंच है।

जिहादियों का असली बाप सऊदी अरेबिया

बीच के दिनों में सऊदी अरेबिया के इंटेलिजेंस चीफ मॉस्को यात्रा पर गए। वहां उन्होंने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन से कहा कि सीरिया के मामले में आप हमारा साथ दें तो रूस में होनेवाले विंटर ओलिंपिक को आतंकवादमुक्त रखने का हम वादा कर सकते हैं। पुतिन का जवाब था- ‘हमें पता है कि जिहादियों का रिमोट कंट्रोल आपके पास है।’ रूसी राष्ट्रपति पुतिन और सऊदी अरेबिया के इंटेलिजेंस चीफ की यह वार्ता अपने आपमें यह साबित करने के लिए काफी है कि ‘अल-कायदा’ का असली बाप कौन है? सीरिया में रूस के हस्तक्षेप के चलते अमेरिका इन दिनों ईरान से भी मीठी बातें कर रहा है। किंतु सऊदी अरेबिया को आशंका है कि यदि ईरान के मन के मुताबिक सीरिया में असद के खिलाफ कार्रवाई हुई तो इस्लामी विश्व पर उसकी चौधराहट की चमक घट जाएगी। इसलिए सऊदी अरेबिया ने अब चीन से हाथ मिलाकर पाकिस्तान को साथ लेकर अमेरिका से सौदागरी शुरू की है। इस सौदागरी के तहत अमेरिका को सऊदी अरब धमका रहा है कि यदि ईरान के परमाणु हथियार आपने नहीं खत्म किए तो हम पाकिस्तान से परमाणु बम रियाद उठा लाएंगे। पाकिस्तान के परमाणु बम में सऊदी अरब का प्रायोजन किसी से नहीं छिपा। १९७० के दशक में जब जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम प्रारंभ किया तो सऊदी अरब के पेट्रो डॉलर और प्रश्रय के बूते। जब नवाज शरीफ के पिछले कार्यकाल १९९८ में पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किया तो सऊदी अरब के शाहजादे को उस परीक्षण का निरीक्षण करने के लिए विशेष तौर पर निमंत्रित किया गया था।

सलाफी आतंकवाद का शैतानी साया

१९७० में पाकिस्तान को सऊदी अरेबिया ने परमाणु बम के लिए एक अरब डॉलर की राशि दी थी। सऊदी अरेबिया अब कह रहा है कि वह छह परमाणु बम रियाद में रखना चाहता है। बीच के दिनों में सऊदी अरेबिया ने पाकिस्तान से थोड़ी-सी दूरी बनाई थी, उसका कारण था कि पाकिस्तान पूरी तरह से आतंकी राष्ट्र घोषित हो रहा था। पाकिस्तान से करीबी रखना सऊदी नागरिकों के प्रति पश्चिमी देशों में आशंका की नजर से देखा जाना था। इसी के चलते २६/११ के आतंकी अबू जुंदाल को पाकिस्तान के विरोध के बावजूद हिंदुस्तान को सौंपा गया था। नवाज शरीफ के आते ही पाकिस्तान के प्रति सऊदी प्रेम में फिर से उफान आया है और उसी उफान के तहत अब सऊदी अरब इस्लामाबाद पर मेहरबानियां बरसा सकता है। सीरिया में लड़ने के लिए वह २० हजार की एक फौज तैयार करना चाहता है। इस फौज के लिए भी उसे रंगरूटों की भर्ती से लेकर उनको प्रशिक्षित करने का बल पाकिस्तान से प्राप्त करना है।

 १९८० में पाकिस्तान को मदद मिली थी अफगानिस्तान के खात्मे के लिए। पाकिस्तानी शासक जिया उल-हक सऊदी शासकों को मोहने में कामयाब हुए थे। जिया उल-हक के ही चेले हैं नवाज शरीफ। सऊदी शासक की मेहरबानी से ही परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में नवाज शरीफ का मृत्युदंड बचा था। अमेरिका इस समय पाकिस्तान की मुश्कें कसने के पक्ष में था। आतंकवाद पर ‘नाटो’ देश बीते कुछ अरसे से पाकिस्तान की बजाय हिंदुस्तान पर भरोसा कर रहे थे। चीन और अमेरिका के बीच अब व्यापारिक होड़ है। चीन के खिलाफ भी जापान को साथ लेकर अमेरिका हिंदुस्तान की मदद की सोच रहा था। यदि ऐसे अवसर में चीन-पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच त्रिकोण बनता है तो उस त्रिकोण का सबसे बड़ा शिकार हिंदुस्तान होगा। सऊदी धन से पाकिस्तान, सीरिया में शिया असद को तो मारना चाहेगा किंतु उसके बदले में वह कश्मीर जीतना चाहेगा और हिंदुस्तान में चप्पे-चप्पे पर मजहबी खून बहाना चाहेगा। क्या हम इस शैतानी पंजे की परछार्इं से वाकिफ भी हैं? यदि नहीं तो तय मानें कि यह सलाफी आतंकवाद पहले हिंदुस्तान के शिया और हनफी मुसलमानों को हजम करेगा और फिर काफिरों की ओर रुख करना उसका मजहब होगा।

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