10 November 2013

संकट में सेफोलॉजिस्ट की भूमिका !

भले ही जनमत संग्रह "सेफोलॉजी" को विज्ञान का दर्जा दिया गया है और इसके विशेषज्ञ को सेफोलॉजिस्ट माना जाता है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में इस विज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं है. भारत एक विशाल एवं विविधितापूर्ण देश है और यहाँ इस तरह का जनमत संग्रह करवाना व्यावहारिक नहीं है. इस आलोक में जनमत संग्रह के पैमानों को भी सही नहीं माना जा सकता है. इसतरह के विज्ञान की उपयोगिता विकसित देशों में तो हो सकती है, लेकिन भारत में ऐसे सर्वेक्षणों के परिणाम के सही होने की उम्मीद करना बेमानी है.

देश में जनमत संग्रह पर घमासान मचा हुआ है। इसके मूल में चुनाव आयोग द्वारा जनमत संग्रह पर सभी राजनीतिज्ञ दलों से मांगी गई राय है. इस संबंध में विविध राजनीतिज्ञ दलों की राय अलग-अलग है. कांग्रेस, माकपा, बसपा आदि दलों का मानना है कि चुनाव पूर्व करवाये गये सर्वेक्षण से मतदाता प्रभावित होते हैं. वहीं प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इन दलों की राय से इतिफाक नहीं रखती है। उसका कहना है कि सर्वेक्षणों पर रोक नहीं लगाया जाना चाहिए, क्योंकि इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होगा.

उसका यह भी मानना है कि हालिया जनमत संग्रहों में चूँकि कांग्रेस भाजपा के मुक़ाबले पिछड़ रही है, इसलिए कांग्रेस पार्टी डर गई है और उसे लग रहा है कि इस तरह के जनमत संग्रहों से जनता के बीच नकारात्मक संदेश जायेगा। लिहाजा वह चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की वकालत कर रही है. गौरतलब है कि अटार्नी जनरल ने भी मामले में कांग्रेस के सुर में सुर मिलाया है. कानून मंत्रालय का मानना है कि मामले में चुनाव आयोग को फैसला करना चाहिए, लेकिन चुनाव आयोग ने फ़िलहाल गेंद राजनीतिज्ञ पार्टियों के पाले में डाल दिया है.

बता दें कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद से जनमत संग्रह का चलन बढ़ा है, जिसे समग्रता में टीआरपी से जोड़कर देखा जा सकता है। जनमत संग्रह के सही साबित होने पर खबरिया चैनल उसे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते या प्रस्तुत करते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कारण मीडिया घरानों का राजनीतिज्ञ दलों से निकटता का होना है। मौजूदा समय में कॉरपोरेटस या नेतागण सभी मीडिया की ताकत के आगे नतमस्तक हैं. दक्षिण भारत के अधिकांश अखबारों व खबरिया चैनलों के मालिक नेता हैं, तो उत्तर भारत में कार्पोरेट्स. ये सभी अपने फायदे के लिये मीडिया का इस्तेमाल करते हैं.

मसलन, पीपुल्स समाचार और राज एक्सप्रेस मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले ऐसे दो अखबार हैं, जिनके मालिकों ने सिर्फ अपने मूल बिजनेस को कवच प्रदान करने के लिये इनका प्रकाशन शुरू किया था। अगर सर्वेक्षण करवाने वाले मीडिया घराने का मालिक नेता है तो वह निश्चित रूप से जनमत संग्रह में अपनी पार्टी का समर्थन करेगा। इसी तरह यदि जनमत संग्रह करवाने वाले मीडिया घराने का मालिक कार्पोरेट्स है तो वह किसी पार्टी विशेष का समर्थन करेगा, क्योंकि वर्तमान समय में तकरीबन सभी कार्पोरेट्स किसी न किसी पार्टी विशेष का समर्थन करते हैं। उनका कारोबार सरकार की कृपादृष्टि रहने पर ही फलता-फूलता है. आजकल चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है. किसी भी स्थिति में चुनाव जीतने की ललक ने पेड जनमत संग्रह करवाने के चलन को बढ़ाया है.

ऐसे समय में पेड जनमत संग्रह की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है. इस संबंध में आम आदमी पार्टी के सदस्य योगेंद्र यादव के द्वारा दिल्ली विधानसभा के चुनाव पूर्व किये गये आकलन का जिक्र करना समीचीन होगा, जिसमें उन्होंने अपने ही सर्वे में अपनी ही पार्टी (आम आदमी पार्टी) की दिल्ली में सरकार बनवा दी थी. जाहिर है श्री यादव का यह आकलन पूर्वाग्रह से ग्रसित है.

दूसरे परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाये तो सर्वेक्षणों का परिणाम हमेशा सही हो, जरूरी नहीं है, क्योंकि आमतौर पर सर्वेक्षण सैंपल बेसिस पर करवाया जाता है। जनमत संग्रह में अमूमन दो-चार शहरों में जाकर दो-चार हजारों लोगों का मत लिया जाता है और उसी के आधार पर पूरे देश में जनता के रुझान का आकलन व प्रचार-प्रसार किया जाता है. इसतरह के आकलनों में कहा जाता है कि अमुक पार्टी के चुनाव में जीतने की संभावना अधिक है। इसतरह की खामियों की वजह से पूर्व में कई मर्तबा सर्वेक्षणों के परिणाम गलत साबित हुए हैं. यहाँ बताना जरूरी है कि वर्ष 2009 में करवाये गये सर्वेक्षणों में बताया गया था कि भाजपा को सत्ता मिलेगी, लेकिन चुनाव परिणाम आने पर सर्वेक्षणों में किया गया दावा गलत साबित हो गया। यह भी देखा गया है कि हर सर्वेक्षण के आकलन अलग-अलग होते हैं. मसलन, एवीपी टीवी द्वारा करवाये गये सर्वेक्षण में कांग्रेस को विजयी बताया जाता है तो आजतक के सर्वेक्षण में भाजपा को। इस अंतर का खुलासा कोई नहीं करता है और न ही इस मुद्दे पर कोई बहस होती है.  

वर्ष 2009 के आम चुनाव में पेड न्यूज़ के माध्यम से जनता को गुमराह करने के अनेकानेक मामले देखने को मिले थे, जिसके कारण मतदाताओं के रुझान में परिवर्तन आया  था. स्पष्ट है इस तरह की गतिविधि लोकतंत्र के लिये घातक है. लोकतांत्रिक मूल्यों की गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिये जरूरी है कि आलोकतांत्रिक कृत्यों को बढ़ावा नहीं दिया जाये. हमारे देश में मीडिया पर आज भी आँख मूँदकर भरोसा किया जाता है. अपनी बात को रखने या साबित करने के लिये लोग अक्सर अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों का सहारा लेते हैं. अखबार में प्रकाशित ख़बरों के आधार पर सत्ता तक बदल जाती है. पुलिस या सीबीआई भी अखबार में प्रकाशित ख़बरों को अपने अनसंधान का जरिया बनाती हैं. उल्लेखनीय है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद से मीडिया के प्रभाव एवं दायरे में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है.

गलत खबरों से मतदाता का प्रभावित होना लाजिमी है. पेड न्यूज़ से गलत ऊमीदवार व पार्टी के सत्ता में आने की संभावना बढ़ जाती है. मोटे तौर पर पेड जनमत संग्रह को भी इसी आईने से देखा जा सकता है. आज भी हमारे देश में किसी पार्टी विशेष की लहर चलती है और इस तरह के लहर में "विचार" या "तर्क" के लिये कोई स्थान नहीं होता है. दरअसल हमारे देश में अभी भी वास्तविक साक्षरों की संख्या बहुत कम है.इस कारण यहाँ जाति व धर्म के आधार पर मतदान किया जाता है. इस क्रम में उम्मीदवार की ईमानदारी या उसके द्वारा किये गये विकास से जुड़े काम को तरजीह नहीं दी जाती है, जिसका फायदा बाहुबली उठाते हैं और चुनाव जीतकर विधानमंडल या संसद का हिस्सा बन जाते हैं.   

भारत एक विकासशील देश है। यहाँ की अधिकांश जनता अभी भी निरक्षर है, जो साक्षर है वह भी केवल नाम के लिये है. केवल नाम लिखने वाले साक्षरों की संख्या अभी भी हमारे देश में करोड़ों है. इसके अतिरिक्त भारत की 70 प्रतिशत जनता गावों में निवास करती है और उनका इस तरह के जनमत संग्रहों से कोई लेना-देना नहीं होता है. इस दृष्टिकोण से देखा जाये तो आज की तारीख में भी हमारे देश की जनता अपरिपक्व एवं इस तरह के आडम्बरों से अनजान है. न तो वह नीतिगत निर्णय लेने में सक्षम है और न ही उसके पास कोई विचार या तर्क है. इन कमियों की वजह से जनप्रतिनिधि का चुनाव गुणवत्ता के आधार पर नहीं हो पाता है. जाति एवं धर्म अक्सर जनता के निर्णय को प्रभावित करते हैं. इस तरह के संक्रमण के दौर में जनमत संग्रह की विश्वसनीयता को संदेह से परे नहीं माना जा सकता. जनमत संग्रह पर चल रहे घमासान का मूल कारण सर्वेक्षणों में भाजपा का कांग्रेस से आगे होना है, जोकि कांग्रेस को गवारा नहीं है. इस बाबत मजेदार बात यह है कि यदि सर्वेक्षण कांग्रेस के पक्ष में होता तो यकीनन कांग्रेस जनमत संग्रह का विरोध नहीं करती. पूरा खेल स्वार्थ का है.

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