शायद उस जश्न की भी सुबह हो गयी होगी। शनिवार
शाम को जब सूर्य अस्ताचल की तरफ थे तब हफ्तेभर से आरोपों की मार झेल रही आम
आदमी पार्टी के कुछ कर्ता धर्ता अपने बहुत सारे समर्थकों के साथ जंतर मंतर
पर इकट्ठा हुए थे। शोक मनाने के लिए नहीं। जश्न मनाने के लिए। गाजे बाजे
के साथ। मुंबई से विशेषतौर पर रॉक और पॉप स्टार बुलाये गये थे जो सिर पर
टोपी और हाथ में माइक लेकर गाना गा रहे थे। नीचे इकट्ठा हुई आम आबादी सिर
पर टोपी और हाथ में झाड़ू लिये इस रॉक, पॉप म्यूजिक का मजा भी ले रही थी और
बीच बीच में कुमार विश्वास अपने कवितानुमा कसीदों से मौज मजे से राजनीतिक
सद्भाव भी पैदा कर रहे थे।
देखो, मुझे चोर कह रहे हैं ये लोग। चोर तो खुद हैं तो मुझे चोर
कह रहे हैं। फिर कुमार की मशहूर कविता की चार लाइने- कोई दीवाना कहता है,
कोई पागल समझता है। कुमार की पंक्तियों पर होओओओओओओ का सुदीर्घ समर्थन। भले
ही इस पार्टी के जन्म के समय उसी जंतर मंतर के मंच पर अन्ना हजारे को
सत्याग्रही बनाकर बिठाया गया हो लेकिन आज साल भर बाद पार्टी अपनी जीत का
जश्न मनाने के लिए उसी जंतर मंतर पर रॉक स्टार और पॉप स्टार का सहारा ले
रही है। सत्याग्रह की सादगी की जगह तेज रोशनी लाइटों ने ली है। अब अन्ना
अपने भाषण से सामने बैठे लोगों को आंदोलित नहीं कर रहे हैं बल्कि अब यहां
कविता सेठ अपनी मदमस्त आवाज से लोगों को उत्तेजित कर रही हैं। नैतिकता और
शुचिता के वह पाठ पीछे कहां छूट गये पता नहीं, लेकिन राजनीति में शायद यही
अरविन्द का स्टाइल है। मंचीय कविताई करनेवाले कुमार विश्वास मंच से बता रहे
थे, कि यह जश्न देर रात तक जारी रहेगा। जंतर मंतर की रखवाली करनेवाली
पुलिस ने इजाजत दे दिया हो तो हो सकता है, रात भर चला भी हो लेकिन क्या
सचमुच आम आदमी पार्टी, अरविन्द केजरीवाल, कुमार विश्वास और मनीष सिसौदिया
के लिए वह शुभ मुहूर्त आ गया है कि वे उसी जगह जाकर जश्न मनाना शुरू कर दें
जहां से उनका राजनीतिक जन्म हुआ था?
दिल्ली में 'आक्रामक' और 'अग्रगामी' राजनीति की बुनियाद रखनेवाले
अरविन्द केजरीवाल की तरफ देखें तो सिर्फ इतना ही समझ में आता है कि अरविन्द
केजरीवाल का यह एक और कमाल है। बीते साल 26 नवंबर को दिल्ली के इसी जंतर
मंतर पर अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी को बने तकनीकि तौर पर अभी भी साल
पूरा नहीं हुआ है लेकिन अपने काम काज और अंदाज से उसने दिल्ली में दशकों
पुराने दूसरे दलों के छक्के छुड़ा दिये हैं। एक ऐसा राजनीतिक दल जो किसी
परंपरागत नियम कानून या राजनीतिक हथकंडा को सुनने या मानने के लिए तैयार
नहीं। दिल्ली में जन्म से लेकर दिल्ली में ही जंग के मैदान तक, आम आदमी
पार्टी की ओर से कई असहज कोशिशें बड़ी सहजता से की गई। मसलन, राजनीति के
इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा जबकि किसी राजनीतिक दल ने अपने ही एक
सर्वे के हवाले से मीडिया में दावा कर दिया कि दिल्ली में उनकी सरकार बन
रही है। और सिर्फ सरकार बन रही हो, इसका दावा भर नहीं। सरकार बनने के बाद
कहां शपथ ली जाएगी और किस तारीख को अन्ना हजारे का लोकपाल बिल पारित किया
जाएगा इसकी तारीखों का भी ऐलान कर दिया गया। अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो
जगह जगह बस अड्डों पर इन तारीखों का ऐलान करते होर्डिंग्स दिखाई दे
जाएंगे। हां, इस बात का ऐलान नहीं किया गया कि सरकार में किसे कौन सा
मंत्रालय दिया जाएगा। नहीं, तो उम्मीदवारों के चयन से लेकर जंग के मैदान तक
अरविन्द ने हर काम को अपने तरीके से अंजाम दिया है।
दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए सरकार बनाना तो दूर की बात, दो चार
सीटें जीत लेना भी इतना आसान नहीं दिख रहा है। अभी तक तो दिल्ली में कोई
ऐसी हवा नहीं बही है कि आप के सामने बाकी दलों का सूपड़ा साफ हो जाए।
बुढ़िया कांग्रेस हो कि प्रौढ़ भाजपा, दोनों ही दल दिल्ली में अरविन्द के
सामने उखड़ जाएंगे इसकी गुंजाइश कहीं नजर नहीं आ रही है। लेकिन अरविन्द को
ऐसी बातों की कोई परवाह नहीं है। शायद इसलिए तब जब दिल्ली की सत्तर सीटों
के लिए दूसरे दलों ने अंगड़ाई भी नहीं ली थी, आम आदमी पार्टी ने टिकट का
बंटवारा कर दिया। उनके उम्मीदवारों ने ही अपने अपने इलाके में काम करना
नहीं शुरू किया बल्कि खुद आम आदमी पार्टी की ओर से दिल्ली में प्रचार
अभियान की भी शुरूआत कर दी गई। सितंबर आते आते दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल
की ओर से पोस्टर वार शुरू हो चुका था जिसमें वे अपने आपको शीला दीक्षित का
विकल्प बता रहे थे। दिल्ली के सड़कों पर दौड़ते बेलगाम आटोवालों के हुड पर
शीला सरकार की कमजोरियां और विजय गोयल की बुराइयां हर चौक चौराहों से
दनदनाते हुए गुजरने लगी। दूसरे दलों की जब तक नींद टूटती और वे भी अरविन्द
के खिलाफ उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करते (खासकर भाजपा के विजय गोयल) तब तक
अरविन्द केजरीवाल और उनके टोपीवालों की पार्टी अगले मुकाम की ओर बढ़ चुकी
थी।
अगर दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के काम काज को
बारीकी से देखें तो वे परंपरागत राजनीतिज्ञों को काम करने का सलीका सिखाते
नजर आते हैं। आम आदमी पार्टी के प्रसवकाल के दौरान जिन नेताओं को चोर
उचक्का कहकर राजनीतिक विकल्प की गुंजाइश पैदा की गई थी, अरविन्द केजरीवाल
उनसे भी बड़े खिलाड़ी निकले। आमतौर पर राजनीतिक दलों के नेता मौखिक रूप से
अपने जीतने या अपनी पार्टी की सरकार बनने का दावा करते हैं लेकिन अरविन्द
केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से इन दावों में सर्वेक्षणों का पुट मिला दिया। वे
सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री हो सकते हैं, इस सर्वेक्षण को उन्होंने इस
नजरिये से अपने आक्रामक प्रचार में शामिल कर लिया कि 'वे मुख्यमंत्री बन
चुके हैं, अब जो कुछ होगा वह महज औपचारिकता है।' उन्हीं की तरफ से दूसरा
तर्क यह कि उनकी पार्टी की सरकार बन चुकी है, चुनाव तो महज औपचारिकता है।
दिल्ली का रामलीला मैदान उनके शपथ ग्रहण के लिए सज चुका है, चुनाव परिणाम
तो महज औपचारिकता होंगे। तो क्या अरविन्द केजरीवाल और टोपीवालों का यह
आत्मविश्वास है, जनसमर्थन है या फिर कोई ऐसी आक्रामक रणनीति जिससे अभी
राजनीतिक दलों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है?
दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को सबसे बड़े जनसमर्थन का जो दावा खुद
अरविन्द केजरीवाल के सर्वे में किया गया था, बाद में पता चला कि उस सर्वे
करनेवाली नौसिखिया कंपनी का दफ्तर का जो पता था वह कांग्रेस के नेता अजय
माकन के एक रिश्तेदार का है। सर्वे करनेवाली कंपनी के एक डायरेक्टर
कांग्रेस के दिल्ली प्रदेश के सचिव हैं। यानी, जो कुछ किया करवाया गया वह
सिर्फ माहौल बनाने के लिए किया गया। वैसे तो अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति
में अपने चरण राजनीतिक शुद्धता के लिए रखे थे लेकिन उस एक सर्वे ने ही उनके
काम काज पर गंभीर सवाल पैदा कर दिये। बाकी बचा काम दिल्ली में एक स्टिंग
आपरेशन ने पूरा कर दिया। अब इस स्टिंग आपरेशन के बाद अरविन्द केजरीवाल
स्टिंग करनेवाले पत्रकार को कांग्रेस समर्थक बता रहे हैं और उसके खिलाफ केस
दायर करने की धमकी दे रहे हैं। अगर कांग्रेस सचमुच अरविन्द केजरीवाल को
बर्बाद करना चाहती है तो उस सर्वे कंपनी के बारे में अरविन्द केजरीवाल कभी
क्यों नहीं बोलते कि उस मकान से अजय माकन का क्या रिश्ता है?
लेकिन अरविन्द केजरीवाल को न ऐसे व्यर्थ के सवालों को सुनने का समय है
और न ही जवाब देने का। और किसी को दिखे या न दिखे उन्हें दिल्ली की गद्दी
दिखाई दे रही है। और यही सब्जबाग वे अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों
को भी दिखा रहे हैं। दशकों पुराने दलों के सामने सालभर से जमीन तैयार कर
रहे अरविन्द केजरीवाल से ज्यादा जमीनी सच्चाई किसे पता होगा लेकिन उनके जीत
के दावे भले ही सच्चाई से परे हों लेकिन ऐसे दावे माहौल बनाने में तो मदद
करते ही हैं। अरविन्द केजरीवाल की योजना क्या है ये तो वही जाने, लेकिन
जमीन पर उनकी कार्यशैली से साफ दिख रहा है कि सरकार बनाने के उनके दावे
दिल्ली में मजबूत राजनीतिक आधार की तलाश है। उनकी कोशिश है कि दिल्ली में
उनके हिस्से का मत दान जितना बड़ा होगा, जनाधार बढ़ाने में आगे उतनी ही
सहूलियत होगी। और चुनाव के बाद सरकार बनाने के दावे धराशायी हो भी गये तो
ऐसे राजनीतिक दावों को खुद खारिज कर देना बहुत अनैतिक नहीं माना जाता है।
राजनीति है। राजनीति में सबकुछ जायज है। जंग से पहले जीत का जश्न भी।
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