इंडोनेशिया के एक द्वीप प्रदेश बाली में आगामी
3 से 6 दिसंबर के बीच विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की नौंवी मंत्री
स्तरीय बैठक होने जा रही है। इस बैठक में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव के पारित
किये जाने की योजना है। दुनिया के जी-33 समूह के देश पीस क्लाज लाने की
तैयारी कर रहे हैं। इन जी-33 देशों में भारत भी शामिल है। नरेश सिरोही
मानते हैं कि अगर इस पीस क्लाज को मंजूरी मिलती है तो पीस क्लॉज पर लगाई जा
रही शर्तों पर अमल करना न सिर्फ देश के किसानों की आजीविका पर सवालिया
निशान लगा देगा, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा और प्रभुसत्ता को भी खतरे में
डाल देगा।
डब्ल्यूटीओ यानी विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते यानी
एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर (एओए) के अनुच्छेद 13 को ‘ड्यू रेस्ट्रेंट‘ कहा
जाता है जिसका लोकप्रिय नाम ‘पीस क्लॉज‘ है। इस शांति धारा (पीस क्लॉस) में
अशांति अधिक है, असल में पीस क्लॉज के तहत किसी भी देश (डब्ल्यूटीओ की
शर्तों को मानने वाला देश) द्वारा निर्यात सब्सिडी (आर्थिक सहायता) और
घरेलू सहायता कार्यक्रमों की तय सीमा से ऊपर भी चले जाने का कोई देश विरोध
नहीं कर सकता है। पहले विकसित देश जैसे अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ‘पीस
क्लॉज‘ का उपयोग करके ‘ग्रीन बॉक्स‘ के तहत अपने किसानों और निर्यातकों
काफी आर्थिक मदद पहुंचाई है। और 31 दिसंबर सन् 2003 में इस पीस क्लॉस का
अंत हो गया था, लेकिन इन विकसित देशों द्वारा सब्सिडी आदि वैसे ही जारी
रही। दोहा राउंड 2001 में भी कृषि सब्सिडी खत्म होने की बात कही जा रही थी
जो विकसित देशों ने नहीं किया बल्कि उल्टे विकासशील और गरीब देशों को अपना
बाजार खोलने के लिए दबाव डाला गया और कैनकून 2003 में भी कृषि मुद्दे पर
सहमति नहीं बन पाई थी और कैनकून में यह सहमति न बन पाना विकासशील देशों की
जीत के रूप में देखा गया था। लेकिन अब बाली 2013 में विकासशील देश अपनी जीत
को हार में बदलने की तैयारी में हैं।
असल में डब्ल्यूटीओ वार्ता के उरुग्वे राउंड के समझौतों के बाद ‘पीस
क्लॉज‘ प्रभाव में आया और इसकी अवधि नौ वर्ष की रखी गई थी। उरुग्वे राउंड
में कृषि समझौते पर कोई नतीजा ना निकलने पर यूरोपीय कमीशन और अमेरिका ने
‘पीस क्लॉज‘ का उपयोग, बात को आगे बढ़ाने के लिए किया था। अब डब्ल्यूटीओ के
अधिकतर सदस्य देश इस विवदास्पद ‘पीस क्लॉज‘ के हक में नहीं थे, लेकिन
डब्ल्यूटीओ ही कहीं पटरी से फिसल न जाए, इसलिए मजबूरी में इन देशों ने इसे
माना। हालांकि सोचने वाली बात यह है कि फिसलने देते डब्ल्यूटीओ पटरी से,
क्या जरुरी थी ऐसे व्यापार समझौते को मानने की जिसमें सिर्फ विकसित देशों
का ही भला हो, लेकिन ‘पीस क्लॉज‘ को ‘पीस फुल्ली‘ सहमति दे दी गई।
तो इस ‘पीस क्लॉज‘ का नाम अब फिर क्यों आ रहा है? 3 से 6 दिसंबर 2013 को
बाली में डब्ल्यूटीओ की नौंवीं मंत्री स्तरीय होने वाली है। लेकिन देश के
हित में सोचने वाले लोगों को भारत के नेतृत्व में जी-33 देशों के समूह
द्वारा रखे जाने वाले खाद्य सुरक्षा प्रस्ताव को लेकर काफी चिंताएं उभर रही
हैं। और यह चिंता इसलिए है कि भारत के नेतृत्व में जी-33 देश इस
विवादास्पद ‘पीस क्लॉज‘ को लाने को तैयार हैं। डब्ल्यूटीओ की शर्तों के
अनुसार कुल कृषि उत्पादन के 10 फीसदी मूल्य को सब्सिडी के तौर पर दिया जा
सकता है। लेकिन, कई विकासशील देशों खासकर भारत में खाद्य सुरक्षा विधेयक
पूरी तरह लागू होने के बाद ये सीमा से सब्सिडी ऊपर निकल जाएगी, इसलिए ‘पीस
क्लॉज‘ को बाली में लाने की तैयारी है, इससे भारत में किसानों और अन्य
सब्सिडी पर कोई आवाज नहीं उठाएगा और न ही भारत किसी अन्य को कुछ कह सकता
है।
डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार सब्सिडी को व्यापार के लिए विकृत करने
वाला माना जाता है और इसीलिए सब्सिडी को कुल उत्पादन के 10 फीसदी तक सीमित
करना आवश्यक है। आप खुद भी यह जानते हैं कि हाल ही में आए खाद्य सुरक्षा
विधेयक के चलते, जल्दी ही भारत इस 10 फीसदी की सीमा को तोड़ देगा। इसलिए एओए
यानी एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर में पीस क्लॉज के प्रस्ताव द्वारा बदलाव
करने की बात कही जा रही है जिससे ग्रीन बॉक्स का लाभ लेकर विकासशील व गरीब
देश सब्सिडी अपने किसानों को दे सकेंगे, जैसे विकसित देश दें रहें हैं।
डब्ल्यूटीओ में अपनी बात रखने के लिए पीस क्लॉज का सहारा लेने की बात
उठाई जा रही है, जिससे भारत अगर सब्सिडी की सीमा पार करता है तो कोई भी उसे
तंग नहीं करेगा। लेकिन साथ ही ये बात भी है कि ये पीस क्लॉज 4 वर्ष के लिए
ही है, जबकि पहले भारत करीब 8 साल के लिए इसकी मांग कर रहा था। असल में इस
‘पीस क्लॉज की अवधी के दौरान कृषि समझौते, सब्सिडी आदि का स्थाई समाधान
ढूंढने की बात है। लेकिन अच्छा होता कि भारत ‘पीस क्लॉज‘ के झमेले ना पड़ कर
डब्ल्यूटीओ में विकासशील व गरीब देशों के हित में सब्सिडी आदि का मुद्दा
उठाता और अमीर देशों द्वारा दी जाने वाली कृषि व निर्यात सब्सिडी से गरीब
देशों को होने वाले नुकसान का स्थाई समाधान ढूंढता।
डब्ल्यूटीओ में एक तरह से देखा जाए तो गरीब और विकासशील देशों के लिए
कुछ खास है ही नहीं, असल में डब्ल्यूटीओ की शर्त न मानने पर प्रतिबंध आदि
लगाने का प्रावधान है, लेकिन क्या कोई गरीब अफ्रीकी देश, किसी विकसित देश
जैसे अमेरिका की दादागिरी पर प्रतिबंध लगा सकता है? अमेरिका और यूरोप के
देश भी डब्ल्यूटीओ के सारे तोड़ ढूंढकर अपने हित में इस्तेमाल करते है। ये
विकसित देश एक तरफ कारोबार के लिए आसान शर्तों की बात करके आयात की शर्तें
कम करते है तो दूसरी तरफ आयातित उत्पाद के लिए ऊंचे मानक रखते है और
निर्यात सब्सिडी देकर गरीब और विकासशील देशों के लिए कारोबार का रास्ता बंद
कर देते है या फिर बहुत थोड़ा खोलते है।
अब सोचिए सरकार चार साल के लिए अपना हित सुरक्षित रखने की बात कर रही
है, तो क्या इस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद हमें अपने देश के भूखों को
खाना खिलाने की जरुरत नहीं रह जाएगी? क्या उसके बाद किसानों को कोई भी
आर्थिक मदद देना बंद कर किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा? हम
डब्ल्यूटीओ में इस समस्या का स्थाई समाधान क्यों नहीं खोजते हैं और वैसे भी
पीस क्लॉज जिस रूप में पेश किया जा रहा है उससे आप अपने देश के लोगों को
सब्सिडी का अधिक लाभ दिला पाएंगे...इसपर कुछ गंभीर सवाल हैं।
मजेदार बात है कि विकासशील और गरीब देशों में दी जाने वाली कृषि सब्सिडी
का विरोध सबसे अधिक अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा कर रहे हैं, जो खुद
अरबों डॉलर की घरेलू और निर्यात सब्सिडी देतें हैं और इन सब्सिडी को इन
देशों ने ग्रीन बॉक्स में डाल दिया है, जिस पर सवाल भी उठता। ये विकसित देश
सब्सिडी में कितना खर्च करते हैं, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि 1996
में इन विकसित देशों में करीब 350 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी दी गई थी,
जो 2011 में बढ़कर 406 अरब डॉलर हो गई।
डब्ल्यूटीओ की नीतियों में बदलाव होना भी चाहिए क्योंकि एओए के नियम सन्
1986-88 के दामों के अनुसार तय किए गए हैं और साथ ही एक्सटरनल रिफें्रस
प्राइस जो पहले रुपये में तय किया था, अब उसे डॉलर में कर दिया गया है, इसे
भी बदलवाने की आवश्यकता है। पर ऐसा होने नहीं जा रहा है। अगर आंकड़ों पर
नजर डालें तो 1986-88 से 2013 तक चावल और गेहूं के दामों में 300 फीसदी से
भी अधिक का उछाल आ चुका है और उर्वरकों के दामों में भी करीब 480 फीसदी की
वृद्धि हो चुकी है यही हाल बीजों का भी है और डीजल के दामों के बारे में तो
हम सब जानतें ही हैं।
पीस क्लॉज पर लगाई जा रही शर्तों पर अमल करना न सिर्फ देश के किसानों की
आजीविका पर सवालिया निशान लगा देगा, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा और
प्रभुसत्ता को भी खतरे में डाल देगा। हमने देश की करीब 67 फीसदी आबादी को
भूखा न सोने देने के सरकार के संकल्प का समर्थन किया था और इसलिए खाद्य
सुरक्षा विधेयक को अपनी सहमति भी दी थी।
लेकिन पीस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद क्या सरकार खाद्य सुरक्षा के
हाथ खीच लेगी और इस बोझ को आने वाली सरकारों के सर रखकर अपना पल्ला झाड़
लेना चाहती है। ये कहां की नीति हुई कि अपना भार दूसरों के कंधों पर रख दो?
क्या देश सिर्फ अगले दो या तीन साल ही चलने वाला है फिर क्या किसी की
जिम्मेवारी नहीं रहेगी? क्या हम डब्ल्यूटीओ में होने वाली अनीतियों को अपने
देश के किसान और गरीबों पर हावी होने देंगे? क्या किसान और गरीबों के हित
को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी सुरक्षित रखना चयनीत सरकार का दायित्व नहीं है?
देश के किसानों और गरीबों का अहित करने वाले इस पीस क्लॉज का पूरे देश
को विरोध करना चाहिए और किसी भी रूप में भारत के अधिकार और गौरव को
सुरक्षित रखा जाना चाहिए। बाली में डब्ल्यूटीओ की बला से छुटकारा पाना
होगा, लेकिन सिर्फ कुछ समय के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए...
No comments:
Post a Comment