अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब भारत में
बीटी बैंगन को लेकर हो हल्ला मचा था। देशभर में जनसुनवाई हुई थी। भारी
विरोध को देखते हुए सरकार ने इसके मंजूरी के मंसूबों से मुंह फेर लिया था
लेकिन अब वही बीटी बैगन पड़ोसी देश बंगलादेश के रास्ते भारत में प्रवेश करने
की तैयारी कर चुका है। भारत ने भले ही बीटी बैंगन को खारिज कर दिया हो
लेकिन बंगलादेश सरकार ने इसे अपने देश में व्यावसायिक खेती के लिए मंजूरी
दे दी है। अब बंगलादेश में धड़ल्ले से बीटी बैंगन की खेती होगी। लिहाजा,
वहां का बैंगन लुढ़क कर बिना किसी विरोध के भारत भी पहुंचेगा।
फिलहाल इस ओर गंभीरता से किसी का ध्यान भी नहीं है। बंगलादेश
में बीटी बैंगन की खेती से भारत के लिए खतरे की बात यह है कि दोनों देशों
की सीमाएं सांझा है। यदि खेती बांगलादेश के सीमावर्ती खेतों में होगी तो
प्रदूषण भारत में भी आएगा। इतना ही नहीं बांग्लादेश से भारत में फल,
सब्जियों का काफी आयात किया जाता है। लिहाजा, इस रास्ते भारत की थाली में
बीटी बैंगन के लुढ़ने की पूरी संभावना बनती है।
इस स्वाभाविक हालात को देखते हुए ही इस बात से इनकार नहीं की जा सकती है
कि बीटी बीज के उत्पादक कंपनियों ने भारत में सीधे प्रवेश में असफलता के
बाद पड़ोसी देश के रास्ते यहां प्रवेश करने की योजना बनाई होगी। बड़े पैमाने
पर धन कमाने की लालसा रखने वाली बीटी बीज उत्पादक कंपनियां अपने छोटे देश
के रास्ते भारत में घुसने की कवायद में है। यदि बंगलादेश में बीटी बैंगन की
खेती हो रही है तो इसके भारत में प्रवेश में देरी नहीं होगी। फिलहाल
बंगलादेश में इसकी व्यावसायिक खेती की हरी झंडी मिलने के बाद भारत में होने
वाले प्रभावों को लेकर मीडिया में मौन की स्थिति है। हालांकि इंटरनेट पर
दिखी एक समाचार के मुताबिक इस पर विरोध जताते हुए ‘कोलीजन फॉर ए जीएम फ्री
इंडिया’ संगठन ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री जयंती नटराजन को
पत्र लिखकर कहा है किवो बांग्लादेश की सरकार से बीटी बैंगन की व्यावसायिक
खेती की मंजूरी के फैसले पर तुरंत रोक लगाने की मांग करे।
बीटी बैंगन के बीज उत्पादक कंपनी मांसेंटो और महिको भारत में कड़े विरोध
के बाद मुंह को को खा चुकी है। जब भारत में दाल नहीं गली तो इन कंपनियों ने
अपनी लॉबिंग फिलीपींस जैसे देश में किया। वहां भी इन कंपनियों के मंसूबे
पर पानी फिर गया। आर्थिक रूप से कमजोर देश बंगलादेश को इस कंपनी ने अपने
झांसे में ले लिया। ढाका में महज दो दिन में ही व्यावसायिक खेती मंजूरी मिल
गई। बांगलादेश के सीमावर्ती इलाकों के किसाने अपने बीजों का आदान प्रदान
भारतीय किसानों से करते हैं। इस रास्ते भारत में मांसेंटो और महिको के
मंसूबे थोड़ा या कम जरूर पूरे होते दिख रहे हैं। भारत में बीटी के प्रभावों
का इतिहास काला है। वर्ष 1996 में बीटी का जीएम बीज भारत आया। उस समय
मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी उगाई की गई। मप्र में इसकी उगाई अहितकर
और नुकासनदेह साबित हुआ। महाराष्ट्र में इसकी उगाई 30 हजार हेक्टेयर में की
गई। तब फसल बर्बाद होने से 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी और
करोड़ों का नुकसान हुआ था।
भारत के बीटी विरोधियों का तर्क है कि बैसिलस थुरियनजीनिसस (बीटी) नामक
एक मृदा जीवाणु से प्राप्त किया जाता है। बीटी बैंगन और बीटी कपास (कॉटन)
दोनों में इस विधि का प्रयोग होता है। आनुवांशिक संशोधित फसल (जेनेटिकली
मॉडिफाइड फसलें) यानी ऐसी फसलें जिनके गुणसूत्र में कुछ मामूली से परिवर्तन
कर के उनके आकार-प्रकार और गुणवत्ता में मनवांछित स्वरूप प्राप्त किया जा
सकता है। वैज्ञानिकों को अब यह ज्ञात है कि प्राकृतिक तौर पर विभिन्न जीन्स
को अलग-अलग कार्य बंटे हैं, जैसे, कुछ जीन्स प्रोटीन निर्माण करते हैं तो
कुछ रासायनिक प्रक्रिया की देख-रेख करते हैं। मानव शरीर में भी यही
प्रक्रिया चलती है। बीटी बैक्टीरिया में एक जीन होता है जो कुछ खास किस्म
के लार्वा के विरुद्ध कार्य करता है। यह लार्वा कपास या बैंगन की फसल के
लिए हानिकारक होते हैं। लार्वा विरोधी इस कोशिका को कपास या बैंगन के पौधे
के डीएनए में कृत्रिम रूप से निषेचित किया जाता है। इस कोशिका के जीन्स में
कीटनाशक कोड निहित होता है। कीटाणु जब इस जीन्स से बनी फसलों को खाना शुरू
करते हैं, तो वे शीघ्र ही मर जाते हैं। इन जीन्स से निर्मित पौधों पर
कीटनाशक मारने वाले छिड़काव का भी विपरीत प्रभाव नहीं होता है।
भारत में इससे पूर्व जीएम राइस जैसी फसलों पर प्रयोग हो चुके हैं जिसमें
प्रोटीन की अधिक मात्र मौजूद रहती है। इससे पूर्व देश में फसलों के
हाइब्रिडाइजेशन भारतीय परिवेश के लिहाज से सही साबित नहीं हुए थे। जिस कारण
महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कई अन्य हिस्सों में फसलों को नुकसान पहुंचा
था। 2002 में देश में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी
राज्यों में कपास फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार माह बाद कपास के ऊपर उगने
वाली रुई ने बढ़Þना बंद कर दिया था। इसके बाद पत्तियां गिरने लगीं। अकेले
आंध्र प्रदेश में ही कपास की 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा था।
महाराष्टÑ के विदर्भ में तो किसानों ने अधिक उत्पादक के लालच में भारी
ब्याज पर ज्यादा कर्ज लेकर खेती की थी। लेकिन जब फसल ने धोखा दे दिया तो
कर्ज के तनाव में आत्महत्या करने लगे। विदर्भ में एक के बाद एक किसान
आत्महत्या की खबरों ने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में ला
दिया था।
जिस समय तब में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जहां जहां बीटी बैंगन के
भारत में व्यावसायिक प्रयोग की मंजूरी से पूर्व जनसुनवाई कर रहे थे,
वहां-वहां विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे। कई किसानों ने देसी बीजों से बड़े
आकार प्रकार के बैंगनों का अपने खेतों से तोड़ कर लाया और उन्हें बताया कि
हमारे देशी बीजों में वह क्षमता है, जिसे किसान अपनी मेहनत से प्रयोगशाला
से निकले बीटी बीजों को मात दे खकते हैं। बस किसानों को बेहतर संरक्षण और
प्रोत्साहन की दरकार है।
ऐसा भी नहीं है कि भारत में बीटी किश्म के बीजों के समर्थक नहीं है। कई
वैज्ञानिक बीटी की पैरोकारी भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि स्वास्थ्य की
दृष्टि से देखें तो अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है कि जीएम
फसलों से सेहत को सीधे तौर पर कोई नुकसान पहुंचता हो। हालांकि, यह नुकसान
नहीं पहुंचाएगा इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है। जीएम फसलों से अनजाने में
एलर्जी, एंटीबायटिक विरोध, पोषण की कमी और विषाक्तता (टॉक्सिंस) हो सकती
है। इसके बावजूद बीटी समर्थकों का कहना है कि हरेक भूखे पेट तक भोजन
पहुंचाने के लिए हमें अपनी पारंपरिक भोजन शैली को ही आधार बनाना होगा।
मांसेंटो और महिको भारत ने भारत में केवल बैंगन और कपास की आड़ में ही
अपना बाजार नहीं देख रही हैं। ये कंपनियां करीब चार दर्जन खद्यान फसलों के
आड़ में अपना करोबार समृद्ध कराना चाहती है। बताया जा रहा है कि गेहूं,
बासमती चावल, सेब, केला, पपीता, प्याज, तरबूज, मिर्च, कॉफी और सोयाबीन आदि
कुल 41 खद्यान्न फसलों में ये कंपनियां अपना शोध कर रही हैं। ये सभी
खद्यान्न फसलों को देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय किसान अपनी मेहनत से
भारी मात्रा में उगाते हैं। निश्चित रूप से माहिको और मांसेंटो को भारत
केवल बैंगन और कपास के रूप में अपना बाजार नहीं दिख रहा है, उनकी नजर देश
के दर्जनों खद्यान्न उत्पादन बीजों पर है। यदि ये एक बार किसी न किसी तरह
से देश में घुस गई तो धीरे-धीरे अन्य खद्यान्न उत्पादनों पर अपना एक छत्र
राज्य कर लेगी। उसका पर्यावरण पर असर नाकारात्मक पड़े या उसके सेवन करने
वाले के शरीर में बीमारी हो, यह सब मुनाफा कमाने वाली कंपनियां भला कहां
सोचती है!
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