स्वतंत्र अर्थव्यस्था के इतिहास में 2003-08 
के दौरान हमारे देश ने अब तक की सबसे शानदार विकास दर दर्ज की है। इस दौरान
 भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर औसतन 8-9 प्रतिशत सालाना रही है। परन्तु 
2007-08 में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं से शुरू हुयी महामन्दी का इस उछाह पर 
भी सीधा असर पड़ा है। 2008-12 के दौरान भारत की विकास (जीडीपी) दर 6.7-8.4 
प्रतिशत के बीच झूलती रही है। 2012 के यूरो ज़ोन संकट के कारण तथा आंशिक रूप
 से भारतीय अर्थव्यवस्था के भीतर मैन्यूफेक्चरिंग एवं खेती में आए ठहराव की
 वजह से विकास दर और भी नीचे चली गयी है। 
2011-12 की चौथी तिमाही में विकास दर 5.3 प्रतिशत रही जो तकरीबन
 नौ साल में सबसे कम विकास दर थी। 31 मार्च 2012 को खत्म हुयी तिमाही में 
मैन्यूफेक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर 0.3 प्रतिशत पर पहुँच गयी थी जो 
2010-11 को इसी तिमाही में 7.3 प्रतिशत थी। कृषि उपज में भी कुछ ऐसा ही 
रूझान दिखाई दिया। इस तिमाही में कृषि उपज में केवल 1.7 प्रतिशत का इज़ाफा 
दर्ज किया गया जबकि 2010-11 की चौथी तिमाही में ये इज़ाफा 7.5 प्रतिशत था। 
संकटों में फँसीं विश्व अर्थव्यवस्था के साथ गहरे तौर पर बँधे होने की वजह 
से आने वाले दौर की तस्वीर बेहद अनिश्चित दिखाई देने लगी है।
1991 से अब तक औद्योगिक उत्पादन तिगुना हो गया है जबकि बिजली उत्पादन 
दुगने से भी ऊपर चला गया है। बुनियादी ढ़ाँचे का फैलाव भी प्रभावशाली रहा 
है। संचार साधनों तथा वायु, रेल एवं सड़क यातायात की गुणवत्ता में भारी 
विस्तार और सुधार आया है।  2009 में हमारे यहाँ 2700 से ज्यादा 
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ काम कर रही थीं।
दिनोंदिन बहिर्मुखी होती जा रही अर्थव्यवस्था में देश के विदेशी कर्जे 
को भी उसके विदेशी मुद्रा भण्डार के साथ मिलाकर देखना जरूरी है। 1991 में 
विदेशी कर्जा 83 अरब डॉलर था जो 2008 में 224 अरब डॉलर पहुँच गया था। यह 
कर्जा जीडीपी का लगभग 20 प्रतिशत था। पिछले कुछ सालों में यह कर्ज और तेजी 
से बढ़ा है। मार्च 2011 और मार्च 2012 के बीच ये 306 अरब डॉलर से बढ़कर 345 
अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। इसकी तुलना विदेशी मुद्रा भण्डार से की जा सकती
 है जो 1991 में लगभग शून्य पर पहुँच गया था और 2012 में 287 अरब डॉलर था। 
पिछले कुछ समय में भारत से पूँजी के निर्गम की वजह से मुद्रा भण्डार में 
कुछ गिरावट आयी है। जुलाई 2011 में ये 314 अरब डॉलर था जो साल भर बाद 287 
अरब डॉलर रह गया था।
भारत का व्यापार घाटा (आयात और निर्यात का फासला) नब्बे के दशक की 
शुरुआत से ही तेजी से बढ़ने लगा था। सेवा व्यापार ने आंशिक रूप से इसकी 
भरपाई तो कर दी है लेकिन यह फासला देश के विदेशी मुद्रा भण्डार में गिरावट 
का स्पष्ट संकेत है। 2004 में हमारा घाटा जीडीपी का 0.4 प्रतिशत था जो 
2011-12 में बढ़कर 3.6 प्रतिशत तक जा चुका था।
2011-12 में भारत सरकार के कुल बजट व्यय का 30 प्रतिशत खर्चा कर्जों का 
ब्याज चुकाने में जा रहा था। इस प्रकार, यह सरकार के खर्चों का सबसे बड़ा मद
 है। इसके मुकाबले रक्षा पर 8 प्रतिशत और स्वास्थ्य व शिक्षा पर कुल मिलाकर
 2 प्रतिशत से भी कम खर्चा किया जा रहा है।
2007-08 से शुरू हुई वैश्विक मन्दी के दौरान भारत सरकार को भी 
अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर दखल देना पड़ा ताकि सितम्बर 2008 के बाद 
अन्तरराष्ट्रीय बाजारों के चरमराने का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर न पड़े। 
2008-09 में सरकार को अर्थव्यवस्था में कुल 1200 अरब रुपये (27 अरब डॉलर) 
की पूँजी झोंकनी पड़ी जो जीडीपी के 2 प्रतिशत से ज्यादा बैठती है।
लन्दन स्थित न्यू इकॉनॉमिक्स फाउण्डेशन (एनईएफ) ने विश्व बैंक के आँकडों
 के आधार पर हिसाब लगाकर बताया है कि अगर 1990 से 2001 के बीच दुनिया की 
प्रति व्यक्ति आय में 100 डॉलर की वृद्धि हुयी है तो उसमें से केवल 0.60 
डॉलर वृद्धि ही अपनी असली मंजिल तक पहुँची है जिसने एक डॉलर प्रतिदिन से भी
 नीचे जीवनयापन करने वालों की गरीबी पर अंकुश लगाने में योगदान दिया है। 
इसका मतलब ये है कि अगर हमें गरीबों की आय में एक डॉलर प्रतिदिन का इजाफा 
करना है तो गैर-गरीबों को 165 डॉलर अतिरिक्त देने होंगे।
जब 1991 में आर्थिक सुधारों का सिलसिला शुरू हुआ था तब मानव विकास 
सूचकांक (जिसमें साक्षरता, जीवन प्रत्याशा/औसत उम्र तथा प्रति व्यक्ति आय 
शामिल है) पर भारत दुनिया के देशों की सूची में 123वें स्थान पर हुआ करता 
था। 2009 में हमारा देश 134वें स्थान पर जा पहुँचा है।
भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र की समस्याओं पर विचार करने के लिए 
बनायी गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के मुताबिक, 2007 में भारत की 77 प्रतिशत
 आबादी (यानी 83.6 करोड़ लोग) 20 रूपये प्रतिदिन से भी कम आय पर जीवनयापन कर
 रहे थे। इसका मतलब है कि हमारे पास इतनी भयानक विपन्नता में जीने वाली 
आबादी आजादी के समय की कुल भारतीय आबादी से लगभग ढ़ाई गुना हो चुकी है।
गरीबी के अध्ययन के लिए बनायी गयी तेंडुलकर कमेटी, जिसने 2009 में योजना
 आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, के मुताबिक 2004-05 में भारत में गरीबों 
का अनुपात ग्रामीण इलाकों में 41.8 प्रतिशत और शहरों में 25.7 प्रतिशत था। 
इस अध्ययन के लिए गरीबी की रेखा का पैमाना गाँवों मंे 15 रूपये प्रति 
व्यक्ति प्रतिदिन और शहरों व कस्बों में लगभग 20 रूपये प्रति व्यक्ति 
प्रतिदिन तय किया गया था। आज हिन्दुस्तान की प्रति व्यक्ति आय 150 रूपये 
प्रतिदिन है। देश के 80 प्रतिशत लोगों की दैनिक आय इससे कम है।
दुनिया भर में अल्पपोषित लोगों की सबसे बड़ी आबादी हिन्दुस्तान में बसती 
है। यह आबादी सारे उप-सहारा अफ्रीका के अल्पपोषित लोगों की कुल संख्या से 
भी ज्यादा है। एफएओ ने 2004-06 की अवधि के लिए यह आबादी 25.1 करोड़, यानी 
देश की कुल आबादी का एक चौथाई बतायी थी। इसमें जनसंख्या वृद्धि और जीवन 
प्रत्याशा में इज़ाफे का सिर्फ आंशिक योगदान है। अभी भी हमारे पास पर्याप्त 
भोजन है, एफसीआई के गोदाम अनाज से पटे रहते है और इसके बावजूद 20 करोड़ से 
ज्यादा लोग रोज भूखे पेट सोते है और 5 करोड़ से ज्यादा ऐसे है जो भुखमरी की 
कगार पर साँस ले रहे हैं।
2005-10 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में गुजरात की विकास दर सबसे 
ज्यादा (दो अंकों वाली) रही है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, गुजरात में 
1992-93 में तीन वर्ष से कम आयु वाले ऐसे बच्चों की संख्या 44 प्रतिशत थी 
(बाद के आँकड़े उपलब्ध नहीं है)। सामान्य से कम वजन वाले बच्चों का अनुपात 
भी सुधारों के इस दौर में लगभग पहले जैसा ही रहा है (47-48 प्रतिशत)।
भारत की ‘विकास’ परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो चुके, या परियोजना 
प्रभावित लोगों की संख्या 1947 से अब तक लगभग 6 करोड़ रही है। योजना आयोग 
द्वारा लगभग 2.1 करोड़ विस्थापितों पर किए गए अध्ययनों से पता चला कि उनमें 
से 40 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी लोग रहे हैं जबकि भारत की कुल आबादी में 
आदिवासियों का हिस्सा केवल 8 प्रतिशत है। 2008-09 में किए गए एनएसएस 
सर्वेक्षणों के मुताबिक, भारतीय शहरों में 49,000 झुग्गी-बस्तियाँ हैं। 
2003 के एक संयुक्त राष्ट्र अध्ययन में बताया गया था कि भारत की आधी से 
ज्यादा शहरी आबादी झुग्गी-बस्तियों (पुनर्वास बस्तियों सहित) में रहती है। 
पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या एक तिहाई है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के औपचारिक (संगठित) क्षेत्र में रोजगारों की 
संख्या 1991 से 2007 के बीच तकरीबन 2.7 करोड़ के आसपास ही थमी रही है। यह 
संख्या भारत की कुल श्रमशक्ति के 6 प्रतिशत से भी कम है। 1991 में अनाजों 
और दालों की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 510 ग्राम थी जो 2007 में 443 
ग्राम प्रति व्यक्ति तक गिर गयी थी।
अप्रैल 2009 में भारत में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या 
40.3 करोड़ थी। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत यानी 18.7 करोड़ लोग ऐसे थे जिनके 
पास किसी बैंक में खाता नहीं है। भारत के 6 लाख गाँवों में से केवल 5.2 
प्रतिशत गाँव ऐसे हैं जहाँ किसी बैंक की कोई शाखा है। इसकी वजह से ही 
ज्यादातर किसान महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फँसे रहते है। कर्जों के 
बोझ से तंग आकर 1997-2008 के बीच दो लाख किसान खुदकुशी कर चुके थे (सुधारों
 के शुरू होने के बाद इस संख्या में तेजी से इजाफ़ा हुआ है)। इन 10 सालों के
 दौरान औसतन लगभग हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा था।
2009 के नीलसन सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 22 करोड़ परिवारों में से 
केवल 25 लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास कार और कम्प्यूटर दोनों साधन है। 
विदेशों में सैर-सपाटे के लिए जाने वाले परिवारों की संख्या केवल एक लाख 
है। तकरीबन 60 प्रतिशत भारतीयों के पास अभी भी समुचित स्वच्छता सुविधाएँ 
नहीं हैं। युनीसेफ के मुताबिक, बेहतर पेयजल स्रोत 88 प्रतिशत आबादी (1990 
में 72 प्रतिशत) के लिए ही उपलब्ध है।
एक हाई-नेट-वर्थ-इण्डीविजुअल ऐसे करोड़पति व्यक्ति को माना जाता है जिसकी
 कुल निवेश योग्य सम्पदा (निजी घर, जमीन और/या सम्पत्ति के अलावा) कम से कम
 4.5 करोड़ रुपये है। मेरिल लिंच के मुताबिक, भारत में 2010 में ऐसे लोगों 
की संख्या 1,26,700 थी। यों तो देश की कुल आबादी में इनका हिस्सा केवल 0.01
 प्रतिशत ही बैठता है लेकिन इनकी सम्पदा का मूल्य भारत की जीडीपी के लगभग 
एक तिहाई के बराबर बैठता है। नैशनल इलेक्शन वॉच द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण
 के मुताबिक, वर्तमान लोकसभा के 543 में से 300 सदस्य डॉलर मिलियनेयर्स 
(यानी 4.5 करोड़ से ज्यादा सम्पत्ति वाले) हैं। 2004 में हुए पिछले आम 
चुनावों में चुनकर आए सांसदों में उनकी संख्या इससे केवल आधी थी। 543 
सांसदों की कुल सम्पत्ति 2,800 करोड़ रुपये के आसपास बैठती है और इस तरह 
औसतन हर सांसद एक डॉलर मिलियनेयर है। 64 केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्रियों की 
सम्पत्ति 10 करोड़ डॉलर है।
 
 
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