24 November 2013

क्या सत्ता का सेमीफाइनल है पांच राज्यों का चुनाव ?

पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों के नतीजे आठ दिसंबर को आ जायेगें और पता लग जाएगा कि मिजोरम, दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसकी सरकारें बनेगीं लेकिन इसी के साथ यह भी अंदाज़ लग जाएगा कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में दोनों बड़ी पार्टियों में से किसका पलडा भारी पडेगा. मुख्यरूप से २०१४ के चुनावो के संकेत दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों से आयेगें. अभी यहाँ दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार है जबकि बाकी दो में बीजेपी के कार्यकर्ता बतौर मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं. लेकिन इन चार राज्यों में चले रहे चुनाव प्रचार को नजदीक से देखें तो बीजेपीवाले चाहकर भी मोदीलहर नहीं पैदा कर सके हैं. सभी राज्यों में स्थानीय मुद्दे और नेता हावी और प्रभावी हैं. 

लेकिन बीजेपी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा रखा है और बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा है. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बार बार बताया है कि देश के सबसे लोकप्रिय नेता को उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उतारा है जबकि कांग्रेस ने अभी किसी को उम्मीदवार नहीं घोषित किया है. बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि काँग्रेस की ओर से पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नाम की घोषणा हो जाए जिस से वे उनको लक्ष्य करके चुनाव का संचालन कर सकें और कांग्रेस को पूरी तरह से घेर सकें. नरेन्द्रभाई मोदी को भरोसा है कि वे भाषण कला में बहुत प्रवीण हैं और राहुल गांधी उतने कुशल वक्ता नहीं हैं इसलिए उनको भाषण में हराकर चुनाव जीता जा सकता है लेकिन कांग्रेस उनको यह मौक़ा नहीं दे रही है. कांग्रेस की तरफ से वे नेता जो नरेंद्र मोदी से बड़े माने जाते हैं उतार दिए गए हैं और नरेंद्र मोदी को कभी मनीष तिवारी तो कभी कपिल सिब्बल की गालियाँ खाकर अपना जायका बदलना पड़ रहा है.

चार राज्यों में चुनाव की सरगर्मी और रुझान रोज ही नए आयाम ले रही है. जब विधान सभा चुनावों की घोषणा हुई थी तो माना जा रहा था कि बीजेपी का पलडा चारों ही राज्यों में भारी पड़ेगा लेकिन ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढ़ा तस्वीर बदलना शुरू हो गयी. दिल्ली में अन्ना हजारे के साथी अरविंद केजरीवाल की पार्टी बहुत बड़े पैमाने पर कांग्रेस विरोधी वोटों में विभाजन कर रही थी और माना जा रहा था राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भारी नाराज़गी के बावजूद बीजेपी की राह मुश्किल हो गयी थी. लेकिन ताबड़तोड़ दो घटनाएं हो गयीं. एक तो अन्ना हजारे ने अरविंद केजरीवाल के खिलाफ एक बयान सार्वजनिक कर दिया जिसमें केज़रीवाल के ऊपर चंदे की हेराफेरी का आरोप लगा था .दूसरी घटना और खातरनाक है. आम आदमी पार्टी के बड़े नेताओं शाजिया इल्मी और कुमार विश्वास पर आर्थिक अनियमितता का स्टिंग आपरेशन हो गया. टेलिविज़न की कृपा से बनी पार्टी के बड़े बड़े नेता टेलिविज़न चैनलों में निरुत्तर होते नज़र आये .और अब दिल्ली में चार दिसमबर को होने वाले मतदान की तस्वीर बदल गयी है क्योकि लगता है कि आम आदमी पार्टी की जो चुनावी गति थी उसमें ब्रेक लाग चुका है और अब वह कांग्रेस विरोधी वोटों को तोड़ नहीं पायेगी. ज़ाहिर है कि दिल्ली में कांग्रेस की हालत फिर पहले जैसी हो गयी है और यहाँ बीजेपी भारी पड़ रही है.

छत्तीसगढ़ में मतदान हो चुके हैं. शुरुआती दौर में माना जा रहा था कि वहाँ के मुख्यमंत्री बहुत लोकप्रिय हैं और उनके राज्य में बीजेपी को कोई नहीं हरा सकता लेकिन जैसे जैसे चुनाव अभियान आगे चला तस्वीर बदलती गयी. नरेंद्र मोदी की वेव पैदा करने की कोशिश में लगे हुए बीजेपी के नेता और मीडिया संगठन बहुत निराश हुए क्योंकि वहाँ नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता है. छत्तीसगढ़ की राजनीति के जानकार और बुद्धिजीवी ललित सुरजन ने अपने एक लेख में इस बात को  बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया. उन्होने लिखा है कि “चुनाव प्रचार करने के लिए प्रदेश के बाहर से बड़े-बड़े लोग यहां आए। कांग्रेस की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तो भाजपा से लालकृष्ण आडवानी, राजनाथ सिंह व नरेन्द्र मोदी। श्री मोदी ने पहले चक्कर में तीन जगह सभाएं लीं। कांकेर की सभा में बमुश्किल तमाम ढाई हजार लोग थे और जगदलपुर में छह हजार। उसी दिन कोण्डागांव में सोनिया गांधी की सभा में पच्चीस हजार से अधिक की उपस्थिति थी। श्री मोदी के दूसरे चक्कर में ताबड़तोड़ नौ सभाएं थीं जिसमें दुर्ग, रायपुर व रायगढ़ में उपस्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन अगले दिन राहुल गांधी के सभाओं के आगे मोदीजी फीके पड़ गए। ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि मोदीजी की जुमलेबाजी को लोग अब पसंद नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिए कि छत्तीसगढ़ में वाकई उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है? क्या इसलिए कि जीरम घाटी की शहादत को प्रदेश की जनता भूली नहीं है?” ललित सुरजन के यह टिप्पणी बहुत कुछ बयान कर देती है क्योंकि चाउर वाले बाबा की ख्याति हासिल कर चुके छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह अपने राज्य में नरेंद्र मोदी से बहुत बड़े नेता हैं .

मध्यप्रदेश में भी नरेंद्र मोदी से बड़े बीजेपी नेता के रूप में वहाँ के मुख्यमंत्री ,शिवराज सिंह चौहान की पहचान है. अपने को शिव मामा के रूप में स्थापित कर चुके मुख्यमंत्री ने राज्य के हर इलाके में अपनी वफादारी वाले कार्यकर्ता  पैदा कर दिया है. शायद इसी वजह से उनके मुकामी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ घनघोर जनमत के बावजूद वे मज़बूत विकेट पर माने जा रहे हैं. कांग्रेस ने भी अपने आपको कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पिछले पांच साल से दिग्विजय सिंह ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस थे लेकिन आख़िरी समय में ज्योतिरादित्य सिंधिया को वहाँ भेजकर अजीब स्थिति पैदा कर दी गयी. टिकट वितरण में भी जो लोग चुनाव जीत सकते थे अगर उनकी दिग्विजय सिंह से कोई निकटता सामने आ गयी तो पता नहीं किन कारणों से उनको टिकट नहीं दिया गया. बहरहाल मध्यप्रदेश में भी बीजेपी की हालत मज़बूत बतायी जा रही है.

राजस्थान की कहानी भी कांग्रेसी अंतर्कलह के कारण बीजेपी के पक्ष में जाती दिख रही है. वहाँ के मुख्यमंत्री ने जनहित की बहुत सारी योजनाएं चला रखी हैं लेकिन उनकी पार्टी के दिल्ली में रहने वाले नेता उनके खिलाफ काम कर रहे हैं और अगर राजस्थान में कांग्रेस हारती है तो उसमें बीजेपी की कोई बहादुरी नहीं होगी उसके लिए मूल रूप से कांग्रेस की आपसी लड़ाइयां ही ज़िम्मेदार होंगीं. इस तरह से मौजूदा विधान सभा चुनावों के बारे में बहुत ही स्पष्ट तरीके से कहा जा सकता है कि कहीं कोई नरेंद्र मोदी क प्रभाव नहीं हैं. सभी राज्यों में मुद्दे शुद्ध रूप से स्थानीय हैं और राज्यों के नेता अपने बल पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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