अपनी वंशवादी राजनीति को बचान के लिए कांग्रेस
ने सिर्फ सरदार का ही अनादर नहीं किया है बल्कि राजेंद्र बाबू, मौलाना
अबुल कलाम आजाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसे आजादी के सभी शीर्ष
क्रांतिकारियों को आजाद भारत के इतिहास से आजाद कर दिया। आजादी के बाद देश
में नेहरू, इंदिरा, राजीव के अभूतपूर्ण योगदान के प्रतीक तो स्थापित किये
गये हैं लेकिन जिन शूरमाओं और शूरवीरों के कारण इस देश को अंग्रेजों से
आजादी मिली उन्हें वर्तमान से पूरी तरह मिटा दिया गया है। और तो और महात्मा
गांधी से पहले कांग्रेस की कमान सम्हालने वाले लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण
गोखले जैसे कांग्रेसी नेताओं को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया। दूसरे दलों
की तो छोड़िये खुद कांग्रेस के 90 प्रतिशत नेताओं को इन राष्ट्रीय नेताओं
के बारे में जानकारी तक नहीं है। आजादी के बाद कांग्रेस को एक परिवार तक
सीमित कर दिया गया, जबकि कांग्रेस का शाब्दिक अर्थ जमावड़ा या सम्मेलन होता
है। दुख की बात है कि इंडियन नेशनल कांग्रेस आजादी के बाद नेहरू परिवार की
जागीर बन गया, जबकि यह स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत करने वाले
आंदोलनकारियों का जमावड़ा था, जिसमें सब शामिल थे।
किसी को उम्मीद नहीं थी कि इतिहास के गर्त में खो चुके सरदार
वल्लभ भाई पटेल आज बहस का विषय़ बन जाएंगे। लोग पटेल ही नहीं पटेल के
पुशतैनी घर तक को याद करने लगे जो इलाहाबाद स्थित पंडित जवाहर नेहरू के
पुश्तैनी मकान आनंद भवन के मुकाबले भारी जर्जर स्थिति में है। इसे चाहे जो
कहें, राजनीति कहे, या कुछ और। पटेल को नरेंद्र मोदी ने बहस के केंद्रबिंदू
में लाया है। एक अनोखे तरीके से जिसका जवाब कांग्रेस के पास नहीं है। जवाब
से ज्यादा चिंता कुछ और है कांग्रेस में। खासकर नेहरू परिवार के सदस्यों
में। स्टैच्यू ऑफ यूनिटी नेहरू परिवार के हर उस प्रोजेक्ट, पुल, नहर, भवनों
को पीछे कर देगा जो पिछले पचास सालों में मुगलों की परंपरा के हिसाब से
नेहरू गांधी परिवार के नाम पर बनाया गया है। जिस पटेल को कांग्रेस भूला
चुकी थी,जिस पटेल को कम्युनिस्ट हिंदूवादी कर गाली देते थे, उन्हें
सेक्यूलर बताया जा रहा है। उन्हें कांग्रेस का बताया जा रहा है।
नरेंद्र मोदी का यह मास्टर स्ट्रोक है। यह मास्टर स्ट्रोक भारत के इतिहासकारों के लिए भारी चुनौती है। यह भारतीय इतिहास लेखन के सारे स्कूलों के लिए भारी चुनौती है। इतिहास लेखन के वामपंथी, गांधीवादी, दक्षिणपंथी और सबआल्टर्न स्कूल जिन्होंने पटेल को इतिहास लेखन में सही जगह नहीं दिया, नए सिरे से विचार करने को मजबूर है। इतिहासकारों के एक स्कूल ने आजादी के बाद इतिहास लेखन में नेहरू का गुणगाण किया। नेहरू को स्थापित करने के लिए उन्होंने सुभाष के समाजवाद को अपरिपक्व कहा था। सरदार पटेल को तो कहीं जगह ही नहीं मिली। इतिहास का हर स्कूल पटेल को पूरी तरह से नजर अंदाज करता रहा है। लेकिन स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी देश के इतिहासकारों को अब मजबूर करेगी। वो पटेल पर बहस करेंगे। उन्हें नए सिरे से स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास लिख पटेल को उचित जगह देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
आज पटेल को लेकर तमाम कांग्रेसी नेता आगे बढ़-बढ कर बयान दे रहे है। लेकिन जरा कोई इनसे पूछे कि इससे पहले कांग्रेसी नेताओं ने कब अपने भाषणों में पटेल को याद किया? पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की जयंती और पुण्य तिथि तो कांग्रेसियों को याद रहती थी, लेकिन सरदार पटेल की जयंती औऱ पुण्यतिथि कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता को आजतक याद नहीं आयी। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पिछले दस साल का भाषण उठा लें। कहीं पर भी उन्होंने पटेल का नाम नहीं लिया है। वो भी नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से आगे अपने भाषणों में नहीं बढे। लेकिन अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में पटेल का नाम लेने के लिए मनमोहन सिंह को नरेंद्र मोदी ने मजबूर कर दिया। मोदी ने जब पटेल के बहाने नेहरू पर वार किया तो मनमोहन सिंह बैचेन हो गए। मजबूरी में उन्हें कहना पड़ा कि उन्हें गर्व है कि वे उसी पार्टी से है जिस पार्टी से पटेल थे। पटेल का सेक्यूलरिजम भी इस वक्त मनमोहन को याद आया। आप राहुल गांधी का पिछले दस सालों का भाषण देख लें। कहीं पर उन्होंने आजतक सरदार पटेल का नाम अपने भाषणों में नहीं लिया।
नरेंद्र मोदी का यह मास्टर स्ट्रोक है। यह मास्टर स्ट्रोक भारत के इतिहासकारों के लिए भारी चुनौती है। यह भारतीय इतिहास लेखन के सारे स्कूलों के लिए भारी चुनौती है। इतिहास लेखन के वामपंथी, गांधीवादी, दक्षिणपंथी और सबआल्टर्न स्कूल जिन्होंने पटेल को इतिहास लेखन में सही जगह नहीं दिया, नए सिरे से विचार करने को मजबूर है। इतिहासकारों के एक स्कूल ने आजादी के बाद इतिहास लेखन में नेहरू का गुणगाण किया। नेहरू को स्थापित करने के लिए उन्होंने सुभाष के समाजवाद को अपरिपक्व कहा था। सरदार पटेल को तो कहीं जगह ही नहीं मिली। इतिहास का हर स्कूल पटेल को पूरी तरह से नजर अंदाज करता रहा है। लेकिन स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी देश के इतिहासकारों को अब मजबूर करेगी। वो पटेल पर बहस करेंगे। उन्हें नए सिरे से स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास लिख पटेल को उचित जगह देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
आज पटेल को लेकर तमाम कांग्रेसी नेता आगे बढ़-बढ कर बयान दे रहे है। लेकिन जरा कोई इनसे पूछे कि इससे पहले कांग्रेसी नेताओं ने कब अपने भाषणों में पटेल को याद किया? पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की जयंती और पुण्य तिथि तो कांग्रेसियों को याद रहती थी, लेकिन सरदार पटेल की जयंती औऱ पुण्यतिथि कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता को आजतक याद नहीं आयी। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पिछले दस साल का भाषण उठा लें। कहीं पर भी उन्होंने पटेल का नाम नहीं लिया है। वो भी नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से आगे अपने भाषणों में नहीं बढे। लेकिन अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में पटेल का नाम लेने के लिए मनमोहन सिंह को नरेंद्र मोदी ने मजबूर कर दिया। मोदी ने जब पटेल के बहाने नेहरू पर वार किया तो मनमोहन सिंह बैचेन हो गए। मजबूरी में उन्हें कहना पड़ा कि उन्हें गर्व है कि वे उसी पार्टी से है जिस पार्टी से पटेल थे। पटेल का सेक्यूलरिजम भी इस वक्त मनमोहन को याद आया। आप राहुल गांधी का पिछले दस सालों का भाषण देख लें। कहीं पर उन्होंने आजतक सरदार पटेल का नाम अपने भाषणों में नहीं लिया।
इस अखंड भारत के लिए उन्हें अपना परिवार ही
हमेशा याद आया। उन्हें दादी, पिता और अपनीं मां से आगे कांग्रेस नहीं
दिखती। यहीं पर मोदी की यह भारी सफलता है। उन्होंने भाजपा के नहीं बल्कि
कांग्रेस के हर नेता को पटेल का नाम लेने के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसा
नहीं कि मोदी पहली बार ऐसी कोई कोशिश कर रहे हैं। इससे पहले राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ भी सरदार पटेल को स्थापित करने का प्रयास कर चुका है। भाजपा
के बड़े नेता एलके आडवाणी ने भी पटेल को हमेशा याद किया। यह दीगर बात थी कि
संघ या आडवाणी को पटेल को स्थापित करने में वो सफलता नहीं मिली जो मोदी को
मिल गई।
दरअसल मोदी ने पटेल को स्थापित करने का एक नायाब तरीका खोज लिया। मोदी
ने कांग्रेस के हथियार से ही कांग्रेस पर वार किया है। आजादी के बाद देश के
तमाम प्रोजेक्टों, योजनाओं, भवनों, सड़कों और पुलों का नाम सुनोयिजत तरीके
से नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर रखा गया है। जब शासक वर्ग द्वारा ऐसा
किया जाता है तो दरअसल यह शासक वर्ग की सोची समझी रणनीति होती है, ताकि उसे
लंबे समय तक जिन्दा रखा जा सके जिन्हें वह अपने आदर्श के बतौर देखता है।
कांग्रेस में यह काम सिर्फ नेहरू गांधी वंश तक सीमित कर दिया गया। नेहरू से
शुरू होकर राजीव तक सब खत्म। देश में कोई हवाई अड्डा बने कि किसी कोई
सरकारी योजना शुरू की जाए सब जगह बहुत सुनियोजित तरीके से सिर्फ नेहरू
गांधी वंश के नेताओं के नाम पर योजनाओं और परियोजनाओं का नामकरण कर दिया
गया। ऐसा इसलिए ताकि वंश परंपरा को लंबे समय तक जीवित रखा जाए। इसके साथ ही
इतिहास के दूसरे लोगों की उपलब्धियों को छुपाने और अपने परिवार की उपलब्धि
ही जनता के सामने लाने के लिए तमाम प्रोजेक्टों, कार्यक्रमों और भवनों के
नाम एक परिवार के नाम पर रखे जाने लगे।
यह खेल खेल शासक वर्ग सदियों से करता रहा है। पंडित नेहरू के परिवार ने
भारत में यही खेल खेला। यह मुगलों से उधार की ली गई परंपरा थी, जिसमें
लोकतांत्रिक तरीके से परिवारवाद को जिंदा रखने में नेहरू परिवार को सफलता
मिली। मुगलों ने अपने शासन को लंबा रखने और इतिहास में हजारों साल तक अपने
वंश का नाम दर्ज कराने के लिए परिवार के किसी सदस्य की याद में मुगल
स्थापत्य कला का एक नमूना देश को दिया। इसी का परिणाम आगरा का ताजमहल, आगरा
का लाल किला, फतेहपुर सिकरी में अकबर का महल है। दिल्ली के लाल किला ने
इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। इसमें वंशवाद, परिवारवाद और अहंकार की बू आती
है। आजादी के बाद नेहरू परिवार ने इसी परंपरा के आधार पर वंशवाद, परिवारवाद
और अहंकार से युक्त कई प्रोजेक्ट, योजना इस देश को दिए।
हालांकि नरेंद्र
मोदी का स्टैच्यू ऑफ यूनिटी इस परंपरा से उधार जरूर लिया गया है, लेकिन
इसमें वंशवाद, परिवार और अहंकार को जगह नहीं मिली है। क्योंकि सरदार पटेल न
तो मोदी के रिश्तेदार है, न ही पूर्वज है और न ही मोदी की जाति से है।
मुगलों ने अपनी सुख सुविधा और बीबियों के याद में एक स्थाप्तय कला दिया।
नेहरू परिवार ने अपने वंश के शासन को को लोकतांत्रिक परंपरा में ज्यादा समय
तक चलाने के लिए इस परंपरा को जिंदा रखा। लेकिन मोदी ने इस परंपरा को
परिवारवाद, वंशवाद से मुक्त कर दिया। यही मोदी की जीत है।
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