मध्य प्रदेश राज्य में यदि पिछले 50 बरस के
चुनावी इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि
इस दौरान एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि जनता ने किसी पार्टी को तीसरी बार
सरकार बनाने का मौका दिया हो। वर्ष 1977 में दस साल तक सत्ता में रहने के
बाद कांग्रेस आपातकाल के बाद जनता पार्टी की आंधी में उड़ गयी थी और उसे
अन्य राज्यों के समान मध्यप्रदेश में भी सत्ता गंवानी पड़ी। हालांकि यह बात
दूसरी है कि जनता पार्टी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और मात्र ढाई
साल के शासनकाल में आपसी लडाई के चलते उसे सत्ता से बाहर होना पड़ा।
जनता पार्टी की सरकार भंग होने के बाद हुए चुनाव में कांगे्रस
एक बार फिर सत्ता में आई और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने पांच साल तक
निर्बाध शासन किया। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की
हत्या के बाद हुए चुनाव में कांगे्रस एक बार फिर सहानुभूति मतों के सहारे
प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के
कार्यकाल के दौरान बोफोर्स तोप कांड का असर मध्यप्रदेश में भी दिखाई पड़ा
और कांग्रेस तीसरी बार सत्ता पाने से वंचित हो गई। तब भाजपा ने पूर्ण बहुमत
हासिल कर सत्ता हासिल की थी और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने।
सुंदरलाल पटवा भी अन्य गैर कांगे्रसी सरकारों की तरह अपना कार्यकाल पूरा
नहीं कर पाये और वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाये जाने के बाद
प्रदेश में हुए दंगों की वजह से उनकी सरकार भंग कर दी गई। लगभग एक साल के
राष्ट्रपति शासन के बाद हुए विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा को पूरी उम्मीद
थी कि वह सत्ता में वापस आ जायेगी लेकिन कांगे्रस ने एक बार फिर बाजी मारते
हुए सत्ता पर कब्जा किया और दिगिवजय सिंह मुख्यमंत्री बने। सिंह ने पांच
साल तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद वर्ष 1998 में हुए विधान सभा चुनाव में
विजय प्राप्त की और लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।
कांग्रेरस लगातार दूसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही और उसे
उम्मीद थी कि वह तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हो जायेगी लेकिन भाजपा के
आक्रामक प्रचार और उमा भारती के तूफानी दौरों के चलते कांग्रेस का तीसरी
बार सत्ता में आने का सपना ही चकनाचूर नहीं हुआ बल्कि उसे शर्मनाक पराजय का
सामना भी करना पड़ा।
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