30 November 2013

किसी लड़की को बदनाम मत कीजिए !

थिंक फेस्ट, जी हाँ यही नाम दिया था तेजपाल ने देश -विदेश की समस्याओं पर चिंतन के लिए आयोजित शिविर को। कभी उन्होंने कहा भी था कि जन सरोकार की पत्रकारिता का ये मतलब नहीं कि हम जामिया मिलिया के ऑडिटोरियम में अपने कार्यक्रम करें। वो पुराना जमाना था कभी जब संपादक जी को बजाज का स्कूटर एक तरफ झुका कर स्टार्ट करना पड़ता था, वो अब उस ऊँचाई पर पहुँच गए थे जहाँ चिंतन के लिए भी फेस्टिवल आयोजित किये जाते हैं जिसमें दिन भर के मैराथन चिंतन के बाद थक चुके विचारक जो चाहे खा सकें, पी सकें और जिसके साथ चाहे सो सकें।

यहाँ किसी के साथ सोने से क्या मतलब है, ये अपने उद्घाटन भाषण में संपादक जी ने गोवा में नहीं कहा था, बाकी शब्द उन्ही के हैं। पुराने ज़माने में होता था और अभी भी गरीब-गुरबों का चिंतन शिविर कुछ ऐसे ही होता है कि दरी पर बैठकर मुद्दे निपटाए फिर जिस भाई के बगल में जगह खाली दिखी और उससे वार्ता की ललक पूरी नहीं हुई तो वहीं लंबलेट हो गए क्योंकि शिविर ख़तम होने के बाद न जाने कब मुलाक़ात हो। लेकिन किसी पांच सितारा होटल के फेस्ट में ये कहना कि जिसके साथ चाहें सो सकते हैं, काफी है कि कम से कम नारीवादी संगठन और राष्ट्रवादी लोग भड़क जाएँ लेकिन इन संगठनों से जुड़े लोगों के पास भी उसी होटल के कमरे की चाभी होती है और आयोजक द्वारा दिया गया रिटर्न एयर टिकट भी होता है इसलिए ये लोग भी कुछ समय के लिए प्रगतिशील हो जाते हैं और फेस्ट की मादकता में बह जाते हैं। और जब प्रायोजकों में दारु कंपनियाँ भी शामिल हों तो बहकी बहकी बातों से बचना भी मुश्किल होता है इसलिए इनको दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि जब भी ऐसे लोग अपने सोचने का धंधा शुरू करते हैं तो झोले के अलावा साथ में कुछ नहीं होता, उस झोले से थिंक फेस्ट तक की यात्रा में बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ता है, जिसमें सबसे पहले विचार के साथ व्यभिचार करना भी शामिल है।

इस साल जब गोवा में थिंक फेस्ट की आहट सुनाई दी तो वहाँ के स्थानिय एक्टिविस्ट मोर्चेबंदी करने लगे थे क्योंकि उनके हिसाब से ये चिंतन -उत्सव ब्लडमनी से आयोजित होने वाला था, यानि तहलका पत्रिका द्वारा ख़बरों को दबाने या फेवर में दिखाने के एवज में वसूली गई कीमत। विरोधियों का कहना था कि इस आयोजन के सभी प्रायोजक वही लोग हैं जो लगभग हर स्तर पर आम जनता का शोषण करने वाले हैं, इन कार्पोरेट्स के पैसे पर कैसे भी कोई आदमी चाय -पानी कर सकता है, वो भी तब जब उसके साथ जन सरोकारों के बड़े पैरोकार का तमगा लगा हो। दस-बीस आदमी जुटते, तहलका के खिलाफ पोस्टर लगाते और फिर घर चले जाते और कोई खबर नहीं बनती थी क्योंकि देश के अन्य मीडिया घराने भी जन सरोकारों पर चिंतन के लिए उन्ही कार्पोरेट्स पर निर्भर हैं। खैर फेस्ट गुजर गया धूमधाम से और बाकि मीडिया हॉउस जलते-भुनते अपने फेस्ट की तैयारी करने लगे। लेकिन एकाएक संपादक जी की उड़ान को झटका लगा और उनको वो दिन याद आ ही गए होंगे जब केवल स्कूटर था और पांच रूपये देकर किसी भी लफड़े से बच जाते थे क्योंकि तब इतने की भी कीमत हुआ करती थी। पत्रिका की एक रिपोर्टर ने ऑफिस के कुछ लोगों को बताया कि उसके साथ संपादक द्वारा यौन दुर्व्यवहार किया गया है और माफ़ी मांगनी चाहिए। उसके मुताबिक 7 नवम्बर को ये हरकत तेजपाल ने की और अगले दिन फिर दुहराई। पत्रिका की एक तेजतर्रार रिपोर्टर, वो भी जिसने तमाम बलात्कार से जुड़े मुद्दों पर गंभीर लेख लिखे हों और जिसके ब्लॉग से भी लगता हो कि केवल संबंधों के आधार पर ही नहीं नौकरी मिली है, के साथ संपादक की शर्मनाक हरकत क्रान्तिकारी पत्रकारिता करने वाले कुछ लोगों को चुभ गई।

 पहले तो मामले को समूह का आतंरिक मामला बता कर निपटाने की कोशिश की गई लेकिन संपादक से खुलासा करने का हुनर सीखने  वालों ने रिपोर्टर का पत्र लीक कर दिया। तहलका से पीड़ित पक्षों के अलावा नारीमुक्ति के मसले पर संवेदनशील हो चुके लोगों के हाथ बड़ा मसला लगा और आतंरिक मसला अब प्राईम टाईम स्टोरी बन गया। माहौल बिगड़ता देख सम्पादक ने फिर अपनी नंबर दो को पत्र लिखा और कहा की जो भी हुआ, उससे उनको भी काफी दुःख है और वो छ: महीने के लिए खुद को तहलका से अलग करते हैं। तत्काल देश में सम्पादक के इस कदम की तारीफ होने लगी कि अपने स्वाभाव के मुताबिक ही उसने दम दिखाया, है किसी में इतनी हिम्मत? तहलका में नंबर दो शोमा चौधरी सामने आईं और उन्होंने कहा की चूँकि संपादक ने गलती मान ली है और रिपोर्टर को भी इस बारे में लिख दिया है और रिपोर्टर संतुष्ट हो गई है इसलिए किसी बाहरी आदमी को इस पचड़े में पड़ने में जरुरत नहीं क्योंकि ये आतंरिक मामला है। लेकिन क्यों न पड़े कोई भाई, वैसे भी अपना फटा छोड़ कर फटे में टांग घुसाना हमारा राष्ट्रीय शगल है तो क्यों छोड़े कोई, वो भी जब इतना बड़ा मामला हो । जावेद अख्तर साहब ने फटी में टांग घुसेड़ी की स्वीकार करने की ताकत दिखाने वाले की दाद देनी चाहिए, भाई लोग पड़ गए उन्ही के पीछे , अरे यार जावेद साहब भी तो फेस्ट के गेस्ट थे।

धीरे धीरे मामला बढ़ता गया, अब आतंरिक एकदम से नहीं रह गया। दो पक्ष हो गए, एक जो तुरंत लटकाने वाला था और दूसरा जो सेक्युलरिज्म के चैम्पियन संपादक के लिए सहानुभूति दिखाने वाला था और कह रहा था की सिर्फ एक गलती से उनके सारे पुण्य धूल नहीं जायेंगे। मीडिया अभी भ्रम में थी तब तक सोशल मीडिया के वीरों ने मुद्दे को हाथों हाथ लिया और रिपोर्टर की चिट्ठी से लेकर संपादक की बिटिया का कहना की वो पहले भी अपने पापा जी को ऐसा करते देख चुकी हैं, धड़ाधड़ शेयर और लाईक होने लगा। दुखी बिटिया को ट्विटर से विदा लेनी पड़ी लेकिन अब मीडिया के सामने इस मुद्दे को हल्का करने का कोई रास्ता नहीं था क्योंकि उसे जनता के बीच अपनी टीआरपी बनाये रखनी थी। जेल जा चुके चैनल संपादक से लेकर खबरों के सौदे करने के लिए बदनाम रिपोर्टर भी एक सुर में गोवा कांड में न्याय की दुहाई देने लगे। ध्यान रहे की फेस्ट में घटना 7 -8 को हुई थी और पीड़ित ने विभागीय पत्र 18 नवम्बर को लिखा था और भाई लोग न्याय दिलाने के लिए चीखने लगे थे तब तक पुलिस में कोई औपचारिक शिकायत नहीं दर्ज कराई गई थी। पीड़िता की यही मांग थी की उसके सम्पादक सार्वजनिक माफ़ी मांगे और समूह में महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशाखा समिति की सिफारिशों के आधार पर समिति बने और वो समिति ही जांच करे। लेकिन भला हो कि निर्भया के नाम पर हालिया बने कानून का की पुलिस को किसी औपचारिक शिकायत की जरुरत ही नहीं, वह स्वत: संज्ञान लेकर जांच शुरू कर सकती है। वही हुआ, गोवा पुलिस फास्ट निकली और तेजपाल लापता हो गए। 

अब जबकि औपचारिक शिकायत भी दर्ज करा दी गई है तो आतंरिक मामला कह कर सन्यास लेने वाले संपादक का कहना है की उसे फंसाया जा रहा है और लड़की रिश्तों का दुरुपयोग कर रही है, ये आम तर्क होता है ऐसे मामलों में। थोड़ा और आगे बढ़ते हुए तेजपाल ये भी कहते हैं की भाजपा फँसा रही है, अब ये बात तो काँग्रेस को भी कभी हज़म नहीं होगी क्योंकि ऐसी शिकायत तो मदेरणा या पीएम मैटेरियल एनडीटी ने भी नहीं की थी। तेजपाल के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत तो उनका माफीनामा है, हालाँकि उसमें वो शब्द नहीं हैं जो पीड़िता चाहती थी लेकिन उनके अपराध को साबित करने वाले तमाम सबूत हैं। अब रिपोर्टर ने बयान भी दर्ज करा दिया है तो शोमा चौधरी का कहना है कि वो माफीनामा तेजपाल ने लिखा ही नहीं था, मसले पर एक वकील से राय बात ली गई थी और उसी वकील ने ही ड्राफ्ट तैयार करवाया।

गजब बात है, जेठमलानी और सिब्बल साहब के होते हुए किस वकील ने ऐसी राय दे दी भाई, उसे भी सम्मानित करना लोग अगले थिंक फेस्ट में। कुछ लोग कह रहे हैं की थिंक फेस्ट तहलका का कार्यक्रम ही नहीं है क्योंकि उसकी आयोजक कंपनी का नाम थिंकवर्क्स है। ये अलग बात है की थिंक वर्क्स के मालिक तेजपाल और सुपर्णा चौधरी हैं, सुपर्णा चौधरी का ही नाम शोमा चौधरी है। थिंक वर्क्स भारी मुनाफे में रहने वाली कंपनी है और तहलका काफी घाटा झेल रही कंपनी है। अब इस खुलासे से तहलका में भारी पैसा लगाकर मालिकाना रखने वाले राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति केडी सिंह भी नाराज़ हैं और वो घोषणा कर चुके हैं की उनकी कंपनी तहलका से निकल जाएगी, अब निकल जायेगी तो पत्रिका चलेगी कैसे, इस मामले पर शोमा चौधरी का कहना है की अभी निश्चित नहीं है की पत्रिका का क्या होगा। इसी बीच अब ये भी खुलासा हो गया है की मरहूम पोंटी चड्ढा की कंपनी के साथ संपादक जी एक अपरक्लास के लोगों का एलीट क्लब शुरू करने वाले थे, काफी काम हो चुका है। इस क्लब में तमाम सुविधाएँ उपलब्ध रहेंगी जो देवताओं को भी दुर्लभ होती है, और फिर इन सुविधाओं के लिए साल में एकबार होने वाले किसी स्टिंक फेस्ट का इंतजार भी नहीं करना पड़ेगा।

तेजपाल के वकील सवाल उठा रहे हैं की लड़की अब तक खामोश क्यों थी और दुर्घटना की रात भी रेमो फर्नांडीज के शो का आनंद लेती रही, साथ ही रोज होने वाले रात्रिकालीन सत्रों में भी सक्रियता से शामिल रही, अब एकाएक उसे क्या हो गया। वकीलों को तो पैसे मिले हैं लेकिन आम लोग भी समझते हैं की आज दुनिया में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और कहाँ कहाँ खुद को मार कर, अपनी लाश के साथ उत्सव में शामिल होना पड़ता है। सहमति-असहमति का तमाम लोगों के पास विकल्प ही नहीं होता और अब ये निश्चित लग रहा है की जो कुछ भी होता जा रहा है उस पर तेजपाल का भी कोई नियंत्रण नहीं है। हाँ वो चारा  फेंक कर फंसाने की पत्रकारिता, जिसे भारत में स्टिंग कहा जाता है, के बादशाह रहे हैं, अब खुद एक स्टिंग करें और साबित करें की की वो निर्दोष हैं क्योंकि मीडिया ट्रायल को उन्ही के खुलासों ने वो बुलंदी पहुंचाई है की जज साहिबान भी अपने घर वालों को टीवी देखने को बोलते होंगे ताकि कोई क्लू मिले और उन्हें लंचब्रेक में बताया जाय ताकि फैसला देते समय असानी रहे। तमाम मामले जो अभी अदालत में हैं उनपर मीडिया के हवाले से फैसला सुनाना भी जनता ने इन्ही जैसों से सीखा है। क्यों साहब ? बस किसी लड़की को बदनाम मत कीजिए।

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