स्वामी अग्निवेश कह रहे हैं कि इसरो के
वैज्ञानिक के राधाकृष्णन अगर मंगलयान मिशन की सफलता के लिए तिरूपति मंदिर
जाकर पूजा अर्चना करते हैं और मिशन के सफलता की कामना करते हैं, तो यह अंध
विश्वास है। इतना ऊंचा वैज्ञानिक और ऐसी धार्मिक जड़ता? ईश विरोधी स्वामी
अग्निवेश का यह सवाल एकबारगी सही भी लगता है कि जब आप उस ग्रह पर जाकर खड़े
होने की सोचने लगते हैं जिसे आप अब तक देवता मानकर पूजा किया करते थे, फिर
भी ऐसी धार्मिक अंधता तो अंध विश्वास ही है। लेकिन क्या ऐसा है? क्या
वास्तव में धर्म विज्ञान की वह पूर्व पीठिका है जिसके नष्ट होने पर ही
विज्ञान का उदय होता है? और अगर विज्ञान उदित राज हो जाए तो फिर धार्मिक
अंधविश्वास और कर्मकांड के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
स्वामी अग्निवेश का विरोध बताता है कि उनका यह बयान पूरी तरह से
राजनीतिक है और उनके चर्च समर्थक होने का एक और प्रमाण प्रस्तुत करता है।
लेकिन हमारा सवाल स्वामी अग्निवेश से है भी नहीं। ऐसे लोग क्या बोलते हैं
और क्यों बोलते हैं उसका मकसद समस्या का समाधान खोजना नहीं होता बल्कि
समस्या को और अधिक उलझाना होता है। फिर भी स्वामी अग्निवेश के ही बहाने इस
सवाल का जवाब खोजा जाना जरूरी है कि क्या विज्ञान मिल जाने पर धर्म विलीन
हो जाता है? और फिर जब हम धर्म की बात करते हैं तो हम किस धर्म की बात कर
रहे होते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम धर्म और आध्यात्म का घालमेल कर
रहे हैं? ज्यादातर मामलों में अक्सर हम यही करते हैं।
विज्ञान का तात्विक अर्थ विधिवत ज्ञान से है। विशद ज्ञान को भी विज्ञान
कहा जा सकता है। लेकिन यह विधिवत, विशद और विस्तृत ज्ञान विज्ञान को कभी
पूर्णता प्रदान नहीं कर सकता है। ज्ञान की वैज्ञानिक व्यवस्था में पूर्णतम
की बजाय अधिकतम को मान्यता मिलती है। और यह अधिकतम 99.99 प्रतिशत हो जाए तो
वैज्ञानिक पूर्णता प्राप्त हो जाती है। आधुनिक औद्योगिक विज्ञान तो यह
मात्रा घटाकर और कम कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं। पूर्णता या वैज्ञानिक
दृष्टिकोण नब्बे प्रतिशत पर भी निर्मित हो सकता है। सत्तर प्रतिशत पर भी।
किसी एक प्रयोग में अगर सत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत भी सफलता हासिल कर ली
जाए तो उसे वैज्ञानिक सफलता घोषित किया जा सकता है। लेकिन अगर कोई प्रयोग
100 प्रतिशत सफल हो जाए तो? तो क्या उस प्रयोग को हम संपूर्ण वैज्ञानिक
सफलता घोषित कर देते हैं?
विज्ञान की मुश्किल यहीं से शुरू होती है। विज्ञान में 100 प्रतिशत
पूर्णता जैसी कोई व्यवस्था या सफलता नहीं है। असल में तो प्रयोग की
अपूर्णता ही विज्ञान है। क्योंकि जैसे ही प्रयोग को पूर्णता प्राप्त होती
है विज्ञान ही विलीन हो जाता है। पूर्णता यह विज्ञान की कसौटी नहीं है।
पूर्णता विज्ञान से परे की अवस्था है। विज्ञान में पूर्णता नहीं है बल्कि
विज्ञान की पूर्णता है। और वह पूर्णता आध्यात्म है। अधि और आत्म।
अधि का अर्थ अधिष्ठान। स्थिर। और आत्म अर्थात वह जो इस अधि पर
अधिष्ठातित है। अधि पर स्थित आत्म। लेकिन स्थिर क्या है जिस पर आत्म
अवस्थित है? पृथ्वी से लेकर आकाश और आकाश से लेकर ब्रह्माण्ड तक कहीं कुछ
स्थिर है कहां जहां आत्म अवस्थित पाया जाए? पूरे ब्रह्माण्ड की व्यवस्था
अस्थिर है। लेकिन अब भौतिक प्रयोग वाले विज्ञान कम से कम हमें इतना तो बता
ही दिया है कि इस अस्थिर ब्रंह्मांडीय व्यवस्था में विषम नहीं बल्कि सम
व्यवहार है। जीव (पृथ्वी) से लेकर ग्रह (ब्रह्माण्ड) नक्षत्र (अंतरिक्ष) तक
सभी एक निर्धारित व्यवस्था में गति कर रहे हैं। अस्थिर हैं लेकिन असम नहीं
है। जीव से लेकर अंतरिक्ष तक यह गति इतनी व्यवस्थित है कि तिनका भर भी गति
में अदल बदल हो जाए तो सिर्फ पृथ्वी की व्यवस्था ही नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड
में ऐसा तूफान खड़ा हो जाएगा जो कह कहां जाकर थमेगा कोई विज्ञान उसकी कोई
भविष्यवाणी नहीं कर सकता।
न जाने कितने प्रकाश वर्ष से ब्रह्माण्ड और अंतरिक्ष की वह व्यवस्था
कायम है जिसके कारण हमारा अस्तित्व है और आनेवाले कितने प्रकाश वर्ष तक वह
व्यवस्था कायम रहेगी, इसका भी हमें कोई अंदाज नहीं है। बहुत सारे वैज्ञानिक
अध्ययन हैं और उन अध्ययनों के अलग अलग निष्कर्ष भी। लेकिन ज्यादातर अध्ययन
हमारे सौर मंडल के बाहर नहीं जा पाये हैं। 200 साल के वैज्ञानिक युग में
जी लेने के बाद भी हम आज भी उतने ही ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर रहे हैं जितने
ब्रह्माण्ड की परिकल्पना 'धर्मकथाओं' में पहले से मौजूद हैं। अंतरिक्ष आज
भी हमारे लिए उतना ही अबूझ है, जितना दो से पांच हजार साल पहले अबूझ रहा
होगा। अतीत के पूरब से लेकर वर्तमान के पश्चिम तक जितने वैज्ञानिक प्रयोग
हो रहे हैं वे एक ब्रह्माण्ड तक सीमित हैं। हमें जहां तक पता चला है वह यह
कि अंतरिक्ष में हमारे ब्रह्माण्ड जितने और भी न जाने कितने ब्रह्माण्ड
हैं। आकाशगंगाएं हैं। अंतरिक्ष अंतहीन है। अभेद्य है। अगम्य है।
इस अभेद्य, अगम्य और अंतहीन अंतरिक्ष में सिर्फ हमारा ब्रह्माण्ड ही ऐसी
व्यवस्था है जिसके कुछ करीब तक पहुंचने की कोशिश हम कर पाये हैं। आनावाले
कुछ सौ वर्षों तक अगर इसी तरह मनुष्य के जानने की जीजीविषा बढ़ती रही तो
आधुनिक सभ्यता के विलीन होने तक हम ब्रह्माण्ड को शायद अतीत से आगे जाकर
कुछ और अधिक जान पायें। इसमें कितना समय लगेगा इसकी कोई समयसीमा नहीं हो
सकती। लेकिन ब्रह्माण्ड का रहस्य खोजते खोजते जैसे ही हम ब्रह्माण्डीय
व्यवस्था में अधि का अनुभव करने लगते हैं, एक चमत्कारिक घटना घटित होना
शुरू हो जाती है। और वह कहीं और नहीं बल्कि अपने भीतर ही घटित होती है।
इससे न तो अतीत के वैज्ञानिक (ऋषि) अछूते थे और न ही वर्तमान के ऋषि
(वैज्ञानिक) अछूते रह सकते हैं। क्योंकि आखिरकार विधिवत ज्ञान (विज्ञान)
जिस धरातल (आत्म) पर अनुभव उत्पन्न करता है वे ब्रह्माण्ड या शरीर की दो
विरोधाभाषी धारणाएं नहीं बल्कि दो विपरीत अवस्था हैं जिसमें एक (विज्ञान)
के पूर्ण हो जाने पर दूसरे (आध्यात्म) का अभ्युदय हो जाता है। यह तो हमारे
अपने अंदर का विरोधाभास और तर्कबुद्धि का विकास है कि इस पूर्णता को परख
नहीं पाते हैं।
ब्रह्माण्ड की व्यवस्था बाहर तो है ही, भीतर भी है। हर एक जीव एक
संपूर्ण ब्रह्माण्ड है। अंतरिक्ष की दूसरी आकाशगंगाओं में तैरनेवाले
ब्रह्माण्डों में अगर कहीं जीवन मौजूद है तो उनमें क्या व्यवस्था है, यह
जानना शायद ही कभी संभव हो पाये लेकिन जिस एक ब्रह्माण्ड को हम समझ पाये
हैं उसकी व्यवस्था और जीव के भीतर की व्यवस्था दो अलग अलग व्यवस्था बिल्कुल
नहीं है। शायद यही कारण है कि अतीत में नक्षत्र विज्ञान को जीव पर
पड़नेवाले प्रभाव से जोड़ दिया गया होगा। हमारे सौर मंडल के ब्रह्माण्ड में
जितने ग्रह हैं वे सभी ग्रह हमारे पिण्ड में मौजूद हैं। अगर सौर मंडल के
ब्रह्माण्ड का रहस्य समझने के लिए हम वैज्ञानिक उपकरणों और प्रयोगशालाओं का
सहारा ले रहे हैं तो पिण्ड के भीतर अवस्थित ब्रह्माण्ड को भी समझा जा सकता
है। अनुभव किया जा सकता है। पूरब ने पहले भी इस पर बड़ा काम किया है। और
अब भी कर रहा है।
लेकिन न जाने क्यों और कैसे विज्ञान को आध्यात्म का दुश्मन साबित कर
दिया गया। हमारे बुद्धि में यह बात न जाने क्योंकर बिठा दी गई है कि
विज्ञान सर्वश्रेष्ठ चमत्कार है जबकि धर्म निकृष्ट अंधविश्वास। हमने इस
लिहाज से कभी क्यों नहीं सोचा कि पिण्ड के जरिए ब्रह्माण्ड की व्यवस्था को
अध्ययन करने की जो व्यवस्था है वह धर्म है। और उस धर्म का अनुपालन करने पर
जो पूर्णता प्राप्त होती है, वह आध्यात्म है। विज्ञान भी तो उसी पूर्णता की
प्राप्ति के लिए प्रयासरत है। फिर दोनों में विरोधाभास कहां से आ गया? जो
विज्ञान के रास्ते पर है वह अपनी पूर्णता (आध्यात्म) के अस्तित्व को कैसे
नकार सकता है? और जिसे पूर्णता प्राप्त करनी है वह अवैज्ञानिक होकर भविष्य
में कितना पग धर सकता है? पिण्ड को ब्रह्माण्ड से अलग कैसे किया जा सकता
है? क्या स्वामी अग्निवेश इस बारे में कुछ बताएंगे?
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