चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में भारतीय
स्टेट बैंक का शुद्ध मुनाफा पिछले वर्ष के इसी अवधि के मुक़ाबले 35 प्रतिशत
घटकर 2375 करोड़ रह गया। पंजाब नेशनल बैंक के मुनाफे में भी उल्लेखनीय कमी
आई है। आंध्रा बैंक का मुनाफा 78 प्रतिशत घटकर 70.65 करोड़ हो गया। करूर
वैश्य बैंक का शुद्ध लाभ 37.60 प्रतिशत घटकर 82.89 करोड़ रह गया। सेंट्रल
बैंक ऑफ इंडिया को 1508 करोड़ रूपये का शुद्ध घाटा हुआ है। बात सिर्फ मुनाफे
में आई कमी तक सीमित रहती तो राहत की सांस ली जा सकती थी, लेकिन गैर
निष्पादित आस्तियां (एनपीए) फ्रंट पर भी बैंकों की हालत खस्ताहाल है। स्टेट
बैंक का एनपीए पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 1837.19 करोड़ से बढ़कर
2645.20 करोड़ हो गया। वित्त मंत्रालय ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को
हिदायत दी है कि वे कंपनियों को कर्ज देते समय सावधानी बरतें। अगर किसी
कंपनी की सहायक कंपनी डिफॉल्टर है तो उसे भी कर्ज देने से परहेज करें।
गौरतलब है कि जून तिमाही में बैंकों का एनपीए बढ़कर 1.83 लाख
करोड़ रूपये हो गया था, जिसमें से 40 सूचीबद्ध बैंकों का एनपीए स्तर दूसरी
तिमाही में बढ़कर 128533 करोड़ रूपये तक पहुँच गया है, जो पिछले वर्ष के अंत
तक 93109 करोड़ रुपया था। एक अनुमान के मुताबिक चालू वर्ष के अंत तक इन
सूचीबद्ध बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपया हो जायेगा। उल्लेखनीय है कि
इनमें से 14 बैंकों के एनपीए में पहली छमाही में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा
इजाफा हुआ है।
मुनाफे और संपत्ति की गुणवत्ता में आती कमी के कारण सार्वजनिक क्षेत्र
के बैंकों की पूंजी पर्याप्तता अनुपात में कमी का होना लगातार जारी है।
दूसरी तिमाही में अनेक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पूंजी पर्याप्तता
अनुपात में गिरावट दर्ज की गई। बैंक ऑफ बड़ौदा का पूंजी पर्याप्तता अनुपात
घटकर 12.32 प्रतिशत के स्तर पर आ गया है, जोकि प्रथम तिमाही में 12.70
प्रतिशत था। इसी तरह इलाहाबाद बैंक के पूंजी पर्याप्तता अनुपात में पिछले
साल की समान अवधि के मुक़ाबले 109 आधार अंकों की कमी आई है, जिसके कारण यह
घटकर 11.07 प्रतिशत हो गया है। बैंकों की पूँजी के फ्रंट पर खस्ताहाल
स्थिति को देखते हुए एवं बेसल-3 के मानकों को पूरा करने के लिए सरकार आने
वाले महीनों में क्यूआईपी के जरिये 300 करोड़ रूपये जुटाने वाली है।
इसी क्रम में प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) ने सुझाव
दिया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को चरणबद्ध
तरीके से 58 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत कर दिया जाये। सरकारी हिस्सेदारी
घटाने की प्रक्रिया से जुटाई गई रकम का इस्तेमाल बेसल 3 के प्रावधानों को
लागू करने में किया जायेगा, जिससे बैंकिंग प्रणाली में मजबूती आयेगी।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में हिस्सेदारी घटाने से सरकार 55000 करोड़
रूपये जुटा सकती है। ध्यान देने योग्य बात है कि सरकार पहले भी सार्वजनिक
क्षेत्र के बैंकों को संकट से उबारने के लिए समय-समय पर पूँजी उपलब्ध
करवाती रही है।
मोटे तौर पर देखा जाये तो बैंकिंग प्रणाली के तहत बैंक जमा स्वीकार करता
है और जरूरतमंदों को कर्ज देता है। कर्ज देने के लिये सभी तरह के खर्चों
के बाद बैंक को लाभ होना जरूरी है, जो कि ग्राहक को उनकी जमा राशि में दिये
गये ब्याज एवं कर्ज की रकम पर लिये जा रहे ब्याज के बीच व्याप्त अंतर से
होता है। लाभ कमाने का एक और स्रोत फी आधारित आय और कमीशन है। एनपीए वैसी
आस्तियों को कहते हैं, जो कहने के लिये बैंकों के बहीखातों में दर्ज होता
है, पर उससे कोई आय नहीं अर्जित होती है। इस नजरिये से देखें तो मौजूदा समय
में बैंकों के 1.83 लाख करोड़ रूपये डूब चुके हैं। यह एक बड़ी राशि है जिससे
देश की बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकता था, लेकिन प्रणाली में व्याप्त
खामियों एवं सरकार की बेरुखी की वजह से इसकी वसूली नहीं हो पा रही है।
बैंकों में बढ़ते पूंजी संकट से आमजन का प्रभावित होना लाजिमी है। अगर
बैंकों का लाभ कम होगा या फिर उनके एनपीए में वृद्धि होगी तो स्वाभाविक रूप
से बैंकों को फंड की कमी होगी और वह लोगों को कर्ज उपलब्ध नहीं करवा
पायेगा, जिससे उधोग-धंधे चौपट होंगे, बेरोजगारी बढ़ेगी और मंदी को बढ़ावा
मिलेगा साथ ही साथ विकास की रफ्तार भी अवरुद्ध होगी।
बैंकों में गहराते पूँजी संकट के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले
नकारात्मक प्रभावों को दरकिनार करते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक
सिंह आहुलवालिया ने 34 वें स्काच सम्मेलन में कहा कि फिलहाल बाजार नरम है,
लेकिन तय मानकों व कार्यक्रमों का अनुपालन करने पर हम 2 साल के अंदर 8
प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेंगे। बता दें कि 12 वीं पंचवर्षीय योजना
(2012-17) के पहले साल विकास दर 5 प्रतिशत थी, जो चालू वित्त वर्ष की
अप्रैल-जून की तिमाही में घटकर 4.4 प्रतिशत रह गई है। वर्तमान में भारत के
निर्यात में कुछ सुधार हुआ है। अक्टूबर में एक साल के पहले की तुलना में यह
13.47 प्रतिशत से बढ़कर 27.2 अरब डॉलर हो गया है। यह दो साल में सबसे तेज
मासिक वृद्धि है।
रिजर्व बैंक ने चालू खाते के घाटे (कैड) को 56 अरब डॉलर पर बने रहने का
अनुमान लगाया है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3 प्रतिशत से कम और
पिछले साल के कैड से 32 अरब डॉलर कम होगा। ज्ञातव्य है कि देश में विदेशी
मुद्रा के कुल अंतः प्रवाह और बाह्य प्रवाह के बीच अंतर को कैड कहते हैं।
वित्त वर्ष 2012-13 में यह 88.2 अरब डॉलर था, जो जीडीपी का 4.8 प्रतिशत था।
इन संकेतों के आधार पर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि
अब विनिमय दर में उतार-चढ़ाव की कोई बुनियादी वजह नहीं है। श्री राजन का यह
भी मानना है कि सोने के आयात को कम करने के उपायों की वजह से कैड में
गिरावट दर्ज की गई है, जो कि अर्थव्यवस्था के लिये अच्छा संकेत है, किन्तु
उनके सकारात्मक दावों के बावजूद महंगाई की दर अभी भी अपने उच्चतम स्तर पर
बनी हुई है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के ताजा आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर में
खुदरा महंगाई बढ़कर 10.10 प्रतिशत हो गई।
फिलहाल फसल के अच्छे होने के आसार कम हैं, जिसके कारण निकट भविष्य में
खाद्य पदार्थों के आवक में बढ़ोतरी की संभावना कम है। मुनाफाखोरों का बाजार
पर वर्चस्व कायम है। अफवाह एवं कालाबाजारी की वजह से बिहार में नमक का भाव
200 रूपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच गया है। यहाँ तक की पटना के कुछ इलाकों
में भी यह 50 से 100 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बिक रहा है। सब्जी
सहित विभिन्न खाद्य उत्पादों के महंगा होने से थोक मुद्रास्फीति अक्टूबर
में 7 प्रतिशत हो गई, जबकि 5 प्रतिशत थोक महँगाई को ही राहत योग्य माना
जाता है। चालू वित्त वर्ष में यह इसका उच्चतम स्तर है। इस साल सितंबर में
थोक महंगाई दर 6.46 प्रतिशत और अक्टूबर में 7.32 प्रतिशत थी। अक्टूबर में
सब्जियों की थोक कीमतें एक साल पहले की तुलना में 80 प्रतिशत महंगी हुई
हैं, जबकि प्याज के दाम में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। अंडा, मांस और मछली
जैसे प्रोटीनयुक्त खाद्य उत्पादों की महंगाई दर में भी इस दौरान तेज बढ़ोतरी
दर्ज की गई। हालांकि मोटे अनाजों एवं चावल के थोक भाव थोड़े नरम हुए, लेकिन
गेहूं की कीमत में करीब 8 प्रतिशत का इजाफा हुआ। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक
खाद्य उत्पादों की मुद्रास्फीति अक्टूबर में 18.19 प्रतिशत रही। इसी आलोक
में प्राथमिक उत्पाद खंड में मुद्रास्फीति अक्टूबर में 14.68 प्रतिशत रही।
ईंधन और बिजली खंड में भी मुद्रास्फीति 10 प्रतिशत से ऊपर रही।
बावजूद इसके इसपर नियंत्रण करने की कोशिश सरकार के द्वारा सही तरीके से
नहीं की जा रही है। हाँ, सरकार की तरफ से बेवजह की सकारात्मक बयानबाजियाँ
जरूर की जा रही हैं। गौरतलब है कि बाजार पर हावी दलालों पर कुछ हद तक काबू
करके कुछ हद तक महंगाई को जरूर कम किया जा सकता है, लेकिन उसपर नियंत्रण
बिना बैंकों के हस्तक्षेप के नहीं किया जा सकता है। इसी वजह से महंगाई को
रोकने के लिए रिजर्व बैंक पहले ही 2 बार रेपो दर में बढ़ोतरी कर चुका है।
फिर भी महँगाई से राहत नहीं मिलने के कारण अब इसके और बढ़ने की आशंका पैदा
हो गई है। रेपो वह दर है जिसपर रिजर्व बैंक वाणिज्यक बैंकों को पूँजी उधार
देता है। रेपो दर बढ़ने से बैंकों को महँगी दर पर पूँजी रिजर्व बैंक से
मिलता है। इसलिए बैंक रिजर्व बैंक से उधार लेने में परहेज करता है, जिससे
बाजार से नकदी कम हो जाती है। इस टूल से मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने में
मदद मिलती है और इसे मौद्रिक नीति का हिस्सा माना जाता है। रेपो और रिवर्स
रेपो का प्रयोग मूलतः मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने के लिये किया जाता
है। हाल में की गई रेपो दर में बढ़ोतरी के बाद सरकारी और निजी बैंकों ने
कर्ज महँगा करना शुरू कर दिया है। हालांकि उधोग जगत ने बैंकों से ब्याज दर
नहीं बढ़ाने का अनुरोध किया है, फिर भी डिपॉजिट कॉस्ट बढ़ने और पूँजी की
किल्लत की वजह से बैंक ब्याज दर में इजाफा करने के लिए मजबूर हैं।
बड़े बैंकों में भारतीय स्टेट बैंक और एक्सिस बैंक ने अपने आधार दरों में
बढ़ोतरी की है। कर्ज महँगा होने से औधोगिकी मंदी का संकट पैदा हो सकता है,
क्योंकि पूँजी की कमी के कारण कल-कारखानों में काम ठप्प पड़ सकता है, जिससे
कामगारों की छँटनी हो सकती है। वैसे पैसों की कमी के कारण आमजन भौतिकवादी
वस्तुओं के अनाप-शनाप खरीदगारी से बचेंगे। आजकल लोग उधार की ज़िंदगी जीने के
आदि हो गये हैं। कर्ज नहीं लेने से बचत को प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे लोग
महँगाई का मुक़ाबला बेहतर तरीके से करने में समर्थ होंगे। वर्तमान समय में
आम आदमी की परेशानी का मूल कारण महँगाई है। आज खाद्य उत्पादों के उपभोग के
बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है, लेकिन आवश्यक सब्जियाँ मसलन आलू,
टमाटर और प्याज 50-100 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बाजार में बिक रहे
हैं। जो संपन्न हैं वे तो इस डायन महँगाई से मुक़ाबला कर सकते हैं, लेकिन उन
लोगों का क्या होगा, जिनकी आमदनी प्रतिदिन महज 40-50 रूपये है। लिहाजा
मौजूदा समय में सरकार का प्रमुख एजेंडा महँगाई पर नियंत्रण करने की होनी
चाहिए। इस क्रम में बैंकिंग प्रणाली में सुधार लाने से महँगाई पर नियंत्रण
करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी संबल मिल सकता है।
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