भरतीयों के
दिलों में महिला स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति आदर और सम्मान आज भी कम नहीं हुई
हैं जिन्होंने भारत को स्वतंत्र करवाने में अपनी मुख्य भूमिका निभाई थी। आज भी गणतंत्र
दिवस हो या फिर स्वतंत्रता दिवस लोग इकट्ठे होकर आजाद जीवन के लिए उन सभी
स्वतंत्रता सेनानियों का शुक्रिया अदा करते हैं जिन्होंने भारत को स्वतंत्र करवाने
में अपनी जान की बाजी लगा दी थी। इसके साथ ही इतिहास इस बात का भी गवाह है कि उस
दौर में जहां महिला को पर्दों के पीछे रखा जाता था जब महिलाएं घर, परिवार और
समाज के डर से दहलीज नहीं लांघती थी, उस दौर में
देश की इन महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को आजाद करवाने में अपनी महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई थी, उस दौर में महिलाएं देश की आजादी के लिए सामने
आई और जितना पुरुषों ने अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने में भूमिका निभाई है उतना ही
महिलाओं ने भी भारत को आजादी दिलाने में अपना योगदान दिया है। उन्हीं में से एक
हैं
कित्तूर रानी चेन्नम्मा
भारत की
आजादी में एक प्रमुख हस्ती थीं लेकिन हम शायद ही उनका नाम जानते हों।
वह उन कुछ
और शुरुआती भारतीय शासकों में से थीं जिन्होंने भारत की आजादी के लिए ब्रिटिश
सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
अपने बेटे
और पति की मृत्यु के बाद अपने राज्य की जिम्मेदारी संभाली अंग्रेजों के खिलाफ
लड़ाई लड़ी साथ ही अपने राज्य को बचाने की कोशिश की
कित्तूर रानी
चेन्नम्मा एक
सेना का नेतृत्व किया और युद्ध के मैदान में साहसपूर्वक लड़ीं और कित्तूर रानी चेन्नम्मा
युद्ध के मैदान में बलिदान हो गई।
उनके साहस
की रोशनी आज भी देश में है और उन्हें कर्नाटक की सबसे बहादुर महिला के रूप में याद
किया जाता है
देश की आजादी में अनगिनत लोगों ने अपना योगदान दिया है और हर किसी की अपनी एक कहानी है जो उस दौर को बया करती है। 1942 का आंदोलन देखते ही देखते जन–क्रांति बन गया था और ऐसा माहौल तैयार हुआ की पांच साल बाद ही अंग्रेज हुकूमत ने अपना बोरिया बिस्तर यहां से समेट लिया। मगर इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता की जाते जाते अंग्रेजों ने हमारे देश में ऐसी आग लगाई जो आज भी भयावह रूप ले लेती है। उषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन के समय ब्रिटिश के खिलाफ एक सीक्रेट रेडियो यानी कांग्रेस रेडियो की शुरुवात की। उषा मेहता का जन्म 25 मार्च 1920 में हुआ था और सूरत के पास के गांव सरस में रहती थी। 5 साल की उम्र से ही वे अहिंसा के मार्ग को फॉलो करती थी और 8 साल की उम्र में सन 1928 में उन्होंने साइमन आयोग के खिलाफ विद्रोह में हिस्सा लिया था।
उषा मेहता
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में स्वतंत्रता
संग्राम में भाग लेने वाली सबसे कम उम्र की प्रतिभागियों में से एक थीं
गांधी जी का उषा पर बहुत प्रभाव पड़ा, वह पांच साल की थीं जब उनकी
मुलाकात गांधी जी से हुई
वह केवल आठ साल की थीं जब उन्होंने ‘साइमन वापस जाओ’ विरोध में भाग लिया था
वह स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,
पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम के लिए
समर्पित कर दिया
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ रेडियो चैनल चलाने के
आरोप में उन्हें जेल भी हुई थी
भारत की महान महिला स्वतंत्रता सेनानी मैडम भीकाजी कामा को अंग्रेजों के खिलाफ
क्रांति खड़ा करने वाली जननी माना जाता है। उन्होंने सबसे पहले भारतीय ध्वज फहराया
था। भीकाजी कामा ने अंग्रेजों की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई और भारत की आजादी की
नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा बॉम्बे में
प्राप्त की। वह अपने छात्र जीवन के दौरान ऐसे माहौल से प्रभावित हुई, जहां भारतीय
राष्ट्रवादी आंदोलन जड़ें जमा रहा था।
भीकाजी
कामा
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान,
जब ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस सहयोगी बन गए, तो फ्रांसीसी
अधिकारियों ने उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के कारण उन्हें तीन साल के लिए
नजरबंद कर दिया।
नजरबंदी के दौरान भी,
मैडम कामा ने भारतीय,
आयरिश और मिस्र के क्रांतिकारियों से संपर्क बनाए रखा और
फ्रांसीसी समाजवादियों और रूसी नेतृत्व के साथ सहयोग किया।
75 वर्ष की आयु में
1935 में, उन्हें भारत
लौटने की अनुमति मिली, जहां अगले ही वर्ष उनका निधन हो गया।
वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी
स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थीं. उन्हें मैडम कामा के नाम से भी जाना जाता था।
उन्होंने कई अनाथ लड़कियों को समृद्ध जीवन
जीने में भी मदद की, और राष्ट्रीय आंदोलनों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की किस्से सभी ने पढ़े और सुने हैं।
लेकिन अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाली झलकारी बाई के बारे ज्यादा लोगे को पता
नहीं होगा। झलकारी बाई के सिर पर न रानी का ताज था न ही राज घराने की सत्ता। लेकिन
फिर भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दे दी।
डलहौजी की नीति के तहत झांसी को हड़पने के लिए ब्रिटिश सेना ने किले पर हमला कर
दिया। इस दौरान पूरी झांसी की सेना ने मिलकर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया।
झलकारी बाई
रानी लक्ष्मीबाई की महिला
सेना में एक सैनिक,
दुर्गा दल, रानी के सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में से एक थी झलकारी बाई।
वह रानी को खतरे से बचाने
के लिये अपनी जान जोखिम में डाल कर अंग्रेजों से खुद जंग लड़ी।
आज तक बुंदेलखंड के लोग
उनकी वीरता की गाथा को याद करते हैं, और उन्हें अक्सर बुंदेली पहचान के प्रतिनिधि के रूप में जाना जाता है।
इस क्षेत्र के कई दलित समुदाय उन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते
हैं और उनके सम्मान में हर साल झलकारीबाई जयंती भी मनाते हैं।
भारत
की वीरांगनाएं जिन्होंने देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए अपना सब
कुछ कुर्बान कर दिया। हालांकि इनमें से कई वीरांगनाओं के किस्से कहानियां भुला दिए
गए। उन्हें भले ही वह पहचान न मिली हो, जो
अमर शहीदों को मिली है। परिवार, पति
और बच्चों को ही अपना संसार बना लेने वाली इन महिलाओं के स्वतंत्रता संग्राम से
जुड़ी गाथा हर किसी को पता होनी चाहिए। ऐसी ही महिला स्वतंत्रता सेनानियों के
बलिदान की कहानी आज हम आपको बता रहे हैं।
तारा रानी
श्रीवास्तव
तारा
रानी का जन्म बिहार के सारण में एक साधारण परिवार में हुआ था
वे
1942
में
गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होकर सीवान पुलिस स्टेशन की छत पर भारतीय
ध्वज फहराने की योजना बनाई
भीड़
इकट्ठा करने में कामयाब रहीं और 'इंकलाब' के
नारे लगाते हुए सीवान पुलिस स्टेशन की ओर मार्च शुरू कर दिया
उनके पति फुलेन्दु बाबू
जब आगे बढ़ रहे थे,
तो
पुलिस ने गोली चला दी
फुलेंदु
को गोली लगी और वह जमीन पर गिर गए
बिना
किसी डर के तारा ने अपनी साड़ी की मदद से उस पर पट्टी बांधी
भारतीय
ध्वज थामे हुए 'इंकलाब' का
नारा लगाते हुए भीड़ को स्टेशन की ओर ले जाना जारी रखा
पति
की मृत्यु हो गई थी,
जब
तारा वापस आई थी,
लेकिन
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन करना जारी रखा
रानी गिडालू को
रानी गाइदिन्ल्यू के नाम से भी जाना जाता है। वे भारत की नागा आध्यात्मिक एवं
राजनीतिक नेत्री थीं। इन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का
नेतृत्व किया। भारत की स्वतंत्रता के लिए रानी गाइदिनल्यू ने नागालैण्ड में
क्रांतिकारी आन्दोलन चलाया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान ही वीरतापूर्ण
कार्य करने के लिए इन्हें 'नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है।
रानी
गाइदिन्ल्यू
रानी
गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को
मणिपुर के तमेंगलोंग ज़िले के नुंगकाओ गांव में हुआ था।
कई
लोग इस गांव को लुआंग ओ नाम से भी जानते हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई भारतीय परंपरा के
अनुसार हुई थी।
कहा
जाता है कि वो नागा जनजाति की थी, जो
कि जेलियांग्रांग में आती है। 1930 में
रानी गाइदिन्ल्यू 13 साल की उम्र में ही स्वतंत्रता की
लड़ाई में कूद पड़ीं।
वे
अपने भाई कोसिन व हायपोउ जदोनांग के साथ वे हेराका आंदोलन से जुड़ीं।
इस
आंदोलन का लक्ष्य था क्षेत्र में दोबारा नागा राज स्थापित करना और अंग्रेज़ों को
अपनी मिट्टी से खदेड़ना।
उन्होंने
ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अमानवीय कर और नियमों के ख़िलाफ जेलियांग्रांग कबीले
के लोग एकजुट होने लगे।
लोगों
ने किसी भी तरह का कर देने से मना कर दिया। इसके बाद 17 की उम्र में उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़
दिया।
18 मार्च, 1932 को हान्ग्रुम गांव से तकरीबन 50-60 लोग अंग्रेज सिपाहियों पर हमला बोल दिया।
गैदिनल्यू को अंततः वर्ष 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया था तब वह केवल 16 वर्ष की थी और बाद में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई।
वह वर्ष 1947 में जेल से रिहा हुई थीं, गैदिनल्यू को "पहाड़ियों की बेटी" के रूप में वर्णित किया, और उनके साहस के लिये उन्हें 'रानी' की उपाधि दी गई।
औपनिवेशिक शासन या ब्रिटिश राज से भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। महिलाओं ने हमारे लिए स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए विभिन्न यातनाओं व शोषणों आदि का सामना किया।
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