आज भले ही भारतीय सिनेमा के सौ साल होने को है पर जिस दौर में यथार्थ को परोसने के नाम पर अश्लील फिल्में बनाई जा रही है और उन्हें किसी न किसी तर्क पर सेंसर बोर्ड पास कर देता है। उससे यह सवाल उठा है कि फिल्में बनाने वालों और उन्हें प्रदर्शन की इजाजत देने वालों की क्या कोई सामाजिक जवाबदेही नहीं बनती है आज हालत यह हो चुकी है कि कई संवेदनशील सामाजिक विषयों पर ऐसी भड़काउ फिल्में बनाई और परोसी जा रही हैं जो किसी गंभीर मुद्दे के साथ खिलवाड करती हैं। पहले फिल्में लक्ष्य प्राप्ति प्रेरित करने के लिए बनाई जाती थी मगर आज यह काफी बदल चुका। फिल्मो के इस बदलते स्वरूप के उपर भी २००८ में देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित करते हुए उससे यह सवाल पूछा था कि क्या तीन सौ पैंसठ दिनों में ऐसा कोई दिन है जिस दिन परिवार के साथ बैठ कर टीवी देखा जा सके और ऐसा कोई कार्यक्रम आता है जो किसी संवेदनशील व्यक्ति के मन को घायल न करता हो मतलब साफ है की आज का भारतीय सिनेमा काफी बदल चुका है। यह सिर्फ पैसा कमाने छरहने बदन को भड काउ तरीके से पर्दे पर पेद्गा करने के अलावे अंडरवल्ड के बलैक मनी को सफेद करने का जरिया बन गया है। कुछ फिल्मो के प्रभाव इस प्रकार सामने आए कि फिल्म एक दूजे के लिए का क्लाईमेक्स दृश्य देख कई प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी। यहां तक कि इस फिल्मी रोमान्स ने युवक युवतियों के मन में प्रेम और विवाह के प्रति कई असमंजस डाल दिये जैसे जैसे अपराध की पृष्ठ भूमि पर फिल्में बनती रहीं, अपराध जगत में बदलाव आया। असंतुष्ट बेरोजगार और युवकों को यह पैसा बनाने का शॉर्टकट लगने लगा, और सब स्वयं को यंग एंग्रीमेन की तर्ज पर सही मानने लगे। आए दिन आज देखने को मिलता है कि अमुक डकैति या घटना एकदम फिल्मी अन्दाज में हुई। युवाओं में फिल्मों में अपना कैरियर बनाने के लिए इतना आकर्षण आ गया हैं की फर्जी निर्माता-निर्देशकों की तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ सी आ गई है।आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है खूबसूरत विदेशी लोकेशनें बडे स्टार विदेशी धुनों पर आधारित गाने। विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना । हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। गुलशन कुमार की हत्या राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले फिल्म चोरी-चोरी चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को पुखता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा है। आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है मगर कोइ फिल्म रिलीज होती है और उसमे हिरोईन ने गलती से शालीन कपडे पहन लिए तो लोग कहते हैं हिरोईन का रोल बेकार है, दम नहीं है ! किसी फिल्म में अगर हीरो- हिरोईन का अंतरंग दृश्य न हो तो उस फिल्म के लिए मसाला नहीं है जैसे शब्द का उपयोग किया जाता है ! अब सवाल ये उठता है कि इस अश्लीलता के लिए कौन जिम्मेदार है ये अश्लीलता कुछ और नहीं पश्चिमी सभ्यता है जिसे हमने बाकि पश्चिमी चीजों कि तरह अपना लिया है !इसके लिए हमें अपना नजरिया बदलना पड़ेगा अश्लील फिल्मों का विरोध करना पड़ेगा क्योंकी ये अश्लीलता हमारी संस्कृती के लिए बहुत बड़ा खतरा है ! अगर इसे नहीं मिटाया गया तो आने वाले दशकों में ये हमारी बची-खुची संस्कृती को मिटा देगी फिर हमारी अपनी कोइ पहचान नहीं रह जाएगी भारत खुद अपने आप ही मिट जाएगा !
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