भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रप्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक हैं साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख सेनापति भी हैं। राष्ट्रपति को भारत के संसद के दोनो सदनो तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। यह चुनाव करीब है और राजनीतिक सत्ता के खिलाड़ी अभी से हवा में नाम उछाल रहे हैं। कभी ऐसी स्थिति हुआ करती थी कि कांग्रेस राष्ट्रपति तय करती थी और विपक्ष उसे समर्थन देता था। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस अपने बूते पर अपनी पसंद का राष्ट्रपति नहीं बना सकती हैं। उसे अपने साथी दलों की मदद लेनी होगी। अब कौन किसका साथी है कुछ ही दिन बाद अस्पस्ट हो जाएगा। इसका फैसला इस बात से होता है कि आपका साथ देने से देने वाले को क्या मिलने वाला है ! और आज के दौर में यह सवाल और ज्यादा प्रबल होता दिख रहा है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और ममता बनर्जी की तृणमूल का हिसाब सीधा है कि आज जो राष्ट्रपति होगा, वह २०१४ में क्या उनके काम का होगा मतलब कि २०१४ में होने वाले लोकसभा के चुनाव के बाद जो भी स्थिति बनेगी उसमें राष्ट्रपति की भूमिका अहम होगी। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का नाम भी काफी आगे किया जा रहा है तो गोपाल कृष्ण गांधी की याद भी की जा रही है। मीरा कुमार से लेकर ए के एंटनी का नाम भी हवा में है। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की चुप्पी के बीच राष्ट्रपति पद के लिए उनकी दावेदारी मजबूत होती चली जा रही है। अगले लोकसभा चुनाव में सियासी हालात के मद्देनजर राष्ट्रपति की भूमिका खासी अहम होगी। राष्ट्रपति के चुनाव में देशभर में कुल लगभग ११ लाख वोट हैं जिनमें से पांच लाख ४९ हजार ४४२ वोट जिसे मिलेंगे वो राष्ट्रपति चुना जाएगा। यूपीए के पास चार लाख ४६ हजार ३३५ वोट हैं जो कुल वोट का लगभग ४१ फीसदी हैं। इसमें से कांग्रेस के पास तीन लाख ३० हजार ९४५ वोट हैं और ये कुल वोट का लगभग ३० फीसदी है। अगर यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहीं पार्टियों के वोटों को जोड़ लिया जाए तो ये वोट पांच लाख ८० हजार ३२६ तक पहुंच जाते हैं। मतलब साफ है कि अगर यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहीं पार्टियां एक नाम पर सहमत हो जाती हैं तो फिर उनके हिसाब से राष्ट्रपति को चुना जा सकता है। लेकिन कोई पार्टी अपने पत्ते नहीं खोल रही है। जाहिर है यूपीए में खलबली है इसलिए राष्ट्रपति पद के लिए आम सहमति बनाने की कोशिश जारी है। इतिहास के पत्रों से हमें दूसरा कुछ मिले या न मिले एक दिशा तो मिलती ही है। इसलिए सत्ता के आज के खिलाडी जो भी करें। आज के दौर में संविधान विशेषज्ञ राष्ट्रपति नहीं बल्कि हमें संविधान का विवेक सम्मत इस्तेमाल करने वाला राष्ट्रपति होना चाहिए। देश के ऐसे उच्च पद के लिए घिनौनी राजनीति या छींटाकसी किसी भी अस्तर पे शोभा नहीं देती। क्या देश का कोई भी नागरिक ऐसी परिस्थिति के लिए तैयार नहीं है। देश सर्वोपरि है और देश सर्वोपरि ही रहेगा।
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