05 June 2012

क्या संसद की गरिमा घटी है ?

भारतीय संसद १३ मई को अपनी साठवीं वर्षगांठ मनाएगी। रविवार होने के बावजूद इस दिन संसद की विशेष कार्यवाही भी चलेगी। संसद के साठवें जन्मदिवस के उत्सव के बीच यह उसके कामकाज पर नजर डालने का सही वक्त है। पहली लोकसभा में करीब ३६ फीसदी वकील, और १० फीसदी पत्रकार व लेखक थे लेकिन आज दो दशकों में लोकसभा का काम काज पहले से कहीं अधिक संतुलित हुआ है। पहली लोकसभा में ११२ सदस्य दसवीं पास भी नहीं थे। संसद में सकारात्मक प्रकृति की कुछ अन्य घटनाओं में कमेटी व्यवस्था की शुरुआत और १९९३ में स्पीकर शिवराज पाटिल द्वारा संसद की कार्यवाही का टीवी पर प्रसारण जैसे बदलाव काफी महत्वपूण है। संसदीय कार्यवाही के टीवी पर प्रसारण ने संसद से परदा उठा दिया है और अब लोग इसका असली रंग देख पा रहे हैं। सांसद संसद के अंदर कई ऐसे कार्य करते है जो संसदीय प्रक्रिया के तहद सही नही है। यही कारण है की आज सांसदो के संसद के अंदर आचरण को लेकर सवाल खड़ा होने लगा है। इससे कही न सांसदों के चरित्र पर असर होता है। आज के दौर में प्रश्नकाल अपनी महत्व को खो चुका है। पहले प्रश्नकाल में भूपेश गुप्ता अटल बिहारी वाजपेयी, पीलू मोदी और मधु दंडवते जैसे प्रखर नेता जब सवाल-जवाब पर उतरते थे तो अच्छे-अच्छे मंत्रियों को पसीना छूट जाता था। मगर आज के दौर में सांसद बिना तैयारी या नैतिक साहस के रस्म अदायगी मात्र के लिए सवाल पूछते हैं। इसी कारण अक्सर उन्हें चुप करा दिया जाता है। आज के दौर में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आदि भी बेजान हो चुके हैं। देद्गा में सांसदों और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। सांसद अपने पैसे और रुतबे का प्रदर्शन करते हैं और आम आदमी से उनका लगाव कट गया हैं। वे अपनी गाडि यों पर लाल बत्ती लगाने और अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करने से नहीं हिचकते, रहे है। आज के दौर में सांसद संसदीय समितियों की बैठक से अधिकांश सदस्य नदारत रहते हैं।१९५२ में लोकसभा और राज्यसभा का गठन होने के बाद नैतिक मुद्दों में लगातार गिरावट आने लगी। शराब के आयात की अनुमति के लिए एक सदस्य द्वारा २० सांसदों के जाली हस्ताक्षर करने पर संसद मौन रही। बाद में अदालत में उस पर मुकदमा चला और उसे जेल हुई। जन असंतोष को देखते हुए १९९० के दशक में स्पीकर शिवराज पाटिल ने सदस्यों के लिए आचार संहिता का प्रस्ताव रखा था और लोकसभा की विशेषाधिकार समिति को मामला सौंपा था। दोनों सदनों में आचार कमेटियों का गठन किया गया, किंतु कुल मिलाकर कमेटियां काफी धीमी गती से काम करती रहीं। इस बीच सांसदों के नैतिक मापदंड बराबर गिरते चले गए। समाचार चैनलों द्वारा किए गए दो स्टिंग ऑपरेशनों ने इसकी पोल खोल दी। इनमें से पहला ऑपरेशन सवाल पूछने के लिए सदस्यों द्वारा पैसे वसूलने से जुड़ा था। जैसे ही यह टीवी चैनल पर प्रसारित हुआ, देद्गा की जनता दंग रह गई। इस घटना की जांच के लिए एक कमेटी का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट आने के बाद ११ सांसदों को संसद से बर्खास्त कर दिया गया। इसी समय एक और खुलासा हुआ। एक चैनल ने दिखाया कि चार सांसद सांसद निधि के तहत परियोजना की अनुशंसा के लिए रुपयों की मांग कर रहे थे। एक बार फिर घोटाले की जांच के लिए लोकसभा कमेटी का गठन किया गया और सांसदों को दोषी पाया गया। इन सांसदों को सदन से निलंबित करने की सिफारिश की गई। सदन ने इस रिपोर्ट पर कार्रवाई की। इसी प्रकार एक सांसद कबूतरबाजी में लिप्त पाया गया। उसका भी निष्कासन किया गया। भ्रष्टाचार में लिप्त सांसदों के निलंबन और निष्कासन से एक हद तक संसद में लोगों की आस्था बची रही है। फिर भी सदन की कार्यवाही में व्यवधान एक नई समस्या बन कर उभरा है, जिसे दूर किया जाना बेहद जरूरी है। संसद का तीस फीसदी से अधिक समय आज व्यवधान की भेंट चढ जाता है। तो ऐसे में सवाल खड़ा है की क्या संसद की गरिमा घटी है।

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