आज भले ही देद्गा बदल रहा है दुनिया बदल रही है मगर इन सब के साथ एक बड़ा सवाल जरूर खड़ा होता है की क्या दलितो के विकाद्गा में कोई परिर्वतन आया है। आज जितनी भी दलित राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं। उनमें बहुजन समाज पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है। मगर ये भी सिर्फ दलितो को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया । यहा एक और सवाल खड़ा होता है की क्या दलित समाज के जन-जन तक उनके हक की लड़ाई लडने वाले दलित महापुरूस के संर्घच्च को हम सब जिवंत रख पाए है। अगर वर्तमान में दलित नेताओ की बात करे तो अपनी वैचारिक सीमाओं के चलते वह इस जन भागीदारी को दलित जनता की ताकत न बनाकर सत्ता पाने का औजार बना लिया है। आज देद्गा में दलित सशक्तिकरण के नाम पर सिर्फ सत्ता पाने के सिवाय और कुछ नही हो रहा है तो ऐसे में क्या देद्गा सचमुच अंबेडकर के सपनो पर चल रहा है। इन सब काम में मायावती सबसे आगे आगे निकल गईं हैं। कभी अपने आप को दलित की बेटी बताने वाली मायावती आज के जमाने की दौलत की बेटी बन गई। देश में जाति धर्म से भी ज्यादा मजबूत है। जब भी देद्गा में दलितो के विकास में परिर्वतन की बात होती है जाति ही आगे आकर खड़ी हो जाती है। जब भी इस देश में चुनाव होते हैं और सरकार को चुनने का समय आता है तो न विकास मुद्दा रहता है न बिजली न पानी न किसान की समस्या। जो दलित किसान आज आत्महत्या कर रहे है कल उसी परिवार के लोग मुद्दे की जगह जाति के आधार पर वोट देंते है।दलित आदिवासी की बात की जाय तो औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड कर उनके स्थान पर बड़ी बड़ी बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है। जिसके चलते आदिवासियों को अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा के सम्बन्धो से अलग किया जा चुका है। क्या ये दलित उतपिड न नही है सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में दलित जनजातियों के लिये लिए जो संबैधनिक अधिकार दिए गए है वो भी आज उन्हें नही मिल पा रही है। निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा सत्ता के दलालो के चंगुल में बंध कर रह गया है। जो दलित अधिकारी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं रहती है। इन सब के अलावा लोगों की मानसिकता भी कही न कही जिम्मेदार है जिसके हाथों ने काम किया उनकी हमेशा उपेक्षा हुई और जो लोग बैठकर खाते रहे पाखंड फैलाते रहे उनकी पूजा की जाती रही। काम के जरिए सम्मान देद्गा में दलितो को कभी कभी नहीं मिला। आज यही कारण है की दलित वर्ग ठगा महसुस कर रहा है। आज अंबेडकर को कोई सत्ता के लिए नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके जरिए आर्थिक लाभ ही है। इन सब का सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। आज राज्य विधानसभाओं और संसद में बहस जरूर होती है मगर इसके उपर अमल विलकुल नही होता है। अगर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को देखे तो इसने पिछले कई वर्षों से अपनी रिपोर्ट ही पेश नहीं की है जबकि इन्हें हर वर्ष अपने रिपोर्ट पेश करनी होती है और उसपर विचार विमर्श होता है। मानवाधिकारों के संदर्भ में जो भी सरकारी प्रयास हुए हैं वो लागू करने के स्तर पर एकदम विफल रहे हैं। उत्पीड न निरोधक कानून के लागू न होने के चलते अत्याचार बढ ता ही गया है। आज से नहीं पिछले पाँच दशकों से जबसे उत्पीड न विरोधी कानून आए हैं चाहे वो तमिलनाडु का मामला हो सिंगूर की घटना हो या भरतपुर में दलितों को मारने की घटना रही हो इन कानूनों को इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही कारण है की आज देद्गा में दलितो में कोई खास परिर्वतन नही आया है।
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