23 December 2012

क्या हमारी सरकार संवेदनहीन हो गयी है ?


लोकतंत्र का मतलब है हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लेकिन बीते 8 बरस में जिस तरह भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन को लेकर संसद के भीतर बहस हुई और जनता के हित-अहित को अपने- अपने राजनीतिक जरुरत की परिभाषा में पिरोकर लोकतांत्रिक होने का मुखौटा दिखाया गया। उसको लेकर अब नये- नये सवाल खड़े होने लगे है। जो सिधे सरकार के उपर संवेदहीन होने का प्रत्यक्ष प्रमाण को दर्षाता है। देष में आज एक के बाद एक बड़े बड़े आंदोलन लगातार लोग कर रहे है मगर सरकार हर बार उसे सुलझाने के बजाय दबाने और कुचलने के लिए प्रयास कर रही है। भारत कुछ दिनों बाद तानाषाही में न बदल जाय इसको भी लेकर लोगो के मन में अभी से भय सताने लगा है। आज जो आवाज उठ कर सामने आ रही हैं उसको दबाने में सत्ता पक्ष को कोई खास मुश्किल नहीं आ रही है क्योकी सरकार इसे लोकतंत्र की गला घोंट कर असानी से निपटा ले रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति का मोहताज हो। और संसदीय सत्ता की राजनीति समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। और सत्ता के प्रतीक संसद पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे भ्रश्टाचार, बलात्कार, जैसे विशयों पर जब चुप्पी ले तो सवाल अराजकता के मुहाने पर आकर खड़ा हो जाता है। आज देष का आक्रोस बात्कार पीडि़ता को न्याय दिलाने के लिए सड़को पर उमड़ रहा है, और सत्ता का षिखर रायसीना हिल्स अगर डगमगा रहा है तो इसका एकमात्र कारण भी सरकार की संवेदनहीनता है। जो समय रहते किसी भी मसले का समाधान निकालने के बजाय उसे रफा- दफा करने की प्रयास करती है। आम इन्सान की बिसात क्या जब इस देश में महिला आई ,ए .एस . अफसर मधु शर्मा के आई पी एस पति के ठीक उसी दिन हत्या कर दी गयी जिस दिन महिला दिवस था। अफसर की विधवा जो खुद भी आई 'ए .एस . अफसर है , जिसे खून के आंसू पीने को मजबूर कर दिया गया है तो किस से न्याय की उम्मीद की जा सकती है और किसे न्याय मिल सकती है। फिर भी देष ने बर्दास्त किया। मगर लगता है अब लोगों को न्याय से उमीद टूट चुकी है, राजनीति दलों से आस उठ चुकी है। क्योकी औरत की आबरू को सड़को पर चिरहरण होने लगा है। आम आदमी के अधिकार को दलाली के बाजार में बेचा जा रहा है तो एसे में ये जनआक्रोस बुलंद होना आम आदमी के गुस्से का प्रतीक को याद दिलाता है। जो बार- बार सरकार की संवेदनहीनता को दर्षाता है। दिल्ली में दरिंदगी की दहला देने वाली घटना के बाद जो माहौल दिखा है, वह कोई पहली बार नहीं दिखा। पिछले डेढ़ दशकों में करीब आधा दर्जन से ज्यादा बार दिल्ली इस तरह के झकझोर देने वाले माहौल से गुजर चुकी है। पिछले डेढ़ दशकों में दिल्ली कई बार उबली है। कई बार शर्मसार हुई है। कई बार मोमबत्तियों की रोशनी के साथ एकजुट हुई है, लेकिन खीझ और हताशा यही है कि बार-बार ऐसे मौकों की पुनरावृत्ति हो रही है। सवाल है कि गुस्से से उबल रहा देश इसकी पुनरावृत्ति के लिए क्यों मजबूर हो रहा है? आखिर दरिंदे इतने बेखौफ क्यों हैं? उन्हें कोई डर, अपराधबोध या चिंता क्यों नहीं होती? क्यों किसी प्रियदर्शिनी मट्टू, किसी मेडिकल कॉलेज की छात्रा, किसी कॉल सेंटर की कर्मचारी के साथ बर्बर दरिंदगी की घटना के कुछ महीनों बाद ही फिर उससे भी बड़ी दरिंदगी की घटना घट जाती है? आज सरकार की संवेदनहीनता इन्ही सवालों के इर्द- गिर्द ही घुम रही है। क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को आईना दिखाते हंै। क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को नपुंसक ठहराते हैं। हमारी सरकार हमें कैसी प्रशासन व्यवस्था प्रदान कर रही है यह आज सब के सामने आ गया है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या सरकार संवेदनहीन हो गयी है।

बलात्कारियों को सज़ा का प्रावधान क्या होना चाहिए ?

दिल्ली को भारत का दिल कहा जाता है मगर आज इसी दिल्ली में वहशी दरिंदों का आतंक मचा हुआ है। दिल्ली में छात्रा के साथ हुए गैग रेप की घटना पर हर ओर से कड़ी सजा के लिए मांगे उठने लगी है। भारतीय दंड सहिंता की धारा 376 में ये प्रावधान है की बलात्कार के लिए सजा दस वर्ष से कम न होगी और ये अधिकतम आजीवन कारावास तक हो सकेगी, साथ ही जुर्माने का प्रावधान भी है। मगर वर्तमान बिगडती हुई परिस्थितियों में अब ये सवाल भी खड़े होने लगे है की बलात्कारीयों के लिए सजा क्या होना चाहिए ? क्या सिर्फ कोरी बयान बाजी और आन्दोलन इस समस्या का समाधान है। ऐसे में कही न कही समाजिक सानसिकता को बदला जयादा अहम साबित हो सकता है। क्योकी आज सिर्फ पुरूस प्रधान समाज को दोशी ठहराने मात्र से इसका समाधान नही हो सकता, जब तक कानुन के हाथ सजबूत न हो जाए। भारत में पिछले 5 वर्षों में दुष्कर्म और बलात्कार की घटनाओं में 20 फीसदी की भयावह वृद्धि हुई है। बलात्कार की घटनाएँ इतनी तेजी से बढ़ने की दो मुख्य वजह सामने आई है षराब की नषा और अपने आप को मार्डन दिखाने वाले की अश्लीलता और नग्नता। दुष्कर्म की घटनाओं के सभी मामलों में 80 फीसदी दोषी शराब के नशे में ये कुकर्म करता है। मगर सरकारें सराबखोरी को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही हैं। भारत के चरित्र को गिराने के लिए अंग्रेजो ने 1758 में कलकत्ता में पहला शराबखाना खोला जहाँ पहले साल सिर्फ अंग्रेज जाते थे और आज पूरा भारत जाता है। यही से सुरू होता है ये असमाजिक कुर्कमों का खेल। साथ ही आज के हिन्दी फिल्में राज़, जिस्म- 2 और मर्डर- 2 को पारित करना और ‘डर्टी पिक्चर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार देकर अश्लीलता और नग्नता को बढ़ावा देना भी कही न कही इसका एक बड़ा कारण माना जा रहा है। आज इन दुष्कर्मियों और बलात्कारियों को फांसी या नपुंसक बनाने जैसी कठोर सजा देकर और उपर्युक्त कारणों पर रोक लगाकर समाज में ऐसी वीभत्स घटनाओं को क्या रोका जा सकता है, आज ये एक बहस का विशय बन चुका है। पैरामेडिकल छात्रा से हुई सामूहिक बलात्कार की घटना सभ्य समाज में कोई पहली घटना नहीं है बल्कि आज देश में हर रोज औसतन सौं से अधिक महिलायें बलात्कार की शिकार हो रही है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर कब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और आखिर क्यों हर बार पुलिस और सरकार इन घटनाओं के होने के बाद ही हरकत में आती हैं और इन घटनाओं को रोकने के लिए इस पर मंथन होता है ? संसद में दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे आरोपियों को फांसी की सजा देने की बात उठी और गृहमंत्री ने भी सख्त से सख्त कार्रवाई का भरोसा तो दिलाया। मगर ये अवाज़ सिर्फ संसद के अंदर ही दब कर रह गई, और सड़कों पर मस्तमौले अब भी हर जगह मौज करते दिख रहे है। ऐसे में महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस कर रही हैं। भारतीय समाज में पाश्चात्य सभ्यता के संस्कारों की घुसपैठ ने भारतीयों के सनातन विचारों की मानों होली ही जला डाली है। आज समाज में बढता व्याभिचार इसी का परिणाम है। किसी लड़की के साथ रेप होना केवल उसकी अस्मिता पर ही प्रहार नहीं है, बल्कि यह उसकी आत्मा पर लगने वाला ऐसा घाव है जो उसे जिंदगी भर कुरेदता है। तो सवाल खड़ा होता है की ऐसे बलात्कारीयों के लिए सजा क्या होनी चाहिए।

21 December 2012

क्या नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाना चाहिए ?

नरेन्द्र दामोदरदास मोदी अक्तूबर 2001 मे पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री, इसके बाद दिसम्बर 2002 और दिसम्बर 2007 के विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत हासिल किया। जिसके चलते  नरेन्द्र मोदी को लोग विकास पुरुष के नाम से पुकारने लगे। एक बार फिर से मोदी तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे है। विधानसभा का यह पहला चुनाव है जिसमें मुख्यमंत्री से ज्यादा उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की चर्चा हुई। गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान लोगों को मोदी के दिल्ली आने की आहट सुनाई दे रही थी। गुजरात में मोदी की हैटिक से ज्यादा चर्चा इस बात की है कि क्या भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाएगी? मगर अब गुजरात चुनाव के नतीजे से एक बात साफ हो गई कि विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है। इस बार चुनाव में कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। ऐसे में गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद अब नरेंद्र मोदी के दिल्ली आने की चर्चा तेज हो गई है। साथ ही विरोधीयों के खोखले बोल पर बिराम लग गई है। ऐसे में अब लगता है भाजपा के अंदर समीकरण बदलेंगे और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भी समीकरण को बदलना होगा। अब तक मोदी बिरोधी भाजपा नेता उन्हे पार्टी से उपर होने का आरोप लगा रहे थे मगर मोदी ने पार्टी को मां का दर्जा देकर सबका मुंह बंद कर किया है। मोदी अपने जिंदगी में बहुत सारे मेडल हासिल किए है मगर तीसरी बार जीत के बाद जब सामने आए तो उन्होने कार्यकर्ताओं और गुजरात के मतदाताओं को अपने लिए सबसे बड़ा मेडल बताया। जिन सरकारी मुलाजिमों को बिरोधयों ने हर समय उनके उपर ज्यादा कार्य कराने के आरोप लगाते थे, मगर उन मुलाजिमों के आगे विरोधीयों की एक भी नही चली। गुजरात में मोदी की जीत देश के दूसरे राज्यों के मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के बारे में अपनी पुरानी राय पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित कर सकती है। मोदी का दिल्ली आना कांग्रेस के लिए भी बड़ा सिरदर्द बनने वाला है, क्योंकि राहुल गांधी का मुकाबला अब नरेंद्र मोदी से होने वाला है। जो जिम्मेदारी लेकर अपने को साबित कर चुका है। मगर राहुल गांधी अभी तक जिम्मेदारी से बचते रहे है। लगातार तीसरी बार जीत हासिल करने के कारण नरेंद्र मोदी एक नए अवतार के रूप में सामने आए हैं। वह न केवल हिंदुत्ववादी नेता की छवि तोड़कर विकास के लिए समर्पित राजनेता के रूप में उभरे हैं, बल्कि प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी और मजबूत हो गई है। ज्योति बसु भी एसे ही सफलता से प्रधानमंत्री के लिए दावेदार बन गए थे। नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक पंडितों को भी एक नई सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया कि एंन्टी इन्कम्बन्सी यानी की सत्ता विरोधी लहर का असर विकास के आगे दम दोड़ सकती है। मोदी ने अपने जीत के संबोधन में कहा कि गुजरात के मतदाता काफी परिपक्व हैं वे जाति और क्षेत्र के आधार पर वोट नहीं करते है। ऐसा कहते हुए मोदी यूपी और बिहार के मतदाताओं को ये संदेश दे रहे थे कि हमारे मतदाताओं के इसी नजरिए के चलते गुजरात एक विकास करने वाला राज्य है। इसे नरेंद्र मोदी का करिश्मा ही कहा जाएगा कि गुजरात विधानसभा चुनाव पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से कहीं ज्यादा मोदी का व्यक्तित्व ही हावी रहा तो ऐसे में ये कहना गलत नही होगा कि क्या मोदी को प्रधान मंत्री बनाना चाहिए ?

16 December 2012

चार रुपये में काटो दिन, शीला दीक्षित का नया हिसाब ?

भारत की गरीबी रेखा हमेशा से ही बड़ी बहस का विषय रही है पर यह बहस आज अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं तक ही सीमित नही है। आज के इस बदलते राजनैतिक दौर में हर कोई अपना पैमाना बनाने लगा है। इस बार सामने आयी है दिल्ली के मुख्यमंत्री षीला दीक्षित ने। 600 रुपये में पांच लोगों के एक परिवार का एक महीने के लिए दाल-रोटी का इंतजाम आराम से हो सकता है, आप भले ही ये ना मानें लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के हिसाब से ऐसा संभव है। गरीबी के खिलाफ जंग की सरकारी योजना का दम मंजिल पर पहुंचने के पहले ही भ्रश्टाचार के षिकार हो जाता है, इसलिए इसे, गरीब परिवार के महिला मुखिया के बैंक खाते में हर महीने 6 सौ रुपये ट्रांसफर करने की योजना बनाई गई है। इसकी सुरूआत अन्नश्री योजना के लिए कैश सबसिडी ट्रांसफर स्कीम के रूप में की गई है। इस योजना को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लांच किया है। क्या इस देष का गरिब सिर्फ संख्या मात्र के लिए है, जो अपने वजूद को बचाने के लिए दिन रात मेहनत करता है। ताज्जुब इसलिए भी है की तकरीबन 15 प्रतिषत लोग अमीर वर्ग की श्रेणी में आते हैं, देष में तकरीबन 30 फीसदी लोग माध्यम वर्गीय श्रेणी में आते हैं और बचे हुए 55 प्रतिषत लोग या जनता गरीबी की श्रेणी में आती हैं। दिल्ली सरकार की ओर से कहा गया है की गरिब परिवार के लोगों को 600 रूपये में कम से कम दाल, चावल और गेहूं तो मिल ही सकता है। मगर यहा बड़ा सवाल ये है की क्या सिर्फ दाल, चावल और गेहूं मात्र से ही गरिब व्यक्ति का आहार पूरा हो जाएगा ? क्या उसे खाना तैयार करने के लिए एल पी जी गैस सिलिंडर के साथ- साथ, दुध, तेल, सबजी, की जरूरत नही पड़ेगी ? अगर इसे प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो एक दिन में सिर्फ चार रूपया बैठता है। अब सवाल उठता है कि क्या दिल्ली में रहने वाले किसी आदमी का पेट सिर्फ 4 रुपये में भर सकता है? मतलब साफ है की दिल्ली क्या देश और दुनिया के किसी कोने में भी 4 रुपये में पेट नहीं भरा जा सकता हैं, लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री के मुताबिक दिल्ली में ऐसा संभव हैं। गरिबों के मजाक उडाने का ये कोई पहला एसा वाक्यां नही है इससे पहले खुद योजना आयोग भी एसे बेतूके आकडे़ को सही ठहरा चुका है। जिसमें गांव में रहने वाले गरिब परिवार के लिए 28 रूपये और षहरी क्षेत्र के लिए 32 रूपये एक दिन के लिए निर्धारित की गई थी। योजना आयोग द्वारा शौचालयों की मरम्मत के नाम पर 30 लाख रूपये खर्च किए गए। आयोग के उपाध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया ने 2011 के मई और अकतुबर के बीच विदेष यात्रा पर रोजाना दो लाख दो हजार रूपये खर्च किए जो उस समय काफी विवादित रहा था। मगर अब षिला का हिसाब तो योजना आयोग के आकड़े को भी झुठला रहा है। तो एैसे में आप भी कहेंगे की ये दिल्ली के गरीबों का मजाक नहीं तो और क्या है ?

15 December 2012

क्या भारत सरकार पाकिस्तान के आगे झुक गयी है ?

पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक शुक्रवार को दिल्ली पहुंचे तो उनके आवभगत और स्वागत के लिए भारत के गृहराज्य मंत्री आर पी एन सिंह ने उनका इस कदर गर्मजोषी से स्वागत किया मानो भारत के लिए मलिक कोई तौफा लेकर आये है। बाद में बयान आया ये अमन का पैगाम लेकर आए हैं। यहा सवाल खड़ा होता है की क्या देष के दुष्मनो के सरर्णाथी पाकिस्तान के साथ भारत सरकार झुक गई है। क्या सरकार समझौते के नाम पर देष के दुष्मो को एक बार फिर से गले लगाना चाहती है। जो आए दिन देष में दहसत फैलाते है, और मासुमों का खुन बहाते है। फिर भी सरकार एक के बाद एक समझौते कर रही है। जो नए समझौते हुए है उसमें 12 वर्ष से कम तथा 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को तथा व्यापारियों को पुलिस रिपोर्टिग से छूट जैसे नए समझौते शामिल है। यह वीजा समझौता ऐसे समय में लागू होने जा रहा है, जब पाकिस्तान-भारत के बीच क्रिकेट श्रृंखला होने वाली है। इसके तहत 25 दिसम्बर से भारत में तीन एक दिवसीय और दो ट्वेंटी-20 मैच खेले जाने हैं। मगर क्रिकेट के आड़ में होने वाली सियासत की बात करे पहले हमे एक बार फिर से बाला साहब ठाकरे के द्वारा सामना में छपे उस लेख को याद करना होगा जिसमे कहा गया था की अगर देष में इन्हे जयादा संख्या में आने की अनुमती दी गई तो इससे आतंकीयों की फौज देष में घुसपैठ करेगी। मगर इन सब के अलावे अगर रहमान मलिक की बात करे तो उनके द्वारा दिए गए बयान देष के लोगो के मन में कई सवाल खड़े करते है। मलिक ने कहा बाबरी मस्जिद विध्वंस और समझौता एक्सप्रेस जैसी घटनाएं दोबारा न हों, हमें इसका ख्याल रखना होगा। मलिक का यह बयान देष के अंदर समाजिक सौहार्द को बिगाड़ने जैसा है क्योकी यहा पर मलिक को हमारे देष के आंतरिक विशयों पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नही है। पाकिस्तान में आए दिन मंदिरों को तोड़ा जाता है और हिन्दुओं को धरमांर्तरण कराया जाता है तब क्यो रहमान मलिक चुप्पी साध लेते है। ये सवाल आज हर हिंन्दुस्तानी मलिक से पुछ रहा है, साथ ही करगिल में शहीद हुए कैप्टन सौरभ कालिया के बारे में रहमान मलिक ने जिस प्रकार से अपना पल्ला छाड़ लिया उससे तो यही साबित होता है की रहमान मलिक भारत के प्रति सामरिक रिस्तों को लेकर कितना गंभिर है। मलिक ने कहा है की उन्हे नही मालूम कि कालिया की मौत पाकिस्तान की गोली से हुई या मौसम से। भारत जिन मुद्दों को पाकिस्तान के सामने उठाना चाहता उसे पाक मानने से इंनकार करता रहा है। मुम्बई हमले के आतंकवादियों के सूत्रधार हाफिज सईद को सौंपने को लेकर पाकिस्तान हमेषा इंकार करता है, सिमापार से फर्जी भारतीय नोटों को देष के अंदर लाने का कार्य लगातार किया जा रहा है। दाऊद इब्राहिम समेत लगभग चार दर्जन मोस्टवांटेड आतंकियों व अपराधियों को सौंपे जाने के मामले में पाकिस्तान अपने पुराने रुख पर कायम है उसे भारत के हाथ में कतई सौपने को तैयार नही है। मगर फिर भी भारत सरकार पाक को गले लगा कर इसे षांति का पैगाम बता रही है। तो सवाल खड़ा होता है की क्या पाकिस्तान के आगे सरकार झुक गई है।

14 December 2012

सरक्रीक, पाकिस्तान को सौपना कितना सही ?

गुजरात के कच्छ की समुद्री सीमा पर स्थित 650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र सर क्रीक एक बार फिर से अचानक सुर्खियों में आ गया है। इस मुद्दे को उठाया है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने और दबाने की कोशिश कर रही है केंद्र की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस। सर क्रीक 650 वर्ग किलोमीटर का भारत का वो समुद्री इलाका है, जिस पर पाकिस्तान अपना दावा करता है। इतिहास के पन्ने पलटें तो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान चार्ल्स नैपियर ने 1842 में सिंध पर जीत हासिल की और उसे बंबई राज्य को सौंप दिया। उसके बाद सिंध में शासन कर रही सरकार ने सिंध और बंबई के बीच सीमारेखा खींचने का निर्णय लिया, जो कच्छ से गुजरती थी। उस निर्णय के अंतर्गत सरक्रीक खाड़ी को सिंध प्रांत में दर्शाया गया। जबकि दिल्ली में शासन कर रही अंग्रेज सरकार के नक्शे में इसे भारत में दर्शाया गया। विवाद हुआ और फाइलों में दब गया। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जब दोनों देशों के बीच बंटवारा हुआ तो पाकिस्तान ने सरक्रीक खाड़ी पर अपना मालिकाना हक जता दिया। इस पर भारत ने एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें समुद्र में कच्छ के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सीधी रेखा खींची और कहा कि इसे ही सीमारेखा मान लेनी चाहिये। यह प्रस्ताव पाकिस्तान ने ठुकरा दिया, क्योंकि इसमें 90 फीसदी हिस्सा भारत को मिल रहा था। तब से लेकर आज तक दोनों देशों के बीच इस खाड़ी के मालिकाना हक को लेकर विवाद जारी है। मगर अब खबरे आ रही है की भारत सरकार इसे पाकिस्तान को सौपे पर बिचार कर रही है। इसी बिच मोदी के प्रखर राश्ट्रवादी नजरों ने सरकार के इस कुटनीती को पकड़ा है। मोदी ने इसे किसी भी हाल में पाकिस्तान को नही सौपने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा है। जिसमे कहा गया है की इतिहास को देखते हुए सरक्रीक को पाकिस्तान को सौंपे जाने की कोई भी कोशिश एक रणनीतिक भूल होगी। साथ ही मोदी ने ये भी आग्रह किया है की, पाकिस्तान के साथ यह वार्ता बंद हो और पाकिस्तान को इसे नहीं सौंपा जाना चाहिए। ऐसी खबर आयी है कि हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस पर डील फाइनल करने की चर्चा की। रक्षामंत्री एके एंटनी और तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी भी इस पर राजी हो गये। माना जा रहा है कि यूपीए इस मामले को जल्द ही पाकिस्तान के सामने रख सकती है।

सरक्रीक इस लिए भी महवपूर्ण है क्यों की देश की सरक्रीक प्राकृतिक संपदा का भंडार भी है। इस क्षेत्र में भारी मात्रा में कच्चा तेल अथवा गैस होने की संभावना है, जो भारतीय अर्थ व्यवस्था के लिये सकारात्मक साबित हो सकता है। दलदली भूमि होने की वजह से सैनिकों को इस इलाके से होने वाली तस्करी और घुसपैठ के खिलाफ कार्रवाई करने में कठिनाई आती है। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इस इलाके में बीएसएफ की यूनिट बढ़ाने के लिए बजट में 44 करोड़ रुपये को मंजूरी दी है। सन 2000 में पाकिस्तान ने सरक्रीक पर भारी संख्या में सैनिकों को तैनात किया था। उसका मकसद था कारगिल जैसे युद्ध की तैयारी। इसी लिए यह इलाका काफी संवेदनषील माना जा रहा है। 1965 के बाद ब्रिटिश पीएम हेरोल्ड विल्सन के हस्तक्षेप के बाद अदालत ने 1968 में फैसला सुनाया था, जिसके अनुसार पाकिस्तान को 9000 वर्ग किलोमीटर का मात्र 10 फीसदी हिस्सा मिला था। पाकिस्तान ने सिंध और कच्छ के बीच हुए एग्रीमेंट की कुछ तस्वीरों के आधार पर क्रीक को सिंध का भाग घोषित कर दिया और एक रेखा खींची जिसे ग्रीन लाइन बाउंड्री कहा जाता है। मगर भारत ने इसे मानने से इंकार करता रहा है। भारत का कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक 1924 के आधार पर लगाये गये स्तंभों के आधार पर पाकिस्तान ने दावा पेश किया। पाकिस्तान ने उसे यह कहकर मानने से इंकार कर दिया कि इस सीमा से नाव पार नहीं की जा सकती है, जबकि इस सीमा को आसानी से पार किया जा सकता है। साथ ही 1999 में भारतीय वायुसेना ने सरहद के पार से आये एक पाकिस्तानी विमान को ध्वस्त कर दिया था। यह विमान भारतीय सीमा में सर क्रीक की स्थिति को टोहने के लिये आया था। यह घटना कारगिल युद्ध के कुछ महीनों बाद ही हुई थी। तो सवाल खड़ा होता है की सरक्रीक पाकिस्तान को सौपना कितना सही ?

01 December 2012

क्या जाकिर भारत का तालिबानीकरण करना चाहता है ?

आज भारत जैसे लोकतांत्रिक देष के अंदर हर धर्म और मजहब के लोगो पुरी अजादी मिली हुई है, भारत एक एैसा देष है जिसकी सभ्यता और संस्कृति से पुरा विष्व अभिभूत रहा है। जो भी इसके रास्ते पर चला वह अपने बुलंदियों को हासिल किया। मगर आज इसी देष में एक एसे कटट्रपंथी उन्माद मचा रखा है जिसका मकसद आज हिन्दुस्तान को तालिबानी नितियों में दबदिल करना है। जी हा, हम बात कर रहे है जाकिर नाईक के तालिबानी शैली, कुरान और हदीस सहित विभिन्न भाषाओं में साहित्य, और अपने संबंधित मिशनरी गतिविधियो के चलते मुस्लिम समाज ही नही देष विदेष के नागरिक चिंतित है। सबसे षर्म की बात ये है की 2010 में इंडियन एक्सप्रेस ने नाईक को शक्तिशाली भारतीयों की सूची में 89वा प्रदान किया। जो हमारे देष के अंदर तालिबानीकरण को बढ़ावा दे रहा है। आज जिस प्रकार से जाकिर देष के अंदर तालिबानी हुक्म को बढ़ावा दे रहा है उससे समाज में एक नई बहस छिड़ चुकी है और तरह- तरह के सवाल भी खड़े होने लगे है की क्या जाकिर का ये फरमान और बयान हिंन्दुस्तान को तालिबानीकरण करना चाहता है ? मुस्लिम और गैर, मुस्लिम हलकों में जाकिर का समाजिक बहिसकार करने के लिए लोग अब लामबंद हो रहे है। आज जाकिर व्यापक रूप से वीडियो और डीवीडी के अलावे मीडिया और सोषल नेटवर्किग बेब साईट के माध्यम से लोगो के बिच में अफवाहे फैला रहा है। नाईक ने दुनिया भर में नई बहस और व्याख्यान का आयोजन कर रहा है। मगर अब हर ओर इसका बहिसकार  हो रहा है क्योकी जाकिर के तालिबानी बयानो से आज हर कोई चिंतित है। नाइक कहता है कि कोई भी गैर मुसलमान अगर इस्लाम चुनता है तो वह इस्लाम के अनुसार सही है लेकिन अगर एक मुस्लिम धर्मान्तरण करना चाहता है तो यह देशद्रोह है। नाईक इसे अपराध मानता है और इसकी सजा इस्लामी कानून के तहत मौत बताता है। एसे में सवाल अब भी जस का तस बना हुआ है की क्या एसे बयानो से हिन्दुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देष को क्या जाकिर तालिबान का सक्ल देना चाहता है, जहा पर न तो कानुन है और न ही मानावता नाम की कोई चिज। जहा पर स्कुल में महिलाओ के जाने पर प्रतिबंध है जहा पर छोटी सी गलती के लिए लोगो को मौत के घाट उतार दिया जाता है, जहा पर मंदिरो को तोड़ कर मस्जिद बनाया गया। तालिबान में आज भी पुरे दुनिया के मुकाबले सबसे कम साक्षरता दर है। लेकिन अब  लगता है भारत में भी मंदिरो को तोड़ा जाएगा, महिलाओ को भी बुर्के में निकलना पड़ेगा, और हर जुर्म की सजा मौत होगी। नाइक ने कहा है कि वह बिन लादेन की आलोचना नहीं करता। जाकिर कहता है की बिन लादेन इस्लाम के दुश्मनों से लडाई की इसलिए हम उसके साथ है। आज हिन्दुस्तान में भले ही जाकिर अपने तालिबानी प्रचार करने के इधर उधर घुम रहा है मगर ब्रिटेन सहित कई कई अन्य देष अपने यहा जाकिर के प्रवेष पर प्रतिबंध लगा दिया है। नाईक को जून 2010 मे कनाडा और लंदन में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। रजा अकादमी, ने ब्रिटेन के उच्च आयोग को पत्र लिख कर डॉ. जाकिर नाईक के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए ब्रिटिश सरकार की पहल की प्रशंसा कि है। तो सवाल यहा भारत सरकार से भी है कि भारतीय दंड सेहिता के धारा 295, 298 और 153 के तहद हिंन्दु भावनाओं को भड़काने के अरोप जब सजा का प्रावधान है तो फिर जाकिर आखिर अब तक खुल्ला कैसे घुम रहा है। डॉ. नाईक का कहना है कि एक इस्लामी राज्य के भीतर अन्य धर्मों के प्रचार बिलकुल गलत है, जबकि वह अन्य मुसलमानों को आजादी से अपने देश में इस्लाम को फैलाने की अनुमति होने कि बात कहता है। नाईक चर्च और मंदिरों के निर्माण के बारे में, कहता है कि उनके धर्म गलत है उनकी पूजा गलत है तो एसे में मंदिर निर्माण कि अनुमति कैसे दि जा सकती हैं। आज ये कट्टरपंथी इस्लामी उपदेशक हर ओर गलत उपदेष दे रहा है। तो एसे में सवाल खड़ा होता है की क्या जाकिर नाईक भारत का तालिबानीकरण करना चाहता है?

आतंकियों के समर्थक जाकिर की गिरफ़्तारी क्यों नहीं ?

इस्लाम के विवादित विद्वान् डा. जाकिर नाईक के खिलाफ देश भर के लोग लामबंद हो रहे है। पीस चैनल से धार्मिक प्रचार करने वाले कटटरपंथी इस्लामिक विद्वान डा जाकिर नाईक ने हिंदुओं की आस्था से लगातार खिलवाड़ कर रहा है। क्या कभी जाकिर नाईक ने मुसलमानों से पूछा है। क्यों पत्थर की रस्म अदा करते हो। क्यों अल्लाह में इतनी श्रद्धा दिखाते हो। जी नही। क्योंकि उसके अनुसार इस्लाम के अलावा सभी धर्म तुच्छ हैं। जाकिर नाईक ओसामा बिन लादेन को अतंकी नही मानता हैं। सभी मुसलमानों को ओसामा की तरह आतंक फैलाने की बात कहता हैं। हर मुसलमान को ओसामा की तरह जीने का हुक्म देता हैं। यही कारण है की देष के अंदर आज उबाल मचा हुआ है। देष भर में जाकिर नाईक के खिलाफ देष भक्तों में गुस्सा भर गया है। देष के कोने- कोने से लोग जाकिर नाईक के खिलाफ केस दर्ज करा रहे है। क्योकी धर्म के आड़ में जाकिर अतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है। लोग कह रहे हैं कि ऐसे लोगों की वजह से ही दो संप्रदायों में दरार पैदा हो रही है। इसी वजह से लोग एक दूसरे की जान के दुष्मन बन गये हैं। आज हमारे देष की सरकार क्यो सोई हुईं है। जो हमेषा कहती है की धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले को तुरंत जेल में डाला जाये। तो फिर जाकिर को किस बात की रियायत मिली हुईं है? जो नेता धर्म निरपेक्षता की बात करते है वे खुद आज एसे धर्मविरोधी ढोंगी के प्रति चुप क्यो है? जाकिर नाईक जानबूझकर लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहा हैं। मगर यहा गौर करने वाली बात ये है की कई एसे मुस्लिम धर्म गुरू है जो जाकिर के इस बेतुके बयान से बिलकुल सहमत नही है। इस्लामीक धर्मगुरूओं का मानना है की इस्लाम दूसरे धर्म के लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुचाने में विष्वास रखता है। मगर जाकिर नाईक एसे धर्म विरोधी बयानो को इस्लामिक समस्याओ का निवारण मानता है, और कहता है की हर मुस्लमान को आतंकवादी होना चाहिए। लेकिन इन सब के अलावे जो काबिले गौर करने वाली बात ये है की जाकिर अंग्रेजो के विचारो से अपने आप को सहमत बताता है और कहता है की अंग्रेज स्वतंत्रता सेनानियो को आतंकवादी कहते थे क्योकी ये लोग देष में उन्माद फैलाते थे। साथ ही अमेरीका के पूर्व राश्ट्रपती जार्ज वासिंगटन को आतंकवादी नंबर वन बताता है। जिसे अमेरिका अपना राश्ट्रपिता मानता है। यही कारण है की आज देष ही नही बिदेषो में भी एसे दिगभ्रमित उन्मादी की आलोचना हो रही है। और लोगों में रोश है। अगर ऐसे कटटरपंथी को जेल में नही डाला गया तो ये देष ही नही पूरे विष्व के लिए एक समस्या बन जाएगा। तो एसे में सवाल भी फिर से वही आकर रूक जाता है की आतंकियो के समर्थक जाकिर की गिरफ्तारी क्यो नही ?

28 November 2012

26/11 के शहीदों को सलाम, एक बार फिर जागा हिंदुस्तान

जख्मो को अगर कुरेदो तो दर्द का सैलाब आखों से आसू बनकर बहने लगते है और जब ये आसू चेहरे पर आकर सूख जाते हैं तो छोड़ जाते है कुछ निषान। जी हा हम बात कर रहे हैं उन जख्मो की जिसे पाकिस्तान से आए 10 आतंकियों ने हिन्दुस्तान के दिल पर ऐसे दिए जिसकी टीष आज भी हर हिन्दुस्तानी के चेहरे पर देखी जा सकती है। बात उन दिनों की है हम जब में मीडिया में कदम रख ही रहा था पड़ाई भी पूरी हो रही थी और में नौकरी की तलास में न्यूज चैनलों की ओर दस्तक दे रहा था उन दिनों मुझे भी अचानक सूचना मिली की मुंबई में आतंकी घुस आए हैं। तब में उत्तराखंड के एक खूबसूरत हिल इस्टेषन बागेष्वर में छुट्टिया मना रहा था। मुझे भी जानने की उत्सुकता बढ़ी और में एक टेलिविजन की दुकान के आग आकर खड़ हो गया दुकान में जितनी भी टेलिविजन थे सभी पर अलग अलग न्यूज चैनल मुंबई हमले की कवरेल दिखा रह थे। मेरे आसस पास खड़े सभी लोगों का एक हसाथ दिल पर था और मुह से हे मगवान और ओ माई गाड जैसे सांत्वना देने वाले षब्द निकल रहे थे। और मेरी नजर इस आतंकी वारदात पर टिकी थी। एक ओर मीडिया कवरेज में बीजी थी तो दूसरी तरफ आतंकी गोलियां बरसाने में मसगूल थे। मौके पर पहुंची मुंबई पुलिस की चिंता साफ देखी जा सकती थी। उस समय जितने भी सुरक्षा बल मौके पर मैजूद थे उनमें से आधे तो फोन और वायरलैस पर बीजे थे तो आधे आतंकियों को अपने सर्विस राईफल से जवाब दे रहे थे। अकसर जनता को सुरक्षा और अपराधियों को डराने के लिए कंधे पर लटकाई जाने वाले हथियारों की उस दिन असली अग्नी परिक्षा थी। उस दिन आतंकियों ने मुंबई की तो इलैक्ट्रनिक मीडिया ने देष की बेचैनी बढ़ा रखी थी। इस कातिल रात में देष पर सबसे बड़े आतंकी हमले ने अपनी कारवाई षुरू कर दी थी। आतंकी हमले के बाद आतंकियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्श की सुरूवात वास्तव में मुंबई के कुलावा क्षेत्र में इस्थित नरीमन हाउस से हो हुई थी।

नवंबर 2006 की रात वहा करीब पौने दस बजे गोलिया चलने की आवाज सुनकर लोगों को लगा कि था कि इस बिंल्डिग में रहने वाले यहूदी समुदाय में आपसी संघर्श हो गया है। लेकिन जल्दी ही सीएसटी रेलवे स्टेषन गेटवे आफफ इंडिया के सामने सिथत होटल जात नरीमन हाउस स्थित होटल ट्राईडेट जो पहले ओबेराय के नाम से जाना जाता था कुलाबा के एक पब लियोपोल्ड सहित दक्षिण मुंबई की सड़को पर भी जब गोलियों की आवाजें गूजने लगी तो लोंग और प्रषासन को समझ में आ गया कि ये कोई आतंकी हमला है। लेकिन ये अहसास उस समय भी किसी को नहीं हुआ था कि ये देष पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला साबित होगा। हमला षुरू होने के कुछ ही घंटों के अंदर मुंबई पुलिस ने दो आईपीएस अधिकारियों सहित करीब एक दर्जन पुलिस कर्मी खो दिए तो मामला गंभीर नजर आने लगा। उस समय महाराश्ट्र के मुख्यमंत्री महाराश्ट्र से बाहर थे। गृह मंत्रालय के प्रभारी उपमुख्यमंत्री आरआरपाटिल थे तो मुंबई में ही लेकिन उनकी कारवाई बयानों से आगे बड़ती हुई नजर नहीं आ रही थी। मुख्य सचि जानी जोसेफ, एक कैबिनेट मंत्री अनीस अहमद, कुछ और वरिश्ठ अधिकारियों ने रात करीब 12 बजे मंत्रालय के कंट्रोल रूम में बैठक मुख्यमंत्री को सारी स्थिति की जानकरी दी और कंेन्द्र से सुरक्षा बल मगवाने का अग्रह किया। पता चला कि इसी टीम ने दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को भी स्थिति की जानकारी दी और राश्ट्रीय सुरक्षा गार्डो को मुंबई बुलवाने का मामला आगे बढ़ा। इधर देष और राज्य की कमान सभाले मंत्रियों और अपषर षाहों में अफरातफरी मची थी तो उधर पाकिस्तान में आराम से बैठे मुंबई हमले के षाजिष कर्ता फोन के जरिये मुंबई में आतंकियों को कमांड दे रहे थे। 26 तारीख 2008 की मध्यरात्री के बाद करीब 2 बजकर 45 मिनट पर मरीन कमांडोज ने मोर्चा संभाल लिया।

27 तारीख की सुबह करीब 4 बजे विलासराव देषमुख केरल यात्रा अधूरी छोड़ मुंबई एयरपोर्ट से सीधे मंत्रायल पहुचे। वहां इंतजार कर रहे अपने अधिकारियों के साथ जल्द ही वो राजभवन के लिए रवाना हो गए। तब तक दिल्ली से एनएसजी के कमांडो के 200 जवान मुंबई में उतर चुके थे। उनका नेतृत्व कर रहे अधिकारी भी सोधे राजभवन पहुंचे बचाव कार्य में लगे अन्य सुरक्षा बलों और सेना के अधिकारियों को वहीं बुला लिया गया। हालात इतने नाजुक और युद्ध जैसे हो गए थे कि एनएसजी के साथ साथ सेना के तीनों अंगों के इस्तेमाल की नौबत दिखाई दे रही थी। और निर्णय भी ऐसा की किया गया। 27 तारीख की सुबह सात बजते बजते एनएसजी के जाबाजों को होटल ताज, ओबेराय और नरीमन हाउस में घुसने के आदेष दे दिए गए। तब तक आतंक की एक काली रात गुजर चुकी थी। और उम्मीद की किरण लिए नए सुबह का उदय हुआ, लेकिन मुंबई अभी भी सोई हुई नहीं थी। इधर आतंकी मोर्चा सभाले हुए थे और पाकिस्तान से मिल रहे संकेतों के हिसाब से बेकसूर लोगों की बली ले रहे थे। हालात बेकाबू हो चले थे ऐसे में ताज, ओबेराय और नरीमन हाउस पर अब एनएसजी के जवानो ने अपनी जान हथेली पर रखकर आपरेषन सुरू किया। ताज ओबेराय और नरीमन हाउस तीनों जगहो पर एनएसजी के कमांडोज  ने मुख्य द्वार सहित सभी दरवाजों को पहले अपने कब्जे में ले लिया। फिर कमांडोज ने सावधानी के साथ अंदर घुसना सुरू किया। नीचे से उपर की ओर जाना आसान नहीं था। तो कमांडो कही छुपकर तो कही लेटकर आगे बढ़ रहे थे। होटल के जो कमरे खुले पाए गए उनमें घुसना आसान लेकिन आषंका भरा था। यही कारण है कि एक एक कमरे की तलाषी लेकर उन पर अपना कब्जा जमाना के लिए समय की दृश्टि से काफी खर्चीला साबित हो रहा था। लेकिन एकमात्र सुरक्षित तरीका भी यही था। इसके अलावा कमांडोज की टीम जिन कमरो का निरिक्षण कर लेती थी, उनमें लगे परदे हटा लिए जात थे। ताकि बाहर खड़े अपने साथियों को संकेत दिया जा सके कि आपरेषन कहा तक पहुचा। साथ ही बाद में आवष्यकता पड़ने पर बाहर से भी इन कमरो के अंदर देखा जा सके। इन दोनों होटलों के उपरी कमरों के अंदर का द्ष्य देखने के लिए तो नौ सेना के हेली काप्टरों की मदद ली गई। होटल ओबेराय में इस आतंकी घटना के गवाह रहे। 

अमित गुप्ता बताते है कि 26 तारीख की रात पौने दस बजे उन्होंने चैक इन किया तभी होटल पर आतंकियों ने हमला बोल दिया। उस समय वो सत्रहवी मंजिल स्थित अपने कमरे में थे। 27 तारीख की सुबह नौबजे किसी ने उनका दरवाजा खटखटाया दजवाजा खुला तो हथियारों से लैस एनएसजी के कमांडो उनके सामने थे। एनएसजी ने उनके कमरे को ही अपनी करवाई का केन्द्र बनाकर आगे की करवाई षुरू की। अमित 17हवी मंजिल पर थे और आतंकवादी 18हवी। आतंकियों ने वहा तीन महिलाओं को 6 आदमियों को बंधक बना रखा था जिन्हें बाद में मार डाला गया। एनएसजी के कमांडो को 17हवी मंजिल से 18हवी मंजिल तक पहुचने में काफी समय लग गया। इसके बाद की कारवाई बहुत मुष्किल थी। जो कमरे बद थे और नही खुले थे उन्हें विस्फोटों के जरिए खोला गया। फूक फूक कर चलते हुए कमांडो टीम ने 27 तारीख 2008 की रात करीब दो बजे एक आतंकी को मार गिराने में सफलता हासिल की जबकि दूसरा आतंकी 28 तारीख की सुबह पाच बजे मारा गया। तलाषी अभियान धीरे धीरे होटल ओबेराय की 34वीं मंजिल तक ले जाया गया लेकिन काम अभी भी खत्म नहीं हुआ था। ओबेरोय के बगल में ही उसी समूह का दसरा होटल द ओबेराय भी है जो उचाई में उससे काफी छोटा है। कमांडो टीम ने 28 तारीख की सुबह से इस होटल पर अपना अभियान नीचे के बजाय उपर से षुरू किया और उसी प्रकार एक एक कर कमरे की तलरषी लेकर उनके परदे उतारते हुए नीचे तक आए। नरीमन हाउस के बारे में कहा जाता है कि इस पर आतंकियों की पहले से नजर थी। कुछ सूत्रों का तो यहा तक कहना है कि आतंकी इसी इमारत में पिछले कुछ महीनों से रह रहे थे और इसे अपने नापाक अभियान के केन्द्र के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। स्टेट रिजर्व पुलिस ने तो इस इमारत को बुधवार की रात से ही घेर लिया था। उधर 27 तारीख की सुबह से यहां पहुंचे एनएसजी के 30 जवानों ने खुद को 10-10 की तीन टीमों में बाटकर बिल्डिग में छिपे आतकियों पर दबाव बनाना षुरू कर दिया था। लेकिन कोई विषेश सफलता मिलता ना देख 28 तारीख को छत के रास्ते इमारत में घुसने की रणनीति अपनाई गई इसके लिए सीकिंग हैलीकाप्टरों की मदद ली गई हैलीकाप्टरों के जरिए नरीमन हाउस की एक एक मंजिल पर निगाह रखी जा सके और इमारत में घुस रहे अपने जवानों को कवर दिया जा सके। छत पर उतरते ही जवानों ने नीचे उतरना षुरू कर दिया। उपर से तीन मंजिलें नीचे आने तक उन्हें किसी विषेश दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन इसके बाद उनके कदम रूक गए। क्योंकि इसके बाद आतंकियों ने यहूदी परिवार के 5 सदस्यों को बंधक बना कर उसी कमरे में रखा था जिसमें वो खुद थे आतंकियों द्धारा रूक रूक कर जवानों पर गोलिया भी चलाई जा रही थी। और अंदर आने पर बंधकों को मारने की धमकी भी दी जा रही थी।

 जवनों को ये डर भी सता रहा था कि उनकी आक्रामक कारवाई में कहीं निर्दोष बंधकों की जान न चली जाए। लेकिन षाम 5 बजे तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन न होता देख जब एनएसजी के कमांडोज आतंकियों पर अपना दबाव बढ़ाया तो बचने का कोई रास्ता न देख आतंकियों ने एक एक कर पाचों बंधक  को मार डाला। इस स्थिति का अनुमान लगाते ही कमांडो फोर्स ने दूसरी बिंल्डिग में खड़े अपने साथियों से राकेट लांचर के जरिए नरीमन हाउस के उस भाग पर हमला करने को कहा जहा उन्हें आतंकियों के होने की उम्मीद थी। ये हमला षुरू होने के बाद आतंकियों पर बाहर निकलने का दबा बढ़ने लगा। इसके बावजूद उनके बाहर न आने पर एनएसजी द्धारा किए गए दो तरफा हमलों में सभी आतंकी मारे गए। 28 तारीख की दोपहर करीब ढाई बजे जब एनएसजी के कमरंडो मुंबई के नरीमन हाउस स्थित होटल ओबेराय से बाहर मुस्कुरात हुए निकल रहे थे तो उनके चहरे की मुस्कुराहट जीत का संकेत दे रही थी। वो मुस्कुराहट इस बात का सबूत दे रही थी कि करीब 42 घंटे तक चली आतंकियों के साथ एनएसजी का सघ्सर्ष देष की जीत में बदल चुका है। कुछ तारखों ने दुनिया का इतिहास बदल दिया। ये वो तारख बन चुकी है। जिन्हें याद कर कभी सिसरन होती है तो कभी अपनी क्षमता पर षर्म और गुस्सा भी आत है। 26 नवंबर 2008 भी उन तारीखों में से एक बन चुकी है जो दुनिया के इतिहास में 26/11 की काली रात के रूप में लिखी जा चुकी है। इस दिन दुनिया गवाह बनी खून से सने मासू लोगों के लाषें के बीच गोलियों की बैछारों से फर्ष पर टूटते काच के टुकड़ो की। बदहवासी में जान बचाकर भागते लोग, सीमित हथियारों के बल पर अदम्य हौसले से  आतंकी हमले का मुकाबला करते सुरक्षा कर्मियों के दिलेरी की। अपनी जान की परवाह न करते होटल ताज और ओबेराय के कर्मचारियों के अनोखे अतिथि सत्कार की।  भय पीड़ा गुस्से गर्व की मिश्रित अनुभूति से मानों दिमाग सुन्न हो चुका हो, और होट सिल चुके थे। तीन दिन तक भारत की आर्थिक राजधानी कही जाने वाले मुंबई में 10 आतंकियों ने नरीमन हाउस, ताज होटल और ट्रायडेट ओबेराय में निहत्थे लोगों को बंधक बना दुनिया को आतंक का एक ऐसा रूप दिखा दिया था जिससे अमेरिका से ब्रिटेन, रोम, लंदन से लकर आस्ट्रीया तक बैठे लोग सिहर उठे।

इस बार आतंकियों ने छुपकर बम धमाके करने के बजाय सीधे भारत की आत्मा पर ही हमला कर दिया। आतंकवाद के इस नए तरीके ने दुनिया भर को हिला कर रख दिया था। आतंकियों ने सीएसटी पर मध्यवर्गी लोगों से लेकर पाच सितारा होटल में ठहरे कई मजहब के लोगों लियोपाल्ड कैफे में प्र्यटकों और बच्चो  से लेकर अस्पताल में बिमार लोगों सड़को पर राहगिरो और नरीमन हाउस जैसे सामुदायिक केन्द्र तक में लोगों की हत्याये की। अमेरिकी, ब्रिटिष इजराइल के अलावा और भी बहुत से देषों के नागरिकों के साथ समाज के हर वर्ग पुलिस दमकल कमिर्यो डाक्टर्स और सफाईकर्मियों तक को गोलियों से छलनी कर दिया। ये एक सोचा समझा सामुहिक नर संहार था। जिसमें किसी भी तबके को नहीं बकसा गया था। आतंकि युद्ध में निपुण और पाक में बैठे आकाओं की सरपस्ती से मानवता के दुष्मनों ने हर कदम पर सुरक्षाबलों का कड़ा विरोध किया। इस पूर्वनियोजित हमले से सन्न मुंबई के ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस हमले में गोली खाकर बच तो गए यहा तक गोलियों के घाव भी भर गए लेकिन उनकी आत्मा पर लगे जख्म षायद ही कभी भर पाऐंगे। इस हमले की याद में अभी भी समय मानों ठहर सा जाता है। सारा जमाना लग गया मुंबई हमलें की याद भुलाने में फिर कोई आतंकी पकड़ा गया और फिर 26/11 की याद आ गई। इस त्रासदी की याद हमेषा हर हिंदुस्तानी के दिल में रहेगी। उधर होटल ताज को वापस उसी अपने पुराने स्वरूप्प में लाने के लिए रतन टाटा ने दिन रात एक कर दिए और हमले के सिर्फ एक महीने बाद ताज एक बार फिर मेहमानों के लिए तैयार था। ताज को दोबारा चमका तो दिया गया लेकिन इस चमक में जख्म अभी भी साफ नजर आते हैं। इस हमले ने कई मामलों में देष के सरकार और नीति तंत्र की पोल खोल दी। इस संकट पर तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री षिवराज पाटिल रटा रटाया बयान देते नजर आए। 

राज्य सरकार और सुरक्षा ऐजेंसियों के बीच तालमेल का भारी अभाव नजर आया। एनएसजी कमांडों को मुंबई पहुचने में 12 घंटे से भी अधिक लग गए। मीडिया ने भी सबसे पहले फुटेज दिखाने की होड़ के चलते होटल में छुपे लोगों की जगह और सुरक्षा बलों की हर हरकत की जानकारी जिस तरह दिखाई उससे पाक में बैठे आतंकियों के आकाओं को बाहर की पोजिषन का पूरा अंदाजा मिल रहा था।  जो कई मासूमों की जान पर बन आई। पर इसी अफरातफरी में कई बहुत से वाकये ऐसे भी मिले जो मानवता की मिषाल बने, और घोर संकट में नेतृत्व करने वाले कुछ चेहरे भी सामने आए, चाहे वो घायलों को अस्पताल पहुचाने वाले आम लोग हो या गोलियों की बौझारों में लोगों को आश्रय देने के लिए अपने घर दुकानों में षरण देने वाले मुंबईकर, एकमात्र जिंदा पकडे गए आतंकी कसाब कोे रोकने वाले षहीद तुकाराम आंबले। होटल ताज के कर्मचारी जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर अपने मेहमानों को सुरक्षित निकालने में मदद की। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे जो दरसाते हैं कि आतंकियों के खौफनाक मंसूबों पर आम  आदमी का हौसला भारी पड़ा। दुख कितना भी बड़ा क्यों न हो वो गुजर ही जाता है। लेकिन इतिहास साक्षी है गलत इरादों पर मानवता के बुलंद हौसलों ने हमेषा विजय पाई है।  मुंबई हमले के बाद की कहानी भी यहीं से आगे बड़ती है। जब लहुलुहान मुबई अपने आपको समेट कर पूरी जिंदादिली के साथ फिर उठ खड़ी हुई और यहां के वाषिंदे जख्मों को सीकर हादसे से सबक लेकर फिर तैयार हो गए कर्मठता और हिम्मत की नई परिभाशा रचने को। देष के ऐसे वीरों को हम भी सलाम करता है जय हिंद जय भारत। 

23 November 2012

कसाब को गोपनीय तरीके से फांसी देना कितना सही ?

आपरेशन एक्स के तहत बेहद गोपनीय तरीके से कसाब को मुंबई की यरवडा जेल में दिए गए फांसी को लेकर कई सवाल खड़ा होने लगा है। भारत की ओर से पाकिस्तान को कसाब की लिखित सूचना भी दे दी गई। जब पाकिस्तान ने उसे लेने से मना कर दिया तो फैक्स भी किया गया। कसाब की मां को भी उसकी मौत की सूचना दी गयी थी। इसके बाद भी एैसी गोपनीयता बरतने की क्या जरूरत थी। इसको लेकर हर कोई सवाल खड़ा कर रहा है। कसाब की गोपनीय मौत पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी प्रातक्रिया देने वालों का ताँता लग गया है। फांसी चढ़ाने की पूरी घटना को इतना गोपनीय रखा गया कि किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगी। आपरेशन एक्स के इस मिशन में सत्रह ऑफिसर्स की स्पेशल टीम बनायी गयी थी। जिनमें से पंद्रह मुम्बई पुलिस के थे। जिस वक्त कसाब मौत की तरफ बढ़ रहा था, पंद्रह ऑफिसर्स के फोन स्विच ऑफ थे। सिर्फ दो ऑफिसर्स ऐंटि-टेरर सेल के चीफ राकेश मारिया और जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस देवेन भारती के सेलफोन ऑन थे। शायद इस डर से की इस बात की खबर बाहर तक न पहुंचे। इसी औचक फांसी से कुछ सवाल जरूर उठने लगे हैं कि आखिर इतने बहुचर्चित मामले को अंजाम देने में इतनी गोपनीयता क्यों बरती गयी। सरकार की तरफ से मीडिया को दी गयी जानकारी में बताया गया है कि  गृह मंत्रालय ने 16 अक्टूबर को राष्ट्रपति से कसाब की दया याचिका खारिज करने की अपील की थी। 5 नवम्बर को राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज कर गृह मंत्रालय को लौटा दी और 7 नवंबर को गृहमंत्री सुशील शिंदे कागजात पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने 8 नवंबर को महाराष्ट्र सरकार के पास भेज दिए थे। गृहमंत्री के अनुसार 8 तारीख को ही इस बात का फैसला ले लिया गया था कि 21 नवंबर को पुणे की यरवडा जेल में कसाब को फांसी दी जाएगी। अभी कुछ दिन पहले ही मीडिया में कसाब को डेंगू होने की खबर आई थी। इस बात पर मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर जमकर खिल्ली उड़ी थी। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि कसाब की मौत फांसी से ही हुई है या किसी दूसरी वजह से। अभी एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में भारत ने उस याचिका का प्रतिरोध किया था जिसमें फांसी की सजा को खत्म करने की मांग की गयी थी। तो क्या इसकी वजह भी यही थी। पिछले चार सालों में सरकार ने उसपर पचास करोड़ खर्च कर दिए। कसाब जब तक जिंदा था उसपर सियासत का खेल खेला गया और उसकी फांसी के बाद भी यह जारी है। सरकार इसे अपनी उपलब्धि बता रही है। मगर सवाल यहा ये भी है की क्या सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की राह पर नहीं चल रही। अमेरिका भी इसी तरह से ओसामा बिन लादेन की मौत को अंजाम दिया था। और बाद में इसी मुद्दे को चुनावी हथकंडा बनाया था। भारत सरकार की ये जल्दबाजी भी कही लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तो नहीं थी। मीडिया से कोसो दूर देश के राश्ट्रपति, गृह मंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पुलिस और जेल के चुनिंदा अधिकारियों के अलावा किसी को हवा तक नहीं था कि कसाब को फांसी दी जा रही है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की कसाब को इतने गोपनीय तरिके से फांसी देना कितना सही है ?

17 November 2012

बाला साहेब ठाकरे के सपनो का भारत कैसे बनाया जाए ?

23 जनवरी 1926 को मध्यप्रदेश के बालाघाट में जन्में बाल ठाकरे ने अपना करियर फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट शुरु किया था। बाल ठाकरे स्वयं को एक कट्टर हिंदूवादी और मराठी नेता के रूप में प्रचारित कर महाराष्ट्र के लोगों के हितैषी के रूप में अपने आप को पेष किया। उनकी इसी छवि के लिए हिन्दु हृदय सम्राट के नाम से भी जाना जाता था। भले ही महाराष्ट्र के बाहर के लोग बाल ठाकरे को एक कठोर नेता के तौर पर जानते हों लेकिन मराठियों के लिए बाल ठाकरे एक मसीहा से कम नहीं थे। बाल ठाकरे अपने भाषणों के जरिए महाराष्ट्र की राजनीति में उबाल लाते रहे हैं। 1966 में जब उन्होंने शिवसेना का गठन किया था तो इससे पहले उन्होंने ‘मार्मिक’ नाम से एक वीकली पॉलिटिकल मैगजीन शुरू की थी। इस वीकली मैगजीन के जरिए वह अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाने की कोशिश करते थे। मराठी मानुष के मुद्दे को सबसे अधिक अहमियत देने वाले बाल ठाकरे को मराठियों का बहुत प्रेम मिला है। शिवसेना के लोग उन्हें एक पिता की तरह मानते हैं। यही वजह है कि बाल ठाकरे की एक आवाज पर शिवसैनिक कुछ भी करने से गुरेज नहीं करते। मुंबई के बारे में कहा जाता है कि इस शहर में पैदाइश और बचपन बिताना यह सबसे बड़ी डिग्री होती है। मगर आज बाला साहेब के सपनो के भारत बनाने के लिए कई एसे युवा है जो इसी को अना डीग्री और करियर मानकर पूरा जिवन सर्मर्पित कर चुके है। पिछले दशकों और सदियों से मुंबई में अपनी ‘सत्ता’ होने और ‘मालिकाना’ हक जतानेवाले कई खड़े होते रहे हैं। दावे करते रहे हैं। दावों की बदौलत बड़े बनते रहे हैं लेकिन एक शख्स जिसने कोई दावा नहीं किया और इसके बावजूद जिसकी पिछले चार दशक में एकछत्र तूती बोलती रही, वे हैं बालासाहेब ठाकरे। चुनाव जीतने का आशीर्वाद मांगते लगभग हर पार्टी के शीर्ष नेता उनके पास जाते थे। फिल्मी कलाकारों से लेकर बड़े से बड़े तुर्रम खां मातोश्री जाकर अपनी नाक रगड़ते थे। कृष्णा देसाई कांड में उंगली उठी हो या ठाणे में खोपकर कांड का आरोप हो या फिर आनंद दिघे का विद्रोह कुचलने की बात हो, सभी को बाला साहब ने बिंदास तरीके से निपटाया। आपातकाल में इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ निरूपित करने से लेकर प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाते वक्त बीजेपी के विरोध तक के फैसलों में न तो उन्होंने किसी की परवाह की और न ही परिणाम की चिंता। प्रेम हरी को रूप है त्यों हरी प्रेम स्वरूप। प्रेम हरि का स्वरूप है, इसलिए जहां प्रेम है,वहीं ईश्वर साक्षात रूप में विद्यमान हैं। बिना कोई राजनितिक पद के हमेशा सिंघासन पे विराजमान रहने वाले बालासाहेब ने मुंबई, महाराष्ट्र से अगाध प्रेम के जरिये पूरी दुनिया को अपना मुरीद बना लिया। माइकल जैक्सन से लेकर अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर तक। बिना कुर्सी या पद की अभिलाषा की राजनीती अगर सीखनी है तो बालासाहेब से सीखे। ये वही राजनीती है जिसने आज भी पूरी मुंबई को एक धागे में पिरोकर रखा है। क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति कर राष्ट्रीय हैसियत हासिल करना कोई आम बात नहीं है और बालासाहेब की मुंबई, महाराष्ट्र से अगाध प्रेम की इसी पराकाष्ठा ने मराठी राजनीती में बाल ठाकरे की सख्सियत को अमर कर दिया।

क्या अधिकारियो पर कार्यवाही नेताओ का अधिकार हो ?

जिसकी खाओ बाजरी उसकी करो चाकरी। यानी जिसके कारण आपका और आपके परिवार का पेट पलता है उसकी नौकरी मन से करनी चाहिए। मगर आज के दौर में लगता है कि ये कहावत  हमारे राजनेताओं के लिए सत्त की जागिर बन गई है। प्रशासनिक सुधार विभाग की 2010 की सिविल सर्विस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, ईमानदार अधिकारी को परेशान करने, उसके मनोबल को तोड़ने और मानसिक यातना पहुंचाने के लिए ही उनके तबादले किए जाते है। दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें स्वीकार की थीं। इन सिफारिशों के तहत आइएएस अधिकारी का कम से कम दो साल तक तबादला नहीं करने का फैसला किया गया था। मगर आज भी हिमाचल प्रदेश और झारखंड एसे राज्य है जहा पर सरकारी अधिकारियों के उपर नेताओं के तबादले वाले हुक्म की खौफ बरकरार है। यहा औसतन नौ महीनों में ही आइएएस को तबादले का आदेश थमा दिया जाता है। वही हरियाणा, कर्नाटक और छत्तीसगण की बात करे तो यहां पर तेरह महीनों में तबादले होते हैं, जिसका ताजा उदाहरण अषोक खेमका है जिनका 19 साल की नौकरी में 43 बार किया गया है। मगर जब इस बार तो रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ की जमीन डील की पोल खुल गई, साथ ही राजनीतिक गलियारों में हडकंप मच गया। आज देष में खेमका जैसे सैकड़ो अधिकारी है जो नेताओ के तबादले का दंष झेल रहे है। एक नया बहस खड़ा हो गया हैं की क्या अधिकारियों पर कार्रवाई करने का अधिकार नेताओं पर होना चाहिए? इतनी जल्दी-जल्दी तबादले के पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार एक प्रमुख कारण माना जा रहा है। इसी लिए जो इमानदार अधिकारी नेताओ के अनुरूप काम नही करते उनको तबादले का पत्र थमा दिया जाता है। सत्ता में बैठे नेताओं को लगता है कि सारे अहम पदों पर उनकी पसंद के अधिकारी हों, ताकि निजी हित के काम किए और कराए जा सकें। इसीलिए जब सरकार बदलती है तो थोक में अधिकारियों के तबादले होते हैं। मामला सिर्फ तबादले तक ही सीमित नही है, कई बार एपीओ यानी नई तैनाती का इंतजार कराया जाता है और फिर ऐसे महकमे में डाल दिया जाता है जो उनकी वरिष्ठता के अनुकूल नहीं होता। अगर कोई इमानदार अधिकारी नेताओं के नजर से बच गया, तो आज के माफिया उसे अपना षिकार बनाते है। जिसकी हत्या कभी कोल माफिया कर देते है तो कभी तेल माफिया। अगर कोई गलत  काम  करने से  मना  करता है या उसके विरुद्ध आवाज  उठाता  है तो  उसकी  जान  पर बन जाती है। ईमानदारी के साथ काम करने की सजा अगर तबादला ही है तो फिर योग्य अधिकारियों से पारदर्शी काम की उम्मीद कैसे की जा सकती है उसका अंदाजा आप खुद लगा सकते है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या अधिकारियों पर कार्रवाई नेताओं का अधिकार होना चाहिए।

16 November 2012

क्या राहुल गाँधी कांग्रेस को बचा पाएंगे ?

भारतीय राजषाही षाशन में एक परंपरा थी, राजा के परिवार में बेटा जन्म लेता है तो यह तय होता है कि आने वाले समय में राजा का बेटा ही राजा बनेगा। वंशवाद को लोकतंत्र के विपरीत माना जाता है क्योंकि अधिकतर लोकतंत्रों की स्थापना वंशवाद पर आधारित राजतंत्र के विरुद्ध की गई। मगर आज के भारतीय लोकतंत्र में एैसा लगता है, जैसे की षाशन लोकतांत्रीक है मगर परंपरा आज भी वही राजषाही का। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस ही अधिकांश समय राज करती रही है। कभी कभी मौका दूसरी पार्टियों को भी मिलता रहा है पर मुख्य रुप से भारत में हमेशा कांग्रेस पार्टी ने ही राज किया है और कांग्रेस पार्टी की डोर गांधी परिवार के हाथों में रही है। राहुल गांधी को भविष्य का प्रधनमंत्री माना जा रहा है पर सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं? क्या राहुल गांधी कांग्रेस को बचा पायेंगें। सवाल ये भी है की आज के रानीतिक दौर में आखिर राहुल गांधी का रास्ता जाता किस ओर है। क्या राहुल गांधी कांग्रेस को उस आर्थिक मंत्र से आगे ले जा कर भारतीय समाज को मथने के लिये तैयार कर सकते हैं, जो मनमोहन सिंह के आर्थिक बिसात पर प्यादा बनकर हांफ रहा है। क्या राहुल गांधी वाकई कांग्रेस को पहली बार उस सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ा पाने की तैयारी में है, जहां सत्ता खोकर कांग्रेस को दोबारा खड़ा किया जा सके। क्या मनमोहन सरकार में पांच युवाओं को स्वतंत्र प्रभार देना राहुल का पहला रास्ता मान लिया जाये। असल सवाल यही से सुरू होता है कि क्या राहुल गांधी अब मनमोहन सरकार को कांग्रेस के पीछे चलने की दिशा दिखा सकते हैं। क्या राहुल गांधी काग्रेस के आम आदमी के नारे से सरकार के खास लोगो की नीतियों को मुक्त कर सकते हैं। या फिर पहली बार गांधी परिवार की राजनीति हर सत्ताधारी में कांग्रेसी मनमोहन सिंह को देखेंगी और भविष्य के कांग्रेस की घुरी राहुल गांधी नहीं मुनाफा बनाना और पाना होगा। जिसमें आज काग्रेस के मनमोहन सिंह फिट है क्योकी आज के दौर में कांग्रेंसी सत्ता भी इसी ओर इषारा करती है।
मगर कांगे्रस बनाम राहुल की बात की जाय तो कई एैसे सुलगते सवाल है जो लोगो के दिलों दिमाग पर आज भी कायम है जहा राहुल ने अपने अपरिपक्वता होने का चरिचय दिया। जिसमें ग्रेटर नोएडा के भट्टा-पारसौल गाँव में महिलाओं के साथ बलात्कार और राख के ढेर में लाशें दबी होने के आरोप लगाकर काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में हलचल मचा दी थी। मगर ये आरोप बाद में झुठे सावित हुए। ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकॉनमिस्ट’ में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पर छपे एक लेख में राहुल गांधी की शख्सियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें कन्फ्यूज्ड और नॉन-सीरियस बताया गया था. ‘द राहुल प्रॉब्लम’ शीर्षक से प्रकाशित इस लेख में लिखा गया , “राहुल गांधी क्या करने की काबिलियत रखते हैं, यह कोई नहीं जानता। यहां तक कि राहुंल को खुद नहीं मालूम कि अगर उन्हें सत्ता और जिम्मेदारियां मिल जाएं, तो वह क्या करेंगे.” राहुल गांधी को यह समझने की जरूरत है कि राजनीति मात्र भाषणों का ही खेल है। कांग्रेस जब-जब टूटने के कगार पर आई तो नेहरू वंश ने उसकी नैय्या पार लगाई। पिछले चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने खराब प्रदर्शन किया, जिससे उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवालिया निषान लग गया है। आठ वर्ष की संसदीय यात्रा में राहुल ने संसद के अंदर भी कोई विशेष ख्याति प्राप्त नहीं कर सके। 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए राहुल गांधी को कांग्रेस समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। जिससे कांगे्रस फुले नही समा रही है। सलमान खुर्शीद ने खुशी जताई है। उन्होने कहा है की राहुल गांधी कांग्रेस के सचिन तेंदुलकर हैं और उनकी चमक फींकी नहीं पड़ी है। खुर्शीद ने कहा कि राहुल को यह जिम्मेदारी सौंपना एक बड़ा कदम है और वह हमेशा से ही कांग्रेस का चेहरा रहे हैं। एैसे में सवाल खड़ा होता है की कमजोर संगठनात्मक ढांचे और समर्पित कार्यकर्ताओं के अभाव की पूंजी लेकर सत्ता की राजनीति करने को उत्सुक राहुल गांधी क्या कांग्रेस को बचा पायेंगें।

15 November 2012

क्या सरकार कैग, कोर्ट और मीडिया से डरी हुई है ?

घपले घोटाले से घीरी यूपीए 2 की सरकार अब अपनी नकामीयत की ठीकरा देष के स्वतंत्र संस्थाओं पर फोड़ना चाहती है। आज देष के अंदर जिस प्रकार से कोर्ट कैग और मीडिया आए दिन सरकार की भ्रश्ट नीतियों का खुलासा कर रही है उससे कही न कही सरकार अब डरने लगी है, तभी तो कांग्रेस के संचार मंत्री कपिल सिब्बल ये कहते नही चुक रहे है की सरकार को नीतिगत फैसले लेने में कोर्ट कैग और मीडिया आड़े आ रही है। संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने ‘कैग की विद्वता, मीडिया और न्यायालय को’ राजनीतिक लाचारी के लिए जिम्मेदार ठहराया है। भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और, निश्पक्ष्ता इन्ही संस्थाओं में आज मौजूद है अगर ये संस्थाए जितनी मजबूत होंगी उतना ही हमारा लोकतंत्र भी प्रभावी और आम आदमी के सरोकार के प्रति जिम्मेवार होंगी। मगर आज देष के अंदर जिस प्रकार से इनकी अवाज़ दबाने की कोसिष सरकार की ओर से हो रही उससे तो यही लगता है की सरकार इन संस्थाओं के उपर उंगली उठा कर इन्हे कमजोर करना चाहती है। आज देष के अंदर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी की सीएजी, पहली बार चर्चा में नहीं है। सबसे पहले जब कैग की रिपोर्ट आई तब बोफोर्स मामले में घोटाले की पुष्टि हुई। कैग तकनीकी और आर्थिक पैरामीटर के आधार पर रिपोर्ट तैयार करती है। कैग द्वारा दिए गए रिर्पोट के अधार पर सरकार को कार्यवाही करनी पड़ती है..सरकार को ये भी बताना पड़ता है कि क्या कार्यवाही की गई ? यही कारण है की सरकार आज कैग के उपर उंगली उठा कर इसको भी सीबीआई की तरह बदनाम संस्था बनाना चाहती है जिसे वो अपने उंगलियों पर नचा सके। देष के अंदर आज चाहे राश्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2 जी घोटाला, सिविल एविएषन घोटाला, आईजी आई घोटाला, हो या फिर हाल ही में हुए कोयला घोटाला कैग जैसी निश्पक्ष संस्थाओं के चलते ही दोशियों को कटघरे में लाना संभव हो पाया है। सिब्ब्ल अपनी लचारी के बजाय 2010 में न्यायालय के फैसले के चलते रद्द हुए 122 लाइसेंस को भी कोर्ट को ही जिम्मेदार ठहराया है। वही अगर कोर्ट की बात करे तो देष के तोकतंत्र और आम आदमी के हक की हिमायत आज न्यालय पर ही टिकी हुई है। जिसने आरक्षण से लेकर गरिबों में अनाज बांटने तक के मत्वपूर्ण फैसले से पूरे देष में एक अलख जगाई जिससे सरकार तक को अपना फैसला बदलना पड़ा। साथ ही लोकतंत्र के चैथे स्तंभ मीडिया ने जिस प्रकार से सेना से लेकर संसद तक हुए भ्रश्टाचार को उजागर किया उससे भ्रश्टतंत्र के दलालो की पोल खुल गई। बड़े बड़े नेताओं और मंत्रिओं को उपना पद छोड़ना पड़ा। साथ ही सरकार को अपने कई सारे फैसले भी वापस लेना पड़े जिनमे प्रमुख रूप से संविधान के धारा 19 के तहद मिले अभिव्यक्ति के अजादी भी षामिल है। जो आम आदमी से लेकर मीडिया तक को बोलने की अजादी देती है। मगर आए दिन सरकार की ओर से जिस प्रकार से इन स्वतंत्र और संबैधानिक संस्थाओं पर किचड़ उछाला जा रहा है उससे तो यही सवाल खड़ा होता है की क्या सरकार कैग, कोर्ट, कोर्ट और मीडिया से डरी हुई है।

क्या बदल रहे है करवाचौथ पर्व के मायने ?

चाँद तो हर रोज निकलता है, लेकिन करवाचैथ के चांद कि बात ही कुछ और है। इस चांद का सभी महिलाओं को बेसबरी से इन्तजा़र रहता है। करवाचैथ कार्तिक मास कि चतुर्थी एवं चंद्रोदय तिथि मे मनाया जाता है। इस व्रत को कर्क चतुर्थी भी कहते है। वक्त के साथ साथ जहां पुरानी और आधुनिक पीढी के विचारों में बदलाव आ गया है। वही करवाचैथ के इस व्रत को आज भी महिलाएं उसी हर्श और उल्लास से मनाती है जैसे पहले भी मनाया करती थी। करवा चैथ का व्रत सिर्फ अखंड सुहाग के लिए किया जाने वाला व्रत ही नही है, बल्कि अपने पति व परिवार पर आने वाले हर संकट के सामने ढाल बनकर खड़ी हो जाने वाली स्त्री षक्ती का प्रतिक भी है। यह व्रत सिर्फ एक रीत ही नही बल्कि हर पत्नि के लिए उसके पति के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम भी है। ऐसे तो त्योहार, पर्व, व्रत, पूजा पाठ, आस्था और भावना से जुड़े ये सारे नियम अपने प्रियज के लिए खुद-ब-खुद होते है। करवाचैथ के व्रत के साथ भी कुछ एसा ही है। अब जो इनसान दिल में बसता हो, उस साथी के कुषल मंगल के लिए व्रत रखना किस स्त्री को नही भाएगा। कहा जाता है कि सावित्री ने इस व्रत के जरिए अपने पती सत्यवान को यमराज के मुंह से छीन ले आई थी तभी से ये व्रत भारतीय मुल की परंपरा बन चुकि है, जिसको मनाना हर भारतीय स्त्री अपना धर्म और अधिकार समझती है।  करवाचैथ का व्रत सिर्फ एक त्योहार ही नही बल्की ये महिलाओं के साज सज्जा का प्रतिक भी है।  इस दिन हर महिला का श्रृंगार देखते ही बनता है। कान के बुंदो से लेकर पैरों कि पायल तक हर औरत गहनो से ढकी होती है। बाजार भी इस त्योहार के चकाचैंध से जगमगा उठते है। हर तरफ महिलाओं के साज सज्जा के सामानो कि धुम लगी होती है। साड़ीयों से लेकर पुजा कि थाल तक कि खरीदारी बड़े जोरो षोरो से कि जाती है। इस दिन हर महिला अपने पति कि लंबी उम्र कि कामना करन के लिए पुरा दिन निर्जला व्रत रखती है और तब तक अपना व्रत नही खोलती है जब तक चांद ना निकल जाए। चांद निकलने के बाद हर महिला अपने पति के हाथों से ही अपना व्रत खोलती है। इस व्रत के दौरान षाम को 4 बजे के बाद सभी महिलाएं सत्यनारायण भगवान और गणेषजी कि कथा भी सुनते है साथ ही सभी महिलाएं एक दुसरे को सुहाग की निषानीयां भी भेंट करती है। ये दिन हर औरत के लिए खास होती है। इस दिन हर सास अपनी बहुओं को करवाचैथ कि पूजा करने के लिए सरगी देतीं है। जिसमें सुहागनो वाले सारे सामान यानी कि चुडि़यों से लेकर मांग के सिंदुर तक सभी सामग्री मौजूद  होतें है। इसी सरगी को लेकर हर महिला इस व्रत को संपन्न करती है। इनको देखकर कहा जा सकता है कि भारत कि जान इन जैसी खुबसुरत परंपराओं में ही बसती है।

09 November 2012

राम का अपमान करने वाले जेठमलानी पर क्या करवाई हो ?

सौगंध राम की खाते है हम मंदिर वही बनायेंगे। 1992 के मंदिर आंदोलन से निकले ये शब्द भाजपा और संघ की आम भाषा बन गई। राम के सौगंध के सहारे सत्ता भी प्राप्त हुई मगर अब लगता है की राम के नाम का आदर्श रामजेठमलानी सरीखे नेतओं के लिए सिर्फ एक सियासत की लकीर बन कर रह गई है। जिसे जब चाहे जिधर चाहे खीच दे। दुनिया में राम जेठमलानी कोई पहले व्यक्ति नहीं, हैं जिसने राम को बुरा कहा हो, ऐसे लोगों की संख्या तो बहुतायत हैं। आये दिन राजनेताओं के ऐसी ओछी बयान बाजी से तो यही लगता है की इस देश से राम बहुत दूर चले गये हैं। वास सिफ रावण राज का ही रह गया है।

एक ओर जहा पुरा देश दिपावली के मौके पर राम के आदर्षो से प्रभावित होकर घी के दिए जलाने के लिए पलक पावरे बैठा है, तो वही दुसरी ओर नितिन गडकरी को विवेकानंद के उपर दिए बयान पर गडकरी को नसीहत देने वाले जेठमलानी इस बार अपने ही बयान में फस चुके है। जेठमलानी के निशाने पर इस बार भगवान राम हैं। जेठमलानी ने अपने बयान में कहा हैं की भगवान राम बुरे पति थे। मैं राम को किसी भी तरह से पसंद नहीं करता। जेठमलानी जैसे नेता राम के आदर्शो पर उंगली उठा कर पूरे हिंन्दु समाज में एक नया बहस खड़ा कर दिया है। भगवान राम पर जेठमलानी के बयान को लेकर अयोध्या के साधु-संत खासे नाराज हैं। विहिप की ओर से जेठमलानी को नसीहत दी गई है की जब उन्हें रामायण और धर्म का ज्ञान नहीं है, तो राम जैसे आदर्श चरित्र पर उंगली नहीं उठानी चाहिए और अपने कृत्य के लिए माफी मांगनी चाहिए। मगर यहा सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है की क्या सिर्फ माफी मात्र से ही इतने बड़े गुनाह को माफ कर दिया जाना चाहिए ?

राम जेठमलानी पेशे से खुद वकील है ऐसे में सवाल यहा भी खड़ा होता है की क्या जेठमलानी के उपर भी भारतीय दंड सेहिता के धारा 295, 298 और 153 के तहद हिंन्दु भावनाओं को भड़काने के अरोप में कार्रवाई नही होना चाहिए ? क्या जेठमलानी इन कानूनी प्रावधानो को भूल गये है? क्या भापजा इनके बयानो से अनभिज्ञ है क्या जेठमलानी के उपर भाजपा को कार्रवाई नही करना चाहिए? जो हमेशा से चाल चरित्र और चेहरे की बात करती है। जिसके लिए राम ही सत्ता है। और राम राज्य ही जिसका लक्ष्य है। मर्यादा पुरिशोत्तम राम का अपमान सिर्फ जेठमलानी तक ही सिमित नही है। भाजपा नेता रामजेठमलानी द्वारा सीता को बुरा पति बताए जाने के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता विनय कटियार ने उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि गर्भवती सीता माता को घर से बाहर निकालकर भगवान राम ने सही नहीं किया था।

 एक ओर जहा नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज राधा रानी, और भगवान गणेश के अपमान को लोक सभा में उठाने की बात करती है वही दुसरी ओर जेठमलानी और विनय कटियार जैसे नेता इनका अपमान करते है तो ऐसे में सवाल फिर से वही आ कर खड़ा हो जाता है की भाजपा की रामराजवाली नीती क्या सिर्फ हाथी की दांत के तरह दिखावे के लिए है? ऐसे में अब ये देखना दिलचस्प होगा की क्या भाजपा राम का अपमान करने वाले रामजेठमलानी के उपर कोई कड़ी कर्रवाई करती है ?

03 November 2012

1984 के दंगा पीड़ित सिखों को कभी न्याय मिल पायेगा ?

1984 में हुए सिख-विरोधी दंगे भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में एक हैं। जिस प्रकार से ये नरसंहार 31 अक्टूबर 1984 को सिख अंगरक्षक द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप हुआ उसने पुरे देश को झकझोर कर रख दिया था। एक और तीन नवम्बर 1984 के बीच देश भर में अनगिनत बेगुनाह लोगं मौत और विध्वंस सिकार हो गये। सिख दंगों के 28 साल पुरे हो चुके है इस दौरान कितनी बार देश में काग्रेस सत्ता में आयी और गई मगर उसके षाशन काल में हुए सिख दंगे की आग आज भी लोगो के दिलो दिमाग पर काली छाया बनकर मडरा रही है। अपनी अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के नाम पर हर दल सिखों के हिमायती होने का दावा करते है। कांग्रेस के शासन में जब सिखों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, उनकी दुकानों को आग के हवाले किया जा रहा था, उनके घर लूटे जा रहे थे और उनकी पत्नियों के साथ बलात्कार किया जा रहा था, तब भी पुलिस और प्रशासन ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।

मगर अब हर हिंदुस्तानी सिर्फ एक ही सवाल पूछ रहा है की आखिर कब मिलेगा सिख दंगा पीड़ितों को न्याय ? आखिर कब भरेगा उन बेगुनाहो का जख्म ? रोंगटे खड़े करने वाले उस अंधेरी रात की साया आज भी जीनके दिलों दिमाग पर डरावनी दहशत की घर कर गयी है। इन दंगों से जुड़े मुकदमों में एक या दो लोग जेल में हैं लेकिन इतने लोगों की मौत के लिए अगर दो या तीन लोगों को जेल होना क्या इंसाफ है। हिंदुस्तान के उपर लगे इस बदनुमा दाग को आज भारत ही नही विश्व में भी आलोचना हो रही है। इस सिख विरोधी दंगों को नरसंहार मानने के लिए ऑस्ट्रेलिया की संसद में याचिका पेश की गई है। इसमें ऑस्ट्रेलिया की सरकार से दंगों के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए भारत सरकार से अपील करने को कहा गया है। अगर इस अपील के पूरे मसौदे के उपर नजर डाले तो याचिका पर करीब साढ़े चार हजार हस्ताक्षर हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या विदेशों में उठाये गये ये कदम से भारत को सिख लेना चाहिए या शर्म करना चाहिए ? 1984 में हुए सिख दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

 सिखों के खिलाफ हमले साजिश के तहत होते रहे। सज्जन कुमार पर दंगों के दौरान सिखों के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप है। मगर आज ये भी सत्ता की मलाई खा रहे है। दिल्ली में दंगे के दौरान करीब 150 शिकायतें आई। लेकिन पुलिस ने सिर्फ 5 एफआईआर दर्ज कीं। ये अपने आप में चैकाने वाली बात है। इस पुरे घटनाक्रम में सबसे दुभाग्यपूर्ण बात ये है की पीड़ीतों को मदद पहुंचाने की बात तो दूर, पुलिस उन लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई कर रही थी जो पीड़ीत सिखों को मदद कर रहे थे। दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई आखिर अब तक क्यो नही हुई। दंगों को कई वर्ष बीत चुके हैं हर नेता आज केवल वोट बैंक के लिए इन दंगों का इस्तेमाल करते हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या 84 के दंगा पीडि़त सिखों को न्याय मिल पायेगा।

02 November 2012

क्या प्राकृतिक आपदाए भौतिकवाद का परिणाम है ?

आज का आधुनिक युग भौतिकवादी सुख का आदी होते जा रहा है। इन भौतिकवादीता के कारण कई प्राकृतिक आपदा जन्म ले रहा है। अमेरिका में आये सैंडी तुफान भी एक ऐसा ही आपदा है जिसमें। अब तक 40 लाख अमेरिकी बिजली और संचार आपूर्ति के बिना बदहाली के दौर से गुजर रहे है। न्यूयार्क और न्यूजर्सी के आसपास के इलाकों में अभी तक पानी जमा हुआ है तथा बचावकर्ता मलबे से शव निकाल रहे हैं। मगर यहा सबसे बड़ा सवाल यही है की क्या ये तुफान सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा है या फिर भौतिकवाद का जिता जागता उदाहरण, जो आज पुरी दुनिया को अगाह कर रहा है। धन का भोग या भौतिक सुखों के लिए आज इंसान हर ओर प्राकृतिक का दोहन कर रहा है। लोगो के अंदर इच्छाएँ सीमाओं से आगे बढ़ चुकी है। आज जब हम प्रगति की कगार पर खड़े हैं तो हमें अपनी विवेक से अपने जीवन के शाश्वत मूल्यों की रक्षा करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन अमरीका या यूरोप के अलावे चीन और जापान सबसे ज्यादा आज प्राकृतिक संससधनो का दुरूप्योग कर रहे है। यही कारण है की ये प्राकृतिक प्रभाव इन्ही विकषीत देषों में कर रहा है। 17 मार्च, 1883 को कार्ल मार्क्स की समाधि के पास उनके मित्र और सहयोगी एंजिल ने कहा था, की आज की ये भौतिकवाद सुख आने वाले कल के लिए एक त्रास्दी लाने वाली है। आज ये कथन सही साबित हो रही है।  अमेरिका में भीषण तूफान को देखते हुये अमेरिका में कई राज्यों में आपात स्थिति की घोषणा कर दी गई है। सैंडी की वजह से 6 करोड़ लोग प्रभावित हो हुए हैं। इस तुफान की चपेट में अमेरीका के साथ साथ कुछ अन्य देष में प्रभावित हुए है। आज भले ही इसकी जद में अमेरीका हो मगर कल इसका सिकार एषिया के कुछ अन्य देष भी हो सकते है। ऐसे में ये कहा जा सकता है की ये सिर्फ तुफान मात्र ही नही एक चेतावनी है ? आज हर देष भौतिकवाद के संग्राम में अपने आप को तबाह करने के लिए आंख मुंद कर गोता लगा रहे है। इस भौतिकवाद से हमारा देष भारत भी अछुता नही है। आज हर एक व्यक्ति उच्च स्तरीय जीवन जीना चाह रहा है और वह भौतिकवाद के पीछे इस कदर मोहित हो चुका है कि वह अपनी सारी मानवता के भूलयों को भुल चुका है। दिखावा और त्वरीत लाभ आज इस कदर लोगो के उपर हावी हो चुका है की उसे पाने के लिए इंसान अपनी जान तक को दांव पर लगा कर प्राकुतिक साधनों का लगातार दोहन कर रहा है। भौतिकवाद की पहुँच विश्व के भौतिक पदार्थों में निहित आनन्द को भले ही बढ़ा दिया हो मगर सवाल अब भी वही है की क्या प्राकृतिक आपदायें भौतिकवा का परिणाम है।

क्या बदल रहा है सुहाग का प्रतिक करवा चौथ ब्रत ?

चांद तो हर रोज निकलता है, लेकिन करवाचैथ के चांद कि बात ही कुछ और है। इस चांद का सभी महिलाओं को बेसबरी से इन्तजा़र रहता है। करवाचैथ कार्तिक मास कि चतुर्थी एवं चंद्रोदय तिथि मे मनाया जाता है। इस व्रत को कर्क चतुर्थी भी कहते है। वक्त के साथ साथ जहां पुरानी और आधुनिक पीढी के विचारों में बदलाव आ गया है। वही करवाचैथ के इस व्रत को आज भी महिलाएं उसी हर्श और उल्लास से मनाती है जैसे पहले भी मनाया करती थी। करवा चैथ का व्रत सिर्फ अखंड सुहाग के लिए किया जाने वाला व्रत ही नही है, बल्कि अपने पति व परिवार पर आने वाले हर संकट के सामने ढाल बनकर खड़ी हो जाने वाली स्त्री षक्ती का प्रतिक भी है। यह व्रत सिर्फ एक रीत ही नही बल्कि हर पत्नि के लिए उसके पति के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम भी है। ऐसे तो त्योहार, पर्व, व्रत, पूजा पाठ, आस्था और भावना से जुड़े ये सारे नियम अपने प्रियजनेा के लिए खुद-ब-खुद होते है। करवाचैथ के व्रत के साथ भी कुछ  ही है। अब जो इनसान दिल में बसता हो, उस साथी के कुषल मंगल के लिए व्रत रखना किस स्त्री को नही भाएगा। कहा जाता है कि सावित्री ने इस व्रत के जरिए अपने पती सत्यवान को यमराज के मुंह से छीन ले आई थी तभी से ये व्रत भारतीय मुल की परंपरा बन चुकि है, जिसको मनाना हर भारतीय स्त्री अपना धर्म और अधिकार समझती है। करवाचैथ का व्रत सिर्फ एक त्योहार ही नही बल्की ये महिलाओं के साज सज्जा का प्रतिक भी है। जी हा इस दिन हर महिला का श्रृंगार देखते ही बनता है। कान के बुंदो से लेकर पैरों कि पायल तक हर औरत गहनो से ढकी होती है। बाजार भी इस त्योहार के चकाचैंध से जगमगा उठते है। हर तरफ महिलाओं के साज सज्जा के सामानो कि धुम लगी होती है। साड़ीयों से लेकर पुजा कि थाल तक कि खरीदारी बड़े जोरो षोरो से कि जाती है। इस दिन हर महिला अपने पति कि लंबी उम्र कि कामना करन के लिए पुरा दिन निर्जला व्रत रखती है और तब तक अपना व्रत नही खोलती है जब तक चांद ना निकल जाए। चांद निकलने के बाद हर महिला अपने पति के हाथों से ही अपना व्रत खोलती है। इस व्रत के दौरान षाम को 4 बजे के बाद सभी महिलाएं सत्यनारायण भगवान और गणेषजी कि कथा भी सुनते है साथ ही सभी महिलाएं एक दुसरे को सुहाग की निषानीयां भी भेंट करती है। ये दिन हर औरत के लिए खास होती है। इस दिन हर सास अपनी बहुओं को करवाचैथ कि पूजा करने के लिए सरगी देतीं है। जिसमें सुहागनो वाले सारे सामान यानी कि चुडि़यों से लेकर मांग के सिंदुर तक सभी सामग्री मौजूद  होतें है। इसी सरगी को लेकर हर महिला इस व्रत को संपन्न करती है। इनको देखकर कहा जा सकता है कि भारत कि जान इन जैसी खुबसुरत परंपराओं में ही बसती है। अगर बात कि जाए युवा पीढी कि तो वो भी कुछ कम नही है। जहां एक तरफ विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है वंही कुछ युवा एसे भी है जो मार्डन होने के साथ साथ देष कि परंपराओं से अभी भी दिल से जुड़े है। कालेज कि लड़कियां हो या आफिस गोंइंग गर्ल सभी इस परंपरा में विष्वाष रखती है। तभी तो षादीषुदा औरतों के साथ कई कुंवारी लड़कियों को भी ये व्रत करते देखा जा सकता है। व्रत करने के साथ साथ ये सभी लड़कियां अपने फैषन का भी खास ख्याल रखती है। बात कि जाए डिजाईनर लहंगे या साड़ी कि तो इनकि कौन लड़कि दिवानी नही होती। आज कि हर औरत और लड़कि अपने फैषन सेन्स से किसी भी तरह का समझौता बरदाष्त नही करती। और अगर बात करवाचैथ कि हो तो सभी एक से बढ़कर एक दिखना चाहती है। करवाचैथ के इस त्योहार को सिर्फ लड़कियां ही नही बल्कि लड़के भी उत्साह से मनातें है। कंही कंही तो लड़को को भी अपने जिवन साथी के लिए र्निजला व्रत करते देखा जा सकता है। और एैसा हो भी क्यों ना, कोई भी अपने दिल के करीबी व्यक्ति को खोना नही चाहता। और सही मायने में ये अटूट प्यार कि भावना ही इस त्योहार को चार चांद लगा देती है। ये पर्व हर पति- पत्नि और चाहने वालों के पवित्र रिष्ते को बयां करती है। जब सजी धजी सभी महिलाए चांद के समक्ष अपने पति के हाथों अपना-अपना व्रत खोलती हैं तो नजारा देखने लायक होता है। मन से सिर्फ यही दुआ निकलती है कि पति-पत्नि का ये अटूट बंधन युं ही सदा बना रहे। साथ ही सजता रहे इन खबसुरत त्योहारों का सिलसिला।

28 October 2012

क्या चेहरे बदल देने से सरकार का चरित्र बदल जायेगा ?

घपले घोटाले से घिरे यूपीए-2 की सियासी सूरत बदलने के लिए   केंद्रीय कैबिनेट में सबसे बड़ा बदलाव हुआ है। इस बदलाव को 2012 में अंजाम दिया जा रहा है लेकिन नजर 2014 की चुनौती पर है। इस कवायद की कोशिश क्या रंग लाती है इसका पता तो दो राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव के बाद ही चल जाएगा। सूरत आज भले ही बदली गई है, लेकिन इसका साइड इफेक्ट अभी से ही सुरू हो गया है। कई सारे सवाल भी खड़े होने लगे है। मनमोहन के इस दांव में जिन चेहरों को षामिल किया गया है उनमे कई मंत्री ऐसे है जिनके उपर पहले से ही कई सारे आपरोप लगा हुआ है। मनमोहन सिंह ने युवा और अनुभव इन्हीं दो मुद्दे पर इस बार का फेर बदल किया है जिसमे कई नए चेहरों को मौका दिया गया है। मतलब साफ है अनुभवी चेहरे घोटाले करते रहेंगे तो वही दुसरी ओर युवा चेहरे के नाम पर राहुल की राजनीति भी चलती रहेगी। विपक्ष फेरबदल को बेकार की कवायद करार दिया है। इस फेरबदल पर बीजेपी ने कहा कि केंद्र सरकार को इसकी बजाए नया जनादेश प्राप्त करना चाहिए। अगर इन नये चेहरो की बात करे तो षषी थरूर पर राश्ट्रमंडल खेल के दौरान अवैध तरिके से धन लेने के साथ- साथ आईपीएल घोटाले में तथाकथित आरोप लग चुका है। वही दुसरी ओर अगर चीरंजिवीं की बात करे तो उनके उपर नलिनी नामक महिला का अपहरण करने के साथ- साथ चुनाव अचार संहिता का उलंघन करने के अलावे चुनाव में टिकट बेचने जैसे गंभिर आरोप लगा हुआ है। साथ ही इनके पास राजनीतिक अनुभव कम है ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या ये सिर्फ सरकार की नये चेहरे को मंत्रीमंडल में परेड कराने के लिए बनाय गया है या फिर इनका आम आदमी से भी कोई सरोकार है।  राहुल ब्रिगेड में शामिल नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी भले ही मिल गई हो मगर राहुल गांधी इस बार भी मंत्रिमंडल में षामिल नही हुए राहुल अपने युवा मंत्रिमंडल के आसरे ही 2014 के चुनावी नैया को पार लगाना चाहते है क्योकी उनका मिषन पीएम की कुर्सी है। इस फेरबदल से तो यही लगता है। तो ऐसे में आप खुद ही अनुमान लगा सकते है की यूपीए सरकार का मिषन आखिर है क्या। क्योकी सलमान खुर्षीद जैसे मंत्री जिन्होने बिकलांगो के फंड तक को डकार गये उसको भी कांग्रेस सरकार इस घोटाले की सौगात में विदेष मंत्री बना दिया। यानी की अब देष के लुटने के बाद बारी विदेष की है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या महज चेहरे बदल देने से या कुछ चेहरों का महत्व बढ़ जाने से सरकार का चरित्र भी बदल जाएगा। 

27 October 2012

इफ्तार पार्टी देने वाले नवरात्र से बेरुखी क्यों ?

आज देश में राजनीतिक स्वरूप इस कदर बदल चुकी है की जहा पर राजनेताओं को हर ओर सिर्फ वोट बैक की तुच्छ राजनीति ही दिखाई दे रही है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है रोजा इफ्तार पार्टी में राजनेताओं की मौका परास्ती की राजनीति। जब देश में होली दशहरा और दिवाली का समय होता है तो कोई भी नेता दुर- दुर तक दिखाई नही देता है मगर जब रोजा और इफ्तार पार्टी की बारी आती है तो हर हिंन्दु नेता अपने आप को मुस्लिमों के सबसे बड़े हितैसी साबित करने से नही चुकते है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या ये नेता सिर्फ दिखावे की राजनीति करते है, जो सिर्फ टोपी लगा कर उनके दिल को जितना चाहते  है। ऐसी राजनीति करने वाले राजनेताओं को कभी उस तबके के विकास नजर क्यो नही आती। उनके सिक्षा और स्वास्थ्य के बारे आखिर ये नेता क्यो में सोचते है।

रोजा इफ्तार के मौके पर सबसे पहली नजर नेताओं की रहती है। दूसरी बड़ी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट के हर तरह राजनीतिक दल चाटना चाहता है। मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी ऐसी राजनीति में खुब दिलचस्पी लेते है अगर इनकी उदारता पर नजर डाले तो इन्होने 2010 के इफ्तार पार्टी में मात्र 5 हजार मुस्लमानों के लिए 60 लाख रूपये सरकारी खजाने से लुटा दिए। सरकारी खजाने से इफ्तार पार्टी की शुरुआत इस देश मे सबसे पहले इंदिरा गाँधी ने की थी।

अपने वोट बैंक के लिए और मुसलमानों को खुश करने के लिए उन्होंने सरकारी खजाने से पहली बार अपने निवास तीन मूर्ति भवन मे भव्य इफ्तार पार्टी दिया था। रामविलास पासवान, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, आजम खान, जैसे हजारों लोगो ने सरकारी पैसे से भव्य इफ्तार पार्टी का आयोजन करने में नही हिचकते। मगर यहा सवाल हिंन्दुओं के हक को लेकर भी उठता है की क्या कभी कोई होली दशहरा दिवाली पर फलाहार पार्टी या भोज का अयोजन क्यो नही किया जाता है। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी हर साल सरकारी पैसे से अपने सरकारी निवास मे भव्य इफ्तार पार्टी करते है।

 लेकिन क्या इस देश मे जहां 80 प्रतिषत हिंदू है उनके लिए सरकारी पैसे से होली या दिवाली की पार्टी हिन्दुओ के लिए हो सकती है? ऐसा बिलकुल नही लगता क्योकी अगर कोई ऐसा करेगा तो वह साम्प्रदायिक पार्टी कहलाऐगा। यही कारण है की हर नेता अपने सर नमाजी टोपी डाल कर अपने आप को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की जुगत में मौका परास्ती की राजनीति करने से बाज नही आता हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की आखिर इफ्तार पार्टी देनेवाले नवरात्रों में उदासिन क्यों रहते है। क्या हिन्दु हित की रक्षा करना इनके लिए कोई मायने नही रखती। 

शहीदों को छोड़ आतंकवादियों को पुनर्वास देना कितना सही ?

आज हमारा देष एक ओर जहा अतंकवाद से जुझ रहा है वही दुसरी ओर जम्मू कश्मीर सरकार आतंकवादियों को पूर्नवास की नीति लाकर देष के दुष्मनों को अपने ही घर में पालने पर उमाद़ा है। कुछ दिन पहले काष्मीर के कुछ उग्रवादी पाकिस्तान में जाकर अपने ही देष के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए प्रषिक्षण लिया जो कभी भी हमारे देष के निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार सकते है। मगर अब इन्ही आतंकियो को जम्मू कश्मीर सरकार अपने राज्य में पालना चाहती है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या राजनीतिक सत्ता के लिए देष के दुष्मनो को भी गले लगाने से, ये सरकार परहेज नही कर सकती। पुनर्वास नीति के अनुसार, अगर कोई भी आतंकवादी लौटने के इच्छुक है, तो वह अपने परिवार या रिश्तेदारों को सूचित कर सकता है। इस नीति को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला द्वारा घोषणा की गई और केंन्द्र सरकार इसे समर्थन किया। इसके तहत पाकिस्तान में रह रहे 3,000 कश्मीरी आतंकवादियों की वापसी और पुनर्वास संभव है। प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा पहले ही सरकार के इस कदम को खतरनाक करार दे चुकी है। साथ ही बीजेपी इसे एक बड़ा सुरक्षा जोखिम भरा कदम मान रही है। तो ऐसे में सवाल उठना लाजमी है की क्या सरकार यहा भी वोट बैक की नीति के तहद ही काम कर रही है। क्या उसके लिए राश्ट्रीय सुरक्षा भी कोई मायने रखती। देष के सहिदों के विधवाओं के आखो के आंसु पोछने के लिए आज इस सरकार के पास वक्त नही है जिसने हमारे षरहदो की रक्षा के लिए अपनी भरी जवानी कुर्बान कर दी। 

देष के खातिर सेना के जाबांज सिपाही मरते हैं। 
नेताओं की पाक परस्ती से लेकिन सब डरते हैं। 

आज हजारो सैनिक देष के अंदर खुंखार आतंकवादीयों के गोली के षिकार हो रहे है, तो ऐसे में जम्मु काष्मीर सरकार द्वारा आतंकवादीयों को पानाहगार बनाना क्या अपने ही पैर में कुल्लहाणी मारने जैसा नही है। जम्मु काष्मीर सरकार जिस संविधान की दुहाई दे रही है क्या ये कदम संविधान के खिलाफ नही है। जहा पर कोई देष का दुष्मन हमारे घरो में राज करने की बात करे। क्या जम्मु काष्मीर सरकार भारतीय डंड संहिता की धारा 122 और 123 से अनभिज्ञ है जिसमें साफ तौर पर कहा गया है की देष के खिलाफ युध्द छेड़ने या किसी प्रकार के अस्त्र सस्त्र जुटाने वाले के लिए सजा मौत है। सरकार की ये कौन सी नीति है जहा पर मौत के हकदार को पुर्नवास देने की ये घिनौनी खेल खेली जा रहा है। आज हमारे देष के विर जवानों को एक छोटी सी सरकारी सुविधा के लिए नाको चना चबाना पड़ता है। मगर आज देष के दुष्मन मलाई खा रहे है। आज ये सरकार किस नकषे कदम पर चल रही है इसका अंदाजा आप सुद लगा सकते है। तो ऐसे में हमारे पास सिर्फ एक ही विक्ल बचता है।

आतंकी षिविरों में घुस कर वार किया जाए।
काष्मीर का काबुल जैसा ही उपचार किया जाए।।

23 October 2012

क्या आज पैसा ही सब कुछ है ?

पैसा-पैसा करते हैं, सब पैसे पर ही मरते हैं। आज के दौर में ये हकीकत साबित हो रहा है। तो सवाल भी उठने लगा है की क्या जीवन जीने के लिये पैसा ही सब कुछ है ? शास्त्रों में बताया गया है कि हमारा पहला कर्तव्य है कर्म। कर्म से ही सब कुछ बदला जा सकता है। श्रीकृष्ण ने भी कर्म को ही प्रधान बताया है। मगर आज के चकाचैध भरी जिंदगी में पैसे की अहमीयत इस कदर लोगो के सर चढ़ कर बोल रहा है की आज इसके लिए लोग कायरता की सारी हदें पार कर रहें है। आज के आधुनिक समाज में जिनके पास ज्यादा पैसा है उनका लोग इज्जत करते है मगर सच्चाई ये भी है की पैसे वाले अधर्मी ,दुराचारी व भ्रस्टाचारी को समाज में लोग अलग नजरो से देखतें है। इस महंगाई वाले जमाने में हर इंसान को पैसे की जरूरत होती है ये बात एक दम सच है परन्तु ये भी सच है की पैसे की खातिर हम अपना ईमान भी नहीं बेच सकते है। डाक्टर को भी लोग भगवान् का रूप मानते है क्योकि वो इंसानों को दूसरा जीवन जो देता है, मगर सवाल यहा भी उठता है की क्या ऐसे पेषा में भी पैसा ही सब कुछ है। जहा एक गरिब व्यक्ति का जीवन पैसे से कही ज्यादा अहम है, मगर इस पेषे में भी पैसा ही आज सब कुछ है। हर व्यक्ति केवल पैसा ही पैसा मांग रहा है, जिसमें पारिवारिक रिश्ते, सगे-संबंधी व दोस्ती-यारी सभी रिश्तों पर पैसा शुरू से ही भारी रहा है। परंतु, अब रिश्ते खासतौर पर पैसे के तराजू से ही तोले जाने लगा हैं। आज के इस अर्थयुग व गलाकाट प्रतियोगी माहौल में पैसा कमाना आसान नहीं रहा। पैसा कमाने में आज तमाम जोखिम हैं। परंतु फिर भी ज्यादातर लोग अधिक से अधिक पैसा इकट्ठा करना चाहते हैं। यही कारण है की लोग मनुश्य की जिंदगी से कही जयादा पैसे को अहमीयत दे रहे है। पैसे को कैसे भी हथियाना आज लोगों का परम लक्ष्य बन चुका है। वहीं कुछ लोग जल्दी से जल्दी अमीर व पैसा बनाने के लिए गलत काम करने में भी नहीं हिचकिचाते हैं। किसी को नुकसान पहुंचा कर भी अपना काम बनाना या पैसा ऐंठना ही एक मात्र मकसद होता है। लोग एक दूसरे को मरने-मारने पर भी मजबूर होते जा रहे हैं। पैसे की मोह माया लोगों पर इस कदर हावी है कि अच्छा-बुरा कुछ दिखाई नहीं देता है। शेक्सपियर नें भी लिखा है पैसा और दोस्ती दोनों एक साथ खत्म हो जाती है फिर भी पैसे को अधिक महत्व दिया जाता है। किसी को जरूरत के समय पर आर्थिक मदद करना मानव स्वभाव व नैतिकता बताई गई है। परंतु ऐसा देखने में कम ही दिखाई पड़ती है। आज भी हमारे देश में कई लोग ऐसे हैं जो खाने के लिए अपने परिवारों से दूर रह रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं या भीख मांग रहे हैं। अगर एक दिन भी उन्हें काम न मिले तो उस दिन उनके घर चूल्हा नहीं जलता। मगर देष में धनकुबेरो की बात करे तो उनके पास इतना पैसा है की पुरे देष का पेट भरा जा सकता है। यही से सुरू होती है अमीरी और गरिबी की खाई जो इंसान को इंषानियत से दुर कर देता है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या पैसा ही सब कुछ है। 

क्या देश के अगले जमींदार कारर्पोरेट घराने है ?

भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। मगर आज देष के अंदर हालात इसके बिलकुल विपरित है। भूमि का संपत्ति के रूप में क्रय विक्रय प्राचीन भारत में संभव नहीं था। अब देष में जिस प्रकार से जमीन की लुट मची हुई है उसको लेकर किसानो में देष के औधोगिक घरारानो के प्रति एक रोष उत्पन्न हो गई है। जमींदारी प्रथा भारत में मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक कुरीति थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर जमींदार का होता था जो खेती करने वालों से कर वसूलते थे। स्वतंत्रता के बाद जब ये प्रथा बदली तो कानुन भी बना। लेकिन अब स्थिति यहा तक पहुंच गई है की औधोगिक घराने ही सबसे बड़े जमींदार बन गये है। क्योकी सत्ता की ताकत और पैसों की कुबेर उन्ही लोगो के हाथो में है जो औधोगिक घरानो से संबंध रखते है। तो सवाल भी उठना लाजमी है की क्या देष के अगले जमींदार कार्पोरेट घराने ही होंगे। असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या संसद के भीतर जमीन को लेकर अगर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाये कि कौन पाक साफ है तो बचेगा कौन। क्योंकि देश के 22 राज्य ऐसे हैं, जहां जमीन को लेकर सत्ताधारियों पर विपक्ष ने यह कहकर अंगुली उठायी है कि जमीन की लूट सत्ता ने की है। यानी आर्थिक सुधार के जरीये विकास की थ्योरी ने मुनाफा के खेल में जमीन को लेकर झटके में जितनी कीमत बाजार के जरीये बढ़ायी, वह अपने आप आजादी के बाद देश बेचने सरीखा ही है। भले ही आधुनीकिकरण ने सरहद तोड़ी लेकिन उसमें बोली देश के जमीन की लगी। इस दायरे में सबसे पहले सत्ता की ही कुहुक सुनायी दी। औघोगिक विकास की लकीर खिंचने के नाम पर ये कारर्पोरेट घराने जमींदार बनते जा रहे है तो वही दुसरी ओर देष के सबसे गरिब तबका किसान इस चकाचैध की आपाधापी में हासिये पर ढकेल दिया गया है। बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। क्योकी जिस संसद के अंदर किसान और मजदूर वर्ग की बात होती थी आज वहा पर इन्ही कारपोरेट घरानो की कुहूक सुनाई दे रही है। औधोगिक विकास के नाम पर केवल पंष्चिम बंगाल में 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की है जिसे कुछ दिन पहले कारपोरेट घरानो को दी गई थी। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार और रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफियो की नजर इस जमीन पर पड़ी है। बात सिर्फ पंष्चिम बंगाल की ही नही है ऐसे तमाम राज्य है जहा पर ये लुटतंत्र का समराज्य फल फुल रहा है। नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया । आज महंगाई को लेकर जिस प्रकार से देष के अंदर हाहाकार मची हुई है उसका भी एक कारण ये जमीन का लुटतंत्र ही है। प्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख महाजनी सभ्यता में लिखा है कि मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है । एक बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। यही कारण है की ये कारपोरेट घराने देष के जमींदार बनते जा रहे है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या देष के ये कारपोरेट घराने ही नए जमाने के जमींदार है। 

क्या चीन युद्ध से हमने कुछ सबक सिखा ?

भारत चीन युद्ध के 50 वर्श पूरे हो चुके है, इतने सालों में देष ने तरक्की की हजारों गाथाए अपने नाम किए, मगर एक सवाल उस हर हिंदुस्तानी के दिलो दिमाग में कौध रहा है की क्या आज भी हम चीन से मुकाबला कर सकते है। क्या हमारी सेना और सरकार आज भी कुछ सिख ले पायी है। हिंदी चीनी भाई भाई के नारा उस वक्त गुम हो गया जब चीन ने हिंदुस्तान के पीठ में खंजर घोप कर अपने कुरूरता का परिचय दिया, जिनसे हम मिठास घोलने की उमीद पर आगे बढ़ रहे थे। 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारतीय सीमा पर विभिन्न मोर्र्चो से जिस तरह आक्रमण किया वह भारत के लिए सर्वथा अप्रत्याशित था। भारत न तो इस युद्ध के लिए तैयार था और न ही उसे इस हमले की आशंका थी, फिर भी भारतीय सेना का यह सकारात्मक पक्ष था जो 32 दिनों तक चले इस युद्ध में चीन को कड़ा जवाब देते रहे। इस युध्द में 21 नवंबर को चीन ने भारत को पराजित कर दिया। इसके बाद उजागर हुआ चीन का छिपा हुआ काला चेहरा। लेकिन हमारा देष आज भी चाईना के बढ़ते सैन्य षक्तियों से बिलकुल बेफिक्र है। ये वही चीन है जिसने शक्ति संपन्न रूस की जमीन हड़पने में नहीं हिचका, तो क्या चीन हमसे कभी उदारता पूर्वक व्यवहार कर सकता है? उसकी नजर आज हर वक्त अरूणाचल प्रदेष और तवांग की ओर घुमती रहती है। चीन की बढ़ती विस्तारवादी नीति का ही परिणाम था कि उसने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश का लगभग 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अपने हिस्से में मिला लिया था। मोतियों की माला की चुनौती चीन की रणनीति रही है कि वह भारत को चारों ओर से घेरकर उस पर दवाब बनाए। इसी का नतीजा है कि वह भारत के पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंध निरंतर बढाता जा रहा है। इस क्रम में वह भारत के चारों ओर एक घेरा बना चुका है, जिसे सामरिक विशेषज्ञों ने मोतियों की माला नाम दिया है। आज भारत के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि वह अपनी सामरिक हितों की रक्षा कैसे करे। कहीं हमारे सामने 62 के युद्ध जैसी एक और चुनौती तो नहीं है। क्या हमने कोई सबक अब तक ले पाया है। वर्तमान में चीन की नीति आर्थिक हितों को प्रमुखता देने की है और वह इसी के लिए भारत को किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने नहीं देना चाह रहा है। दक्षिण एशिया में चीन हमेशा से शक्ति संपन्न रहना चाहता है। चीन के साथ एशियाई देशों खास तौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका के संबंधों ने नए समीकरणों को जन्म दिया है। भारत के साथ चीनी समीकरण को लेकर इस क्षेत्र में चीन की भूमिका हमारा ध्यान आकर्षित करती है। पिछले वर्ष तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने चीन की ओर से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की बात भी स्वीकार की थी। उन्होंने यह माना कि वर्तमान में करीब 4000 चीनी सैनिक पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में मौजूद हैं। इस स्वीकृति ने भारत की चिंता बढ़ाई दी है। चीन इस क्षेत्र में व्यापक निर्माण कार्य करा रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने को लेकर भी इनके बीच विवाद चर्चा में है। तिब्बत के प्रति भारतीय नीति को भी चीनी संदेह की नजर से देखा जा रहा है।  तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या हमने चीन युध्द से कोई सबक सीखा है। अब जरूरत इस बात को लेकर है की भारत को 1962 के युद्ध से सबक सीखते हुए आगे की रणनीति बनानी चाहिए। 

18 October 2012

क्या मनुष्य का जीवन सस्ता हो गया है ?

मानव जीवन प्राप्त करना सबसे दुर्लभ है,ऐसा हम आज तक सुनते पढ़ते आये हैं परन्तु परिस्तिथियों और प्रमाणों पर विचार किया जाये तो यह धारणा सत्य प्रतीत नहीं होती। लोगों को यदि मांस आदि का सेवन करना हो तो बाजार से खरीद कर लाना होता है, उसका मूल्य चुकाना पड़ता है, शिकार करने के भी नियम हैं और पकडे जाने पर कठोर दंड का प्रावधान है, परन्तु मानव जीवन को खत्म करने का कोई आधार नही है। आज लोग इंसान को इंसान नही समझ रहे हैं। थोड़ा सा लालच इंसान के कत्लेआम की वजह बन रहा है। दबंग और गुण्डे अपने छोटे से मतलब के लिए पता नही रोज कितने लोगों की जान लेते है। कुछ ऐसे मामलो का तो पता चल जाता हैं जो बड़े होते हैं और मीडिया की नजर में आ जाते है। लेकिन बाकी का क्या। अगर आप 50-100 किलोमीटर की यात्रा भी करते हैं तो आपको सड़क के किनारे एक दो डैड बाडी देखने को मिल जायेंगी। ऐसे में सवाल उठता है कि हम कब तक इंसानी जिंदगी को कीड़ों मकोड़ों की तरह खत्म होते देखेंगे। कब तक मनुश्य को मनुश्य के जीवन का अंत करत देखेंगे। कहा जाता है कि मानव में दैवी व दानवी दोनों ही गुण विद्यमान रहते हैं। यदि व्यक्ति के दैवी गुण अधिक प्रबल हैं तो वह सज्जन के रूप में समाज में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है और यदि पाशविक प्रवृत्ति प्रबल हो तो वह दानव का रूप धारण कर लेता है। व्यवहार में भी इन गुणों का अनुपात कम अधिक चलता रहता है। परन्तु कुछ लोग शायद आसुरी प्रवृत्ति के साथ ही जन्म लेते हैं। आसुरी प्रवृत्ति प्रधान लोग वही हैं जिनके लिए मानव जीवन एक गुब्बारे से भी सस्ता है जब चाहा, जिसका चाहा, उसका अंत कर दिया। पांच रुपए के लिए चाकू मार दिया, अबोध बालक को मौत के घाट उतार दिया। मिटटी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। तेजाब डाल दिया। परिवार क्या पूरी की पूरी बस्ती को जला कर राख कर दिया। चलती ट्रेन से धक्का दे दिया आदिण् ऐसे समाचार प्राय समाचारों की सुर्खियाँ बनते हैं। परन्तु बहुत से अनाम लोग तो अनाम रहते हुए ही ऐसे ही किसी के कोप का भाजन बन जाते हैं। कब काल का ग्रास बन जाते हैं। और अनाम रहते हुए ही उनके जीवन का दुखद अंत हो जाता है,। ऐसे दुखद समाचारों में बच्चों के आपसी झगडे या खेल खेल में पत्थर या बैट से पीट कर मार डालने की घटनाएँ भी प्रकाश में आती हैं।यदि विचार किया जाये तो ऐसा नहीं कि दानवी प्रकृति के लोग इसी युग में हैं। ये तो सनातन प्रकृति रही है बस घटनाओं का स्वरूप व अनुपात बदल गया है। पहले ये काम दुराचारी राजाओं तथा निरंकुश सामंतों अथवा अन्य प्रभावशाली कुत्सित बुद्धि युक्त लोगों द्वारा किया जाता था और आज तो अंदाजा लगाना ही कठिन है कि कब किसके जीवन का अंत कर दिया जाये। क्योंकि मानव जीवन मूल्य हीन होता जा रहा है।

13 October 2012

क्या सरकार सुचना का अधिकार कानून से डर गई है ?

आरटीआई से आये दिन सत्ता और सत्तासीनों के कारनामें का खुलासा हो रहा हैं। जनता अपने हक के लिए खड़ी हो गई है। लेकिन कुछ ताजा मामलों ने सत्तासीनों में खलबली पैदा कर दी है। सोनिया गांधी की विदेष यात्राओं का खर्च मांगना इसका ताजा उदाहरण है। इन सूचनाओं से घबराई सरकार के प्रधानमंत्री आरटीआई पर ही नकेल कसना चाहते हैं। कह रहे हैं आरटीआई से लोगों की निजता का उलंघन हो रहा है। सूचना अधिकार कानून यानी आरटीआइ को लेकर प्रधानमंत्री की यह चिंता समझ आती है कि इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए, लेकिन इसके आधार पर इस कानून में काट-छाट की आवश्यकता जताने का कोई मतलब नहीं। यदि किसी कानून के दुरुपयोग के आधार पर उसमें हेर-फेर किया जाएगा तो फिर किसी भी कानून को सही.सलामत रख पाना मुश्किल होगा। आखिर ऐसा कौन सा कानून है, जिसका दुरुपयोग न होता हो। हमारे देश में तो शायद ही कोई कानून हो जिसका गलत इस्तेमाल न हुआ हो। अब क्या उन सभी में बदलाव किया जाएगा। निसंदेह इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि सूचना अधिकार कानून के तहत कुछ लोगों की ओर से ऐसी जानकारी पाने की भी कोशिश की जाती है जो किसी की निजी जिंदगी से जुड़ी होती है और उसके सार्वजनिक होने से संबंधित व्यक्ति की निजता का उल्लंघन होता है, लेकिन ऐसे लोगों को तो हतोत्साहित करने के प्रावधान सूचना अधिकार कानून में हैं। फिलहाल ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है कि सूचना अधिकार कानून के तहत दी जा रही जानकारियों से बड़े पैमाने पर निजता का उल्लंघन हो रहा है। निजता का अधिकार संविधान प्रदत्त है और उसकी हर हाल में रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इस अधिकार की आड़ में सार्वजनिक महत्व की सूचनाएं गोपनीय रखने की भी कोशिश नहीं होनी चाहिए। फिलहाल ऐसा हो रहा है। कई मामलों में सार्वजनिक महत्व की सूचनाएं देने से यह कहकर इन्कार कर दिया जाता है कि यह निजी जानकारिया हैं। बेहतर हो कि सूचना अधिकार को सीमित करने पर विचार करने से पहले निजता के अधिकार को सही तरीके से परिभाषित किया जाए। कम से कम सार्वजनिक जीवन में शामिल लोगों के मामले में तो ऐसा किया ही जाना चाहिए कि क्या निजता के दायरे में आता है और क्या सार्वजनिक महत्व के दायरे में। यह अच्छी बात है कि निजता की रक्षा के लिए अलग से कानून बनाने पर विचार हो रहा है, लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सूचना अधिकार कानून में किसी किस्म की कटौती का कारण न बने। प्रधानमंत्री ने सूचना अधिकार कानून के बेतुके इस्तेमाल पर भी चिंता जताई। चूंकि यह एक नया कानून है इसलिए यह संभव है कि कुछ लोग इसका बेतुका इस्तेमाल कर रहे हों, लेकिन इस तरह के इस्तेमाल को भी रोका जाना संभव है। प्रधानमंत्री ने सूचना अधिकार कानून के संदर्भ में रचनात्मक माहौल बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। निसंदेह इस दिशा में काम करने की जरूरत है, लेकिन चिंताजनक यह है कि ऐसी कोई कोशिश होती हुई नहीं दिख रही है। यह ठीक नहीं कि सूचना आयुक्तों के पद पर बड़ी संख्या में पूर्व नौकरशाह तैनात हो रहे हैं। आखिर जो नौकरशाह अपने सेवाकाल में पारदर्शिता और जवाबदेही से बचते रहे हों वे सूचना अधिकार कानून को लेकर कोई रचनात्मक माहौल कैसे बना सकते हैं। यह पहली बार नहीं है जब सूचना अधिकार कानून में किसी किस्म की कटौती का कोई विचार सामने आया हो। इसके पहले भी इस तरह के विचार होते रहे हैं। इससे यही लगता है कि सत्ता में बैठे लोगों को सूचना अधिकार कानून रास नहीं आ रहा है। वस्तुस्थिति जो भी हो, इस कानून के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने जिस तरह यह कहा कि इससे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का मसला भी उलझेगा उस पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक है।

12 October 2012

क्या आज हम लोग जे पी को भूल गए है ?

दोस्तो हम आपके सामने एक ऐसा मुददा लेकर आये हैं जो हमारे मीडिया और हमारी सोच को दर्षाता है। आप सभी जानते होगें कल मनोरंजन सदी के इतिहास के महानायक अमिताभ बच्चन का जन्म दिन था। लगभग हर मीडिया चैनल पर ये खबर प्रमुखता से छायी रही। छानी भी चाहिए, क्योंकि अमिताभ बच्चन वाकई सदी के महानायक हैं। इसके लिए कुछ भी साबित करने की जरूरत नही है। मगर क्या आपको पता है इसी दिन आजाद भारत की महाक्रांति के नायक जयप्रकाष का भी जन्म दिन था। क्या किसी मीडिया संस्थान ने ये खबर चलाई। क्या किसी ने इस महानायक को याद करने की जहमत उठाई। जी नहीं कहीं से भी इस महानायक के अदर्षो की खबर कहीं तक नही आई। क्या उन नेताओं ने भी जेपी को याद करने की जहमत उठाई जो उस आंदोलन की पौध हैं। आज ये नेता कई जगह अपनी सरकार चला रहे है। मगर कहीं से भी जेपी के जन्मदिन की खबर सामने नही आयी। ये सब आपको बताने का हमारा मकसद अमिताभ बच्चन के जन्म दिन की अहमियत को कम नही करना है। हम तो सिर्फ ये बताना चाहते हैं कि क्या है हमारी सोच और हमारे मीडिया की सोच। जो राजनीति आज हमारे देष को फिर से गुलामी की और ले जाने वाली दिख रही हैं। क्या उसके बारे में आप बिल्कुल भी नही सोचते। क्या आज फिर से हमारी चरमराती राजनीति को जेपी जैसे लोगों की जरूरत नही है। जब आज हर ओर मंहगाई भ्रश्टाचार और लूट मची है। क्या ऐसे में जेपी जैसे महानायक की जरूरत नही है हमें। लेकिन आज जनता को जगाने वाला मीडिया मनोरंजन की दुनिया में खोया हुआ है। क्या आज देष के राजनैतिक हालातों से ज्यादा मनोरंजन हमारे लिए महत्वपूर्ण हो गया है। लगता तो ऐसा ही है। आज हमारा समाज उस महानायक को भूल गया है। जिसने कभी देष में बढ़ती तानाषाही को खत्म करने का बिगुल उठाया था। जिससे घबराई सरकार ने देष को इमर्जेसी की आंधी में झोक दिया था। उस वक्त के कुछ लोगों का मानना है कि अगर जेपी आंदोलन नही होता तो देष में आज लोकतंत्र की जगह राजषाही तानाषही होती। वैसे हालात तो आज भी राजषाही जैसे है। आप देख ही रहे हैं कैसे परिवार के नाम पर लोग कानून से खेल रहे है। और कैसे सत्तसीन उनका बचाव कर रहे हैं। दोस्तो ऐसे में आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि क्यूं है हमारे लिए जेपी जैसे लोगों की जरूरत। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नही दे रहा है। कैसे जेपी के आंदोलन से उपजी नेताओं की पौध वोट बैंक की रजनीति में लग गई है। लालू, मुलायम और षरद पवार का उदाहरण आप सबके सामने है। क्या कल इन नेताओं की ओर से जेपी आंदोलन पर कोई बयान आया। जी नही क्योंकि इन्हें अपनी जातिवादी राजनीति जो करनी है। इनका मकसद भी जनता को पागल बनाकर उस पर राज करना ही है। तो फिर कैसे महानायकों की है आपको जरूरत। 

लोहियावादी सोच को भूलते आज के समाजवादी नेता

प्रखर चिंतक और समाजवादी नेता डा राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में अकबरपुर नामक गांव में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक और हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। लोहिया जी केवल चिन्तक ही नही बल्कि एक कर्मवीर भी थे। उन्होंने अनेक सामाजिक ए सांसकृतिक और राजनैतिक आंदोलनों का नेतृत्व किया। राम मनोहर लोहिया को भारत एक अजेय योद्धा और महान विचारक के रूप में देखता है। देश की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद ऐसे कई नेता हुए जिन्होंने अपने दम पर शासन का रुख बदल दिया जिनमें से एक थे राममनोहर लोहिया। अपनी देशभक्ति और तेजस्वी समाजवादी विचारों के कारण अपने समर्थकों के साथ ही डॉ लोहिया ने अपने विरोधियों के मध्य भी अपार सम्मान हासिल किया।  डॉ लोहिया सहज लेकिन निडर राजनीतिज्ञ थे। 
डॉ लोहिया मानव की स्थापना के पक्षधर समाजवादी थे। वे समाजवादी भी इस अर्थ में थे किए समाज ही उनका कार्यक्षेत्र था और वे अपने कार्यक्षेत्र को जनमंगल की अनुभूतियों से महकाना चाहते थे। वे चाहते थे किए व्यक्ति.व्यक्ति के बीच कोई भेदए कोई दुराव और कोई दीवार न रहे। सब जन समान हों। सब जन सबका मंगल चाहते हों। सबमें वे हों और उनमें सब हों। 30 सितंबर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया। जहाँ 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया। कश्मीर समस्या होए गरीबीए असमानता और आर्थिक मंदी इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। लोग आज भी राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञए धर्मगुरुए दार्शनिक और राजनीतिक छमता को अपने जिंन्दगी के मोड़ पर याद करते है।

30 September 2012

आर एस एस के शिबिरो पर प्रतिबन्ध कितना सही ?

देष के स्वयंसेवक लोगों को देष की संस्कृति के बारे में बता रहे हैं। लोगों को अनुषासन और सदाचार की षिक्षा दी जाती है। देष में राश्ट्रीय एकता की भावना जागृत कर रहे हैं। लोगों को प्राचीन भारतीय सस्कृति के अनुसार स्वस्थ्य रहने का मंत्र बताते हैं। लोगों को भ्रश्ट सरकारों के खिलाफ जागरूक करते हैं। जहां देष के स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से सेवा करते हैं। ऐसी जगह जनसैलाव उमड़ना लाजमी हैं। लेकिन कुछ भ्रश्ट और देषद्रोही सरकारों को ये बात हजम नही हो रही है। जी हां ऐसा ही देखने को मिला राजस्थान में। राजस्थान की गहलोत सरकार ने लोगों को आरएसएस के षिविरों में जाने पर रोक लगा दी। सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी करके सभी सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस के षिविरों में जाने से मना कर दिया है। अगर कोई सरकारी कर्मचारी आरएसएस के षिविरों में पाया जाता है तो सरकार उस पर कार्यवाही करेगी। लोगों में इसके खिलाफ हर ओर गुस्सा है। ऐसे में आखिर क्यों कर रही है सरकार ऐसा। क्यों उठाया है सरकार ने ऐसा देषद्रोही कदम। क्या है सरकार की नियत। क्या सरकार केंद्र सरकार के कहने पर ये कदम उठा रही है। क्या सरकार विदेषी षक्तियों के दवाब में ऐसा कदम उठा रही है। या फिर सरकार को आरएसएस के षिविरों में कुछ गलत लग रहा है। लोग कह रहे हैं कांग्रेस सरकार स्वयंसेवकों से डर गई है। कांग्रेस सरकार एक बार फिर आत्मघाती कदम उठा रही है। जिस तरह इंदिरा गांधी ने सभी स्वयंसेवकों को जेल में डलवा दिया था। इसके बाद इंदिरा गांधी को देष में मुंह की खानी पड़ी थी। पूरे देष में इस कदम से लोगों में आक्रोष की लहर दौड़ गई थी। आज फिर देष में ऐसा ही होने जा रहा है। लोग सवाल पूछ रहे हैं आखिर क्यों राजस्थान सरकार लोगों को षिविरों में जाने से रोक रही है। क्यों लोगों को देष की संस्कृति से दूर किया जा रहा है। क्यों लोगों को देष की हकीकत जानने से रोका जा रहा है। क्या चाहतीं है आज की ये भ्रश्ट सरकारें। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि ये सरकारें आधुनिकता के नाम पर विदेषी हाथों में खेल रही हैं। वोट बैक के लिए देष की संस्कृति को ताक पर रखा जा रहा है। वोट बैंक की वजह से ही लोगों को आरएसएस के षिविरों में जाने से रोका जा रहा है। सरकार डर गई है कहीं लोगों में राश्ट्रीय एकता ना जाग जाये। कहीं लोग भ्रश्ट और देषद्रोही सरकारों की हकीकत ना जान जायें। क्योंकि सरकार की हकीकत जानने के बाद आम आदमी सरकार से कट सकता है। दो समुदायों में भाईचारा बढ़ सकता है। क्योंकि कांग्रेस सरकार लोंगों को हिंदूत्व और हिंदुओं से डर दिखाकर ही लोगों का वोट एंठती है। लोगों को कांग्रेस सरकार हिंदुत्व की सही हकीकत नही जानने देती। क्योंकि हिंदुत्व का डर दिखाकर ही सरकार लोगों का वोट हांसिल करती हैं। लेकिन आज लोग हकीकत जान गये हैं। जाने भी कैसे नही। जिन स्वयंसेवकों को सरकार बदनाम करती है उन्होने तो अपनी सारी जिंदगी सामाजिक सदभाव बनाने में बिता दी। ऐसी सरकारें यही सदभाव समाज में नही बनने देना चाहतीं। आज केसी सुदर्षन का उदाहरण सबके सामने हैं। कैसे सुदर्षन जी ने अपनी सारी जिंदगी देष की सेवा और देष में सामाजिक सौहादर्य बनाने में बिता दी। आज उन्ही कदमों पर चलने से रोका जा रहा है आम आदमी को भ्रश्ट सरकारों द्वारा। अब समय आ गया है ऐसी सरकारों की हकीकत बताने का। 

29 September 2012

7,721 रुपये की थाली गरीबो का मजाक नहीं है ?

हम आपको बता रहे हैं उस सरकार की हकीकत। जिसने देष में गरीबी की परिभाशा दी है। जिसके मंत्री हमेषा आम आदमी की बात करने का दिखावा करते है। सभी मंत्रालयों को खर्च कटौती के फरमान का दिखावा होता है। लेकिन गरीबों को उनकी औकात बताने वाली सरकार, गरीबों के पैसे से ऐष करती है। जी हां ऐसी ही हकीकत सामने आयी है सरकार की हाईप्रोफाइल पार्टी की। यूपीए2 की तीसरी साल ग्रह पर प्रधानमंत्री आवास पर भोज दिया गया। उसमें सरकार के सभी मंत्री, सांसद, विधायक और समर्थक दलों के सभी षुभचिंतक षामिल हुए। जिसमें मेहमानों की संख्या 375 रही। पूरी पार्टी में सिर्फ भोज पर 2895503 रू खर्च हुए। ये बात हम नही कह रहे हैं, खुद पीएमओ ने ही ऐसी जानकरी दी है। दरअसल एक आरटीआई रिपोर्ट में ये बात सामने आयी है। हरियाणा के आरटीआई कार्यकर्ता रमेष वर्मा को ये जानकारी दी गई है। ये वही पीएमओ आफिस है जिसने 28 रू. रोज खर्च करने वालों को गरीब मानने से इंकार कर दिया था। मोंटेक सिंह आहलुवालिया षहरो में 32रू और गांवों में 28 रू. खर्च करने वालों को गरीब नही मानते। लेकिन उसी पीएमओं के फिजूल खर्चे आपके सामने हैं। सरकार कहती है गरीब एक दिन में 16 रू खाने पर खर्च कर सकता है। अगर इससे ज्यादा कोई खर्च करता है तो उसे गरीब नही माना जायेगा। उसे कोई भी सरकारी लाभ नही दिया जायेगा। अब ऐसे में आप, ये तो खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे कोई परिवार 16 रू. में खाना खा पायेगा। ऐसे में लोग सवाल कर रहे हैं। ये सरकार गरीबों का मजाक उड़ा रही है। खुद हजारों की थाली खाती है और गरीबों को गरीब ही मानने से इंकार करती है। ऐसी सरकार से आम आदमी क्या उम्मीद लगा सकता है। क्या ऐसी सरकार के नेतृत्व में देष तरक्की कर सकता है। क्या ऐसी सरकार देष से वाकई गरीबी खत्म कर सकती है। जी नही। आज आम में आदमी हर ओर गुस्सा है। जैसे जैसे सरकार के कारनामें खुलकर बाहर आ रहे है। वैसे वैसे लोगों का गुस्सा अपने चर्म पर पहुंच रहा है। लोग कह रहे है आम आदमी की बात करने वाली सरकार के नेतृत्व में आम आदमी और गरीब हो गया है। हर और लूट मची है। लेकिन सरकार आम आदमी को नसीहत दे रही है। प्रधानमंत्री कहते हैं पैसे पेड़ से नही झड़ते। पैसे के लिए प्राकृतिक सांसाधनों को बेचना पड़ता है। लेकिन आज लोगों को पैसे की हकीकत पता चल गई। जिन संसाधनों पर आम आदमी का हक है वो भ्रश्ट मंत्रियो की जेब में जा रहे हैं। सरकारी पार्टियों पर उड़ाये जा रहे हैं। देष के गरीबों को एक वक्त की रोटी नसीब नही होती। मगर सरकारी पार्टियों में एक थाली की किमत इतनी होती है, जिससे आम आदमी महिनों अपना पेट भर सकता है। जी हां यही है हकीकत आज हमारी सरकार की। ऐसे ही उड़ाया जा रहा है आम आदमी का पैसा। यूं ही भूंखा मरने को मजबूर हो रहा है देष का आम आदमी। 


                               सरकार की थाली

नान वेज झींगा कसूंदी गोष्त बुर्रा कबाब  फिष मालाबारी चिकन चेट्टिनाड।

वेजिटेरियन बधारी बैंगन दम आलू कष्मीरी बींस गाजर मटर केवटी दाल तेह बिरयानी बेबी नान मटर परांठा मिस्सी रोटी लच्छा परांठा ताजा हरा सलाद, मूंग दाल स्प्राउट।

चाट काउंटर गोलगप्पा आलू की टिक्की दही पापड़ी की चाट पाव भाजी धनिया आलू चाट टमाटर सलाद फ्रूट चाट बींस और मसरूम सलाद दही भल्ला सादा दही आचार पापड़ और चटनी।

खाने से पहले वाटर मेलन जूस कोकोनट वाटर आम पना जलजीरा फ्रूट पंच रोस्टेड बादाम,काजू।

                                                                              कुल मुल्य- 7721

                                    गरीब की थाली

अनाज दाल दुध खाद तेल अंडा मछली मीट सब्जियां ताजे फल ड्राईफ्रूट चीनी नमक एंव मसाले।

                                                                           कुल मुल्य- 16 रूपये

28 September 2012

क्या जाकिर नाईक को जेल में डाल देना चाहिए ?

इस्लाम के तथाकथित विद्वान् डा. जाकिर नाईक के खिलाफ देश भर के गणेश भक्त लामबंद हुये। जाकिर ने अपने फेसबुक पे लिखा है की गणेश जी भगवान है ऐसा सिद्ध कर दीजिये, मै प्रसाद लेने को तैयार हुं। मालूम हो, जाकिर नाइक हमेशा इस्लाम और हिन्दू धर्म की तुलना करते है और हमेशा ही इस्लाम छोड़के सारे धर्मो का अपमान करते है। पीस चैनल से धार्मिक प्रचार करने वाले कटटरपंथी इस्लामिक विद्वान डा जाकिर हुसैन ने एक बार फिर हिंदुओं की आस्था से खिलवाड़ किया है। एक बार फिर हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। जी हां अबकी बार जाकिर नाईक ने गणेषोत्सव के मौके पर हिंदुओं के पूज्य गणेष जी का अपमान किया है। मुसलमान हज जाते हैं, दरगाह जाते है। इसके अलावा भी अपनी श्रद्धा के अनुसार कहां कहां जाते हैं क्या कभी मुसलमानों से पूछा है वो क्यों दरगाह जाते हैं। क्यों पत्थर मारने की रस्म अदा करते हैं। क्यों वो अल्लाह को अपना परवरदिगार मानते हैं। क्या कभी जाकिर हुसैन ने मुसलमानों से पूछा है। क्यों पत्थर की रस्म अदा करते हो। क्यों अल्लाह में इतनी श्रद्धा दिखाते हो। जी नही। क्योंकि उनके अनुसार इस्लाम के अलावा सभी धर्म तुच्छ हैं। जाकिर हुसैन ओसामा बिन लादेन को अतंकी मानते हैं। सभी मुसलमानों को ओसामा की तरह आतंक फैलाने की बात कहते हैं। हर मुसलमान को ओसामा की तरह जीने का हुक्म देते हैं। तो क्या कहेंगे ऐसे इंसान को आप। क्या कहेंगे ऐसे इंसान की विचार धारा को आप। ये गणेष जी का ही अपमान नही है। पूरी हिंदू संस्कृतिका अपमान है पूरे हिंदु धर्म का अपमान र्है। आज हर ओर जाकिर हुसैन के खिलाफ गणेष भक्तों में गुस्सा भर गया है। मुम्बई हाई कोर्ट के वकील सुभाश नलावड़े ने कुर्ला थाने में जाकिर हुसैन के खिलाफ लोगों में धार्मिक भावना भड़काने के लिए एफआइआर दर्ज करने की माग की है। नाईक के इस बयान से करोड़ों लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची है। इसके खिलाफ लोग षांतिपूर्वक अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। हिंदुजनजागृति संस्कृति के लोगों ने भी पुलिस स्टेषन जाकर जाकिर हुसैन के खिलाफ विरोध दर्ज कराया है। क्या कहेंगे ऐसे लोगों का मानसिकता को आप। जो गणेषोत्सव हमारी एकता और देषप्रेम का प्रतीक है। जिसकी षुरूआत ही बालगंगाधर तिलक ने देषवासियों में एकता और अखण्डता की भावना पैदा करने के लिए की थी। सावरकर ने गणेषोत्सव पर छुआछूत दूर करने की भावना के साथ की थी। मगर जाकिर नाईक जैसे कटटरपंथी, लोगों की भावनाएं भड़काने के लिए गणेष जी का ही अपमान कर रहे हैं। क्यों ऐसे लोगों को खुली छूट दे रखी है सरकार ने। क्यों प्रषासन ऐसे लोगों पर कार्यवाही नही कर रहा है। क्यों ऐसे लोग खुले में समप्रदायिक भावना भड़का रहे है। आज लोग आवाज उठा रहे हैं। कि जाकिर जैसे लोगों की वजह से ही दुनिया में धार्मिक भावनाएं भड़क रही हैं। लोग कह रहे हैं ऐसे लोगों की वजह से ही दो संप्रदायों में दरार पैदा हो रही है। इसी वजह से लोग एक दूसरे की जान के दुष्मन बन गये हैं। भगवान श्री गणेष के भक्त कह रहे हैं ऐसे लोगों को तुरंत जेल में डाला जाये। क्योंकि ऐसे लोग जानबूझकर लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। क्या इस्लाम दूसरे धर्म के लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुचाने में विष्वास रखता है। जी नही। लोग कह रहे हैं। ऐसे लोग दूसरे धर्मों को तुच्छ बताकर मुसलमानों को भड़काने का काम करते हैं। लेगों में रोश है अगर ऐसे कटटरपंथी लोगों के खिलाफ कार्यवाही नही की गई तो गणेष भक्त इसके लिए एक साथ खड़े हो जायेंगे।  
                                                       
                                                  जाकिर नाईक की बेतुके बयान

1 जाकिर नाईक पूरे भारत भर में घूम-घूम कर विभिन्न मंचों से इस्लाम का दुश्प्रचार करता हैं।

2 नाईक से कोई भी सवाल किया जाये तो वह “कुर-आन” के सन्दर्भ में बात करता है।

3 जाकिर नाईक “धर्म परिवर्तन” और “अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकार” के सवाल पर इस्लाम की व्याख्या गलत ढंग से करता है।

4 नाईक के अनुसार कोई व्यक्ति मुस्लिम से गैर-मुस्लिम बन जाता है तो उसकी सज़ा मौत है।

5 नाईक के अनुसार इस्लाम में आने के बाद वापस जाने की सजा भी मौत है।

6 नाईक कहता है शरीयत के लिए नाबालिग हिन्दू लड़की भी भगाई जा सकती है।

7 नाईक कहता है- पढ़ी-लिखी वयस्क मुस्लिम लड़की किसी हिन्दू से शादी नहीं कर सकती।

8 नाईक कहता है- इस्लाम ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब बेकार हैं।

9 नाईक के अनुसार मुस्लिम लोग तो किसी भी देश में मस्जिदें बना सकते हैं लेकिन इस्लामिक देश में चर्च या मन्दिर नहीं चलेगा।