18 October 2014

क्या आबादी बढ़ाने से हीं बढ़ेगी लोकतंत्र में भागीदारी ?

आज देश के सांसद और विधायक एवं अन्य राजनेता अपने अपने भविष्य को लेकर भयभीत है। यह भय किसी आतंकवादी हमला अथवा महामारी को लेकर नही है अपितु यह भय भारत सरकार द्वारा बनाया गया ‘डीलिमिटेशन कमीशन‘ द्वारा दी गयी रिपोर्ट से व्यापत हो गया है। इससे एक नया सिस्टम आरक्षण के लिए बना है, जिस कारण भारत में देश की संसद एवं विधायिकाओं में आरक्षित सीटों की संख्या में स्वतः ही भारी वृद्धि हो जाती है।

इसका साफ अर्थ यह हुआ कि आने वाले समय में देश की लोकसभा एवं विधान सभा और अधिक आरक्षित होगी और भविष्य में देश में जातिवादी विभाजन को और ज्यादा ताकत मिलने वाली है। कमीशन को यह कार्य एवं अधिकार दिया गया है कि देश राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों में देश की जनसंख्या की संरचना के ढांचे का जातिगत अध्ययन करें और उसके आधार पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए नयी आरक्षित सीटों का चयन करें।

भारत सरकार के द्वारा जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बने इस आयोग के सुझावों पर अगर अमल होता है तो बड़ी संख्या में देश के वर्तमान नेताओं के चुनाव क्षेत्र आरक्षित हो जायेंगें। उन्हें या तो राजनीति से अवकाश लेना पड़ेगा या फिर उन्हें किसी नये चुनाव क्षेत्र का चयन करना पड़ेगा। इसके साथ ही साथ देशभर में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक राजनेताओं की एक नयी फौज को सामने आने का रास्ता साफ होगा।

धर्म निरपेक्षता एवं सामाजिक न्याय का ये नायब उदहारण है। इस नये आकलन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिन्दु बहुल क्षेत्रों पर ही पड़ेगा क्यांकि एक तो पिछले कुछ दशकों में देश में मुस्लिम आबादी एवं उनके क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है। दूसरे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से गैर मुस्लिमों का लगभग सफाया हो चुका है। इस कारण मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की जनसंख्या लगभग खत्म हो चुकी है। इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या बढने के स्थान पर घट रही है। जैसे कश्मीर घाट़ी से गैर मुस्लिम लगभग साफ हो चुके हैं इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या खत्म होने की सम्भावना हो चली है।

आयोग को आरक्षित सीटों की संख्या सुनिश्चित करने के लिए सन 2001 की जनगणना के आंकड़ो को आधार बनाने के लिए निर्देश दिये गया था । इस आधार पर आरक्षित सीटों की संख्या बढना तय है। दूसरे शहरी क्षेत्रों की सीटों की संख्या का बढना तथा ग्रामीण क्षेत्रों की सीटों की संख्या का कम होना तय है क्योंकि पिछले लगभग दो दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जर्बजस्त पलायन हुआ हैं इसी प्रकार आरक्षित वर्ग की जनसंख्या में भी भारी वृद्धि हुई है जबकि गैर आरक्षित वर्ग के हिन्दुओं की जनसंख्या घट रही है। यह तथ्य आने वाले समय में देश में भारी राजनीतिक बदलाव के होंगें। यही कारण है कि बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम माझी यहां तक कह दिए की दूसरे धर्मो में शादी कर दे पीछड़े वर्ग के लोगों को अपनी जनसँख्या बढ़ानी चाहिए। 

लोक सभा में सांसदों की संख्या का निर्धारण अनुच्छेद 81 के आधार पर किया जाता है जिसके आधार पर विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के आधार पर सीटों का बटवारा किया जाता है। इसी प्रकार देश में अनुच्छेद 82 के आधार पर संख्या निर्धारण आयोग अथवा डिलिमिटेशन कमीशन का गठन किया जा सकता है जिसके आधार पर लोक सभा एवं विधान सभाओं में विभिन्न वर्गो के लिए सीटों का निर्धारण अथवा अरक्षण होता है।

अब यह दोनों संवैधानिक अनुच्छेद देश में विघटनकारी मानसिकता बढाने के लिए उत्तरदायी हैं। जिन राज्यों अथवा वर्गो की जनसंख्या घट रही है उनको यह दंड होगा कि उनका प्रतिनिधित्व भी कम होगा इसके विपरीत जिन राज्यों एवं वर्गो की जनसंख्या अधिक होगी उनका प्रतिनिधत्व उतना ही ज्यादा होगा। इसका सीधा मतलब यह होगा कि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या बढ़ा कर देश एवं यहां के संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैं उन्हें पुरस्कृत किया जायेगा जबकि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या घटा कर राष्ट्र एवं राष्ट्र के संसाधनों की रक्षा कर रहे हैं उन्हें दण्ड दिया जायेगा।

यह भारत के महान संविधान की बड़ी विशेषताऐं हैं। इन्हीं बातों के मददेनजर दक्षिण भारत के राज्य इस तरह सीटो के निर्धारण का विरोध करते रहे है क्योंकि कुछ बीमार राज्य जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बंगाल, उड़ीसा, आबादी बढाने में बहुत आगे हैं जबकि दक्षिण के राज्य तथा पश्चिम के राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर बहुत कम है। इसी प्रकार हिन्दुओं के गैर आरक्षित वर्गो की जनसंख्या वृद्धि की दर भी बहुत कम है।

इस सत्य को ध्यान में रखते हुऐ तथा दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध के कारण संसद ने 1976 में एक संशोधन पास किया था जिसके अन्‍​र्तगत लोकसभ में सीटों की संख्या में सन 2000 तक कोई भी वृद्धि नहीं होगी। इसके बाद यह समय सीमा 2026 तक बढा दी गई है।

अगर 1981-1991 के दशक की जनसंख्या बढोत्तरी पर निगाह डाली जाये तो उत्तर भारत एवं उत्तर पूर्व के राज्यों में यह वृद्धि 22 से 28 प्रतिशत थी जब कि दक्षिण के राज्यो में 15 प्रतिशत से भी कम रही। 1991-2001 की जनगणना में यह अन्तर और बढ गया। जनसंख्या वृद्धि दर उत्तर प्रदेश में 25.74, मध्यप्रदेश में 24.34, राजस्थान में 28.33, हरियाणा में 28.06 तथा बिहार में 28.43 रही। जनसंख्या वृ​ि़द्ध की दर आसाम एवं बंगाम में तीस से भी आगे रही।

इसके विपरीत इसी दशक में केरल में सिर्फ 9.42, तमिलनाडु में 11.19, कर्णाटका मेें 17.25, आंध्रपेदश में 13.86 तथा गोवा में 14.89 रही। इससे स्पष्ट होता है कि अगर डिलिमिटेशन कमीशन के सुझावों पर अमल किया जाता है तो आने वाले वर्षो में देश में असफल राज्यों एवं असफल वर्गो का शासन होगा।

इस सत्यता को दरकिनार करते हुए सन 1998 में तत्कालीन एन डी ए सरकार ने, लोक सभा सीटों का पुर्नवितरण एवं उनकी संख्या में 50 प्रतिशत वृद्धि करने की कोशिश की थी परन्तु दक्षिण में बड़े नेताअें जैसे करूणा निधी एवं चन्द्रबाबू नायडू के कड़े विरोध के कारण वाजपेयी सरकार को अपनी कोशिश ठंड़े बस्ते में डालनी पड़ी थी।

अब एक बार पुन: केन्द्र की गठबन्धन सरकार इस योजना को लागू करने का प्रयत्न कर रहे थे । क्योंकि उसमें शामिल दो बड़े दल कांग्रेस एवं वाम परिवार को यह उम्मीद थी कि उसके लागू होने के बाद आरक्षित वर्गो की सीटों में बढोत्तरी होगी इसी के साथ इस नये सीमाकरण के बाद मुस्लिम वर्ग के सदस्यों की संख्या में भरी बढ़ोतरी होगी और यह दोनों दल अपने को देश में आरक्षण एवं इस्लाम के सबसे बड़े कोतवाल मानते हैं। इससे देश की राजनीति पर उनकी पकड़ मजबूत होगी।

सीटों के इस नये आवंटन से दक्षिण के दल, भारतीय जनता पार्टी तथा गैर आरक्षित वर्गो की राजनीति में पकड़ कम हो जायेगी। क्योंकि इनकी सीट एवं इनके क्षेत्रों में सीटों का घटना तय है। इससे स्पष्ट होता है कि सीटो का जनसंख्या के आधार पर बढवारे का वर्तमान फार्मूला अत्यन्त दोषपूर्ण है तथा यह राष्ट्र एवं समाज के हित में जरा भी नहीं है। राष्ट्र हित में यह होगा कि संविधान में संशोधन करके ऐसी व्यवस्थाओं को ही खत्म कर दिया जाये जिससे कि देश में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक ताकतों को शक्ति मिलती हो।

 अगर ऐसा नहीं होता है तो आने वाले समय में देश एक जातीय गणराज्य बन जायेगा। तथा हम दो और हमारे दो वाले मूर्ख माने जायेंगें। हम दो हमारे दस वाले सम्मानित होगें। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या अाबादी बढ़ाने से हीं बढ़ेगी लोकतंत्र में भागीदारी ?

08 October 2014

कांग्रेस की पतन और मोदी राष्ट्रवाद का उदय में आज का भारत !

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को यह कैसी पराजय का सामना करना पड़ा। पार्टी की इतनी फजीहत 1977 में भी नहीं हुई थी जब इमरजेंसी के कथित अत्याचारों व जबरिया नसबंदी कार्यक्रम की वजह से पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ घृणा की लहर चल रही थी। कांग्रेस को हालिया उपचुनाव मेंं इतनी कम सीटें मिली हैं कि उसे मान्यता प्राप्त प्रतिपक्ष का दर्जा तक नसीब नहीं हो सका। हालांकि पार्टी ने इसके लिए फिर भी दावेदारी ठोकी लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने बेआबरू करने के अंदाज में उसकी अर्जी ठुकरा दी। कांग्रेस नेतृत्व से अपेक्षा थी कि इन हालातों में पार्टी को बचाए रखने के लिए हार के कारणों का पारदर्शी मंथन कर वह भविष्य के लिए कोई आक्रामक और तेजतर्रार रणनीति बनाएगी पर इसकी कवायद नदारद है। पार्टी इस मामले में चुनाव के चार महीने गुजर जाने के बाद भी दिग्भ्रम की स्थिति में है।

कांग्रेस ने आजादी के बाद से नेहरू वंश को चमत्कारिक ब्रांड के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित कर उसके सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखने का सफल प्रयास किया है। यही कारण है कि जब राजीव गांधी की अचानक हत्या के बाद सोनिया गांधी पार्टी और सरकार की जिम्मेदारी संभालने को तैयार नहीं हुईं तो कांग्रेस अनाथ हालत में पहुंच गई थी। नरसिंहा राव ने अंततोगत्वा जिम्मेदारी संभाली लेकिन उन्हें अंत तक पार्टी के प्रमुख लोगों की स्वीकृति नहीं मिल सकी। पार्टी में उनके समय जबरदस्त बिखराव हुआ। बाद में जब तक सोनिया गांधी ने पार्टी का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी संभालना कबूल नहीं किया तब तक कांग्रेस की नैया डंवाडोल ही बनी रही। सोनिया गांधी के संघर्ष से 2004 में जब आठ वर्ष बाद कांग्रेस को केेंद्र की सत्ता में वापसी का मौका मिला तो पार्टी के आम से लेकर खास लोगों तक के इस यकीन की पुष्टि हो गई कि नेहरू वंश का नेतृत्व उसके लिए खरा सिक्का है और उसकी अगुवाई में पार्टी सत्ता में अपना अविरल प्रवाह बनाए रखने में हमेशा सफल रह सकती है।

बहरहाल नेहरू वंश की चौथी पीढ़ी के चिराग राहुल गांधी को इसी कारण कांग्रेस का भविष्य सौंपने का पार्टी जनों ने बड़े गाजेबाजे के साथ स्वागत किया था। वैसे तो 2009 के चुनाव के बाद ही मनमोहन सिंह की जगह राहुल गांधी द्वारा लिए जाने का विश्वास कांग्रेसी संजोए थे लेकिन खुद राहुल ऐन मौके पर इससे पीछे हट गए लेकिन अबकी बार चुनाव के पहले मनमोहन सिंह ने सरकार की जिम्मेदारी फिर न संभालने की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी जिससे यह तय माना जाने लगा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में वापस आती है तो सरकार की बागडोर राहुल गांधी ही संभालेंगे। इसके बावजूद कांग्रेस चुनाव में बुरी तरह मात खा गई। पार्टी के लिए यह जबरदस्त सदमा है। नेहरू परिवार का तिलिस्म इससे टूटा। जाहिर है कि उसकी जादुई ताकत पर अटूट विश्वास करने वाली पार्टी इससे हतप्रभ होकर किंकर्तव्य विमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई।

चुनाव के हार के कारणों को जानने के लिए पार्टी ने एके एंटोनी कमेटी का गठन किया था। इसके आधार पर पार्टी की कमियां दूर कर नए ढंग से राजनीतिक संघर्ष का सफर शुरू करने का इरादा बनाया गया था लेकिन एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाली जा चुकी है। पार्टी नेतृत्व को कोई फैसला लेते न देख हताशा में डूबे कांग्रेसी अब बेचैन होने लगे हैं। यहां तक कि राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल मुखर हो उठे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार की भूमिका अदा करते रहे दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने भी राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर परोक्ष में संदेह जताने में कसर नहीं छोड़ी। स्वाभाविक है कि राहुल के समर्थकों में इससे जबरदस्त बौखलाहट पैदा हुई। पार्टी के युवा सचिवों ने संयुक्त रूप से राहुल के नेतृत्व पर उंगली उठाने वालों के खिलाफ ज्ञापन बाजी शुरू कर दी। इस अंर्तद्वंद्व के बढऩे से पार्टी को और ज्यादा नुकसान संभावित था। जल्द ही जब पार्टी नेतृत्व को इसका आभास हो गया तो सचिवों को आगाह किया गया कि वह अपनी शिकायत मीडिया तक ले जाने से बाज आएं लेकिन सचिवों की इस गोलबंदी ने एक उद्देश्य पूरा कर दिया। इससे दिग्विजय सिंह व पार्टी के अन्य क्षुब्ध नेताओं की बोलती फिलहाल बंद हो गई है।

बावजूद इसके यह नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस का संकट टल गया है। राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर पार्टी के लोगों में ही नहीं आम जनों में भी पर्याप्त अविश्वास पनप चुका है। राहुल को केेंद्र बिंदु बनाकर नेहरू वंश के करिश्मे का लाभ उठाने की अब बहुत कम उम्मीद रह गई है। हद तो यह है कि इसके बावजूद राहुल निर्णायक मौके पर रणछोर देसाई बनने की अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहे। सोनिया गांधी प्रियंका कार्ड खेलने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस का पुर्नउत्थान हो तो कैसे हो। कांग्रेस पार्टी ईमानदारी से इस पर चिंतन करने से डर रही है। कांग्रेस को यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। नेहरू जी के समय और आज के समय में बहुत अंतर आ चुका है। तब देश के नेताओं को लेकर लोगों के मन में रूमानी आकर्षण रहता था। आज भारतीय लोकतंत्र बहुत परिपक्व हो चुका है और आज का मतदाता किसी फंतासी में नहीं जीता। इस कारण आज सर्वोच्च नेता की आलोचना के प्रति इंदिरा युग जैसी असहिष्णुता से काम नहीं चल सकता। जब इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा जैसे नारे ईजाद किए जाते थे और लोगों का समर्थन उन्हें मिलता था। आज मतदाता किसी नेता के प्रति अंध आस्था नहीं रखता इसलिए राहुल के ऊपर हमला होता है तो बहुत कटु प्रतिक्रिया की जरूरत नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस को जीवंतता बनाए रखने के लिए अब नेतृत्व की कार्यशैली की समालोचना सुनने और करने की आदत डालनी पड़ेगी। पार्टी के नेताओं की नेतृत्व के प्रति शिकायत में अगर जनभावना का प्रतिविंब है तो नेतृत्व को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाकर इसमें सुधार करके सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

राहुल गांधी में सबसे बड़ी कमी यह है कि वह जब जोश में होते हैं तो बहुत क्रांतिकारी भाषण करते हैं लेकिन जैसे ही भावनाओं का उफान शांत हो जाता है वे मांद में चले जाते हैं। क्रांतिकारी विचारों को अमली रूप देना ही नेता को प्रमाणिक बना सकता है अन्यथा उसकी गिनती लफ्फाजों में होना तय है। राहुल गांधी के समर्थक पार्टी में उनके विरोध में मुखर हो रहे सीनियर नेताओं को निशाने पर लेने के लिए इस अंदरूनी उठापटक को घाघों और मासूम युवाओं के बीच के संघर्ष के रूप में पेश करने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं लेकिन इस मामले में व्यवहारिक स्तर पर राहुल इतने लचर हैं कि युवा इस रणनीति से बिल्कुल भी संवेदित नहीं हो रहे।

युवाओं को जो चीजें अपील करती हैं राहुल और उनके समर्थकों को उसका ज्ञान नहीं है। युवाओं को या तो उदंडता अपील करती है जैसे कि वीर भोग्या वसुंधरा के सिद्धांत पर विश्वास करने वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के प्रति युवाओं का आकर्षण। दूसरी रेडिकल विचारधारा जिसमें हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसे जज्बाती मुद्दे भी शामिल हैं और जिसका फायदा मोदी ने उठाया। इसके पहले दुनिया भर के रक्तिम वामपंथी तख्ता पलटों की वजह से कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति युवाओं में जबरदस्त समर्पण देखने को मिलता था लेकिन राहुल के दर्शन में युवाओं के लिए इन दोनों जरूरी तत्वों में से एक भी नहीं हैं। वे सुविधाभोगी और बड़े घरों के युवाओं की टोली का प्रतिनिधित्व करते हैं। आम युवा की निगाह में यह खलनायक हैं। राहुल का युवा किसी ऊर्जा का विस्फोट करने वाला युवा नहीं है। राहुल गांधी को आमूल व्यवस्था परिवर्तन का ऐसा नक्शा पेश करना पड़ेगा जो आदर्शवादी युवाओं में उन्माद की स्थिति उत्पन्न कर सके। यही मोदी और आरएसएस का कारगर जवाब हो सकता है लेकिन फिलहाल राहुल गांधी ऐसा कर पाने की कल्पना से कोसों दूर हैं। ऐसे में अब देखना ये है की कांग्रेस की पतन और मोदी राष्ट्रवाद का उदय में आज का भारत किस ओर जाता है!