30 November 2013

क्या सांप्रदायिक हिंसा हमारे देश का नासूर बन गया है ?

सांप्रदायिक हिंसा हमारे देश का नासूर बनी हुई है, विशेषकर पिछले तीन दशकों से। सन् 1980 के बाद से इसने भयावह रूप अख्तियार कर लिया है। देश में समय-समय पर बड़ी संख्या में निर्दोष लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ते रहे हैं। परंतु इसके समानांतर एक अन्य प्रक्रिया भी चल रही है। और वह है दंगे करवाने वालों की सामाजिक स्वीकार्यता में बढ़ोत्तरी। हिंसा का स्त्रोत न तो हिंसा करने वाले के हाथ होते हैं और ना ही उसके हाथ में पकड़े हुए हथियार। हिंसा की शुरूआत दिमाग में होती है और इसके पीछे होती है नफरत-दूसरे समुदाय के हर सदस्य के प्रति घृणा का भाव। इस नफरत को पैदा किया जाता है इतिहास को तोड़-मरोड़कर और वर्तमान के बारे में झूठ की धुंध फैला कर। हिंसा की प्रकृति कभी एक सी नहीं रहती। वह समय और स्थान के साथ बदलती रहती है। पहले दंगे शहरों तक सीमित हुआ करते थे, अब उनकी पहुंच कस्बों और गांवों तक हो गई है। दंगे वे लोग भड़काते हैं जिन्हें उनसे राजनैतिक या चुनावी दृष्टि से लाभ होने की उम्मीद होती है। हिंसा करने के लिए लड़ाकों के दस्ते तैयार करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय के मन में अल्पसंख्यकों के प्रति भय उत्पन्न किया जाता है। अल्पसंख्यक दानव हैं, हिंसक हैं और बहुसंख्यकों के खून के प्यासे हैं-इस झूठ को इतनी बार दोहराया जाता है कि वह सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन जाता है। यही कारण है कि नफरत फैलाने वाले लोग यह दावा भी करते हैं कि वे ‘अपने समुदाय’ व ‘अपने धर्म’ की रक्षा कर रहे हैं। यही कारण है कि खून-खराबे और हिंसा के बाद उनके राजनैतिक कद में कुछ बढ़ोत्तरी हो जाती है। 

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की 21 नवंबर 2013 को आयोजित एक आमसभा में भाजपा के दो ऐसे विधायकों का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया, जिन पर यह आरोप है कि उन्होंने ‘‘हमारी बहनों-माताओं की इज्जत खतरे में’’ की थीम पर नफरत फैलाने वाले भाषण दिए और बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों के विरूद्ध भड़काया। उनमें से एक ने दो युवकों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारे जाने की एक वीडियो क्लिप, फेसबुक पर अपलोड की। वह क्लिप पाकिस्तान की थी परंतु यह बताया गया कि संबंधित घटना मुजफ्फरनगर में हुई है। भाजपा के इन दो विधायकों संगीत सोम और सुरेश  राणा, जिन पर मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का आरोप है, का आगरा में मोदी की सभा में सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। चतुर रणनीति के तहत, नफरत के इन सौदागरों का सम्मान, सभा स्थल पर मोदी के आने के पहले कर दिया गया। इन विधायकों को दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और वर्तमान में वे जमानत पर रिहा हैं। हम दंगे के आरोपियों के सार्वजनिक अभिनंदन को किस रूप में देखें? क्या खून-खराबा करने वाले लोग स्वागत व अभिनंदन के अधिकारी होते हैं?

पिछले दो-तीन दषकों में हमने तीन बड़े कत्लेआम देखे हैं-दिल्ली (सिक्ख-विरोधी), मुंबई व गुजरात (मुस्लिम-विरोधी) व कंधमाल (ईसाई-विरोधी)। जो दो नेता मुंबई और गुजरात की हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, वे बाद में ‘‘हिन्दू ह्दय सम्राट’’ बनकर उभरे। पहले थे बाला साहब ठाकरे। मुंबई हिंसा में उनकी भूमिका का वर्णन श्रीकृष्ण आयोग की रपट में किया गया है। रपट कहती है कि ठाकरे ने एक जनरल की तरह हिंसा का नेतृत्व किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘जो बातचीत सुनाई दे रही थी (महानगर के संवाददाता युवराज मोहिते को, दंगों के दौरान, ठाकरे के घर पर) उससे यह साफ था कि ठाकरे, शिवसैनिकों, शाखा प्रमुखों और शिवसेना के अन्य कार्यकर्ताओं को मुसलमानों पर हमले करने के निर्देश  दे रहे थे ताकि उन्हें उनकी करनी का फल मिल सके। वे यह भी कह रहे थे कि एक भी ‘लण्ड्या’ (मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला एक अपमानजनक शब्द) गवाही देने के लिए जीवित नहीं बचना चाहिए।’’ (खण्ड-2 पृष्ठ 173-174)। रिपोर्ट में जिस तरह से उनकी भूमिका का वर्णन किया गया है उससे किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक है कि उन्हें कड़ी सजा मिलनी थी। सजा मिलना तो दूर रहा, उन्हें गिरफ्तार तक नहीं किया गया। उल्टे वे आम हिन्दुओं को यह संदेष देने में सफल रहे कि उनके व उनके लड़कों शिवसैनिकों) के कारण ही हिन्दू सुरक्षित हैं। और उन्हें हिन्दू ह्दय सम्राट कहा जाने लगा। हिंसा से उनकी पार्टी षिवसेना को बहुत लाभ हुआ और दंगों के बाद हुए चुनाव में वह महाराष्ट्र में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफल हो गई।

जहां तक गुजरात कत्लेआम का प्रष्न है, उसके बारे में कोई आधिकारिक रपट अब तक सामने नहीं आई है परंतु ‘‘’सिटीजन फॉर जस्टिस एण्ड पीस’ के प्रयासों से गुजरात में हुई जनसुनवाइयों से यह साफ हो गया है कि राज्य में हुई हिंसा में मोदी की भूमिका थी। ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिकरण’ ने अपनी रपट में हालात का विवरण इन शब्दों में किया है ‘‘...राज्य के विभिन्न अंग, मुसलमानों पर हुए शुरूआती हमलों और उसके बाद लंबे समय तक चली हिंसा में भागीदार थे। राज्य व केन्द्र दोनों की सरकारों ने गुजरात हिंसा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस हिंसा में शामिल था मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की जान लेना, उनकी संपत्ति को नष्ट करना और उनकी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार करना। राज्यतंत्र की मिलीभगत के बगैर, न तो हिंसा लंबे समय तक चलती रह सकती थी और ना ही मुस्लिम समुदाय को उसके अधिकारों से वंचित किया जा सकता था। गुजरात सरकार की नीतियां और कार्यक्रम, दोनों पर संघ परिवार का गहरा असर है। और यह असर कत्लेआम के पहले और उसके तुरंत बाद की अवधि में, राज्य की एजेन्सियों के व्यवहार में स्पष्ट झलकता है’’।

इस व्यापक नरसंहार के बाद मोदी की सत्ता और मजबूत हुई। डांवाडोल हो रही गुजरात की भाजपा सरकार, मोदी के नेतृत्व में बहुत शक्तिशाली होकर उभरी। मोदी अपनी पार्टी के गुजरात के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता बन गए। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट नजर आता है। और इसके पीछे का कारण भी वही है जो मुंबई हिंसा के मामले में था। जहां निष्पक्ष प्रेक्षक हिंसा में मोदी एण्ड कंपनी की भूमिका को देख सकते हैं वहीं आम हिन्दू यही सोच रहा है कि मोदी के कारण ही हिन्दुओं व उसके धर्म की रक्षा हो सकी और अल्पसंख्यकों को उनकी औकात बता दी गई। इसी हिंसा के बाद से मोदी को भी हिंदू हृदय सम्राट कहा जाने लगा। कंधमाल में ईसाई-विरोधी हिंसा में दो भाजपा नेताओं मनोज प्रधान और अशोक साहू की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने वहां हिंसा भड़काई थी। चमत्कारिक रूप से, इसके तुरंत बाद वे राजनीति की सीढि़यां तेजी से चढ़ने लगे और चुनाव जीतकर विधायक बन गए। माया कोडनानी, जो इन दिनों गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका के लिए जेल में हैं, को भी मंत्री पद, कत्लेआम में उनकी भूमिका के इनाम बतौर मिला था। अपराध करो और इनाम पाओ।

आगरा में हुए सार्वजनिक अभिनंदन का एक अन्य पहलू भी महत्वपूर्ण है। मुजफ्फरनगर के आरोपियों का स्वागत मोदी के मंच पर आने से पहले किया गया। यह एक धूर्ततापूर्ण चाल थी। इसके दो उद्देष्य थे। पहला था हिन्दू समुदाय को यह विष्वास दिलाना कि संघ व भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेण्डे पर चलते रहेंगे। दूसरी ओर, परिवार मोदी की छवि विकास पुरूष की बनाए रखना चाहता है। आम चुनाव नजदीक हैं और संघ-भाजपा-मोदी बहुआयामी रणनीति अपना रहे हैं। वे ‘विकास’ की बात कर रहे हैं। गुजरात हिंसा में मोदी की भूमिका को परे रखकर, वे ‘गुजरात मॉडल’ और गुजरात के विकास के मिथक की चुनाव के बाजार में आक्रामक मार्केटिंग कर रहे हैं। इसके साथ ही वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक हिंसा का सहारा भी ले रहे हैं। मुजफ्फरनगर इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। नीतीश सरकार से भाजपा के अलग होने के बाद से बिहार में भी सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुई हैं। दूसरी ओर, बिहार और अन्य स्थानों पर हुए आतंकी हमलों का इस्तेमाल भी समाज को ध्रुवीकृत करने के लिए किया जा रहा है। पृष्ठभूमि में राममंदिर की फिल्म तो चल ही रही है।

स्पष्टतः सांप्रदायिक ताकतें सत्ता में आने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। उनकी रणनीति स्पष्ट है। परंतु हमें न तो धार्मिक ध्रुवीकरण की आवष्यकता है और ना ही नफरत फैलाने वालों की। और ऐसे लोगों को सम्मानित करना तो किसी भी दृष्टि से हमारे हित में नहीं है। हमें चाहिए कि हम सांप्रदायिक हिंसा और भड़काऊ भाषणबाजी को अपने मानस पर हावी न होने दें। हम नफरत की बात न करें और न सोचें। दूसरे समुदायों के साथ बेहतर और सौहार्दपूर्ण रिश्तों का निर्माण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, तभी हम नफरत की तिजारत करने वालों के नापाक इरादों को नाकाम कर सकेंगे।

क्या बांग्लादेशी घुसपैठ एक राष्ट्रीय समस्या बन गया है ?

हिन्दुस्तान में बांग्लादेशी घुसपैठ आज एक ऐसे नासूर बन गया है जिसका इलाज न तो सरकार के पास है और ना हीं प्रसाशन के पास। ऐसे में आज ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज हम सब के लिए एक चुनौती है। हिन्दुस्तान- बाग्लादेश की 4096 की.मी. लम्बी साझी सीमा है। जहा से आए दिन हजारों की संख्या में ये बांग्लादेशी घुसपैठिए देश की राजधानी दिल्ली सहीत विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती दे रहे है। भारत सरकार के बोर्डर मैनेजमेण्ट टास्क फोर्स सन् 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 2.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं।

इस घुसपैठ में देश के अंदर मौजूद असमाजीक तत्वों का पूरा सहयोग  मिल रहा है। पाकिस्तान जैसे देश में घुसपैठ की सजा 2 से 10 साल है, मगर हमारे यहा इन्हें पकड़ कर बोर्डर पे छोड़ दिया जाता है, जहा से ये वापस फिर से लौट आते है। क्या ये देश की सुरक्षा के साथ मजाक नहीं है। डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने हाल में कहा था कि बांग्लादेशी घुसपैठ देश के लिए गंभीर संकट बन गया है। इस पर जल्द विजय प्राप्त नहीं किया गया तो देश टुकड़ो में बंट जायेगा।

जुलाई 2012 में असम के कोकराझार, चिरांग व धुबड़ी जिलों तथा पश्चिम बंगाल में में हुए हालिया घटनाए इस बात की ओर इशारा करते है  की ये वाकई देश की एकता और सुरक्षा के लिए एक महत्वपूण समस्या है। आज हर तरह से ये घुसपैठिए घातक सिध्द हो रहे हैं। आज बात चाहे सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक ,आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक हो इनका प्रभाव देश के सुरक्षा की आड़े आ रहे हैं। आज ये घुसपैठिए अवैध गतिविधियों में लिप्त होकर देश की सुरक्षा के लिए एक गंभीर संकट बन गये हैं। नकली भारतीय मुद्रा का प्रसार, अवैध  शस्त्रों का व्यापार, ड्रग्स तथा तस्करी और आपराधिक कारणों से देश आज सुरक्षा संकट से घिरा हुआ है।

आज देश में जौजूद बारह लाख से अधिक ऐसे बांग्लादेशी हैं, जिन्होंने वैध दस्तावेजों के आधार पर भारत में प्रवेश किया लेकिन बाद में वे लापता हो गए और उनकी वापसी का कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं है। ऐसे में सवाल इस बात को लेकर खड़ा होता है कि क्या ये किसी गुप्त एजेंडा के तहद देश में किसी गैरकानूनी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे है? आज असम और पश्चिम बंगाल से सटे मिमावर्ती क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा लगातार जनसंख्या को बढ़ाया जा रहा है। इन क्षेत्रों में इस्लामी संस्था और मस्जिद का निमार्ण कार्य युध्द स्तर पर किया जा रहा है। जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संकट खड़ा हो गया है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या बांग्लादेशी  घुसपैठ एक राष्ट्रीय समस्या बन गया है?

क्या दिल्ली में अपराध की जड़ बांग्लादेसी घुसपैठिए हैं ?

देश की राजधानी दिल्ली में पिछले पांच साल में दिल्ली पुलिस ने सिर्फ 7000 अवैध बांग्लादेशियों को पकड़ा पाया है। मगर आज इनकी संख्या बढ़कर लाखों में हो गई है। ये घुसपैठी आए दिन दिल्ली में खुलेआम लूटपाट मचा रहे हैं। मगर सरकार और प्रसाशन हाथ पर हाथ धरे बेठे हुए हैं। कुछ दिन पहले उत्तरी दिल्ली में 1369 गिरफ्तार घुसपैठियों में से आधे से जयादा अपराध के सिलसिले में जेल भेजे गए, जबकी हजारों की संख्या में बांग्लादेसी अब तक फरार बताए जा रहे है। पुलिस के पास अब तक इनके बारे में कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे 33वें ट्रेड फेयर मेले में भी बांग्लादेशी गिरोह सक्रिय है। यह गिरोह खासकर मेले में आने वाले एनआरआई व विदेशी मेहमानों को अपना निशाना बना रहे हैं।

ये घुसपैठिए सैलानियों की पासपोर्ट पर अपनी टेढ़ीनजर गड़ाए हुए हैं । ये गिरोह पासपोर्ट चोरी के बाद बांग्लादेश में 5000 से लेकर 50,000 तक में  बेचते हैं। वहीं दूसरी तरफ मेले में पासपोर्ट चोरी के लगातार मामले सामने आ रहे हैं। अब तक 40 से ज्यादा पासपोर्ट चोरी के मामले सामने आ चुके हैं। इसके अलावा मोबाइल व अन्य छोटे मोटे सामान चोरी करने के आरोप में घुसपैठियों की गिरोह को पकड़ा गया है। पुलिस सूत्रों की माने तो यह गिरोह इन चोरी के पासपोर्ट को बांग्लादेश में अपने आकाओं को बेच देते हैं। उसके बाद वह पासपोर्ट आंतकी संगठनों के हवाले कर देते हैं। विदेशी नागरिकों की पासपोर्ट की कीमत लाखों रुपए तक होती है।

तिहाड़ जेल में इस समय 391 खतरनाक बांग्लादेशी अपराधी गिरोह सदस्य विभिन्न अपराधों में बंद हैं। मगर पुलिस सुत्रों की माने तो ये गिरोह जेल से ही अपने नेटर्वक को संचालित कर रहे है। बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल चोरी, हत्या व लूट जैसी वारदातों में लिप्त पाए जा रहे हैं, बल्कि ड्रग्स तस्करी व नकली नोटों का धंधा कर देश की अर्थव्यवथा को भी हानी पहुंचा रहे हैं। इतनी गंभीर समस्या होने के बावजूद इसके तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं है। 2005 में दिल्ली कैंट इलाके से पकड़ा गया एक बांग्लादेशी नागरिक गुलाम मुस्तफा ने सेना की मेस में दो  साल से कुक की नौकरी भी कर चुका हैं। 31 जुलाई को दिल्ली के त्रिनगर में एक घुसपैठी को चोरी करते पकड़ा गया। वारदात का सामान उसके पास से बरामद होने के बाद उसे जेल भेज दिया गया है। दिल्ली पुलिस ने हाल ही में एक ऐसे नेटर्वक को पकड़ा था जो लोगों को नकली डॉलर देकर भारतीय नोट से बदलने का कारोबार कर रहे थे। 

पिछले साल दिसंबर में दयानंद विहार में रेलवे लाइन के नजदीक स्थित घरों में घुस कर हथियारों के दम पर एक साथ कई लोगों को बंधक बनाकर बांग्लादेसी घुसपैठियों ने लूटपाट की थी। आजादपुर मंडी में घुसपैठियों ने इस कदर आतंक मचा रखा कि कारोबारी इनके भय से सहमे हुए है। बांग्लादेशी बदमाश दिल्ली आकर ताबड़तोड़ वारदातों को अंजाम देकर लाखों की जूलरी और नकदी के साथ अपने देश लौट जाते हैं। लूट के माल से उन्होंने वहां कारोबार खड़ा कर लिया है। तो वहीं कई बदमाश लूटे गए माल को बेचकर वहां साहूकार बन गए हैं। वहां पर उनकी गिनती जमींदारों के रूप में होने लगी है, बावजूद इसके दिल्ली में बांग्लादेशी बदमाशों का आतंक खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या दिल्ली में अपराध की जड़ बांग्लादेसी घुसपैठिए ही हैं?

दिल्ली में बांग्लादेशी घुसपैठिओं का आतंक !

  • पिछले साल 17 अक्टूबर को जाकर खैरूल नामक घुसपैठिए ने दिल्ली के एक व्यक्ति को धारदार हथियार से वार कर उसका मर्डर कर दिया था।
  • इसी साल 31 जुलाई की रात घुसपैठिए घुसपैठीए ने त्रिनगर में एक डॉक्टर के घर में घुस कर 19 हजार रुपये और पांच सेलफोन चोरी किए।
  • घुसपैठिए के पास से दिल्ली पुलिस ने 12 हजार रुपये और आईफोन बरामद किया गया।
  • कुख्यात बांग्लादेशी बदमाश दुलाल ने अपने साथियों के साथ मिलकर दिल्ली में कई सनसनीखेज डकैती की वारदातों को अंजाम दिया।
  • दिल्ली की विभिन्न डिस्ट्रिक्ट की पुलिस दुलाल को लंबे समय से तलाश कर रही है।
  • बांग्लादेशी नागरिक गुलाम मुस्तफा ने सेना की मेस में दो साल तक कुक की नौकरी की।
  • दिल्ली पुलिस ने हाल ही में एक ऐसे नेटर्वक को पकड़ा था जो लोगों को नकली डॉलर  देकर भारतीय नोट से बदलने का कारोबार कर रहे थे।
  • पिछले साल दिसंबर में दयानंद विहार में रेलवे लाइन के नजदीक स्थित घरों में घुस कर हथियारों के दम पर एक साथ कई लोगों को बंधक बनाकर घुसपैठिए घुसपैठियों ने लूटपाट की थी।
  • आजादपुर मंडी में घुसपैठिए घुसपैठियों की आतंक से कारोबारी सहमे हुए है।
  • दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे 33वें ट्रेड फेयर मेले में भी बांग्लादेशी गिरोह सक्रिय है।
  • घुसपैठिए घुसपैठियों का गिरोह मेले में आने वाले एनआरआई व विदेशी मेहमानों को अपना निशाना बना रहे हैं।
  • बांग्लादेशी घुसपैठिए पासपोर्ट चोरी करने के बाद बांग्लादेश में 5000 से लेकर 50,000 तक में  बेचते हैं।
  • बांग्लादेशी घुसपैठिए चोरी के पासपोर्ट को बांग्लादेश में अपने आकाओं को बेच देते हैं।
  • विदेशी नागरिकों की पासपोर्ट की कीमत लाखों रुपए तक होती है।
  • दिल्ली के तिहाड़ जेल में इस समय 391 खतरनाक बांग्लादेशी अपराधी विभिन्न अपराधों में बंद हैं।
  • ये गिरोह जेल से ही अपने नेटर्वक को संचालित कर रहे है।
  • बांग्लादेशी घुसपैठिए चोरी, हत्या, लूट, ड्रग्स तस्करी, नकली नोटों का धंधा जैसी वारदातों में लिप्त पकड़े जा रहे है।

रेप के खिलाफ बढ़ता सामाजिक जागरूकता !

देश में रेप के खिलाफ खड़े किये गये माहौल की पहली खेप सामने आ चुकी है। राजनेता, नौकरशाह, धर्मगुरू, न्यायाधीश और मीडिया से जुड़े लोग अब तक ऐसी शिकायतों का शिकार हो चुके हैं जिसमें कहीं न कहीं किसी न किसी महिला ने नामी लोगों के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत की है और उस शिकायत के आधार पर आरोपी व्यक्ति के खिलाफ सिर्फ कानूनी कार्रवाई नहीं हुई है बल्कि सामाजिक बदनामी, विरोधियों की राजनीति सबकुछ अंजाम दिया गया है। ऐसा लगता है कि देश में रेप के खिलाफ खड़े किये गये माहौल का इस्तेमाल अब बड़ी चालाकी से विरोधियों को निपटाने के लिए किया जा रहा है। बजरंग मुनि मानते हैं कि आखिरकार ऐसे कानूनों और उन कानूनों की असामाजिक प्रसंशा से समाज विरोधी शक्तियां को मदद मिलेगी और वे इसका दुरूपयोग करेंगे। 

दुनिया में और विशेषकर भारतीय राजनीति में एक धारणा सफलता पूर्वक कार्यरत रही है कि समाज को कभी एकजुट नही होने देना है। उसे धर्म, भाषा, जाति, लिंग आदि आठ आधारों पर निरंतर बॉंटकर रखना है। छः आधारों पर तो समाज को बॉंट चुके थे। किन्तु लिंग और उम्र के आधार पर अब तक सफलता नही मिली थी, क्योंकि लिंग और उम्र के आधार पर समाज पहले परिवारों मे बॅंटा था और परिवारों में अविश्वास और टूटन के बिना इन्हें वर्गो मे बॉंटना और वर्ग संघर्ष की दिशा में ले जाना संभव नही था। पिछले कुछ वर्षों से समाज तोड़नेवाली सभी शक्तियां परिवारों को लिंग के आधार पर तोड़ने में लगी थीं किन्तु उन्हें बहुत मामूली और धीमी गति से सफलता मिल रही थी। किन्तु पिछले एक वर्ष से, वह भी 16 दिसम्बर 2012 की घटना और उसके बाद दिल्ली में हुए आंदोलन के बाद यह गति बहुत तेज हो गई है।

महिला और पुरूष को अलग-अलग समुदाय में बॉंटकर उनमें विद्वेष फैलाने में राजनेताओं की भी सक्रियता रही है, और न्यायलयों की भी। धर्मगुरू और मीडिया भी इस कार्य में तेजी से आगे-आगे बढ रहे हैं। समाज को तोड़ने के उद्देश्य से इन सबने मिलकर महिला सशक्तिकरण का जो जाल बुना था अब अपने ही बुने जाल मे एक वर्ष के भीतर ही चारों के प्रमुख संस्थानों के लोग एक-एक करके फॅंसने लगे। जहॉं आशाराम बापू और तहलका के प्रमुख मीडिया कर्मी तरूण तेजपाल जाल मे फंसकर छटपटा रहें हैं, वहीं नरेन्द्र मोदी तथा सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश सेक्सजाल से बचने के लिए प्रयत्नशील हैं।

अगर आप इन चारों चर्चित सेक्स कांड पर नजर दौड़ाएं तो चारों में से किसी भी घटना में बलात्कार नहीं हुआ है बल्कि चारों ने विभिन्न महिलाओं से सहमति प्राप्त करने के लिए कुछ अपनी हैसियत का दबाव डाला या उनके साथ कुछ छेडछाड भी की। आशाराम बापू की यदि और पोल नही खुली होती तो वह घटना भी इतनी गंभीर नही बनती किन्तु इस लड़की के आगे आने के बाद आशाराम बापू की ऐसी अनेक घटनॉंए तथा षडयंत्र प्रकाश में आने लगे जो समाज को उनसे घृणा करने के लिए पर्याप्त थे। यद्यपि अभी तक इस घटना को छोडकर उनके द्वारा किये गए बलात्कार की कोई घटना सामने नही आई है। यद्यपि वे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए आश्रम में महिलाओं या लड़कियों के ब्रेनवाश करते थे और ब्रेनवाश करके किसी को सहमत करना अनैतिक होता है, कानूनी अपराध है सामाजिक अपराध नहीं। फिर भी आशाराम ने जो किया वह पूरा का पूरा कार्य असामाजिक तो था ही, आशाराम बापू के पास ऐसा कोई तर्क नही है कि जिसके बल पर वे समाज मे अपना मुंह दिखा सके। कानून क्या करेगा वह अलग बात है।

तहलका के प्रमुख तरूण तेजपाल ने जो किया उसमे भी कहीं से कोई बलात्कार की गंध नही आती। तरूण तेजपाल को अनैतिक अथवा कानूनी अपराध का दोषी पाया जा सकता है। उन्होंने लड़की के साथ छेड़छाड़ करने की पहल की और जब लड़की ने कठोरता से अस्वीकार कर दिया तो उन्होनें प्रयत्न छोड़ दिया। फिर भी उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि दुबारा प्रयत्न मे लड़की मान जाएगी, किन्तु दुबारा भी लड़की नहीं मानी। लड़की ने यह बात अपने व्यवसाय से जुडे अभिभावकों को बताई और उन्हें ऑंतरिक दंड दिलाने का प्रयत्न किया। जिस आधार पर दोनों के बीच लगभग समझौता हुआ। तरूण तेजपाल संभवतः इसके पूर्व भी ऐसे दबावों के बाद कुछ सहकर्मियों से ऐसा करने मे सफलता प्राप्त कर चुके होंगे। यही कारण है कि उन्होने इंकार के बाद भी दुबारा प्रयत्न किया। तहलका की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी को उस लडकी ने जो भी बताया उस पर शोमा चौधरी ने अपने तरीके से कार्यवाही की और किसी को नही बताया, पुलिस को भी नही, क्योंकि ऐसा करने के लिए वह कहीं से बाध्य नहीं थी।

यदि कोई व्यक्ति कोई अपराध करके मेरे पास मदद के लिए आता है और मैं उसे किसी भी प्रकार की मदद देने के लिए मना करता हूं किन्तु थाने मे रिपोर्ट नही करता या उसे नही पकड़वाता, मेरा ऐसा करना किसी भी दृष्टि मे न सामाजिक अपराध है न कानूनी अपराध, विशेषकर ऐसी परिस्थिति मे जब उस अपराध के लिए कोई वैधानिक कार्यवाही ना चल रही हो। मुझे समझ में नही आता है कि यदि कोई लड़की अपने मॉं-बाप से कोई ऐसी घटना बता दे, और मॉ-बाप उसे थाने जाने की सलाह देने के बजाए उस व्यक्ति को कोई ऑंतरिक दण्ड देने की सलाह दे दें तो क्या घटना के लिए मां बाप को दोषी मान लिया जाएगा? मैं अभी तक नही समझता कि उसके  मॉं-बाप ने ऐसा कोई अपराध किया जब तक उस लड़की की इच्छा के विरूद्ध उसे रोकने का प्रयत्न ना किया हो। यदि उस लड़की की सहेली ने, जो तरूण तेजपाल की बेटी भी हो सकती है, उसने उस लडकी से इस मामले मे चुप रहने का निवेदन कर दिया, तो ऐसे निवेदन को दबाव कैसे कहा जा सकता फिर भी तरूण तेजपाल के साथ जो कुछ हुआ है वह अच्छा ही हुआ है। अन्य स्थापित लोंगों की छोटी-छोटी गलतियों के लिए पगड़ी  उछालने को आपने यदि अपना व्यवसाय बना लिया है तो ऐसा अवसर पाकर आपकी भी पगड़ी उछले इसमें कोई अस्वाभाविक बात नही है, कोई असामाजिक प्रयत्न नही है। तरूण तेजपाल ने पूरे भारत मे अपनी पहचान ऐसे लोगों की पगड़ी उछालकर ही बनाई है, जिन्होनें कोई गंभीर अपराध नही किया था। यदि ऐसे साधारण अनैतिक कार्यों के लिए तिल का ताड़ बनाना और उसका लाभ उठाना आपके लिए कोई सामाजिक कार्य है, तो अब आपको उस जाल मे फॅंसने के बाद निकलने से रोकने का प्रयत्न भी कोई सामाजिक अपराध नही है।

गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अपने राज्य में किसी लड़की की जासूसी कराई। जासूसी के समय उस लड़की के पिता ने मोदी जी से कुछ कहा कि नही यह अब तक स्पष्ट नही है। किन्तु जासूसी हुई है यह स्पष्ट है। लडकी का विवाह हो जाने के बाद लडकी के पिता से चिठ्ठी लिखवा लेना पीछा करने का कोई आधार नही होता। ऐसा लगता है कि लडकी अविवाहित थी और या तो उस लडकी का संबंध उस आईएएस ऑंफिसर से रहा होगा और लडकी के माता-पिता उस लडकी का विवाह उस आईएएस ऑंफिसर से करना चाहतें हों यह सच्चाई अभी तक छिपी है। दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी उस लडकी की जासूसी उस आईएएस ऑंफिसर से बचाने के लिए कर रहे थे या अपने जाल मे फॅंसानें के लिए, यह भी स्पष्ट नही है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि उस लडकी के मामले मे नरेंन्द्र मोदी ने सारी सीमाओं को तोडकर रूचि और सक्रियता दिखाई और उस सक्रियता मे अपनी प्रषासनिक शक्ति का भरपूर दुरूपयोग किया। अब तक यह बात स्पष्ट नही हुई कि लडकी के माता-पिता उस लडकी को किस खेमे मे देना चाहते थे, लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह कार्य महिलाओं पर किसी अपराध की श्रेणी मे न होकर पद के दुरूपयोग की श्रेणी मे आता है तथा अनैतिक भी हो सकता है।

किसी सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश पर अधीनस्थ काम करने वाली अधिवक्ता लडकी के साथ छेड़छाड़ किया या नही यह तो बाद मे स्पष्ट होगा। किन्तु हम मानकर चलें कि उन्होनें किया। विचारणीय प्रश्न यह है कि उन्होनें क्या अपराध किया? हो सकता है कि उन्होंने उस लड़की को कोई पद का लालच भी दिया हो, यह हो सकता है कि कोई डर भी दिखाया हो। किन्तु इसमें सामाजिक अपराध क्या हो गया? उस लडकी ने उस न्यायाधीश की भूख मिटाने के लिए अपनी भौतिक उन्नति के साथ समझौता किया तो इस समझौते मे क्या अपराध हो गया? यदि कोई व्यक्ति किसी पदारूढ व्यक्ति के पास अपने किसी कार्य के लिए जाता है और वह व्यक्ति उस कार्य के लिए पैसे के उपर समझौता करता है अथवा अपनी शारीरिक भूख के उपर समझौता करता है, इसमें किसी प्रकार का अंतर नही है, न इसमें कहीं से बलात्कार आता है और न यौन शोषण आता है। सिर्फ और सिर्फ एक चीज आती है और वह है उसके द्वारा किया गया पद का दुरूपयोग। किसी समझौते के आधार पर लाभ उठाने के बाद उस बात को बताना या प्रसारित करना उस महिला का भी अनैतिक कार्य माना जाएगा। उस समय और भी ज्यादा अनैतिक होगा जब वर्षों बाद इस घटना को प्रसारित किया जाए।

यौन उत्पीड़न या महिला के साथ व्यभिचार से जुड़ी चारों घटनॉंए अलग-अलग है। अलग-अलग प्रकार की हैं। किन्तु चारों में ऐसे प्रमुख लोग फॅंस रहें हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों के स्थापित व्यक्तित्व हैं, तथा चारों ही अपने-अपने क्षेत्र मे रहकर महिला उत्पीडन, महिला सशक्तिकरण, महिला जागरण की दुहाई देते रहते हैं। चारों ने समाज तोड़क प्रयत्नों के लिए महिला सशक्तिकरण शब्द को एक हथियार के रूप मे उपयोग किया है। राजनेताओं ने तो ऐसे प्रयत्नों मे भरपूर पहल की ही है। किन्तु मैने तो यहॉं तक सुना है कि न्यायाधीशों ने भी ऐसी सलाह दी है कि पति-पत्नी के बीच सहमति के बिना किए गये सेक्स को अपराध घोषित किया जाए। आश्चर्य है कि ऐसी सहमति कैसे होगी लिखित होगी कि अलिखित होगी। इस स्वाभविक प्रक्रिया के बारें मे सोचने की पहल नही की गई। मीडिया ने भी ऐसे मामलों को उछालने मे कोई कसर नही छोड़ी। छोटे छोटे बलात्कार रहित मामलों को तिल से ताड बनाने में, उसका मजा ले लेकर अपना रेंटिंग बढाने में, तथा अपना न्यूसेंस वैल्यू बढाने मे मीडिया कभी पीछे नही रहा है।

दो प्रतिशत तथाकथित आधुनिक महिलाओं को उभारकर राजनेताओं ने 16 दिसम्बर 2012 को जंतर-मंतर पर हल्ला करवाया। मीडिया ने उस हल्ले को आधार बनाकर सारे देश मे तूफान खडा कर दिया। धर्मगुरू भी उस तूफान मे खड़े हो गये तथा जिन नेताओं ने यह प्रर्दशन करवाया था, उन्ही नेताओं ने इसको आधार बनाकर बडे-बडे कानून बना दिये, यह भारत का हर व्यक्ति देख चुका है, जानता है। इन लागों ने कभी नही सोचा कि ऐसे कानून का परिवार व्यवस्था पर कितना दुष्प्रभाव होगा। इन्हें तो केवल उस तवे पर अपनी रोटी सेकने से मतलब था जिस तवे पर रोटी सेकने मे समाज व्यवस्था, परिवार व्यवस्था जलाई जा रही हो। इन्हें तो यह भी नही पता था कि ऐसे ऑंदोलन या महिला सषक्तिकरण के नाम पर बनाये गए कानून कभी उनकी भी जमात को अपने ही जाल में फॅंसा सकते हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से भी, पारिवारिक रूप से भी तथा सामाजिक रूप से भी यह अनुभव है कि भारत की आबादी के आधे से अधिक बालिग पुरूष जीवन मे कभी न कभी ऐसी गलतियॉं करते हैं जो बलात्कार तो नहीं होती किन्तु अनैतिक होती हैं, तथा 16 दिसम्बर के बाद बने कानून

के आधार पर अपराध भी होती है। ऐसे अनावष्यक कानूनों का सदुपयोग करने वाले कम और दुरूपयोग करने वाले अधिक होतें है। प्रत्येक व्यक्ति का सोच और चरित्र अलग-अलग होता है। उसे किसी वर्ग के साथ बॉंधना ठीक नही। यदि पुरूषों को ऐसे असीमित अधिकार देकर उनका दुरूपयोग करने की उन्हें सामाजिक छूट प्राप्त थी तो उस दुरूपयोग के परिणामों को सुधारने के प्रयास करने की अपेक्षा अब महिलाओं को छूट देकर पति-पत्नी के बीच संदेह पैदा करना या दीवार खडी करना कितना उचित है? किसी परिवार की सदस्य होने के बाद न पुरूष के कोई अंध शिकार होने चाहिए न महिला के। बल्कि सबको समान अधिकार होना चाहिए। जो भूल हमने पुरूष को एकाधिकार करके कायम की थी उसे खतम करके उस परिवार की संरचना को ठीक करना चाहिए था, न कि महिला सदस्यों को अधिकार देकर। लेकिन हमारे राजनेताओं ने अपने स्वार्थ मे पडकर महिलाओं को टकराव मे खडा कर दिया। किसने रोका था कि पारिवारिक संम्पति मे परिवार के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार दे दिया जाए। किसने रोका था कि पारिवार के प्रत्येक सदस्य को कभी भी परिवार छोडकर अलग होने की कानूनी छूट दे दी जाए। किसने रोका था कि परिवार के संचालन मे परिवार के सभी सदस्यों की समान भूमिका हो। किसी ने नही रोका था। किन्तु हमारे संविधान निर्माताओं की भूलवश अथवा समाज तोड़क योजनाओं के आधार पर ऐसे-ऐसे भेदकारी कानून बनाये गए और अब तो ऐसी योजनाओं का लाभ मिलने के बाद हमारे नेताओं को विशेष मजा आने लगा है कि वे ऐसी योजनाओं को और आगे तेजी से बढा सके। राजनीतिज्ञ तो बहुत तेजी से ऐसी योजनाओं पर काम कर ही रहें हैं, धर्मगुरू, मीडियाकर्मी तथा न्यायालय भी ऐसी योजनाओं को आगे बढा रहें हैं।

कुछ ही दिनो में स्पष्ट हो जाएगा कि महिलाओं और पुरूषों के बीच एक अविश्वास की खाई कितनी गहरी हो गई है। चरित्रवान और शरीफ महिलॉंए ऐसे कानूनों से कितना लाभ उठा पाएंगी यह तो पता नही, लेकिन जल्दी ही दिखने लगेगा कि धूर्त महिलॉंए अथवा धूर्त पुरूष, महिलाओं को हथियार बनाकर पुरूषों को ब्लैकमेल करना शुरू कर देंगें, और ऐसा होना समाज के लिए बहुत अहितकर होगा। यदि कानून इसी तरह महिलाओं के पक्ष में एकतरफा बनते रहे तो आपको 10-20 करोड़ लोगों के लिए जेंलें बनानी पड़ सकती हैं। कोई अपना कीमती हीरे का हार घर में सुरक्षित रखे और कोई सड़क पर लेकर उसे असुरक्षित घूमें तो हार लूट जाने के अपराध की गंभीरता एक समान नही होगी। महिला और पुरूष के बीच की दूरी जितनी ही घटेगी उतना ही विस्फोट का खतरा अधिक बढेगा क्योंकि महिला और पुरूष की तुलना आग और बारूद से की जाती है। जो महिलॉंए यौन शोषण के प्रति अधिक संवेदनषील हैं उन्हें ऐसी दूरी पर विशेष ध्यान देना चाहिए। अच्छा हो कि ऐसी घटनाओं से अपने को सुरक्षित मानकर मजा लेने की अपेक्षा ऐसे कानूनों के दुरूपयोग की आशंका से समाज को अवगत कराया जाए। अर्थात समाज के किसी वर्ग को विशेषाधिकार देकर इतना सशक्त ना बनाया जाए कि उस वर्ग का कोई भी संदिग्ध चरित्रवाला व्यक्ति ऐसे कानूनों का दुरूपयोग करके दूसरे लोगों को ब्लैकमेल कर सके।

किसी लड़की को बदनाम मत कीजिए !

थिंक फेस्ट, जी हाँ यही नाम दिया था तेजपाल ने देश -विदेश की समस्याओं पर चिंतन के लिए आयोजित शिविर को। कभी उन्होंने कहा भी था कि जन सरोकार की पत्रकारिता का ये मतलब नहीं कि हम जामिया मिलिया के ऑडिटोरियम में अपने कार्यक्रम करें। वो पुराना जमाना था कभी जब संपादक जी को बजाज का स्कूटर एक तरफ झुका कर स्टार्ट करना पड़ता था, वो अब उस ऊँचाई पर पहुँच गए थे जहाँ चिंतन के लिए भी फेस्टिवल आयोजित किये जाते हैं जिसमें दिन भर के मैराथन चिंतन के बाद थक चुके विचारक जो चाहे खा सकें, पी सकें और जिसके साथ चाहे सो सकें।

यहाँ किसी के साथ सोने से क्या मतलब है, ये अपने उद्घाटन भाषण में संपादक जी ने गोवा में नहीं कहा था, बाकी शब्द उन्ही के हैं। पुराने ज़माने में होता था और अभी भी गरीब-गुरबों का चिंतन शिविर कुछ ऐसे ही होता है कि दरी पर बैठकर मुद्दे निपटाए फिर जिस भाई के बगल में जगह खाली दिखी और उससे वार्ता की ललक पूरी नहीं हुई तो वहीं लंबलेट हो गए क्योंकि शिविर ख़तम होने के बाद न जाने कब मुलाक़ात हो। लेकिन किसी पांच सितारा होटल के फेस्ट में ये कहना कि जिसके साथ चाहें सो सकते हैं, काफी है कि कम से कम नारीवादी संगठन और राष्ट्रवादी लोग भड़क जाएँ लेकिन इन संगठनों से जुड़े लोगों के पास भी उसी होटल के कमरे की चाभी होती है और आयोजक द्वारा दिया गया रिटर्न एयर टिकट भी होता है इसलिए ये लोग भी कुछ समय के लिए प्रगतिशील हो जाते हैं और फेस्ट की मादकता में बह जाते हैं। और जब प्रायोजकों में दारु कंपनियाँ भी शामिल हों तो बहकी बहकी बातों से बचना भी मुश्किल होता है इसलिए इनको दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि जब भी ऐसे लोग अपने सोचने का धंधा शुरू करते हैं तो झोले के अलावा साथ में कुछ नहीं होता, उस झोले से थिंक फेस्ट तक की यात्रा में बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ता है, जिसमें सबसे पहले विचार के साथ व्यभिचार करना भी शामिल है।

इस साल जब गोवा में थिंक फेस्ट की आहट सुनाई दी तो वहाँ के स्थानिय एक्टिविस्ट मोर्चेबंदी करने लगे थे क्योंकि उनके हिसाब से ये चिंतन -उत्सव ब्लडमनी से आयोजित होने वाला था, यानि तहलका पत्रिका द्वारा ख़बरों को दबाने या फेवर में दिखाने के एवज में वसूली गई कीमत। विरोधियों का कहना था कि इस आयोजन के सभी प्रायोजक वही लोग हैं जो लगभग हर स्तर पर आम जनता का शोषण करने वाले हैं, इन कार्पोरेट्स के पैसे पर कैसे भी कोई आदमी चाय -पानी कर सकता है, वो भी तब जब उसके साथ जन सरोकारों के बड़े पैरोकार का तमगा लगा हो। दस-बीस आदमी जुटते, तहलका के खिलाफ पोस्टर लगाते और फिर घर चले जाते और कोई खबर नहीं बनती थी क्योंकि देश के अन्य मीडिया घराने भी जन सरोकारों पर चिंतन के लिए उन्ही कार्पोरेट्स पर निर्भर हैं। खैर फेस्ट गुजर गया धूमधाम से और बाकि मीडिया हॉउस जलते-भुनते अपने फेस्ट की तैयारी करने लगे। लेकिन एकाएक संपादक जी की उड़ान को झटका लगा और उनको वो दिन याद आ ही गए होंगे जब केवल स्कूटर था और पांच रूपये देकर किसी भी लफड़े से बच जाते थे क्योंकि तब इतने की भी कीमत हुआ करती थी। पत्रिका की एक रिपोर्टर ने ऑफिस के कुछ लोगों को बताया कि उसके साथ संपादक द्वारा यौन दुर्व्यवहार किया गया है और माफ़ी मांगनी चाहिए। उसके मुताबिक 7 नवम्बर को ये हरकत तेजपाल ने की और अगले दिन फिर दुहराई। पत्रिका की एक तेजतर्रार रिपोर्टर, वो भी जिसने तमाम बलात्कार से जुड़े मुद्दों पर गंभीर लेख लिखे हों और जिसके ब्लॉग से भी लगता हो कि केवल संबंधों के आधार पर ही नहीं नौकरी मिली है, के साथ संपादक की शर्मनाक हरकत क्रान्तिकारी पत्रकारिता करने वाले कुछ लोगों को चुभ गई।

 पहले तो मामले को समूह का आतंरिक मामला बता कर निपटाने की कोशिश की गई लेकिन संपादक से खुलासा करने का हुनर सीखने  वालों ने रिपोर्टर का पत्र लीक कर दिया। तहलका से पीड़ित पक्षों के अलावा नारीमुक्ति के मसले पर संवेदनशील हो चुके लोगों के हाथ बड़ा मसला लगा और आतंरिक मसला अब प्राईम टाईम स्टोरी बन गया। माहौल बिगड़ता देख सम्पादक ने फिर अपनी नंबर दो को पत्र लिखा और कहा की जो भी हुआ, उससे उनको भी काफी दुःख है और वो छ: महीने के लिए खुद को तहलका से अलग करते हैं। तत्काल देश में सम्पादक के इस कदम की तारीफ होने लगी कि अपने स्वाभाव के मुताबिक ही उसने दम दिखाया, है किसी में इतनी हिम्मत? तहलका में नंबर दो शोमा चौधरी सामने आईं और उन्होंने कहा की चूँकि संपादक ने गलती मान ली है और रिपोर्टर को भी इस बारे में लिख दिया है और रिपोर्टर संतुष्ट हो गई है इसलिए किसी बाहरी आदमी को इस पचड़े में पड़ने में जरुरत नहीं क्योंकि ये आतंरिक मामला है। लेकिन क्यों न पड़े कोई भाई, वैसे भी अपना फटा छोड़ कर फटे में टांग घुसाना हमारा राष्ट्रीय शगल है तो क्यों छोड़े कोई, वो भी जब इतना बड़ा मामला हो । जावेद अख्तर साहब ने फटी में टांग घुसेड़ी की स्वीकार करने की ताकत दिखाने वाले की दाद देनी चाहिए, भाई लोग पड़ गए उन्ही के पीछे , अरे यार जावेद साहब भी तो फेस्ट के गेस्ट थे।

धीरे धीरे मामला बढ़ता गया, अब आतंरिक एकदम से नहीं रह गया। दो पक्ष हो गए, एक जो तुरंत लटकाने वाला था और दूसरा जो सेक्युलरिज्म के चैम्पियन संपादक के लिए सहानुभूति दिखाने वाला था और कह रहा था की सिर्फ एक गलती से उनके सारे पुण्य धूल नहीं जायेंगे। मीडिया अभी भ्रम में थी तब तक सोशल मीडिया के वीरों ने मुद्दे को हाथों हाथ लिया और रिपोर्टर की चिट्ठी से लेकर संपादक की बिटिया का कहना की वो पहले भी अपने पापा जी को ऐसा करते देख चुकी हैं, धड़ाधड़ शेयर और लाईक होने लगा। दुखी बिटिया को ट्विटर से विदा लेनी पड़ी लेकिन अब मीडिया के सामने इस मुद्दे को हल्का करने का कोई रास्ता नहीं था क्योंकि उसे जनता के बीच अपनी टीआरपी बनाये रखनी थी। जेल जा चुके चैनल संपादक से लेकर खबरों के सौदे करने के लिए बदनाम रिपोर्टर भी एक सुर में गोवा कांड में न्याय की दुहाई देने लगे। ध्यान रहे की फेस्ट में घटना 7 -8 को हुई थी और पीड़ित ने विभागीय पत्र 18 नवम्बर को लिखा था और भाई लोग न्याय दिलाने के लिए चीखने लगे थे तब तक पुलिस में कोई औपचारिक शिकायत नहीं दर्ज कराई गई थी। पीड़िता की यही मांग थी की उसके सम्पादक सार्वजनिक माफ़ी मांगे और समूह में महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशाखा समिति की सिफारिशों के आधार पर समिति बने और वो समिति ही जांच करे। लेकिन भला हो कि निर्भया के नाम पर हालिया बने कानून का की पुलिस को किसी औपचारिक शिकायत की जरुरत ही नहीं, वह स्वत: संज्ञान लेकर जांच शुरू कर सकती है। वही हुआ, गोवा पुलिस फास्ट निकली और तेजपाल लापता हो गए। 

अब जबकि औपचारिक शिकायत भी दर्ज करा दी गई है तो आतंरिक मामला कह कर सन्यास लेने वाले संपादक का कहना है की उसे फंसाया जा रहा है और लड़की रिश्तों का दुरुपयोग कर रही है, ये आम तर्क होता है ऐसे मामलों में। थोड़ा और आगे बढ़ते हुए तेजपाल ये भी कहते हैं की भाजपा फँसा रही है, अब ये बात तो काँग्रेस को भी कभी हज़म नहीं होगी क्योंकि ऐसी शिकायत तो मदेरणा या पीएम मैटेरियल एनडीटी ने भी नहीं की थी। तेजपाल के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत तो उनका माफीनामा है, हालाँकि उसमें वो शब्द नहीं हैं जो पीड़िता चाहती थी लेकिन उनके अपराध को साबित करने वाले तमाम सबूत हैं। अब रिपोर्टर ने बयान भी दर्ज करा दिया है तो शोमा चौधरी का कहना है कि वो माफीनामा तेजपाल ने लिखा ही नहीं था, मसले पर एक वकील से राय बात ली गई थी और उसी वकील ने ही ड्राफ्ट तैयार करवाया।

गजब बात है, जेठमलानी और सिब्बल साहब के होते हुए किस वकील ने ऐसी राय दे दी भाई, उसे भी सम्मानित करना लोग अगले थिंक फेस्ट में। कुछ लोग कह रहे हैं की थिंक फेस्ट तहलका का कार्यक्रम ही नहीं है क्योंकि उसकी आयोजक कंपनी का नाम थिंकवर्क्स है। ये अलग बात है की थिंक वर्क्स के मालिक तेजपाल और सुपर्णा चौधरी हैं, सुपर्णा चौधरी का ही नाम शोमा चौधरी है। थिंक वर्क्स भारी मुनाफे में रहने वाली कंपनी है और तहलका काफी घाटा झेल रही कंपनी है। अब इस खुलासे से तहलका में भारी पैसा लगाकर मालिकाना रखने वाले राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति केडी सिंह भी नाराज़ हैं और वो घोषणा कर चुके हैं की उनकी कंपनी तहलका से निकल जाएगी, अब निकल जायेगी तो पत्रिका चलेगी कैसे, इस मामले पर शोमा चौधरी का कहना है की अभी निश्चित नहीं है की पत्रिका का क्या होगा। इसी बीच अब ये भी खुलासा हो गया है की मरहूम पोंटी चड्ढा की कंपनी के साथ संपादक जी एक अपरक्लास के लोगों का एलीट क्लब शुरू करने वाले थे, काफी काम हो चुका है। इस क्लब में तमाम सुविधाएँ उपलब्ध रहेंगी जो देवताओं को भी दुर्लभ होती है, और फिर इन सुविधाओं के लिए साल में एकबार होने वाले किसी स्टिंक फेस्ट का इंतजार भी नहीं करना पड़ेगा।

तेजपाल के वकील सवाल उठा रहे हैं की लड़की अब तक खामोश क्यों थी और दुर्घटना की रात भी रेमो फर्नांडीज के शो का आनंद लेती रही, साथ ही रोज होने वाले रात्रिकालीन सत्रों में भी सक्रियता से शामिल रही, अब एकाएक उसे क्या हो गया। वकीलों को तो पैसे मिले हैं लेकिन आम लोग भी समझते हैं की आज दुनिया में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और कहाँ कहाँ खुद को मार कर, अपनी लाश के साथ उत्सव में शामिल होना पड़ता है। सहमति-असहमति का तमाम लोगों के पास विकल्प ही नहीं होता और अब ये निश्चित लग रहा है की जो कुछ भी होता जा रहा है उस पर तेजपाल का भी कोई नियंत्रण नहीं है। हाँ वो चारा  फेंक कर फंसाने की पत्रकारिता, जिसे भारत में स्टिंग कहा जाता है, के बादशाह रहे हैं, अब खुद एक स्टिंग करें और साबित करें की की वो निर्दोष हैं क्योंकि मीडिया ट्रायल को उन्ही के खुलासों ने वो बुलंदी पहुंचाई है की जज साहिबान भी अपने घर वालों को टीवी देखने को बोलते होंगे ताकि कोई क्लू मिले और उन्हें लंचब्रेक में बताया जाय ताकि फैसला देते समय असानी रहे। तमाम मामले जो अभी अदालत में हैं उनपर मीडिया के हवाले से फैसला सुनाना भी जनता ने इन्ही जैसों से सीखा है। क्यों साहब ? बस किसी लड़की को बदनाम मत कीजिए।

28 November 2013

क्या बांग्लादेशी घुसपैठियों को भगाना जरूरी है ?

देश की राजधानी दिल्ली बांग्लादेशी घुसपैठियों की बस्ति बन रही है। राजधानी में आए दिन राहगीरों को लूटने से लेकर रात में डाका डालने तक का काम ये घुसपैठिए कर हैं। पिछले चार-पांच साल में डकैती की जितनी भी घटनाएं हुई हैं उनमें सबसे जयादा बांग्लादेशी घुसपैठीयों का ही हाथ रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय पहले ही दिल्ली सरकार को ठोस कदम उठाने का आदेश  दे चुका है। मगर सरकार वोट बैक की राजनीति के आगे बेबस और लाचार नजर आ रही है।

हमारे देश में लगातार ये घुसपैठिए अपनी पैठ जमा रहे हैं। रोजी- रोटी से लेकर जमीन जयदात तक पर ये कब्ज़ा जमा चुके हैं। दिल्ली छावनी जैसे संवेदनशील इलाके में भी बंगलादेशियों की घुसपैठ हो चुकी है, जहा पर हमारे देश की सेना का अहम ठिकाने हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2003 में स्पष्ट रूप से आदेश दिया था कि प्रतिदिन दिल्ली से 100 घुसपैठियों को सरकार बाहर भेजे। मगर सौ तो दुर की कौड़ी है सरकार ने अब तक एक भी घुसपैठिए को पकड़ने के लिए कोई ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं है। अदालत की बार-बार फटकार के बाद वावजूद भी पुलिस हरकत में नहीं आ रही है।

रिक्शा चलाने से लेकर मतदाता सूची में नाम चढ़वाने, राशन कार्ड जैसे सुविधाएं हासिल कर ये घुसपैठिए मौज कर है। वहीं हमारे देश के नागरीक इन सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या बांग्लादेशी घुसपैठियों को भगाना जरूरी है ?

26 November 2013

क्या छत्तीसगढ़ सिमी का गढ़ बन गया है ?

छत्तीसगढ़ में बीते दो दशक से नक्सली अपने आतंक का साम्राज्य स्थापित कर छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार को चुनौती देते आ रहे हैं । राज्य सरकार और केंद्र सरकार कि लाख कोशिशों के बावजूद लाल आतंक पर काबू नहीं पाया जा सका है । जिसके परिणाम स्वरुप पच्चीस मई को दरभा घाटी में तीस से ज्यादा कोंग्रेसी नक्सली हमले के शिकार में उनकी मौत हो गयी थी । लाल आतंक के खतरे के बाद राज्य के भीतर जेहादी आतंकी भी सक्रीय हो गए हैं । इसका ताज़ा उदहारण पिछले सप्ताह चार कथित सिमी से जुड़े आतंकियों कि गिरफ्तारी और उनके खुलाशे के बाद पुलिस ने अब तक और नौ कथित आतंकियों कुल तेरह कथित आतंकियों के गिरफ्तारी के बाद हुआ । 

पिछले दिनों रायपुर पुलिस ने एक बड़ा खुलासा करते हुए पकडे गए कथित आतंकियों के हवाले से महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए खुलासा किया था कि इन आतंकियों के मंसूबे बड़े ही खतरनाक थे। पकडे गए आतंकी उमेर सिद्दीकी का सम्बन्ध पकिस्तान के खूंखार आतंकी अब्दुल शुभान तौकीर से वर्ष दो हजार नौ से सम्बन्ध होने कि जानकारी रायपुर इंटिलिजेंस के ए.डी.जी. मुकेश गुप्ता ने दी है। पुलिस के मुताबिग उमेर सिद्दीकी अपना एक अलग मॉड्यूल चलाया करता था ताकि पुलिस को उनके गतिविधियों के बारे में कुछ भी जानकारी न मिल सके। यहाँ तक कि उमर सिद्दीकी पुलिस को धोखा देने के लिए अपना मोबाइल घर में ही छोड़कर बाहर अलग अलग पीसीओ से जाकर अपने पाकिस्तान के आकाओं से संपर्क स्थापित करता था।

उमेर सिद्दीकी उच्च शिक्षित और पढ़ा लिखा भी है। उमेर सिद्दीकी रायपुर के अंदर सिमी और आतंकियों के लिए ठहरने और उनके रहने खाने पीने का बंदोबस्त भी करता था इसके लिए उन्होंने बाकायदा रायपुर सहित आस पास के शहरों में आतंकियों का स्लीपर सेल भी बना लिया था। बताया तो यह भी जा रहा है उमेर सिद्दीकी को सिमी ने समूचे छत्तीसगढ़ का चीफ भी बना रखा है। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के मुताबिग इन आतंकियों को शहर के कुछ बड़े और नामचीन पैसे वाली पार्टियों से प्रत्येक माह इन आतंकियों को उनकी गतिविधियों के संचालन के लिए लाखों रूपये कि आर्थिक मदद भी मिलने की खबर है। इसके अलावा इन कथित आतंकियों को बहार से भी फंडिंग होने की बात सामने आयी है।

पुलिस ने जानकारी दी है कि उमेर सिद्दीकी जिन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि बोधगया में जो विस्फोट हुआ था वही उसका मास्टर माइंड है इसके साथ ही पटना ब्लास्ट का भी उसने अपने आपको मास्टर माइंड बताया है। इतना ही नहीं उसने साँची के बौद्ध स्तूप में विस्फोट करने के अलावा छत्तीसगढ़ के अब तक के सबसे पुरातात्विक महत्त्व के सिरपुर स्थित बौद्धों के सबसे प्राचीन बौद्ध स्तूप  पर भी विस्फोट करने कि तैय्यारी की बात कबूल की है। उमेर सिद्दीकी ने बौध्द स्तूपों और उनके मठों पर विस्फोट करने के पीछे जो कहानी बतायी है वह यह है कि वर्ष दो हजार एक में बर्मा में रहने वाले रोएन्गा समुदाय के मुसलमानो और बौद्धों के मध्य सांप्रदायिक दंगे हुए थे जिसमे बौद्धों ने रोएन्गा संप्रदाय के नेता की हत्या कर दिया था, इसी बात का बदला लेने के लिए उमेर सिद्दीकी ने भारत के बौद्ध विहारों को अपना निशाना बनाने की योजना बनायी।

उमेर सिद्दीकी यहीं पर नहीं रुका। बोध गया विस्फोट और पटना ब्लास्ट में आसानी से भाग सकने में सफलता मिलने के बाद उसका हौसला और भी ज्यादा बढ़ गया। उमेर सिद्दीकी को लगा कि छत्तीसगढ़ पुलिस को उनके ऊपर बिलकुल भी शंका नहीं है। इसके बाद उसने मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा का बदला लेने के लिए नरेंद्र को टारगेट कर उनकी ह्त्या करना चाहता था। इसीलिए उसने पटना में ब्लास्ट कर भीड़ के बीच भगदड़ करने के लिए ब्लास्ट किया था। उमेर सिद्दीकी और उनके चार अन्य साथियों ने नरेंद्र मोदी की ह्त्या के लिए दिल्ली, कानपुर सहित छत्तीसगढ़ में रेकी की थी लेकिन सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त होने की वजह से उमेर सिद्दीकी और उनके साथियों ने विस्फोट करने का मंसूबा फिलहाल अपने मन से निकाल दिया था। लेकिन वे मौके की तलाश में जरूर थे कि कब मौका मिले और वे अपने नापाक मंसूबों को अंजाम तक पहुंचा सकें।

रायपुर पुलिस ने पूर्व में पकडे गए सभी 11 कथित आतंकियों को शुक्रवार को जिला न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमे न्यायलय ने सात लोगों को चार दिन के लिए न्यायिक अभिरक्षा में जैल भेजने का आदेश दे दिया है तो वहीँ चार अन्य उमेर सिद्दीकी और उनके तीन साथियों को चार दिन के लिए पुलिस रिमांड में देने का आदेश जारी किया है। उमेर सिद्दीकी के निशानदेही पर आज दो और अन्य कथित आतंकियों को क्रमशः रायपुर और रायगढ़ से पुलिस ने गिरफ्तार किया है।

रायपुर पुलिस ने आज से दो वर्ष पूर्व ही रायपुर में सिमी के स्लीपर सेल होने का खुलासा कर चुकी है और इस सम्बन्ध में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया था। तब से लेकर रायपुर पुलिस जिनके ऊपर पुलिस को सिमी का स्लीपर सेल चलाने का संदेह था उनके मोबाइल फोन और लैंड लाइन फोन को पुलिस निरंतर ट्रेस कर रही थी। पटना ब्लास्ट में उमेर सिद्दीकी के हाथ होने की बात एनआईए ने रायपुर पुलिस को दी उसके बाद रायपुर पुलिस हरकत में आई फिर कड़ी दर कड़ी जोड़ते हुए रायपुर पुलिस सिमी से जुड़े कथित आतंकियों कि धर पकड़ प्रारम्भ की। सिमी के तीन अन्य आतंकी उमेर सिद्दीकी के पकडे जाने कि खबर के बाद से वे फरार हैं जिसके लिए एन आई ए ने दस दस लाख रूपये इनाम कि घोषणा की है। आने वाले दिनों में रायपुर से सिमी का नेटवर्क चलाने वाले और लोगों कि भी गिरफ्तारी सम्भव है। इसमें शहर के कई नामचीन लोग भी हो सकते हैं।

सर्वप्रथम क्या जीत या जश्न ?

शायद उस जश्न की भी सुबह हो गयी होगी। शनिवार शाम को जब सूर्य अस्ताचल की तरफ थे तब हफ्तेभर से आरोपों की मार झेल रही आम आदमी पार्टी के कुछ कर्ता धर्ता अपने बहुत सारे समर्थकों के साथ जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए थे। शोक मनाने के लिए नहीं। जश्न मनाने के लिए। गाजे बाजे के साथ। मुंबई से विशेषतौर पर रॉक और पॉप स्टार बुलाये गये थे जो सिर पर टोपी और हाथ में माइक लेकर गाना गा रहे थे। नीचे इकट्ठा हुई आम आबादी सिर पर टोपी और हाथ में झाड़ू लिये इस रॉक, पॉप म्यूजिक का मजा भी ले रही थी और बीच बीच में कुमार विश्वास अपने कवितानुमा कसीदों से मौज मजे से राजनीतिक सद्भाव भी पैदा कर रहे थे। 

देखो, मुझे चोर कह रहे हैं ये लोग। चोर तो खुद हैं तो मुझे चोर कह रहे हैं। फिर कुमार की मशहूर कविता की चार लाइने- कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है। कुमार की पंक्तियों पर होओओओओओओ का सुदीर्घ समर्थन। भले ही इस पार्टी के जन्म के समय उसी जंतर मंतर के मंच पर अन्ना हजारे को सत्याग्रही बनाकर बिठाया गया हो लेकिन आज साल भर बाद पार्टी अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए उसी जंतर मंतर पर रॉक स्टार और पॉप स्टार का सहारा ले रही है। सत्याग्रह की सादगी की जगह तेज रोशनी लाइटों ने ली है। अब अन्ना अपने भाषण से सामने बैठे लोगों को आंदोलित नहीं कर रहे हैं बल्कि अब यहां कविता सेठ अपनी मदमस्त आवाज से लोगों को उत्तेजित कर रही हैं। नैतिकता और शुचिता के वह पाठ पीछे कहां छूट गये पता नहीं, लेकिन राजनीति में शायद यही अरविन्द का स्टाइल है। मंचीय कविताई करनेवाले कुमार विश्वास मंच से बता रहे थे, कि यह जश्न देर रात तक जारी रहेगा। जंतर मंतर की रखवाली करनेवाली पुलिस ने इजाजत दे दिया हो तो हो सकता है, रात भर चला भी हो लेकिन क्या सचमुच आम आदमी पार्टी, अरविन्द केजरीवाल, कुमार विश्वास और मनीष सिसौदिया के लिए वह शुभ मुहूर्त आ गया है कि वे उसी जगह जाकर जश्न मनाना शुरू कर दें जहां से उनका राजनीतिक जन्म हुआ था?

दिल्ली में 'आक्रामक' और 'अग्रगामी' राजनीति की बुनियाद रखनेवाले अरविन्द केजरीवाल की तरफ देखें तो सिर्फ इतना ही समझ में आता है कि अरविन्द केजरीवाल का यह एक और कमाल है। बीते साल 26 नवंबर को दिल्ली के इसी जंतर मंतर पर अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी को बने तकनीकि तौर पर अभी भी साल पूरा नहीं हुआ है लेकिन अपने काम काज और अंदाज से उसने दिल्ली में दशकों पुराने दूसरे दलों के छक्के छुड़ा दिये हैं। एक ऐसा राजनीतिक दल जो किसी परंपरागत नियम कानून या राजनीतिक हथकंडा को सुनने या मानने के लिए तैयार नहीं। दिल्ली में जन्म से लेकर दिल्ली में ही जंग के मैदान तक, आम आदमी पार्टी की ओर से कई असहज कोशिशें बड़ी सहजता से की गई। मसलन, राजनीति के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा जबकि किसी राजनीतिक दल ने अपने ही एक सर्वे के हवाले से मीडिया में दावा कर दिया कि दिल्ली में उनकी सरकार बन रही है। और सिर्फ सरकार बन रही हो, इसका दावा भर नहीं। सरकार बनने के बाद कहां शपथ ली जाएगी और किस तारीख को अन्ना हजारे का लोकपाल बिल पारित किया जाएगा इसकी तारीखों का भी ऐलान कर दिया गया। अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो जगह जगह बस अड्डों पर इन तारीखों का ऐलान करते होर्डिंग्स दिखाई दे जाएंगे। हां, इस बात का ऐलान नहीं किया गया कि सरकार में किसे कौन सा मंत्रालय दिया जाएगा। नहीं, तो उम्मीदवारों के चयन से लेकर जंग के मैदान तक अरविन्द ने हर काम को अपने तरीके से अंजाम दिया है।

दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए सरकार बनाना तो दूर की बात, दो चार सीटें जीत लेना भी इतना आसान नहीं दिख रहा है। अभी तक तो दिल्ली में कोई ऐसी हवा नहीं बही है कि आप के सामने बाकी दलों का सूपड़ा साफ हो जाए। बुढ़िया कांग्रेस हो कि प्रौढ़ भाजपा, दोनों ही दल दिल्ली में अरविन्द के सामने उखड़ जाएंगे इसकी गुंजाइश कहीं नजर नहीं आ रही है। लेकिन अरविन्द को ऐसी बातों की कोई परवाह नहीं है। शायद इसलिए तब जब दिल्ली की सत्तर सीटों के लिए दूसरे दलों ने अंगड़ाई भी नहीं ली थी, आम आदमी पार्टी ने टिकट का बंटवारा कर दिया। उनके उम्मीदवारों ने ही अपने अपने इलाके में काम करना नहीं शुरू किया बल्कि खुद आम आदमी पार्टी की ओर से दिल्ली में प्रचार अभियान की भी शुरूआत कर दी गई। सितंबर आते आते दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की ओर से पोस्टर वार शुरू हो चुका था जिसमें वे अपने आपको शीला दीक्षित का विकल्प बता रहे थे। दिल्ली के सड़कों पर दौड़ते बेलगाम आटोवालों के हुड पर शीला सरकार की कमजोरियां और विजय गोयल की बुराइयां हर चौक चौराहों से दनदनाते हुए गुजरने लगी। दूसरे दलों की जब तक नींद टूटती और वे भी अरविन्द के खिलाफ उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करते (खासकर भाजपा के विजय गोयल) तब तक अरविन्द केजरीवाल और उनके टोपीवालों की पार्टी अगले मुकाम की ओर बढ़ चुकी थी।

अगर दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के काम काज को बारीकी से देखें तो वे परंपरागत राजनीतिज्ञों को काम करने का सलीका सिखाते नजर आते हैं। आम आदमी पार्टी के प्रसवकाल के दौरान जिन नेताओं को चोर उचक्का कहकर राजनीतिक विकल्प की गुंजाइश पैदा की गई थी, अरविन्द केजरीवाल उनसे भी बड़े खिलाड़ी निकले। आमतौर पर राजनीतिक दलों के नेता मौखिक रूप से अपने जीतने या अपनी पार्टी की सरकार बनने का दावा करते हैं लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से इन दावों में सर्वेक्षणों का पुट मिला दिया। वे सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री हो सकते हैं, इस सर्वेक्षण को उन्होंने इस नजरिये से अपने आक्रामक प्रचार में शामिल कर लिया कि 'वे मुख्यमंत्री बन चुके हैं, अब जो कुछ होगा वह महज औपचारिकता है।' उन्हीं की तरफ से दूसरा तर्क यह कि उनकी पार्टी की सरकार बन चुकी है, चुनाव तो महज औपचारिकता है। दिल्ली का रामलीला मैदान उनके शपथ ग्रहण के लिए सज चुका है, चुनाव परिणाम तो महज औपचारिकता होंगे। तो क्या अरविन्द केजरीवाल और टोपीवालों का यह आत्मविश्वास है, जनसमर्थन है या फिर कोई ऐसी आक्रामक रणनीति जिससे अभी राजनीतिक दलों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है?

दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को सबसे बड़े जनसमर्थन का जो दावा खुद अरविन्द केजरीवाल के सर्वे में किया गया था, बाद में पता चला कि उस सर्वे करनेवाली नौसिखिया कंपनी का दफ्तर का जो पता था वह कांग्रेस के नेता अजय माकन के एक रिश्तेदार का है। सर्वे करनेवाली कंपनी के एक डायरेक्टर कांग्रेस के दिल्ली प्रदेश के सचिव हैं। यानी, जो कुछ किया करवाया गया वह सिर्फ माहौल बनाने के लिए किया गया। वैसे तो अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति में अपने चरण राजनीतिक शुद्धता के लिए रखे थे लेकिन उस एक सर्वे ने ही उनके काम काज पर गंभीर सवाल पैदा कर दिये। बाकी बचा काम दिल्ली में एक स्टिंग आपरेशन ने पूरा कर दिया। अब इस स्टिंग आपरेशन के बाद अरविन्द केजरीवाल स्टिंग करनेवाले पत्रकार को कांग्रेस समर्थक बता रहे हैं और उसके खिलाफ केस दायर करने की धमकी दे रहे हैं। अगर कांग्रेस सचमुच अरविन्द केजरीवाल को बर्बाद करना चाहती है तो उस सर्वे कंपनी के बारे में अरविन्द केजरीवाल कभी क्यों नहीं बोलते कि उस मकान से अजय माकन का क्या रिश्ता है?

लेकिन अरविन्द केजरीवाल को न ऐसे व्यर्थ के सवालों को सुनने का समय है और न ही जवाब देने का। और किसी को दिखे या न दिखे उन्हें दिल्ली की गद्दी दिखाई दे रही है। और यही सब्जबाग वे अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी दिखा रहे हैं। दशकों पुराने दलों के सामने सालभर से जमीन तैयार कर रहे अरविन्द केजरीवाल से ज्यादा जमीनी सच्चाई किसे पता होगा लेकिन उनके जीत के दावे भले ही सच्चाई से परे हों लेकिन ऐसे दावे माहौल बनाने में तो मदद करते ही हैं। अरविन्द केजरीवाल की योजना क्या है ये तो वही जाने, लेकिन जमीन पर उनकी कार्यशैली से साफ दिख रहा है कि सरकार बनाने के उनके दावे दिल्ली में मजबूत राजनीतिक आधार की तलाश है। उनकी कोशिश है कि दिल्ली में उनके हिस्से का मत दान जितना बड़ा होगा, जनाधार बढ़ाने में आगे उतनी ही सहूलियत होगी। और चुनाव के बाद सरकार बनाने के दावे धराशायी हो भी गये तो ऐसे राजनीतिक दावों को खुद खारिज कर देना बहुत अनैतिक नहीं माना जाता है। राजनीति है। राजनीति में सबकुछ जायज है। जंग से पहले जीत का जश्न भी।

क्या मध्य प्रदेश में इतिहास बना पायेंगे शिवराज ?

मध्य प्रदेश राज्य में यदि पिछले 50 बरस के चुनावी इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि इस दौरान एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि जनता ने किसी पार्टी को तीसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया हो। वर्ष 1977 में दस साल तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस आपातकाल के बाद जनता पार्टी की आंधी में उड़ गयी थी और उसे अन्य राज्यों के समान मध्यप्रदेश में भी सत्ता गंवानी पड़ी। हालांकि यह बात दूसरी है कि जनता पार्टी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और मात्र ढाई साल के शासनकाल में आपसी लडाई के चलते उसे सत्ता से बाहर होना पड़ा।

जनता पार्टी की सरकार भंग होने के बाद हुए चुनाव में कांगे्रस एक बार फिर सत्ता में आई और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने पांच साल तक निर्बाध शासन किया। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांगे्रस एक बार फिर सहानुभूति मतों के सहारे प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान बोफोर्स तोप कांड का असर मध्यप्रदेश में भी दिखाई पड़ा और कांग्रेस तीसरी बार सत्ता पाने से वंचित हो गई। तब भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता हासिल की थी और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने।

सुंदरलाल पटवा भी अन्य गैर कांगे्रसी सरकारों की तरह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये और वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाये जाने के बाद प्रदेश में हुए दंगों की वजह से उनकी सरकार भंग कर दी गई। लगभग एक साल के राष्ट्रपति शासन के बाद हुए विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा को पूरी उम्मीद थी कि वह सत्ता में वापस आ जायेगी लेकिन कांगे्रस ने एक बार फिर बाजी मारते हुए सत्ता पर कब्जा किया और दिगिवजय सिंह मुख्यमंत्री बने। सिंह ने पांच साल तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद वर्ष 1998 में हुए विधान सभा चुनाव में विजय प्राप्त की और लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।

कांग्रेरस लगातार दूसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही और उसे उम्मीद थी कि वह तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हो जायेगी लेकिन भाजपा के आक्रामक प्रचार और उमा भारती के तूफानी दौरों के चलते कांग्रेस का तीसरी बार सत्ता में आने का सपना ही चकनाचूर नहीं हुआ बल्कि उसे शर्मनाक पराजय का सामना भी करना पड़ा।

24 November 2013

क्या सत्ता ने पुरुषार्थ खो दिया है ?

कौटिल्य ने बहुत पहले लिखा था कि सत्ता में वो शक्ति है जो इस दुनिया से लेकर दूसरी दुनिया तक दोनों को नियंत्रित करती है। उपनिषद् में भी कहा गया है कि सत्ता शक्ति ज्ञान से श्रेष्ठ है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने पांडवों की विजय के लिए अतिआवश्यक हुआ, अनुचित उपायों का सहारा भी लिया। कृष्ण का तर्क था कि यदि शत्रु बलवान हो तो छल न्यायोचित है।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दो हजार साल पहले लिखी गई तिक्कुरल में लिखी कुछ पंक्तियाँ बताई थीं जिसमे कहा था कि किसी देश की सत्ता सद्भावनापूर्ण जीवन तभी दे सकती है जब उस राष्ट्र की सुरक्षा व्यवस्था नागरिकों के प्रति ताकतवर और मजबूत हो। रामायण में भी लिखा है कि पुरूसार्थ से अर्जित की गई सत्ता राष्ट्र को शक्तिशाली बना सकती है।

ये बातें आपको बताना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और वर्तमान विधानसभा चुनावों में आतंकवादी संगठन बाधा उत्पन्न करने के प्रयास कर सकते हैं। सुरक्षा बलों को सतर्क और इस तरह की परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहने की जरूरत है। प्रधानमंत्री की इस बयान से सवाल खड़ा होता है कि आदीकाल से लेकर वर्तमान तक जिस विश्व सक्ति राष्ट्र की हम बात करते हैं क्या ये हमारे लिए शर्मनाक नहीं है ?

प्रधानमंत्री ये भी कहते नहीं चुक रहे है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर लगातार युद्ध विराम का उल्लंघन होरहा है। ऐसे में सवाल यहा भी खड़ा होता है, तो फिर मनमोहन सिंह नवाज सरीफ से अमेरिका में किसलिए हाथ मिलाने गये थे। अमेरिका के पैसे से पलने वाला पाकिस्तान अगर हमें आंखें दिखा रहा है तो सवाल उठना लाजमी है की क्या सत्ता पुरुषार्थ खो दिया है?

जिस देश कि शक्ति से चाईना और अमेरिका जैसे प्रमाणु सत्ता संपन्न देश सहमे हुए है उस के प्रधानमंत्री आतंकी हमला होने की रोना रो रहे है। चाइना फॉरेन अफेयर्स यूनिवर्सिटी के रणनीतिक एवं संघर्ष प्रबंधन केंद्र के निदेशक सु हाओ ने हाल ही कहा था कि अग्नि-5 का परीक्षण यह दर्शाता है कि भारत विश्व शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने की दिशा में ठोस कदम उठा रहा है।

अमेरिका में एशियाई मामलों के सहायक विदेश मंत्री ब्लेक ने कहा, है कि भारत के पास विश्व शक्ति बनने के लिए पर्याप्त संस्थागत क्षमता है। आज एक ओर हमारा देश इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रम के तहत उपग्रहयान मंगल ग्रह पर भेज रहा है और हमारे नागरिक गौरवावित होकर अपना सिना चैड़ा कर के पूरी दुनिया में डंका पीट रहे है तो वहीं दुसरी ओर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे है कि अगले साल लोकसभा चुनाव में आतंकी हमला हो सकता है हमें सर्तक रहने कि जरूरत है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या सत्ता ने पुरुषार्थ खो दिया है ?

देशी चुनाव में विदेशी चन्दा कितना सही ?

अंग्रेजी में एक शब्द है ‘‘डोनेशन’’ जिसका हिन्दी में अर्थ दान और चन्दा होता है, लेकिन दोनों के अर्थ सर्वथा एक दूसरे से भिन्न है। मसलन, दान बिना मांगे, श्रृद्धा से दिया जाता है। शास्त्रों में इसका अपना एक महत्व हैं एवं इस बाबत् यहां तक कहा गया है कि दान देते वक्त दाएं हाथ का बाएं हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। दानदाता की नजर नीची एवं हाथ ऊपर होता है, वही चन्दा मांगा जाता है कुछ डर एवं भय से तो कुछ स्वार्थ पूर्ति एवं सिद्धि के लिए देते हैं। राजनीति में चन्दा एक इन्वेस्टमेंट है, चन्दा आगे काम कराने के लिए घूस है? चन्दा अधिकारत्व को बढ़ाता है, चन्दा उद्योगपतियों के लिए मनमाफिक कार्य एवं नीति बनाने के लिए पूर्व भुगतान हैं?

6 राष्ट्रीय दलों की बढ़ती अकूत धन सम्पदा का तिलिस्मी खजाना अब आम आदमी की नजरों में न केवल एक पहेली बनता जा रहा है बल्कि इस तिलिस्म को तोड़ने एवं रहस्यों को जानने की उत्सुकता, राजनीतिक पार्टियों के लिए भविष्य में एक संकट के रूप में भी जानकार इसे देख रहे हैं।

यूं तो जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 298 के तहत् राजनीतिक पार्टियां किसी भी व्यक्ति, कम्पनी से चन्दा ले सकती है लेकिन देश के बाहर से विदेशी भागीदारी रेग्यूलेशन एक्ट 1976 सेक्शन-2 (ई) के तहत् कोई भी राशि चन्दा के रूप में स्वीकार नहीं कर सकेंगे। इसी के साथ जनप्रतिनिधित्व एक्ट के सैक्शन 29 के तहत् प्रत्येक वित्तीय वर्ष में 20 हजार से ज्यादा प्राप्त धन राशि की रिर्पोट तैयार करनी होगी, साथ ही साथ इसी एक्ट के 29 (स) के तहत् 20 हजार से ज्यादा प्राप्त चन्दा देने वालों की राशि को चुनाव आयोग के साथ इनकम टैक्स विभाग को भी फार्म 24 (अ) टैक्स छूट के लिए जमा करना होता है। म्पनी एक्ट 1956 के सेक्शन 293 (अ) के अनुसार कोई भी कम्पनी उसके अस्तित्व के 3 वर्ष बाद ही चन्दा दे सकेगी पहले नहीं। तीन वर्ष बाद भी कम्पनी अपने लाभ का 5 प्रतिशत तक ही चन्दा दे सकती है। इस बात को कम्पनी को कम्पनी एक्ट 293 (अ) के तहत बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की अनुमति के साथ उजागर करना होगा वहीं कम्पनी एक्ट 293 अ (प) के अनुसार शासकीय कम्पनी से चन्दा राजनीतिक पार्टियों से नहीं ले सकेगी।

एडीआर 2004-05 से जुलाई 2012 तक पांच राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा प्राप्त चन्दे का विश्लेषण कर रिपोर्ट बनाई जिसके अनुसार विगत 7 वर्षों में कांग्रेस 2008 करोड़ रूपये भाजपा 994 करोड़ रूपये, बसपा 484 करोड़ रूपये, सी. पी. एम. 417 करोड़ रूपये, सपा 279 करोड रूपये, इकटठा किया। 2009-10 एवं 2010-11 में राजनीतिक पार्टियों ने कुल आय का भाजपा 22.76 प्रतिशत, 11.89 कांग्रेस एवं एन. सी. पी. 4.64 प्रतिशत, सी.पी.एम. 1.29 प्रतिशत ने ज्ञात स्रोत को ही बताया। वही बसपा ने 20 हजार से ज्यादा किसी से धन लिया ही नहीं जबकि 2009-10 एवं 2010-11 में 172.67 करोड रूपये, चन्दा एकत्रित करने का आंकड़ा दर्शा रही है। सी. पी. एम.  ने 57.02 प्रतिशत 20 हजार से ज्यादा दान दाताओं को ही दिखाया हैं।

एडीआर के उक्त आंकडो से एक बात तो साफ उभर कर आती है कि सभी राजनीतिक पार्टियां अज्ञात धन के स्त्रोतों को तो छिपाना ही चाहती है। कही यही तो ‘‘काला धन’’ नहीं है? पारदर्शिता का जमाना है लोग जागरूक हो रहे है। होना तो यह भी चाहिए कि प्रत्येक दानदाता/चन्दा देने वाले का नाम पार्टी की वेब साइट पर प्रदर्शित किया जावें ताकि आयकर विभाग को भी सही आंकलन करने में न केवल सुगमता हो बल्कि देश के विकास की योजनाओं को भी सही-सही आंकलन कर बनाया जा सकें।

यूं तो अरविन्द केजरीवाल पर विदेशी चन्दा को ले जांच चल रही है लेकिन केजरीवाल ने वेबसाइट पर सभी चन्दा देने वालों को नाम डाल कर अन्य पार्टियों के सामने न केवल चुनौती दे एक बड़ी समस्या को अनजाने में ही खडी कर दी है बल्कि उनके द्वारा वर्षों से चन्दे इकटठा करने की प्रक्रिया एवं उनके द्वारा एकत्रित धन राशि से पर्दा हटाने के लिए मजबूर करने का भी दुःसाहस किया है। इसी के चलते बड़े-बडे राजनीति के मगरमच्छों ने केजरीवाल को कभी सीधे तो कभी अन्ना आंदोलन में एकत्रित चन्दे के माध्यम से घेरना शुरू कर दिया हैं।

दिये गये चन्दे की राशि 1 रूपया हो या लाख, करोड़ या इससे भी अधिक हिसाब तो हिसाब होता है। बड़ी पार्टियों का यह कुर्तक कि ‘‘आप’’ जैसी छोटी पार्टियों को लेखा-जोखा वेबसाइट के माध्यम से प्रदर्शित करना आसान है लेकिन बड़ी पार्टियों को मुश्किल है, मुश्किल हो सकता है। लेकिन असंभव नहीं है। आज आम आदमी को यह जानने का पूरा हक है कि चन्दा दाता कौन-कौन और कितने है ताकि चन्दा देने वाले एवं लेने वलों के आयकर रिर्टन, आय-व्यय के बीच काले धन के प्रवाह की संजीवनी अच्छे-अच्छे जनहित के निर्णय दे रही है जिससे घाघ राजनीतिक पार्टियां भी खतरा महसूस कर रही है। दिल्ली हाईकोर्ट का 23 अक्टूबर 2013 का ‘‘आम’’ पार्टी के विदेश से मिले चन्दे के स्त्रातों की जांच का फैसला देर सबेर, ‘‘चन्दे की जमा खोरी’’ के इतिहास में एक ’’मील का पत्थर’’ साबित होगा। अब वक्त आ गया है कि निर्वाचन आयोग को भी अपने कानूनों में पारदर्शिता के लिए बदलाव लाना होगा। मसलन प्रत्येक चन्दा दाता का नाम उजागर करने की बाध्यता होनी ही चाहिए।

क्या सत्ता का सेमीफाइनल है पांच राज्यों का चुनाव ?

पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों के नतीजे आठ दिसंबर को आ जायेगें और पता लग जाएगा कि मिजोरम, दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसकी सरकारें बनेगीं लेकिन इसी के साथ यह भी अंदाज़ लग जाएगा कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में दोनों बड़ी पार्टियों में से किसका पलडा भारी पडेगा. मुख्यरूप से २०१४ के चुनावो के संकेत दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों से आयेगें. अभी यहाँ दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार है जबकि बाकी दो में बीजेपी के कार्यकर्ता बतौर मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं. लेकिन इन चार राज्यों में चले रहे चुनाव प्रचार को नजदीक से देखें तो बीजेपीवाले चाहकर भी मोदीलहर नहीं पैदा कर सके हैं. सभी राज्यों में स्थानीय मुद्दे और नेता हावी और प्रभावी हैं. 

लेकिन बीजेपी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा रखा है और बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा है. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बार बार बताया है कि देश के सबसे लोकप्रिय नेता को उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उतारा है जबकि कांग्रेस ने अभी किसी को उम्मीदवार नहीं घोषित किया है. बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि काँग्रेस की ओर से पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नाम की घोषणा हो जाए जिस से वे उनको लक्ष्य करके चुनाव का संचालन कर सकें और कांग्रेस को पूरी तरह से घेर सकें. नरेन्द्रभाई मोदी को भरोसा है कि वे भाषण कला में बहुत प्रवीण हैं और राहुल गांधी उतने कुशल वक्ता नहीं हैं इसलिए उनको भाषण में हराकर चुनाव जीता जा सकता है लेकिन कांग्रेस उनको यह मौक़ा नहीं दे रही है. कांग्रेस की तरफ से वे नेता जो नरेंद्र मोदी से बड़े माने जाते हैं उतार दिए गए हैं और नरेंद्र मोदी को कभी मनीष तिवारी तो कभी कपिल सिब्बल की गालियाँ खाकर अपना जायका बदलना पड़ रहा है.

चार राज्यों में चुनाव की सरगर्मी और रुझान रोज ही नए आयाम ले रही है. जब विधान सभा चुनावों की घोषणा हुई थी तो माना जा रहा था कि बीजेपी का पलडा चारों ही राज्यों में भारी पड़ेगा लेकिन ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढ़ा तस्वीर बदलना शुरू हो गयी. दिल्ली में अन्ना हजारे के साथी अरविंद केजरीवाल की पार्टी बहुत बड़े पैमाने पर कांग्रेस विरोधी वोटों में विभाजन कर रही थी और माना जा रहा था राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ भारी नाराज़गी के बावजूद बीजेपी की राह मुश्किल हो गयी थी. लेकिन ताबड़तोड़ दो घटनाएं हो गयीं. एक तो अन्ना हजारे ने अरविंद केजरीवाल के खिलाफ एक बयान सार्वजनिक कर दिया जिसमें केज़रीवाल के ऊपर चंदे की हेराफेरी का आरोप लगा था .दूसरी घटना और खातरनाक है. आम आदमी पार्टी के बड़े नेताओं शाजिया इल्मी और कुमार विश्वास पर आर्थिक अनियमितता का स्टिंग आपरेशन हो गया. टेलिविज़न की कृपा से बनी पार्टी के बड़े बड़े नेता टेलिविज़न चैनलों में निरुत्तर होते नज़र आये .और अब दिल्ली में चार दिसमबर को होने वाले मतदान की तस्वीर बदल गयी है क्योकि लगता है कि आम आदमी पार्टी की जो चुनावी गति थी उसमें ब्रेक लाग चुका है और अब वह कांग्रेस विरोधी वोटों को तोड़ नहीं पायेगी. ज़ाहिर है कि दिल्ली में कांग्रेस की हालत फिर पहले जैसी हो गयी है और यहाँ बीजेपी भारी पड़ रही है.

छत्तीसगढ़ में मतदान हो चुके हैं. शुरुआती दौर में माना जा रहा था कि वहाँ के मुख्यमंत्री बहुत लोकप्रिय हैं और उनके राज्य में बीजेपी को कोई नहीं हरा सकता लेकिन जैसे जैसे चुनाव अभियान आगे चला तस्वीर बदलती गयी. नरेंद्र मोदी की वेव पैदा करने की कोशिश में लगे हुए बीजेपी के नेता और मीडिया संगठन बहुत निराश हुए क्योंकि वहाँ नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता है. छत्तीसगढ़ की राजनीति के जानकार और बुद्धिजीवी ललित सुरजन ने अपने एक लेख में इस बात को  बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया. उन्होने लिखा है कि “चुनाव प्रचार करने के लिए प्रदेश के बाहर से बड़े-बड़े लोग यहां आए। कांग्रेस की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तो भाजपा से लालकृष्ण आडवानी, राजनाथ सिंह व नरेन्द्र मोदी। श्री मोदी ने पहले चक्कर में तीन जगह सभाएं लीं। कांकेर की सभा में बमुश्किल तमाम ढाई हजार लोग थे और जगदलपुर में छह हजार। उसी दिन कोण्डागांव में सोनिया गांधी की सभा में पच्चीस हजार से अधिक की उपस्थिति थी। श्री मोदी के दूसरे चक्कर में ताबड़तोड़ नौ सभाएं थीं जिसमें दुर्ग, रायपुर व रायगढ़ में उपस्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन अगले दिन राहुल गांधी के सभाओं के आगे मोदीजी फीके पड़ गए। ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि मोदीजी की जुमलेबाजी को लोग अब पसंद नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिए कि छत्तीसगढ़ में वाकई उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है? क्या इसलिए कि जीरम घाटी की शहादत को प्रदेश की जनता भूली नहीं है?” ललित सुरजन के यह टिप्पणी बहुत कुछ बयान कर देती है क्योंकि चाउर वाले बाबा की ख्याति हासिल कर चुके छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह अपने राज्य में नरेंद्र मोदी से बहुत बड़े नेता हैं .

मध्यप्रदेश में भी नरेंद्र मोदी से बड़े बीजेपी नेता के रूप में वहाँ के मुख्यमंत्री ,शिवराज सिंह चौहान की पहचान है. अपने को शिव मामा के रूप में स्थापित कर चुके मुख्यमंत्री ने राज्य के हर इलाके में अपनी वफादारी वाले कार्यकर्ता  पैदा कर दिया है. शायद इसी वजह से उनके मुकामी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ घनघोर जनमत के बावजूद वे मज़बूत विकेट पर माने जा रहे हैं. कांग्रेस ने भी अपने आपको कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पिछले पांच साल से दिग्विजय सिंह ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस थे लेकिन आख़िरी समय में ज्योतिरादित्य सिंधिया को वहाँ भेजकर अजीब स्थिति पैदा कर दी गयी. टिकट वितरण में भी जो लोग चुनाव जीत सकते थे अगर उनकी दिग्विजय सिंह से कोई निकटता सामने आ गयी तो पता नहीं किन कारणों से उनको टिकट नहीं दिया गया. बहरहाल मध्यप्रदेश में भी बीजेपी की हालत मज़बूत बतायी जा रही है.

राजस्थान की कहानी भी कांग्रेसी अंतर्कलह के कारण बीजेपी के पक्ष में जाती दिख रही है. वहाँ के मुख्यमंत्री ने जनहित की बहुत सारी योजनाएं चला रखी हैं लेकिन उनकी पार्टी के दिल्ली में रहने वाले नेता उनके खिलाफ काम कर रहे हैं और अगर राजस्थान में कांग्रेस हारती है तो उसमें बीजेपी की कोई बहादुरी नहीं होगी उसके लिए मूल रूप से कांग्रेस की आपसी लड़ाइयां ही ज़िम्मेदार होंगीं. इस तरह से मौजूदा विधान सभा चुनावों के बारे में बहुत ही स्पष्ट तरीके से कहा जा सकता है कि कहीं कोई नरेंद्र मोदी क प्रभाव नहीं हैं. सभी राज्यों में मुद्दे शुद्ध रूप से स्थानीय हैं और राज्यों के नेता अपने बल पर चुनाव लड़ रहे हैं.

23 November 2013

क्या केजरीवाल की पोल खुल गई है ?

भारत की अन्य राजनैतिक पार्टियों से अपने आप को अलग है बताने वाली आम आदमी पार्टी आज उसी कतार में आकर खड़ी हो गई है जहां पर पार्टी हीत सर्वोपरि और करोड़पतियों की कतार पार्टी की खेवनहार होते है। केंद्रीय आलाकमान से अलग, लाल बत्ती से परहेज, बिना सुरक्षा बल के प्रचार प्रसार करने से लेकर आलीशान सरकारी बंगले से अलग रहने का वादा करने वाली पार्टी आज कटघरे में खड़ी है। आम आदमी पार्टी का कहना है की उनकी पार्टी का कोई भी सांसद और विधायक 25000 से ज्यादा वेतन नहीं लेगा। साथ ही पूर्ण वित्तीय पारदर्शिता के साथ कार्य करेगी तथा करोड़पतियों को टिकट नहीं देगी। मगर आज इन दावों की पोल खुल गई है। अगर इन आकड़ों पर गौर करें तो आम आदमी की दावे सिर्फ हवा हवाई ही नज़र आती है।  

आम आदमी पार्टी की सबसे अमीर उम्मीदवार है शाजिया इल्मी। शाजिया इल्मी और उनके पति के पास लगभग 32 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति है। इनके अलावा उत्तम नगर से प्रत्याशी देशराज राघव के पास 12 करोड़ रुपये की संपत्ति, नरेला से चुनाव लड़ रहे बलजीत सिंह मान के पास 8 करोड़ 67 लाख रुपये, महरौली के नरेंद्र सिंह के पास 3 करोड़ 7 लाख रुपये, मादीपुर से गिरिश सोनी के पास 1 करोड़ 25 लाख रुपये, राजौरी गार्डन से प्रीतपाल सिंह के पास 1 करोड़ 70 लाख रुपये, तिलक नगर से जरनैल सिंह के पास 1 करोड़ 70 लाख रुपये, विकासपुरी से महेन्द्र यादव के पास 1 करोड़ 57 लाख रुपये, कालकाजी से धर्मवीर सिंह के पास 1 करोड़ 4 लाख रुपये की चल-अचल संपत्ति है। आप के 34 प्रत्याशियों में से लगभग 45 फीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं। अब आप खुद समझ गये होगें कि इस पार्टी की दावे और हकीकत में कितना जयादा आकाश पताल का अंतर है।

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल कल तक दूसरी पार्टियों के नेताओं और करोड़पतियों की पोल खोलते दिखाई दे रहे थे, मगर आज उनकी पार्टी ही करोड़पतियों को टिकट देकर चर्चा में है। दुसरों को नैतिकता कि पाठ पढ़ाने वाले अरबिंद केजरीवाल 2002 से 2004 के बिच 2 साल की पढ़ाई करने देश के पैसे से विदेश गए लेकिन वहां से लौटे, तो इन्हें नौकरी से विरक्ति हो गई। ज्ञान लेने के बाद कानूनन इन्हें दो साल तक नौकरी में रहते हुए देश की सेवा करनी चाहिए थी, लेकिन इन्होंने नहीं की। एनजीओ बनाकर जनता की जज्बात से खेलने लगे। क्या यह कानून का उल्लंघन नहीं था? क्या ये देश की जनता के धन के साथ धोखा नहीं था?

केजरीवाल ने अन्ना का भी केवल यूज ही किया। अन्ना के साथ रहते हुए वे राजनीति का विरोध करते रहे और जब देखा कि अब उनके खेल के मुताबिक, माहौल तैयार हो चुका है, तो राजनीतिक पार्टी लेकर मैदान में उतर आए। तो वहीं भ्रष्टाचार और अमीरों की राजनीति पर अंगुली उठाने वाली शाजिया इल्मी अब सवालों के घेरे में हैं। 30 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालकिन लाखों करोड़ों के वारे न्यारे करते स्टिंग ऑपरेशन में नजर आ रहीं हैं। तो वहीं दुसारी ओर कुमार विश्वास कवि सम्मेलन करने के लिए कैश पैसे लेकर आयकर नियमों कि धज्जियां उड़ाते हुए कैमरे में कैद हो चुके है। इल्मी वीडियो में रिपोर्टर से कहती नजर आती हैं कि पार्टी नकद में ही चंदा स्वीकार करती है। वित्तीय पारदर्शिता की दावा करने वाली पार्टी नकद चंदा स्वीकार कर ये सबित कर दिया है कि पैसे की लेन देन में वे कितना पारदर्शी है। मगर अब सच्चाई सामने आने के बाद आम आदमी पार्टी खुद ही कातिल खुद ही मुंसिफ कि भूमिका में नजर आ रही है।

इन सब के अलावे आम आदमी पार्टी ने एफआईआर की सेंचुरी पूरी कर ली है। अब तक आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में कुल 359 एफआईआर दर्ज कराई जा चुकी हैं, इनमें आम आदमी पार्टी के खिलाफ सबसे ज्यादा 100 एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं। केजरीवाल विदेशों से सैकड़ों करोड़ो रूपये चंदा लेने के मामले से अभी उबरे भी नहीं थे कि आचानक आई स्टिंग ऑपरेशन ने केजरीवाल की रही सही दावे भी दुनिया के सामने उजागर हो गई। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या केजरीवाल की पोल खुल गई है

विवादों में आम आदमी पार्टी

  • अरविंद केजरीवाल ने बरेली में दंगा भड़काने के आरोपी धार्मिक नेता मौलाना तौकीर रजा से मुलाकात कर चुनाव में प्रचार में मदद और समर्थन मांगा।
  • केजरीवाल की पार्टी पर विदेशों से फंड मिलने का आरोप लग चुका है कोर्ट के आदेश पर सरकार ने जांच के आदेश दिया है।
  • भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दावा किया है कि अरब देशों में नागरिकों के बीच विद्रोह फैलाने के लिए पैसे देने वाले संस्थान ने ही आप को चार लाख डॉलर की आर्थिक मदद दी है।
  • समाजसेवी अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान जुटाए गए धन के पार्टी द्वारा गलत इस्तेमाल पर नाराजगी जाहिर कर चुके है।
  • अन्ना हजारे अरबिंद केजरीवाल पर उनके नाम पर सिम कार्ड बेचने का आरोप लगाया है।
  • धर्म के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं से वोट मांगने पर चुनाव आयोग ने अरविंद केजरीवाल को नोटिस जारी किया है।
  • स्टिंग ऑपरेशन में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों व नेताओं पर चुनावी खर्च के लिए बेनामी धन लेने पर रजामंदी जताने, अवैध संपत्ति विवादों में मदद के वादे जैसे आरोप लगा चुका है।
  • शीला दीक्षित ने अरविंद केजरीवाल पर मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया है।
  • पार्टी के एक पूर्व सदस्य ने केजरीवाल पर दो करोड़ रुपये लेकर बदरपुर सीट का टिकट बेचने का आरोप लगाया है।
  • अरविंद केजरीवाल द्वारा किए जा रहे एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान अन्ना के एक समर्थक ने केजरीवाल पर धोखाधड़ा का आरोप लगा कर स्याही फेंकी।
  • अरबिंद केजरीवाल 2002 से 2004 के बिच 2 साल की पढ़ाई करने के लिए सरकारी पैसे से विदेश गए थे, लेकिन वहां से लौटेने के बाद षर्तो के अनुसार नौकरी करनी थी मगर उन्होने नहीं किया।

तहलका के ऑपरेशन राक्षस को क्या हो सजा ?

कलतक देश दुनिया में तहलका मचाने वाला पत्रकार आज खुद ही अपनी काली करतूतों से सुर्खियों में है। देश की दशा और दुर्दशा पर बड़ी गहराई से विचार विमर्श करने के लिए जनपक्षधरता की पत्रकारिता का दावा करनेवाले तहलका आज अपने ही पक्ष को लेकर पस्चताप कर रहा है। थिंक इंडिया कार्यक्रम में गहन चिंतन मनन के बिच तहलका के संपादक ने जिस मनोदशा को दर्शाया उसने पूरा मीडिया जगत को शर्मशार कर दिया। चिंतन मनन करने के बाद थक चुके वक्ताओं और बुद्धिजीवियों के लिए समुंद्र के किनारे शराब  का समंदर भी लहराया गया। आरिफ लोहार का जुगनी से लेकर रेमो फर्नांडीज का पंजाबी पॉप के बिच तरूण तेजपाल थिरकने से खुद को नहीं रोक सके।

इसी हिलने डुलने के क्रम में तेजपाल का मन भी अपने ही सकर्मी को देख कर हिल डठा। अपने यहां काम करनेवाली एक नौजवान पत्रकार पर तेजपाल हाथ फेर बैठे। वो भी एक नहीं, दो दिन। नौजवान महिला पत्रकार खुद उनके बेटी की दोस्त है। तेजपाल पर गोवा में बौद्धिंक चिंतन और कॉकटेल का नशा ऐसा मिश्रित हो गया कि न तो वे बेटी पहचान पाये और न ही दोस्त। और तो और वे यह भी भूल गये कि जिस लड़की के साथ वे जोर जबर्दस्ती कर रहे हैं वह शायद उन्हें पत्रकारिता का आदर्श मानकर ही तहलका में नौकरी करने आई थी।

थिक इंडिया कार्यक्रम में तो इसे छोटी मोटी बात बता कर मामला रफा दफा कर दी गई। मगर जब पीडि़ता खुद दुनिया के सामने अपनी आपबिती सुनाई तो तरूण तेजपाल के पैल तले जमीन खिसक गई। बात जब तहलका की प्रबंध संपादक सोमा चैधरी तक पहुंची तो तेजपाल ने विदेशी अंदाज में किये गये पाप का देशी अंदाज में प्रायश्चित करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में इस पाप के प्रायश्चित पर सवाल खड़ा होता है कि क्या तरूण तेजपाल के लिए किसी महीला के प्रति ऐसे घिनौनी हरकतों के लिए माफी मात्र से ही गुनाह खत्म हो जाता है?

मगर अब तेजपाल के प्रायश्चितनुमा पत्र को आधार बनाकर गोवा पुलिस ने स्वयं ही शिकायत दर्ज कर जांच भी शुरू कर दी है। इस पूरे मामले को लेकर राजनीति भी तेज हो गई है। तेजपाल ने बीजेपी के दामन पर जो दाग लगाया था, उसको धोने का इससे शानदार मौका और क्या हो सकता है? ऐसे में बीजेपी तरूण जेतपाल की गिरफ्तारी का मांग कर रही है। तो वहीं दुसरी ओर कांग्रेस बहुत सतर्क है। मनीष तिवारी कह रहे है कि इसे समझने के लिए बहुत समझदारी से कोई जांच आयोग बिठाना पड़ेगा।

बीजेपी और कांग्रेस की कहानी तो अलग है, लेकिन तरुण तेजपाल को आसानी से सेक्स चिंतन से मुक्ति मिलने की संभावना बहुत कम ही नजर आ रही है। दिल्ली की चलती हुई बस में शराब के शिकार कुछ नौजवानों ने एक युवती को अपना शिकार बनाया था, कुछ उसी अंदाज में तेजपाल ने भी सराब की नशें में धुत होकर बुत बन गये। काम तो उन्होंने भी वही किया जो दिल्ली की चलती हुई बस में दरिंदों ने किया था, बस फर्क सिर्फ इतना है कि तरुण तेजपाल के हाथों में लोहे की छड़ नहीं थी। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि तहलका के ऑपरेशन राक्षस को क्या हो सजा?

डब्ल्यूटीओ बैठक कितना आम कितना खास !

इंडोनेशिया के एक द्वीप प्रदेश बाली में आगामी 3 से 6 दिसंबर के बीच विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की नौंवी मंत्री स्तरीय बैठक होने जा रही है। इस बैठक में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव के पारित किये जाने की योजना है। दुनिया के जी-33 समूह के देश पीस क्लाज लाने की तैयारी कर रहे हैं। इन जी-33 देशों में भारत भी शामिल है। नरेश सिरोही मानते हैं कि अगर इस पीस क्लाज को मंजूरी मिलती है तो पीस क्लॉज पर लगाई जा रही शर्तों पर अमल करना न सिर्फ देश के किसानों की आजीविका पर सवालिया निशान लगा देगा, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा और प्रभुसत्ता को भी खतरे में डाल देगा। 

डब्ल्यूटीओ यानी विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते यानी एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर (एओए) के अनुच्छेद 13 को ‘ड्यू रेस्ट्रेंट‘ कहा जाता है जिसका लोकप्रिय नाम ‘पीस क्लॉज‘ है। इस शांति धारा (पीस क्लॉस) में अशांति अधिक है, असल में पीस क्लॉज के तहत किसी भी देश (डब्ल्यूटीओ की शर्तों को मानने वाला देश) द्वारा निर्यात सब्सिडी (आर्थिक सहायता) और घरेलू सहायता कार्यक्रमों की तय सीमा से ऊपर भी चले जाने का कोई देश विरोध नहीं कर सकता है। पहले विकसित देश जैसे अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ‘पीस क्लॉज‘ का उपयोग करके ‘ग्रीन बॉक्स‘ के तहत अपने किसानों और निर्यातकों काफी आर्थिक मदद पहुंचाई है। और 31 दिसंबर सन् 2003 में इस पीस क्लॉस का अंत हो गया था, लेकिन इन विकसित देशों द्वारा सब्सिडी आदि वैसे ही जारी रही। दोहा राउंड 2001 में भी कृषि सब्सिडी खत्म होने की बात कही जा रही थी जो विकसित देशों ने नहीं किया बल्कि उल्टे विकासशील और गरीब देशों को अपना बाजार खोलने के लिए दबाव डाला गया और कैनकून 2003 में भी कृषि मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई थी और कैनकून में यह सहमति न बन पाना विकासशील देशों की जीत के रूप में देखा गया था। लेकिन अब बाली 2013 में विकासशील देश अपनी जीत को हार में बदलने की तैयारी में हैं।

असल में डब्ल्यूटीओ वार्ता के उरुग्वे राउंड के समझौतों के बाद ‘पीस क्लॉज‘ प्रभाव में आया और इसकी अवधि नौ वर्ष की रखी गई थी। उरुग्वे राउंड में कृषि समझौते पर कोई नतीजा ना निकलने पर यूरोपीय कमीशन और अमेरिका ने ‘पीस क्लॉज‘ का उपयोग, बात को आगे बढ़ाने के लिए किया था। अब डब्ल्यूटीओ के अधिकतर सदस्य देश इस विवदास्पद ‘पीस क्लॉज‘ के हक में नहीं थे, लेकिन डब्ल्यूटीओ ही कहीं पटरी से फिसल न जाए, इसलिए मजबूरी में इन देशों ने इसे माना। हालांकि सोचने वाली बात यह है कि फिसलने देते डब्ल्यूटीओ पटरी से, क्या जरुरी थी ऐसे व्यापार समझौते को मानने की जिसमें सिर्फ विकसित देशों का ही भला हो, लेकिन ‘पीस क्लॉज‘ को ‘पीस फुल्ली‘ सहमति दे दी गई।

तो इस ‘पीस क्लॉज‘ का नाम अब फिर क्यों आ रहा है? 3 से 6 दिसंबर 2013 को बाली में डब्ल्यूटीओ की नौंवीं मंत्री स्तरीय होने वाली है। लेकिन देश के हित में सोचने वाले लोगों को भारत के नेतृत्व में जी-33 देशों के समूह द्वारा रखे जाने वाले खाद्य सुरक्षा प्रस्ताव को लेकर काफी चिंताएं उभर रही हैं। और यह चिंता इसलिए है कि भारत के नेतृत्व में जी-33 देश इस विवादास्पद ‘पीस क्लॉज‘ को लाने को तैयार हैं। डब्ल्यूटीओ की शर्तों के अनुसार कुल कृषि उत्पादन के 10 फीसदी मूल्य को सब्सिडी के तौर पर दिया जा सकता है। लेकिन, कई विकासशील देशों खासकर भारत में खाद्य सुरक्षा विधेयक पूरी तरह लागू होने के बाद ये सीमा से सब्सिडी ऊपर निकल जाएगी, इसलिए ‘पीस क्लॉज‘ को बाली में लाने की तैयारी है, इससे भारत में किसानों और अन्य सब्सिडी पर कोई आवाज नहीं उठाएगा और न ही भारत किसी अन्य को कुछ कह सकता है।

डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार सब्सिडी को व्यापार के लिए विकृत करने वाला माना जाता है और इसीलिए सब्सिडी को कुल उत्पादन के 10 फीसदी तक सीमित करना आवश्यक है। आप खुद भी यह जानते हैं कि हाल ही में आए खाद्य सुरक्षा विधेयक के चलते, जल्दी ही भारत इस 10 फीसदी की सीमा को तोड़ देगा। इसलिए एओए यानी एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर में पीस क्लॉज के प्रस्ताव द्वारा बदलाव करने की बात कही जा रही है जिससे ग्रीन बॉक्स का लाभ लेकर विकासशील व गरीब देश सब्सिडी अपने किसानों को दे सकेंगे, जैसे विकसित देश दें रहें हैं।

डब्ल्यूटीओ में अपनी बात रखने के लिए पीस क्लॉज का सहारा लेने की बात उठाई जा रही है, जिससे भारत अगर सब्सिडी की सीमा पार करता है तो कोई भी उसे तंग नहीं करेगा। लेकिन साथ ही ये बात भी है कि ये पीस क्लॉज 4 वर्ष के लिए ही है, जबकि पहले भारत करीब 8 साल के लिए इसकी मांग कर रहा था। असल में इस ‘पीस क्लॉज की अवधी के दौरान कृषि समझौते, सब्सिडी आदि का स्थाई समाधान ढूंढने की बात है। लेकिन अच्छा होता कि भारत ‘पीस क्लॉज‘ के झमेले ना पड़ कर डब्ल्यूटीओ में विकासशील व गरीब देशों के हित में सब्सिडी आदि का मुद्दा उठाता और अमीर देशों द्वारा दी जाने वाली कृषि व निर्यात सब्सिडी से गरीब देशों को होने वाले नुकसान का स्थाई समाधान ढूंढता। 

डब्ल्यूटीओ में एक तरह से देखा जाए तो गरीब और विकासशील देशों के लिए कुछ खास है ही नहीं, असल में डब्ल्यूटीओ की शर्त न मानने पर प्रतिबंध आदि लगाने का प्रावधान है, लेकिन क्या कोई गरीब अफ्रीकी देश, किसी विकसित देश जैसे अमेरिका की दादागिरी पर प्रतिबंध लगा सकता है? अमेरिका और यूरोप के देश भी डब्ल्यूटीओ के सारे तोड़ ढूंढकर अपने हित में इस्तेमाल करते है। ये विकसित देश एक तरफ कारोबार के लिए आसान शर्तों की बात करके आयात की शर्तें कम करते है तो दूसरी तरफ आयातित उत्पाद के लिए ऊंचे मानक रखते है और निर्यात सब्सिडी देकर गरीब और विकासशील देशों के लिए कारोबार का रास्ता बंद कर देते है या फिर बहुत थोड़ा खोलते है। 

अब सोचिए सरकार चार साल के लिए अपना हित सुरक्षित रखने की बात कर रही है, तो क्या इस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद हमें अपने देश के भूखों को खाना खिलाने की जरुरत नहीं रह जाएगी? क्या उसके बाद किसानों को कोई भी आर्थिक मदद देना बंद कर किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा? हम डब्ल्यूटीओ में इस समस्या का स्थाई समाधान क्यों नहीं खोजते हैं और वैसे भी पीस क्लॉज जिस रूप में पेश किया जा रहा है उससे आप अपने देश के लोगों को सब्सिडी का अधिक लाभ दिला पाएंगे...इसपर कुछ गंभीर सवाल हैं।

मजेदार बात है कि विकासशील और गरीब देशों में दी जाने वाली कृषि सब्सिडी का विरोध सबसे अधिक अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा कर रहे हैं, जो खुद अरबों डॉलर की घरेलू और निर्यात सब्सिडी देतें हैं और इन सब्सिडी को इन देशों ने ग्रीन बॉक्स में डाल दिया है, जिस पर सवाल भी उठता। ये विकसित देश सब्सिडी में कितना खर्च करते हैं, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि 1996 में इन विकसित देशों में करीब 350 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी दी गई थी, जो 2011 में बढ़कर 406 अरब डॉलर हो गई।

डब्ल्यूटीओ की नीतियों में बदलाव होना भी चाहिए क्योंकि एओए के नियम सन् 1986-88 के दामों के अनुसार तय किए गए हैं और साथ ही एक्सटरनल रिफें्रस प्राइस जो पहले रुपये में तय किया था, अब उसे डॉलर में कर दिया गया है, इसे भी बदलवाने की आवश्यकता है। पर ऐसा होने नहीं जा रहा है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो 1986-88 से 2013 तक चावल और गेहूं के दामों में 300 फीसदी से भी अधिक का उछाल आ चुका है और उर्वरकों के दामों में भी करीब 480 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है यही हाल बीजों का भी है और डीजल के दामों के बारे में तो हम सब जानतें ही हैं।

पीस क्लॉज पर लगाई जा रही शर्तों पर अमल करना न सिर्फ देश के किसानों की आजीविका पर सवालिया निशान लगा देगा, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा और प्रभुसत्ता को भी खतरे में डाल देगा। हमने देश की करीब 67 फीसदी आबादी को भूखा न सोने देने के सरकार के संकल्प का समर्थन किया था और इसलिए खाद्य सुरक्षा विधेयक को अपनी सहमति भी दी थी।

लेकिन पीस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद क्या सरकार खाद्य सुरक्षा के हाथ खीच लेगी और इस बोझ को आने वाली सरकारों के सर रखकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहती है। ये कहां की नीति हुई कि अपना भार दूसरों के कंधों पर रख दो? क्या देश सिर्फ अगले दो या तीन साल ही चलने वाला है फिर क्या किसी की जिम्मेवारी नहीं रहेगी? क्या हम डब्ल्यूटीओ में होने वाली अनीतियों को अपने देश के किसान और गरीबों पर हावी होने देंगे? क्या किसान और गरीबों के हित को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी सुरक्षित रखना चयनीत सरकार का दायित्व नहीं है?

देश के किसानों और गरीबों का अहित करने वाले इस पीस क्लॉज का पूरे देश को विरोध करना चाहिए और किसी भी रूप में भारत के अधिकार और गौरव को सुरक्षित रखा जाना चाहिए। बाली में डब्ल्यूटीओ की बला से छुटकारा पाना होगा, लेकिन सिर्फ कुछ समय के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए...

"आम आदमी" या करोड़पति ?

जो व्यक्ति जनता को झूठा सपना दिखाए और अपने उत्तम चरित्र का बखान करते हुए देश के भ्रष्टाचारियों को समूल नष्ट करने के नारे लगाए, बाद में प्रपंच का सहारा लेकर जब वही व्यक्ति अपने मूल चरित्र में आ जाए, तो उसे आप क्या कहेंगे? कम से कम झूठा और धोखेबाज तो कहेंगे ही। आम आदमी पार्टी की सबसे अमीर उम्मीदवार शाजिया इल्मी और कुमार विश्वास की सच्चाई सामने आने के बाद आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल अब इसी श्रेणी में शामिल होते दिख रहे हैं। भले ही वे अपने आपको आम आदमी का उम्मीदवार बताते हों लेकिन वास्तव में वे खास लोगों के सिपहसालार हैं। 

संसद और विधानसभाओं में पहुंचे करोड़पतियों को लानत भेजने और इन करोड़पतियों के हाथ लोकतंत्र को बेचने का आरोप तमाम पार्टियों पर लगाने वाले केजरीवाल अब उसी रास्ते पर चल निकले हैं। करोड़पति नेताओं पर बात-बात में उंगली उठाने वाले केजरीवाल खुद तो करोड़पति हैं ही, दिल्ली विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने का दावा करने उनकी पार्टी के दो दर्जन से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार चुनाव में हैं, जो दूसरी पार्टियों के करोड़पतियों को भी मात दे रहे हैं। सच्चाई यही है कि आप पार्टी के 24 उम्मीदवार करोड़पति क्लब के सदस्य हैं। करोड़पतियों की मुखालफत करने वाले केजरीवाल के इस दोहरे चरित्र का हम खुलासा करेंगे, लेकिन उससे पहले कुछ और जानकारियां ले लें।   

देश के अन्य राज्यों के मुकाबले दिल्ली में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय 2.01 लाख रुपये है, तो चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की दौलत होश उड़ाएगी ही। पिछले सप्ताह दिल्ली में नामांकन दाखिल करने वाले करीब 66 फीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं। विदेशों से मिल रहे चंदे को लेकर आरोपों से घिरी उलझी आम आदमी पार्टी के भी करीब 24 उम्मीदवार करोड़पति क्लब के सदस्य हैं। राजधानी में रण के लिए मैदान में उतरे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कांग्रेस से शीला दीक्षित, आप से अरविंद केजरीवाल व भाजपा से डॉ़ हर्षवर्धन की बात की जाए, तो तीनों ही उम्मीदवार करोड़पति हैं। बिजवासन से भाजपा उम्मीदवार सत्यपाल राणा पिछले चुनाव के मुकाबले सोलह सौ फीसदी वृद्घि कर 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो गए हैं। विधानसभा उपाध्यक्ष अमरीश तो पिछले चुनाव में 8़3.5 लाख रुपये के स्वामी थे, जिनकी संपत्ति इस बार बढ़कर 1.15 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है।

आम आदमी पार्टी की सबसे अमीर उम्मीदवार का नाम है शाजिया इल्मी। शाजिया इल्मी और उनके पति के पास लगभग 32 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति है। इनके अलावा उत्तम नगर से प्रत्याशी देशराज राघव के पास 12 करोड़ रुपये की संपत्ति, नरेला से चुनाव लड़ रहे बलजीत सिंह मान के पास 8 करोड़ 67 लाख रुपये, महरौली के नरेंद्र सिंह के पास 3 करोड़ 7 लाख रुपये, मादीपुर से गिरिश सोनी के पास 1 करोड़ 25 लाख रुपये, राजौरी गार्डन से प्रीतपाल सिंह के पास 1 करोड़ 70 लाख रुपये, तिलक नगर से जरनैल सिंह के पास 1 करोड़ 70 लाख रुपये, विकासपुरी से महेन्द्र यादव के पास 1 करोड़ 57 लाख रुपये, कालकाजी से धर्मवीर सिंह के पास 1 करोड़ 4 लाख रुपये की चल-अचल संपत्ति है। आप के 34 प्रत्याशियों में से लगभग 45 फीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं।

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल कल तक दूसरी पार्टियों के नेताओं और करोड़पतियों की पोल खेलने के लिए जाने जाते थे, मगर आज उनकी पार्टी ही करोड़पतियों को टिकट देकर चर्चा में है। आप के नेता अरविंद केजरीवाल को आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं। आयकर विभाग की नौकरी छोड़कर राजनीति करने वाले केजरीवाल 2004 से लेकर 2011 तक 8 अवार्ड जीत चुके हैं। इस अवार्ड में मेग्सैसे पुरस्कार भी शामिल है। लगता है कि केजरीवाल इसी अवार्ड को बेचकर लोगों में अपनी ईमानदारी का सबूत देते फिर रहे हैं, लेकिन सवाल है कि क्या ईमानदार लोगों को ही मैग्सेसे अवार्ड मिलते हंै। इस अवार्ड को लेने वाले कई लोगों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। आरोप के घेरे में तो केजरीवाल भी हैं। आयकर विभाग में नौकरी करते हुए केजरीवाल 2002 से 2004 तक के लिए 2 साल की पढ़ाई करने विदेश गए थे। सरकारी पैसे पर पढ़ाई करने। जनता के पैसों पर ज्ञान लेने, लेकिन वहां से लौटे, तो इन्हें नौकरी से विरक्ति हो गई। ज्ञान लेने के बाद कानूनन इन्हें दो साल तक नौकरी में रहते हुए देश की सेवा करनी चाहिए थी, लेकिन इन्होंने नहीं की। एनजीओ बनाकर जनता की जज्बात से खेलने लगे। सरकार ने इन्हें नोटिस दिया कि ट्रेनिंग लेने के बाद उन्हें कानून के मुताबिक दो साल की नौकरी करनी थी। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो विदेश में उनके ज्ञान प्राप्ति के लिए लगभग नौ लाख रुपये खर्च किए गए हैं, वह वापस ली जाएगी। याद रहे केजरीवाल विदेश से 2004 में वापस लौट गए थे, लेकिन 2006 तक ये नौकरी से इस्तीफा नहीं दे पाए थे। क्या यह कानून का उल्लंघन नहीं था? क्या देश की जनता के धन के साथ धोखा नहीं था? याद रहे इसी धोखे के समय में उन्हें मैग्सेसे अवार्ड भी मिला। क्या एक धोखेबाज को मैग्सेसे आवार्ड मिल सकता है? फिर इसी केजरीवाल ने सरकार से नोटिस मिलने के बाद उतनी राशि वापस भी की, जितनी राशि उन पर विदेशों में खर्च हुई थी। अगर सरकार की ओर से उन्हें नोटिस नहीं मिलता, तो क्या वे राशि अपने मन से लौटाने वाले थे? इस पूरे खेल के बाद उनका तर्क था कि वे जिस पद पर सरकारी नौकरी कर रहे थे, वह कमाऊ पद था, लेकिन उन्होंने जनता की सेवा के लिए उसे ठुकरा दिया।

क्या केजरीवाल बता पाएंगे कि देश में उनके जैसा और ईमनादार अधिकारी जनता की सेवा करने के लिए सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति करने लगे? जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ वे आवाज उठा रहे हैं, अपने विभाग में रहकर वहां के भ्रष्टाचार को उन्होंने समाप्त क्यों नहीं किया? क्या खेमका जैसे अधिकारी अपना काम नहीं कर रहे हैं? लगता है कि केजरीवाल ने अन्ना का भी केवल यूज ही किया है। अन्ना के साथ रहते हुए वे राजनीति का विरोध करते रहे और जब देखा कि अब उनके खेल के मुताबिक, माहौल तैयार हो चुका है, तो राजनीतिक पार्टी लेकर मैदान में उतर आए। जिस लोकपाल बिल लाने की बात केजरीवाल और उनके साथी कर रहे हैं, उसकी रूपरेखा तो 1966 में ही बनी थी। शांति भूषण ने इस पर काम किया था। वही शांति भूषण 1977 में जनता पार्टी की सरकार में मंत्री भी थे, लेकिन वे वहां इस पर अमल नहीं कर पाए। आज केजरीवाल जो भी राजनीति करते दिख रहे हैं, उसमें केवल उनकी एक अलग नई पार्टी का उदय तो माना जा सकता है, लेकिन उनके वोट जुटाने के जो भी तिकड़म हैं, वे सभी दलों से ज्यादा झूठ पर आधारित हैं।

इन्हीं केजरीवाल की पार्टी की एक उम्मीदवार है शाजिया इल्मी। पेशे से बेहतर पत्रकार रही साजिया की राजनीति कितनी बुलंद होगी, कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि 2011 के जिस अन्ना आंदोलन की वह हिस्सा बनी थीं और अपनी छवि को जनता के सामने पेश किया था, अब उसमें भी वह बात नहीं रह गई है। भ्रष्टाचार और अमीरों की राजनीति पर अंगुली उठाने वाली शाजिया की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो राजनीति की ही रही है। कानपुर की रहने वाली साजिया के पिता उर्दू अखवार सियासत जदीद के संपादक रहे हंै। बचपन में ही साजिया को कैफी आजमी और राजनारायण जैसे नेता की राजनीति देखने को मिली है। बेहतर स्कूल कॉलेजों में पढ़ाई कर पहले पत्रकार और फिर सामाजिक कार्यकर्ता के साथ राजनीति में उतरने वाली साजिया की शादी एक गुजराती बैंकर से हुई। साजिया अब सवालों के घेरे में हैं। पानी पी-पी कर करोड़पतियों को कोसने वाली शाजिया को पहले यह नहीं मालूम था कि उसे राजनीति भी करनी है। जब वह राजनीति में आर्इं, तो दिल्ली वालों की नजरें अब उनकी संपत्ति पर चली गई है। वे लगभग 30 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालकिन हैं। भला एक करोड़पति गरीबों और आम लोगों की राजनीति कैसे कर सकती है? केजरीवाल टीम में और भी ऐसे लोग हैं, जिनकी सच्चाई चुनाव के बाद सामने आएगी।

केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह के उम्मीदवार उतारे हैं, उसे देखकर तो उनकी ईमानदारी पर तो सवाल उठेंगे ही। दिल्ली की राजनीति में एक नई राजनीति का दम भरने वाले आप पार्टी के नेता केजरीवाल जनता को बरगलाने वाले ज्यादा लग रहे हैं। जो व्यक्ति राजनीति में आने से पहले देश की जनता के साथ भ्रष्टाचारियों और करोड़पतियों के खिलाफ आवाज उठाकर जनता की भावना को दोहन करता है और बाद में अपने मूल चरित्र में आकर उन्हीं भ्रष्टाचारियों और करोड़पतियों के साथ चुनावी मैदान में नर्तन करने के लिए उतरता है, उस चरित्र का और आप पार्टी का अंजाम क्या होगा, यह देखने की बात होगी। विचित्र है हमारा समाज और समाज के लोग। यह समाज अपने ही बनाए कानून को कभी तोड़ता है, तो कभी सामाजिक नैतिकता की बात करता है। दूसरे को चोर और अपने को साधु बताने की परंपरा हमारे समाज की विशेषता है। मगर चोर और साधु जैसे शब्दों का प्रयोग तब तक किया जाता है, जब तक कि किसी को डैमेज करने और अपने को शीर्ष पर ले जाना हो। इस खेल में मूर्ख हमेशा जनता को ही बनाया जाता है। सच यही है कि हमारे देश की जनता सदा से ही नेताओं के इशारों पर मूर्ख बनती रही है। केजरीवाल ने जनता को मूर्ख बनाया है और संभव है कि जनता उन्हें महामूर्ख बना दे। 

22 November 2013

कौन करेगा मध्यप्रदेश में राज शिवराज या सिंधिया ?

24 दिसंबर को मतदान के दिन तो नहीं लेकिन आगामी ८ दिसंबर को पता चल जाएगा कि मध्य प्रदेश की जनता ने शिवराज सिंह को तीसरा मौका देती है या नहीं? यदि जनता ने शिवराज को तीसरा मौका दे दिया तो समझिए कांग्रेस के लिए यह प्रदेश भी भविष्य में उसी तरह एक दुस्वप्न बन जाएगा जैसे गुजरात बन गया है. हार जीत के विश्लेषण अपनी जगह होंगे लेकिन खुद पार्टी के भीतर शिवराज का कद बहुत ऊँचा हो जाएगा. देश में अन्य चार राज्यों के साथ ही मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है, और सेनाएँ अपने-अपने “अश्वों-हाथियारों” सहित मैदान में कूच कर चुकी हैं. 24 दिसंबर को मध्य प्रदेश में मतदान होगा लिहाजा उम्मीदवार और पार्टियां पूरे जोर शोर से प्रचार के मैदान में उतर चुकी हैं. अमूमन राज्यों के चुनाव देश के लिए अधिक मायने नहीं रखते, परन्तु यह विधानसभा चुनाव इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि सिर्फ छह माह बाद ही देश के इतिहास में सबसे अधिक संघर्षपूर्ण लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तथा भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद यह पहले विधानसभा चुनाव हैं...

 ज़ाहिर है कि सिर्फ भाजपा ही नहीं नरेंद्र मोदी का भी बहुत कुछ इन विधानसभा चुनावों में दाँव पर लगा है. यदि भाजपा इन पांच में से तीन राज्यों में भी अपनी सरकार बना लेती है, तो पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध लगभग खत्म हो जाएगा, और यदि भाजपा सिर्फ मप्र-छग में ही दुबारा सत्ता में वापस आती है तो यह माना जाएगा कि मतदाताओं के मन में मोदी का जादू अभी शुरू नहीं हो सका है. बहरहाल, राष्ट्रीय परिदृश्य को हम बाद में देखेंगे, फिलहाल नज़र डालते हैं मध्यप्रदेश पर.

मप्र में वर्तमान विधानसभा चुनाव इस बार बिना किसी लहर अथवा बिना किसी बड़े मुद्दे के होने जा रहे हैं. २००३ के चुनावों में जनता के अंदर “दिग्विजय सिंह के कुशासन विरोधी” लहर चल रही थी, जबकि २००८ के चुनावों में भाजपा ने उमा भारती विवाद, बाबूलाल गौर के असफल और बेढब प्रयोग के बाद शिवराज सिंह चौहान जैसे “युवा और फ्रेश” चेहरे को मैदान में उतारा था. मप्र के लोगों के मन में दिग्गी राजा के अंधियारे शासनकाल का खौफ इतना था कि उन्होंने भाजपा को दूसरी बार मौका देना उचित समझा. देखते-देखते भाजपा शासन के दस वर्ष बीत गए और २०१३ आन खड़ा हुआ है. पिछले दस वर्ष से मप्र-छग-गुजरात में लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस के सामने इस बार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जिन राज्यों में कांग्रेस तीन-तीन चुनाव लगातार हार जाती है, वहाँ से वह एकदम साफ़ हो जाती है – तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, गुजरात और बिहार जैसे जीवंत उदाहरण मौजूद हैं, जहां अब कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचा है. स्वाभाविक है कि मप्र-छग में कांग्रेस अधिक चिंतित है, खासकर छत्तीसगढ़ में, जहां कांग्रेस का समूचा नेतृत्व ही नक्सली हमले में मारा गया.

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने शुरुआत में हालांकि “एकता रैली” के नाम से प्रदेश के सारे क्षत्रपों को एक मंच पर इकठ्ठा करके, सबके हाथ में हाथ मिलाकर ऊँचा करने की नौटंकी करवाई, लेकिन जैसे-जैसे टिकट वितरण की घड़ी पास आती गई मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का पुराना “अनेकता” राग शुरू हो गया. सबसे पहली तकलीफ हुई कांतिलाल भूरिया को (जिन्हें दिग्विजय सिंह का डमी माना जाता है), क्योंकि राहुल गांधी चाहते थे कि शिवराज के मुकाबले प्रदेश में युवा नेतृत्व पेश किया जाए, स्वाभाविक ही राहुल की पहली पसंद बने ज्योतिरादित्य सिंधिया. जब चुनाव से एक साल पहले ही कांग्रेस ने सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था, तब लोगों को लगने लगा था कि शायद अब भाजपा को चुनावों में कड़ी टक्कर मिलेगी. लेकिन राहुल के आदेशों को धता बताते हुए धीरे-धीरे पुराने घिसे हुए कांग्रेसियों जैसे कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अजय सिंह इत्यादि ने अपने राग-रंग दिखाना शुरू कर दिए, और “आग में घी” कहिये या “करेला वो भी नीम चढा” कहिये, रही-सही कसर दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी. कहने को तो वे राहुल गांधी के गुरु कहे जाते हैं, लेकिन उन्हें भी यह कतई सहन नहीं है कि पिछले पांच साल तक लगातार “फील्डिंग” करने वाला उनका स्थानापन्न खिलाड़ी अर्थात कांतिलाल भूरिया अंतिम समय पर बारहवाँ खिलाड़ी बन जाए. इसलिए सिंधिया का नाम घोषित होते ही “आदिवासी” का राग छेड़ा गया.

उधर अपने-अपने इलाके में मजबूत पकड़ रखने वाले नेता जैसे कमलनाथ (छिंदवाडा), अरुण यादव (खरगोन), चतुर्वेदी (बुंदेलखंड), अजय सिंह (रीवा) इत्यादि किसी कीमत पर अपना मैदान छोड़ने को तैयार नहीं थे. सो जमकर रार मचनी थी और वह मची भी. कई स्थापित नेताओं ने पैसा लेकर टिकट बेचने के आरोप खुल्लमखुल्ला लगाए, सुरेश पचौरी को विधानसभा का टिकट थमाकर उन्हें दिल्ली से चलता करने की सफल चालबाजी भी हुई. उज्जैन के सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने तो कहर ही बरपा दिया, अपने बेटे को टिकिट दिलवाने के लिए जिस तरह की चालबाजी और षडयंत्र पूर्ण राजनीति दिखाई गई उसने राहुल गाँधी की “तथाकथित गाईडलाईन” की धज्जियाँ उड़ा दीं और कांग्रेस में एक नया इतिहास रच दिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया की व्यक्तिगत छवि साफ़-सुथरी और ईमानदार की है, लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि उनका राजसी व्यक्तित्व और व्यवहार उन्हें ग्वालियर क्षेत्र के बाहर आम जनता से जुड़ने में दिक्कत देता है. कांग्रेस में इलाकाई क्षत्रपों की संख्या बहुत ज्यादा है, जैसे कि सिंधिया को महाकौशल में कोई नहीं जानता, तो कमलनाथ को शिवपुरी-चम्बल क्षेत्र में कोई नहीं जानता. इसी प्रकार कांतिलाल भूरिया झाबुआ क्षेत्र के बाहर कभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए, तो अजय सिंह को अभी भी अपने पिता अर्जुनसिंह की “छाया” से बाहर आने में वक्त लगेगा. कहने को तो सभी नेता मंचों और रैलियों में एकता का प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें शंका सताए जा रही है कि मानो “बिल्ली के भाग से छींका टूटा” और कांग्रेस सत्ता के करीब पहुँच गई तो निश्चित रूप से ज्योतिरादित्य का पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि कांग्रेस में मुख्यमंत्री दिल्ली से ही तय होता है और वहाँ सिर्फ सिंधिया और दिग्गी राजा के बीच रस्साकशी होगी, बाकी सब दरकिनार कर दिए जाएंगे, सो जमकर भितरघात जारी है.

अब आते हैं भाजपा की स्थिति पर... बीते पांच-सात वर्षों में शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में वाकई काफी काम किए हैं, खासकर सड़कों, स्वास्थ्य, लोकसेवा गारंटी और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में. बिजली के क्षेत्र में शिवराज उतना विस्तार नहीं कर पाए, लेकिन किसानों को विभिन्न प्रकार के बोनस के लालीपाप पकड़ाते हुए उन्होंने धीरे-धीरे पंचायत स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत की हुई है. स्वयं शिवराज की छवि भी “तुलनात्मक रूप से” साफ़-सुथरी मानी जाती है. कांग्रेस के पास ले-देकर शिवराज के खिलाफ डम्पर घोटाले, जमीन हथियाना और खनन माफिया के साथ मिलीभगत के आरोपों के अलावा और कुछ है नहीं. इन मामलों में भी शिवराज ने “बहादुरी”(?) दिखाते हुए विपक्ष के आरोपों पर जमकर पलटवार किया है और मानहानि के दावे भी ठोंके हैं. लेकिन इस आपसी चिल्ला-चिल्ली के बीच जनता ने नगर निगम व पंचायत चुनावों में शिवराज को स्वीकार किया है. एक मोटा अनुमान है कि प्रदेश के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में अकेले शिवराज की छवि के नाम पर तीन से चार प्रतिशत वोट मिलेगा. जैसा कि हमने ऊपर देखा जहां कांग्रेस के सामने आपसी फूट और भीतरघात का खतरा है, कम से कम शिवराज के साथ वैसा कुछ नहीं है. प्रदेश में शिवराज का नेतृत्व, पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने पूरी तरह स्वीकार किया हुआ है. ना तो प्रभात झा और ना ही नरेंद्र सिंह तोमर, दोनों ही शिवराज की कुर्सी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं. इसके अलावा शिवराज ने किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को उभरने ही नहीं दिया. इसके अलावा सुषमा स्वराज का वरदहस्त भी शिवराज के माथे है ही, क्योंकि सुषमा को विदिशा से लोकसभा में भिजवाना भी शिवराज की ही कारीगरी थी. अर्थात उनका एकछत्र साम्राज्य है. भाजपा ने भी चतुराई दिखाते हुए शिवराज के कामों का बखान करने की बजाय केन्द्र सरकार के मंत्रियों के बयानों और घोटालों पर अधिक फोकस किया है. कांग्रेस को इसका कोई तोड़ नहीं सूझ रहा. यही हाल कांग्रेस का भी है, उसे शिवराज के खिलाफ कुछ ठोस मुद्दा नहीं मिल रहा, इसलिए वह भाजपा के पुराने कर्म खोद-खोदकर निकालने में जुटी है.

लेकिन मध्यप्रदेश भाजपा के सामने चुनौती दुसरे किस्म की है, और वह है पिछले दस साल की सत्ता के कारण पनपे “भ्रष्ट गिरोह” और मंत्रियों-विधायकों से उनकी सांठगांठ. इस मामले में इंदौर के बाहुबली माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की छवि सबसे संदिग्ध है. गत वर्षों में इंदौर का जैसा विकास(?) हुआ है, उसमें विजयवर्गीय ने सभी को दूर हटाकर एकतरफा दाँव खेले हैं. इनके अलावा नरोत्तम मिश्र सहित ११ अन्य मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं, लेकिन केन्द्र में सत्ता होने के बावजूद कांग्रेस उन्हें कभी भी ठीक से भुना नहीं पाई. अब चूंकि भाजपा ने मध्यप्रदेश में टिकट वितरण के समय शिवराज को फ्री-हैंड दिया था, इसी वजह से जनता की नाराजगी कम करने के लिए शिवराज ने वर्तमान विधायकों में से ४८ विधायकों के टिकिट काटकर उनके स्थान नए युवा चेहरों को मौका दिया है, हालांकि फिर भी किसी मंत्री का टिकट काटने की हिम्मत शिवराज नहीं जुटा पाए, लेकिन उन्होंने जनता में अपनी “पकड़” का सन्देश जरूर दे दिया. शिवराज के समक्ष दूसरी चुनौती हिंदूवादी संगठनों के आम कार्यकर्ताओं में फ़ैली नाराजगी भी है. धार स्थित भोजशाला के मामले को जिस तरह शिवराज प्रशासन ने हैंडल किया, वह बहुत से लोगों को नाराज़ करने वाला रहा. सरस्वती पूजा को लेकर जैसी राजनीति और कार्रवाई शिवराज प्रशासन ने की, उससे न तो मुसलमान खुश हुए और ना ही हिन्दू संगठन. इसके अलावा हालिया रतनगढ़ हादसा, इंदौर के दंगों में उचित कार्रवाई न करना, खंडवा की जेल से सिमी आतंकवादियों का फरार होना और भोपाल में रजा मुराद के साथ मंच शेयर करते समय मोदी पर की गई टिप्पणी जैसे मामले भी हैं, जो शिवराज पर “दाग” लगाते हैं. इसी प्रकार कई जिलों में संघ द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, जिसकी वजह से जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में नाराजगी बताई जाती है. शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात है शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खुद शिवराज और फिर नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे मिलने वाले वोट. ये बात और है कि मप्र में शिवराज ने अपनी पूरी संकल्प यात्रा के दौरान पोस्टरों में नरेंद्र मोदी का चित्र लगाने से परहेज किया है. यह भाजपा की अंदरूनी राजनीति भी हो सकती है, हालांकि शिवराज की खुद की छवि और पकड़ मप्र में इतनी मजबूत है कि उन्हें मोदी के सहारे की जरूरत, कम से कम विधानसभा चुनाव में तो नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी की प्रदेश में २० चुनावी सभाएं होंगी.

कुल मिलाकर, यदि शिवराज अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार को स्वयं की छवि और योजनाओं के सहारे दबाने-ढंकने में कामयाब हो गए तो आसानी से ११६ सीटों का बहुमत बना ले जाएंगे, लेकिन यदि ग्रामीण स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत नहीं की, तो मुश्किल भी हो सकती है. जबकि दूसरा पक्ष अर्थात कांग्रेस भी यदि आपसी सिर-फुटव्वल कम कर ले, अपने-अपने इलाके बाँटकर चुनाव लड़े, भाजपा की कमियों को ठीक से भुनाए, तो वह भाजपा को चुनौती भी पेश कर सकती है. हालांकि जनता के बीच जाने और बातचीत करने पर यह चुनाव 60-40 का लगता है (अर्थात ६०% भाजपा, ४०% कांग्रेस). यदि कांग्रेस में आपस में जूतमपैजार नहीं हुई तो जोरदार टक्कर होगी. वहीं शिवराज यदि ठीक से “डैमेज कंट्रोल मैनेजमेंट” कर सके, तो आसानी से नैया पार लगा लेंगे. आम भाजपाई उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शिवराज के काँधे पर सवार होकर वे पार निकल जाएंगे, जबकि काँग्रेसी सोच रहे हैं कि शायद पिछले दस साल का “एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर” काम कर जाएगा.