21 February 2014

पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी की हत्या पर राजनीति कितनी सही ?

हमेशा की तरह एक बार फिर से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पर सियासत तेज हो गई है। तमिलनाडु विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया है कि राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी न दी जाए। इस प्रस्ताव पर करुणानिधि की पार्टी डीएमके का भी समर्थन मिल चुका है। जो इस वक्त बाहर से केन्द्र सरकार को समर्थन दे रही है। ताज्जुब तो तब हुआ जब खुद कांग्रेस के विधानसभा सदस्यों ने इस प्रस्ताव का विरोध करने के बजाय इसका खुले रूप में समर्थन करना शुरु कर दिया।

ये पहला ऐसा कोई वाक्या नहीं है। इससे पहले भी राजीव गांधी की हत्या में सजा काट रही नलिनी को जेल से छोड़े जाने की अपिल सोनिया गांधी ने की थी। यहां तक कि सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी भी नलिनी से मिलने के लिए जेल गई थी। उस वक्त प्रियंका ने कहा कि वह क्रोध या हिंसा में विश्वास नहीं करती है।

ऐसे में सवाल ये उठने लगा है कि आखिर दोषियों को जेल से बाहर आने का मौका दिया किसने? सवाल ये भी है कि समय रहते सरकार ने हत्यारों की दयायाचिका पर कोई जल्दबाजी क्यों नहीं दिखाई? तो ऐसे में मतलब साफ है। सरकार अन्य मामलों कि तरह इसे भी सियासत की तराजू से तौलती रही है। मगर अब जयललिता की राजनीति ने कांग्रेस की उस सियासत की परत को उभार दिया है जो कलतक सब कुछ पर्दे के पीछे से चल रहा था।

बीते एक दशक तक राजीव गांधी की मौत पर कोई राय न रखने वाले राहुल गांधी को आज जब अपने पिता की हत्यों को छोड़ने की ख़बर मिली तो, बदले राजनीतिक माहौल वो भी नपे तुले ही बयान देकर अपने दर्द को सियासत से जोड़ दिया। राहुल गांधी का कहना है मैं खुद फांसी के खिलाफ हूं मेरे पिता अब वापस नहीं आएंगे।

तो सवाल यहा भी खड़ा होता है कि क्या पूर्व प्रधानमंत्री के मौत के मायने एक आज के बदलते राजनीतिक नफा नुकसान में बेटा के लिए अलग, बेटी के लिए अलग और पत्नी के लिए अलग  है? या फिर एक ही दर्द को अलग- अलग राजनीति के खांचे में फिट करने की कोशिश ही आज राजीव के हत्यों को खुले में सांस लेने का मौका दे दिया है।

हत्यारों के तरफ से वर्ष 2000 में राष्ट्रपति के समक्ष दया अर्जी दी गई थी जिसे 11 साल बाद खारिज किया गया था। यही कारण है कि दोषियों को कानूनी तौर पर फांसी से बचने का आधार मिल गया। इन 10 वर्शो में कांग्रेस पार्टी की ओर कभी भी जल्दीबाजी नहीं दिखाई गई। मगर जब पूरा मामला हाथ से निकल चुका है तो अब सरकार और उसके मंत्री अपनी खडि़याली आंसू बहा रहे हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि पूर्व प्रधान मंत्री की हत्या पर राजनीति कितनी सही ?

20 February 2014

अंतरिम बजट कितना आम कितना ख़ास ?

उम्मीद की जा रही थी कि अंतरिम बजट या वित्तीय लेखानुदान में वित्त मंत्री श्री पी चिदंबरम कोई बड़ा कदम नहीं उठायेंगे, लेकिन उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दूसरे कार्यकाल के अंतिम बजट में देश की एक बड़ी आबादी को लुभाने के लिए अपनी चतुराई का भरपूर इस्तेमाल किया है। उनकी प्रमुख घोषणाओं में ईंधन पर सब्सिडी, सेना के लिए समान पद, समान पेंशन योजना को मंजूरी, कृषि कर्ज में ब्याज अनुदान को जारी रखना, शिक्षा ऋण में राहत, उर्वरक पर बढ़ी हुई सब्सिडी आदि हैं। श्री चिदंबरम का मानना है कि इन घोषणाओं का प्रभाव देश की तकरीबन 80 करोड़ आबादी पर पड़ेगा। 

बता दें कि अंतरिम बजट में आमतौर पर सरकार बड़े फैसले करने से परहेज करती है। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक वित्तीय लेखानुदान में सरकार कोई बड़ा निर्णय नहीं लेती है। सरकार महज तीन-चार महीने के व्यय के लिए धनराशि की मांग रखती है। चूंकि यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस की स्थिति खस्ताहाल है। इसलिए लोकलुभावन वित्तीय लेखानुदान पेश करने के अलावा सरकार के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था।

माना जा रहा है कि ईंधन सब्सिडी देने से 15 करोड़ एलपीजी ग्राहक, दो पहिया व चार पहिया वाहन मालिक, व्यापारी, किसान आदि को फायदा होगा। सेना के कर्मचारियों के लिए समान पद, समान पेंशन योजना को मंजूरी देकर वित्त मंत्री ने सेना में अलग-अलग पद से सेवानिवृत हुए लोगों के पेंशन में व्याप्त फर्क को खत्म करने की कोशिश की है, जिसका लाभ सेना से सेवानिवृत 25 लाख लोगों के परिवार को मिलेगा। कहा जा रहा है कि श्री चिदंबरम के इस सुधारात्मक कदम से एक परिवार में औसतन 4 सदस्यों के हिसाब से कुल एक करोड़ लोगों को फायदा पहुंचेगा। 

अपने इस अंतरिम बजट में श्री चिदंबरम ने कृषि कर्ज में ब्याज अनुदान को जारी रखने का  ऐलान किया है। इस क्रम में 1.80 लाख करोड़ रूपये के उर्वरक पर छूट की राशि किसानों में वितरित की जायेगी। यूपीए सरकार जानती है कि वर्ष 2008 में किसानों को बांटे गये कृषि कर्ज माफी की राशि की वजह से ही वह द्वारा सत्ता में आ पाई थी। इस बार फिर से वह अपना वही पुराना दांव आजमाना चाहती है। गौरतलब है कि हमारे देश की 65-70 करोड़ जनता अभी भी कृषि पर निर्भर है और उनका जीवनयापन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्यों से ही चल रहा है।

आज भले ही हम दावा करें कि हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में आने वाला है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग खेती-किसानी का काम कर्ज की मदद से ही कर रहे हैं। ब्याज में रियायत मिलने से किसान तबके को सीधे तौर पर फायदा मिलेगा। कहने के लिए भारत जरूर कल्याणकारी देश है, लेकिन यहाँ गरीबों का कल्याण सिर्फ वोट के लिए किया जाता है। सरकार जानती है कि बैंकों से जोड़कर ही समाज के इस वर्ग को अपने पक्ष में किया जा सकता है। वित्तीय समावेशन या ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों के विस्तार का मर्म वास्तव में यही है।

एक आकलन के मुताबिक तकरीबन नौ लाख पढ़े-लिखे युवाओं को शिक्षा ऋण दिया गया है। कुछ वर्षों से मंदी के कारण युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है, जिसके कारण शिक्षा ऋण बड़ी संख्या में एनपीए हो रहे हैं तथा ब्याज एवं किस्त जमा करने के लिए बैंककर्मी युवाओं पर लगातार दबाव बना रहे हैं। इसलिए इस वर्ग को राहत देने के लिए वित्त मंत्री ने 31 मार्च 2009 से पहले लिए गये शिक्षा ऋण पर प्रभारित ब्याज में रियायत देने के लिए 2600 करोड़ का प्रावधान किया है, जिसके तहत 31 मार्च 2009 से दिसंबर, 2013 के बीच प्रभारित ब्याज का भुगतान सरकार करेगी। जाहिर है युवाओं के परिवार को भी इसका लाभ मिलेगा। युवाओं पर डोरे डालने के लिए श्री वित्त मंत्री ने 10 करोड़ नौकरियाँ देने की बात भी कही है और कौशल विकास के लिये उन्होंने 1000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है।

वित्तीय लेखानुदान के पहले यह कयास लगाया जा था कि वित्त मंत्री अप्रत्यक्ष कर में कोई बदलाव नहीं करेंगे, लेकिन चुनावी रथ पर सवार श्री चिदंबरम ने मध्यम वर्ग को रिझाने   के लिए उत्पाद शुल्क में नाममात्र की कटौती की है। उत्पाद शुल्क कम करने से छोटी कार, दो पहिया वाहन, मोबाइल हैंडसैट, कम्प्युटर, प्रिंटर, स्कैनर, एयरकंडीशन, फ्रिज, माइक्रोबेव ओवन, डिजिटल कैमरा आदि सस्ते हो जायेंगे। श्री चिदंबरम इतने पर भी नहीं रुके, उन्होंने सीमा शुल्क के कुछ मदों में भी राहत दी, मसलन, साबुन बनाने वाले रसायन का आयात। साथ ही, कृषि क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के लिए धान, चावल आदि के भंडारण, पैकिंग, ढुलाई आदि को सेवाकर से बाहर कर दिया। चूंकि प्रत्यक्ष कर में बदलाव करना एक अतिवादी कदम माना जाता, इसलिए बमुश्किल श्री चिदंबरम ने इस परिप्रेक्ष्य में अपने पर काबू रखा, अन्यथा आयकर में वे जरूर मध्यम वर्ग को रिझाने वाला फेरबदल करते। महिलाओं को खुश करने के लिए वित्त मंत्री ने निर्भया कोष में भी 1000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है।

अल्पसंख्यक, महिला व बाल विकास, दलित एवं पिछड़ों से जुड़े मंत्रालयों के बजट में इजाफा करके श्री चिदंबरम ने यह जताने की कोशिश की यूपीए सरकार हर वर्ग का ख्याल रखती है। दरअसल, यूपीए सरकार यह मानकर चल रही है भारत की जनता तोहफों की बारिश में सराबोर होकर उसके रंग में रंग जायेगी। इसलिए अंतरिम बजट पेश करने से पहले ही उसने सातवें वेतन आयोग के गठन का ऐलान कर दिया था। वह जानती है कि देश में केन्द्रीय कर्मचारियों की संख्या लगभग 40 लाख है। इस संबंध में कर्मचारियों के परिवार की औसत सदस्य संख्या यदि चार माना जाए तो 1.60 करोड़ लोगों को वेतनवृद्धि का फायदा मिलेगा। श्री चिदंबरम एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं। वे नफा-नुकसान का आकलन करके ही कोई कदम उठाते हैं। विदित हो कि सरकारी बैंक कर्मचारियों का वेतनवृद्धि होना नवंबर, 2012 से लंबित  है। यूनियन और सरकार के बीच बीते सालों में हुई अनेक वार्ता सरकार के अड़ियल रुख की वजह से विफल हो चुकी है। श्री चिदंबरम जानते हैं देश में सरकारी बैंक कर्मचारियों की संख्या तकरीबन आठ लाख है। स्पष्ट है अगर बैंक कर्मचारियों की मांग मानी जाती है तो वह सरकार के लिये फायदेमंद सौदा नहीं होगा, क्योंकि इस वर्ग के नाममात्र वोट से यूपीए सरकार को बहुत फायदा नहीं हो सकता है।   

मौजूदा समय में देश की अर्थव्यवस्था एक नाजुक दौर से गुजर रही है। बीते दिनों से  महंगाई के आंकड़ों में जरूर कुछ कमी आई है, पर रिजर्व बैंक का आकलन है कि महंगाई का दौर अभी जारी रहेगा। महंगाई एवं मुद्रास्फीति की वजह से बीते सालों से आम आदमी हलकान है। स्थिति पर काबू पाने के लिए रिजर्व बैंक लगातार कोशिश कर रहा है। इस आलोक में अंतरिम बजट की मदद से वित्त मंत्री वित्तीय मजबूती के लिए प्रयास कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 17.63 करोड़ रुपए के इस अंतरिम बजट में सिर्फ चुनाव पर निशाना साधा गया है। अब चुनाव में महज 60 दिन बच गये हैं। ऐसे में शिक्षा ऋण में राहत, महिला सुरक्षा के नाम पर 1000 करोड़ रूपये देना, कृषि कर्ज में ब्याज अनुदान को जारी रखना, उर्वरक पर बढ़ी हुई सब्सिडी, समान पद, समान पेंशन योजना आदि घोषणाएँ चुनाव में कितना कारगर साबित होंगे, यह कहना फिलहाल मुनासिब नहीं होगा। फिर भी यह माना जा सकता है कि मौजूदा समय में जनता के बीच जागरूकता बढ़ी है। वह जानती है कि 10 सालों में 10 करोड़ नौकरियों देने की बात करना, सब्जबाग दिखाने के समान है। 4 महीनों के लेखानुदान में ऐसा करना संभव नहीं है। विकास दर भी वर्तमान में 4.8 प्रतिशत है। इस दर में इतनी नौकरियों का सृजन नहीं हो सकता है।

कौशल विकास के नाम पर कोष का प्रावधान करना भी केवल दिखावा है। विगत सालों में रोजगार के अवसर और भी कम हुए हैं। 2013 में बेरोजगारी दर 3.37 प्रतिशत थी, जो 2014 में बढ़कर 3.8 हो गई है। निर्भया कोष में 1000 करोड़ रूपये देना केवल रस्म अदायगी का हिस्सा है। इस कोष में पूर्व में आवंटित की गई राशि अभी तक खर्च नहीं की जा सकी है। सरकार इन घोषणाओं से साबित कर दिया है कि यह अंतरिम बजट पूरी तरह से लोकलुभावन है। वैसे देश के समग्र विकास के लिए राजनेताओं को इस तरह की ओछी रणनीति से बचना चाहिए।

18 February 2014

मेरे देश की संसद मौन है !

                                                              ‘एक आदमी रोटी बेलता है
                                                               एक आदमी रोटी खाता है
                                                               एक तीसरा आदमी भी है
                                                        जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।

                                                               वह सिर्फ रोटी से खेलता है
                                                                       मैं पूछता हूं-
                                                               यह तीसरा आदमी कौन है?
                                                               मेरे देश की संसद मौन है।’

धूमिल ने जब यह कविता लिखी थी तब शायद उन्हें एफडीआई शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम रहा होगा। वह तथाकथित समाजवादी सोच का भारत था, जहां रह रहकर अत्यंत आध्यात्मिक तौर पर समझाया जाता था कि प्रजा ही राजा है, वही असली मालिक है और चीथड़ों से सजे लोग भक्तिभाव से नेताओं के इस प्रवचन को सुनते थे। तब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन नहीं, बैलट बॉक्स थे। उनमें अपनी पसंद के नेता के चुनाव-चिह्न् पर ठप्पा लगाकर बैलट ठूंस दिए जाते थे। चुनावी प्रक्रिया के अर्थ भी अलग होते थे। महिलाएं और दलित अक्सर वोट डालने नहीं जा पाते थे। उनकी जगह गांवों, कस्बों के दबंग इस नेक काम को पूरा कर देते थे। लोकतंत्र के उस शुरुआती दौर में भी अगर धूमिल को लगता था कि रोटी बनाने और उससे खेलने वाले में जमीन आसमान का अंतर है तो यह उनकी दृष्टि थी, जो छल को परत दर परत देख पाती थी।

सुदामा पांडे (धूमिल का स्कूली नाम) गांव से आते थे। वे जानते थे कि खेती कितना मुश्किल काम है। उनका आक्रोश संसद के मौन पर फूटता था। धूमिल को गुजरे हुए बरसों बीत गए पर हालात में फर्क कहां आया है? संसद आज भी मौन है। तब जमींदारों, जमाखोरों के जुल्म पर कोई सियासी एका नहीं था, आज किराने पर एफडीआई को लेकर जितने दल उतने वैचारिक दलदल हैं।

कमाल देखिए। जो लोग इन दिनों हो-हल्ला कर रहे हैं, वे जब सरकार में थे तब उन्होंने इसके पक्ष में तर्क दिए थे। आज का सत्तापक्ष तब विपक्ष में था, लिहाजा कांग्रेस के लोग हमलावर थे। एक और आनंद की बात। द्रमुक के नेता दयानिधि मारन ही वह मंत्री थे, जिन्होंने वाजपेयी की सरकार में इसका नोट बनाया था। मारन अब नहीं रहे, उनकी पार्टी पाला बदल कर कांग्रेस के साथ आ गई है। फिर भी द्रमुक सुप्रीमो भी इस फैसले पर नाखुशी जता चुके हैं। नेताओं का यही गिरगिटी चरित्र है।

देश के लोगों में सुगबुगाहट है कि एफडीआई पर यह बहस संसद के बाहर क्यों की जा रही है? हम सब जानते और मानते हैं कि संसद सर्वोच्च है और उसके सदस्य हमारी रीति-नीति के रखवाले हैं। गरीबों की भरमारवाले इस देश का काफी धन लोकसभा और राज्यसभा के अधिवेशन पर खर्च होता है। क्यों नहीं इसका सार्थक उपयोग किया जाता? क्यों नहीं वहां तर्क-वितर्क होते और उन्हें एक सम्मानजनक नतीजे पर पहुंचाया जाता? क्या वजह है कि पार्टियों के प्रमुख नेता सदन में बोलने की बजाय टीवी कैमरों पर अपनी राय जाहिर करना बेहतर समझते हैं? इन सवालों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं, इसलिए सीधे एफडीआई के मुद्दे पर आते हैं।

एफडीआई के बहाने एक बार फिर बेहद पुराना और बेसुरा राग अलापा जा रहा है कि भारत गुलाम हो जाएगा। किसी को ईस्ट इंडिया कंपनी याद आ रही है, तो कोई मुगल बादशाह जहांगीर का स्मरण कर रहा है और किसी को देश की संप्रभुता का खतरा सता रहा है। क्या 121 करोड़ की विशाल आबादी वाला यह महान देश इतना कमजोर है कि वह फिर से गुलाम हो जाएगा? अजीब बात है! जिन कंपनियों का नाम लेकर कोसा जा रहा है, उनमें से कुछ के मुख्यालय अमेरिका में हैं।

इसी अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा अपने बच्चों को यह कहकर डराते हैं कि मन लगाकर पढ़ो नहीं तो तुम्हारी कुर्सियों पर भारत या चीन से आए नौजवान कब्जा कर लेंगे। हमारे जागृत और जोशीले नौजवानों का रास्ता रोकने के लिए वहां तरह-तरह के कानून बनाए जा रहे हैं। ऐसे नौनिहालों के रहते क्या कोई देश गुलाम हो सकता है? सवाल उठता है, हमारे नेता अपने स्वार्थ साधने के लिए कब तक अतीत के रिसते जख्मों में नमक-मिर्च झोंकते रहेंगे? यह समय उभरते हुए हिन्दुस्तान के लोगों का मनोबल बढ़ाने का है, डिगाने का नहीं।

आप भूले नहीं होंगे। 1991 में जब नरसिंह राव की अगुवाई में मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था की खिड़कियां खोली थीं तो कैसा जलजला आया था? तब भी ऐसी ही बातें की गई थीं। क्या उदारीकरण के इन बीस साल में हम गुलाम हो गए? हकीकत यह है कि उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति भारत का संज्ञान तक नहीं लेते थे, आज उन्हें हमारी युवा शक्ति से डर लगता है। अगर हम उसी पुराने रास्ते पर चल रहे होते, तो आज हमारा हाल भी उन देशों की तरह होता, जिन्होंने समय रहते अपनी खिड़कियां-दरवाजे नहीं खोले और अपनी ही वैचारिक सीलन का शिकार हो गए।

मैं खुद गांव से आता हूं। अपने बचपन में मैंने देखा था कि वहां का एकमात्र व्यापारी परिवार किस धूर्तता से लगभग समूचे गांववालों को अपना देनदार बनाए हुए था। हालात तब भी खराब थे। धरती पर अन्न उपजाने वाला किसान अपनी उगाई फसल की सही कीमत कभी भी नहीं पाता था। पहले तो लेनदार ही उस खलिहान से सब कुछ उठवा लेता था और बचे-खुचे की भी सही कीमत नहीं मिलती थी। अफसोस! गांवों में साहूकारी का यह जाल अभी भी बेहद मजबूत है।

इस वजह से भी हमारे गांव वीरान होते जा रहे हैं। महानगरों में नौकरी तलाशने वालों की बढ़ती तादाद ने अपने ही मुल्क में हर रोज विस्थापित होते लोगों की संख्या में जानलेवा बढ़ोतरी की है। यह क्रम जारी है। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि किसान को उसकी उपज की सही कीमत मिलनी शुरू हो। यह तभी हो सकता है, जब बिचौलियों और दलालों से भरी मौजूदा व्यवस्था को तोड़ने के लिए एक समानांतर प्रणाली स्थापित की जाए। एफडीआई इसका एक विकल्प हो सकती है।

पर यह हो कैसे? साझे चूल्हे पर कोई भी पकवान आसानी से नहीं पकता। डॉक्टर मनमोहन सिंह के नसीब में राजयोग के साथ तमाम रुकावटें भी हैं। हुकूमत के पिछली पाली में जब वे अमेरिका से परमाणु समझौता कर रहे थे तब वामपंथियों ने अपनी बैसाखियां हटा ली थीं। मजबूरी में उन्हें मुलायम सिंह की शरण में जाना पड़ा था, जिसके दुष्परिणाम जगजाहिर हैं। इतिहास जैसे खुद को समूचे विद्रूप के साथ दोहरा रहा है। अब ममता बनर्जी रूठ गई हैं। उनका दावा है कि सरकार ने अपने फैसले को फिलहाल टाल दिया है। अंतिम फैसले की शक्ल क्या होगी, इसका इंतजार है पर कुछ विघ्नजीवी इस गठबंधन में पड़ी दरारों की लम्बाई-चौड़ाई मापने लग गए हैं। राजनीति की अंधी गली किस तरह बड़े उद्देश्यों का रास्ता रोक देती है, इसका यह त्रसद उदाहरण है।

मैं खोखले तर्कशास्त्रियों की तरह आपको आंकड़ों में नहीं उलझाना चाहता, पर यह सच है कि हम चीन के बाद सबसे ज्यादा सब्जियां उगाते हैं। ब्राजील के बाद सर्वाधिक फल हमारी धरती से ही उपजते हैं। फिर भी हमारे किसान गरीब हैं। न तो उन्हें उपज की कीमत मिलती है और न ही वे उसे बचा पाते हैं। इसे दुरुस्त करने के लिए भी एक नई व्यवस्था की जरूरत है। यह समय उससे खौफ खाने के बजाय सीखने का है। क्यों न हम उनकी कुछ बेहतर चीजें ग्रहण कर उनका सदुपयोग अपनी शक्ति बढ़ाने में करें?

हिन्दुस्तानियों की एक बड़ी दिक्कत है। हम इतिहास से सीखते कम हैं, उसे तोड़ते-मरोड़ते ज्यादा हैं। संसद को मौन रखकर खुद मुखर रहनेवाली नामचीन हस्तियों से आग्रह है कि वे खुद नया इतिहास गढ़ने की कोशिश करें। उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि काल उनका भी आंकलन कर रहा है।

17 February 2014

संसद में मिर्च कांड लोकतंत्र हुआ शर्मशार !

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दु:ख और बढ़ गया होगा। 12 फरवरी को लोकसभा में अंतरिम रेल बजट पेश होने के दौरान जिस तरह के दृश्य उपस्थित हुए उन्हें देख प्रधानमंत्री का मन अवसाद से भर गया था। रेलवे मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे को तेलंगाना विरोधी सांसदों ने बजट भाषण नहीं पढ़ने दिया, खूब हंगामा बरपा किया, सरकार के मंत्री के.एस.राव, चिरंजीवी, डी.पुरंदेश्वरी और सूर्यप्रकाश रेड्डी जोर-शोर से चिल्लाते रहे। और तो और चिरंजीवी और सूर्यप्रकाश रेड्डी तो लोकसभा स्पीकर के सामने वेल में कूद गए। भारी हंगामे और विरोध की वजह से रेलवे मंत्री केवल 20 मिनट भाषण पढ़ पाए। ऐसा पहली बार है जब हंगामे की वजह से किसी मंत्री को अपना बजटीय भाषण आधा-अधूरा छोड़ना पड़ा हो। प्रधानमंत्री का दु:खी होना स्वाभाविक था क्योंकि उनकी अपील का भी कोई असर नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने कहा- मंत्रियों की करतूत से लोकतंत्र शर्मसार हुआ है।

लेकिन संसदीय गरिमा की अगले ही दिन यानी 13 फरवरी को और धज्जियां उड़ गई। कल से कहीं ज्यादा। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लोकसभा में केंद्र सरकार ने तेलंगाना विधेयक पेश किया। आंध्रप्रदेश को विभाजित कर अलग से तेलंगाना राज्य बनाने के सरकार के फैसले के पक्ष और विपक्ष में देश की राजनीति उसी दिन से गर्म है जिस दिन केन्द्र ने आंध्र के विभाजन की मांग आधिकारिक रूप से स्वीकार की। दरअसल इस मुद्दे पर वर्षों से आंध्र झुलस रहा है। इसकी चिंगारी आज लोकसभा में शोले के रूप में उस समय तब्दील हुई जब कांग्रेस से निष्कासित सांसद एल.राजगोपाल ने सदन में मिर्च पावडर का स्प्रे किया। टीडीपी सांसद वेणुगोपाल ने चाकू लहराया और शीशों को तोड़ने की कोशिश की। कुछ सांसद आपस में गुत्थम-गुत्था हुए और सदन बेइंतिहा शोर-शराबे और हंगामे में डूब गया। स्प्रे की वजह से भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई तथा  भारी अफरा-तफरी मची। चीखते, चिल्लाते और आंखों से आंसू पोछते सांसद सदन से बाहर निकल गए। कुछ को अस्पताल में पहुंचाया गया है। कुल मिलाकर सदन में अजीबो-गरीब स्थिति पैदा हो गई जो बेहद दु:खद थी। लोकसभा में संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन यद्यपि पहले भी कई बार हुआ है, माइक तोड़े गए हैं, आस्तीने चढ़ाई गई हैं और अपशब्द कहे गए हैं लेकिन आज जैसा दृश्य अभूतपूर्व है। ऐसी घटना संसदीय इतिहास में पहले कभी घटित नहीं हुई। ऐसा आक्रोश जो लोकतंत्र को तार-तार कर दे, पहले कभी अभिव्यक्त नहीं हुआ। लोकसभा अध्यक्ष ने फौरी कार्रवाई के रूप में 18 सांसदों को निलंबित कर दिया है। तेलंगाना विधेयक अब शायद इस सत्र में पारित नहीं हो सकेगा।

राज्यों के पुनर्गठन को लेकर जनआंदोलन पहले भी होते रहे हैं। आंदोलनों के दौरान छिटपुट हिंसा भी हुई लेकिन संसद में या प्रभावित राज्यों की विधानसभाओं में पृथक राज्य विधेयक को लेकर ऐसी अभद्रता की नौबत कभी नहीं आई। 12 वर्ष पूर्व सन् 2000 में बिहार, उ.प्र. और म.प्र. के हिस्सों को काटकर तीन नए राज्य उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ बने जिनके पीछे आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है लेकिन बिना किसी खून-खराबे के राज्यों की जनता ने तहेदिल से विभाजन को स्वीकार किया। आंध्रप्रदेश के विभाजन का मुद्दा भी काफी पुराना है। प्रदेश के गठन के 12 वर्ष बाद ही तेलंगाना के लिए चिंगारियां फूट पड़ी थी। सन् 1969 के दौरान तो आंदोलन इतना उग्र हुआ कि उसे कुचलने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिसमें करीब 350 लोग मारे गए जिसमें अधिकांश छात्र थे। पृथक राज्य के लिए इतनी जानें किसी और आंदोलन में नहीं गई। बहरहाल तब से लेकर अब तक यानी 44 वर्षों में आग कभी बुझी नहीं। बीच-बीच में अंगारों पर राख जरूर पड़ती रही लेकिन वे भीतर ही भीतर धधकते रहे और आज अंतत: उसकी आंच से लोकतंत्र झुलस गया। आंध्र के विभाजन की यह आग कैसे बुझेगी, कहना मुश्किल है। फिलहाल तो यह मामला टल गया, लगता है।

लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस की दिक्कतें कम नहीं होंगी। सामने लोकसभा चुनाव है और आंध्र की 42 लोकसभा सीटें दांव पर लगी हुई हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता है लेकिन इस मुद्दे पर वह स्वयं विभाजित है। राज्य में किरण रेड्डी की सरकार विभाजन के खिलाफ है यानी केन्द्रीय नेतृत्व का फैसला उसे मंजूर नहीं है। दरअसल तेलंगाना मामले पर 30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्यपरिषद के तेलंगाना बनाने के निर्णय के बाद पार्टी आंतरिक संकटों से जूझ रही है। यद्यपि उसने फैसला लिया है लेकिन उसकी हालत इधर खाई और उधर कुएं जैसी है। पार्टी को उम्मीद नहीं थी कि तेलंगाना के विरोध में इतना जबर्दस्त माहौल बनेगा और खुद उसके मुख्यमंत्री, मंत्री, केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक किसी भी हद तक जाने तैयार रहेंगे। देश में कई तरह की राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के लिए इस मुद्दे को सुलझाना आसान नहीं है। वह मुख्यत: अपनों के ही निशाने पर है। अब उसकी बेहतरी तो इसी में है कि वह कम से कम लोकसभा चुनाव तक इस मुद्दे को लटकाए रखे। चूंकि विधेयक लोकसभा में पेश हो चुका है और मौजूदा संसद का यह अंतिम सत्र भी है लिहाजा विधेयक को लंबित रखना सहज है। जाहिर है लोकसभा चुनाव के बाद नई सरकार बनने तक इस मसले पर अगली कार्रवाई की संभावना नहीं है।

जहां तक लोकसभा में सांसदों के आचरण का प्रश्न है, उस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लोकसभा में एक सदस्य चाकू तथा दूसरा मिर्ची पावडर लेकर पहुंच सकता है, तो और भी हथियार लेकर आने में क्या दिक्कत है? सुरक्षा के मौजूदा उपायों पर गौर करने एवं आवश्यकतानुसार नई व्यवस्था बनाने की जरूरत है। यद्यपि हंगामा करने वालों के खिलाफ निलंबन जैसी कार्रवाई की गई है लेकिन क्या वह काफी है? चूंकि लोकतंत्र कलंकित हुआ है अत: दोषियों की संसद सदस्यता खत्म करने एवं आपराधिक प्रकरण दर्ज करने से कम कोई बात नहीं होनी चाहिए ताकि औरों के लिए वह नज़ीर बने। यह भी उम्मीद की जाती है कि संबंधित पार्टियां अपने ऐसे लोगों के खिलाफ बर्खास्तगी की कार्रवाई करे। दो दिन पूर्व कांग्रेस ने अपने 6 सांसदों को पार्टी से निष्कासित किया था। आंध्र प्रदेश के ये सांसद पृथक तेलंगाना राज्य के विरोध में लगातार संसद की कार्रवाई में बाधा डाल रहे थे तथा उन्होंने संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था। कांग्रेस को ऐसे ही सख्त कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि तेलंगाना का मुद्दा उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। लोकसभा में हुए हंगामे से उसकी भी किरकिरी हुई है।

16 February 2014

गौ माता को राष्ट्रमात का दर्जा क्यों नहीं ?

आज एक बार फिर से गौ रक्षा आंदोलन जोरो पर है। देश में पहली बार 7 नवम्बर 1966 में जब गौ भक्तों ने राष्ट्रीय स्तर पर आदोनल किया तो उसे बर्बर तरिके से कुचल दिया गया। गौ भक्तों पर लाठी और गोलियां बरसाई गई। जिसमे सैकड़ों लोग शहीद हुए थे। मगर इस बार गौ क्रांति के अग्रदूत परम पूज्य गोपाल मणि जी महाराज के नेतृत्व में 23 फरवरी को गौ राष्ट्रमाता को माता घोषित करवाने के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में गौ हुंकार रैली का आयोजन किया गया है।

इस एतिहासिक रैली में देश के अलग अलग राज्यों से लाखों की संख्या में लोग इकट्ठा होने वाले हैं। लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले इस ऐतिसासिक को देखते हुए राजनीतिक हल्कों में भी सरगर्मियां तेज होगई है। अब तक के हुए गौ आंदोलनों में ये सबसे बड़ा आंदोलन होगा। परम पूज्य गोपाल मणि जी द्वारा स्थापित गौ महिमा प्रचार हेतु निष्काम संगठन भारतीय गौ क्रांति मंच के बैनर तले यह रैली होने जा रही है। 23 फरवरी को प्रातः 11 बजे से शुरू होने जा रही इस रैली को सफल बनाने के लिए देश भर के गौभक्त तैयारियों में जुट गए हैं । इस बाबत महामहिम राष्ट्रपति महोदय को एक ज्ञापन भी सौपने की योजना बनाई गई है। जिसकी सूचना राष्ट्रपति सचिवालय को दी गई है।

भारतीय हिंन्दू समाज में गाय को मां का दर्जा प्राप्त है। गाय को हम देवी मानकर पूजा करते हैं। गौ पूजन से हमारा जिवन धन्य हो जाता है। मगर भारत में जहाँ 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दू रहतें हैं वहां आज गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा देने के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। आज समाज कें कुछ वर्गो ने गौ हत्या को अपना व्यापार बना लिया है। आलम ये है कि आज भारत विश्व का सबसे बड़ा मांस निर्यातक बन बैठा है, और सरकार चुपचाप हाथ पर हाथ धरें बैठी है। आखिर कौन है इसका जिम्मेंवार और क्यों है सरकार चुप? क्यो नहीं गाय को राष्ट्रमाता घोशित किया जा रहा है? में खाद्यान्न उत्पादन आज भी गो वंश पर आधारित है। 1947 में एक हजार भारतीयों पर 430 गोवंश उपलब्ध थे। 2011 में यह आँकड़ा घटकर लगभग 20 गोवंश प्रति एक हजार व्यक्ति हो गया। ऐसे में गौ माता को राष्ट्रमाता घोषित कर हीं इसे बचाया जा सकता है।

आज गाय बचेगी तो हमारा देश बचेगा, अन्न बचेगा, खेत बचेगा, धर्म और संस्कृति बचेगी। भारत की संस्कृतिक को भारतभूमि को, भारत की आत्मा को, जनता के स्वास्थ्य को, कृषि और किसान को, भारत की जलवायु और प्रकृति को, राष्ट्रीय स्वाभिमान को सुरक्षित रखने के लिए गौरक्षा हीं एकमात्र विकल्प है। गौमाता को राष्ट्रमाता का दर्जा देकर ही आज हम सब  गौसेवा के संकल्प को पूरा कर सकते है। हम बड़े ही गर्व के साथ कहते है कि गावो-विश्वस्य मातरः गाय विश्व की माता है। तो ऐस में सवाल खड़ा होता है कि गौ माता को राष्ट्रमात का दर्जा क्यों नहीं ?

14 February 2014

कौन सच कौन झूठ ?

दिल्ली की एक अंग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ ने जेल में बन्द स्वामी असीमानन्द के हवाले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह आरोप लगाया है कि संघ ने उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों की अनुमति प्रदान की थी। यह पहला मौका नहीं है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चरित्र पर इस तरह से हमला किया गया है। संघ उन शक्तियों के निशाने पर अपने जन्म काल से ही रहा है, जो भारत को कमजोर करना चाहती है और इसको खंडित करने के स्वप्न देखती रही हैं या अभी भी देख रही हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि संघ ने शुरू से ही भारत के जिस सांस्कृतिक स्वरूप का समर्थन किया है, विदेशी शासकों और विदेशी ताकतों को वह कभी पसंद नहीं रहा है। उन्हें सदा खतरा रहता है कि इस सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर भारत एक बार फिर विश्व में अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सकता है। 

1947 से कुछ साल पहले तक मुस्लिम लीग संघ का इस लिए विरोध करती थी क्योंकि संघ मुस्लिम लीग के देशघाती विभाजन के सिद्धांत का विरोध कर रही थी और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ पर इस लिए आक्रमण तेज किए क्योंकि देश विभाजन के राष्ट्रघाती फॉर्मूले को स्वीकार कर लेने के बाद कांग्रेस के भीतर जो अपराध बोध पल रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आईने में वह उसे टीस देता रहता था इसलिए यह जरूरी था कि संघ के इस आईने को भी किसी प्रकार से तोड़ दिया जाए। मामला यहां तक बढ़ा कि नेहरू और उसकी टीम के मुख्य लोगों यथा मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई ने भी महात्मा गांधी के मन में भी संघ के बारे में गलतफहमी पैदा करने की कोशिस की। यही कारण था कि महात्मा गांधी स्वयं संघ की शाखा में उसे समझने बुझने के लिए पधारे थे। नेहरू और उसकी टीम के लोग महात्मा गांधी के मन में मोटे तौर पर संघ की भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करने में सफल नहीं हुए लेकिन जब नेहरू के मित्र और उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने, पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए जाने के प्रश्न पर महात्मा गांधी को उपवास करने के लिए उकसाया, तो माउंटबेटन भी शायद इतना तो जानते ही थे की विभाजनोपरांत उत्पन्न हुए उत्तेजक वातावरण में इस उपवास से और उत्तेजना बढ़ सकती है और इसका परिणाम घातक भी हो सकता है। 

इसे भी माउंटबेटन की रणनीति का हिस्सा ही मानना चाहिए कि उन्होंने गांधी को मरणव्रत रखने के लिये उकसाते समय सरदार पटेल और अन्य राष्ट्रीय ताकतों को अंधेरे में रखा। महात्मा गांधी की हत्या पर जब सारा देश स्तब्ध और शोकाकुल था तो जवाहार लाल नेहरू  इस राष्ट्रीय शोक का इस्तेमाल केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने के लिए ही नहीं कर कर रहे थे बल्कि लगे हाथ यह चर्चा भी चला दी थी कि इसके लिये सरदार पटेल भी दोषी हैं । पटेल इससे बहुत आहत हुये थे । नेहरु ने गान्धी हत्या का बहाना लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित ही नहीं किया बल्कि संघ के उस वक्त के सरसंघचालक गुरू गोलवलकर को गिरफ्तार भी कर लिया। ताज्जुब होता है कि भारत विभाजन के लिये काम कर रही मुस्लिम लीग को तो १९४७ के बाद भी काम करने दिया गया और संघ को स्वतंत्रता के तुरन्त बाद प्रतिबन्धित कर दिया गया । यह अलग बात है कि न्यायालयों ने नेहरू की इस चाल को तार-तार कर दिया और संघ को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से मुक्त किया,जिसके बाद सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा।

बहुत से लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों पंडित नेहरू जम्मू कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थें उन दिनों लेक सक्सेस में पाकिस्तान का प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर जोर देता था कि जम्मू कश्मीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सभी लोगों को निकाला जाए। उसका मुख्य कारण शायद यही था कि पाकिस्तान को विश्वास था कि नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ तो मजहब के आधार पर जम्मू कश्मीर के विभाजन की बात की जा सकती है लेकिन जब तक राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तब तक वे जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान को दिए जाने का विरोध करते रहेंगे।

विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने निशाने पर बनाए रखा। लगता है सोनिया गांधी की पार्टी भी मुस्लिम लीग की उसी विरासत को लेकर एक बार फिर किसी गहरे षड्यंत्र को लेकर देश की राष्ट््वादी शक्तियों को निशाना बना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के षड्यंत्र में जुट गई है। अंग्रेजी की एक पत्रिका की किसी पत्रकार को आगे करके संघ पर देश में हिंसात्मक गतिविधियों को सहमति देने को लेकर जो आरोप लगाया है वह उसी रणनीति का हिस्सा है। सोनिया गान्धी की पार्टी के क्रियाकलापों और उसकी रीति नीति को समझने के लिये मुसोलिनी की कार्यप्रणाली और मैकियावली की राज्य नीति को समझना बहुत जरुरी है। कारवाँ में प्रकाशित तथाकथित साक्षात्कारः को तभी ठीक से पकड़ा जा सकता है ।

कारवां अपने इस तथाकथित साक्षात्कार को लेकर किस प्रकार एक पूरी रणनीति के तहत काम कर रहा था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कारवां में प्रकाशित इस आलेख को जब किसी ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो पत्रिका की ओर से 5 फरवरी को बाकायदा एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें संघ के सरसंघचालक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने असीमानंद को देश में हिंसात्मक गतिविधि करने के लिए अपनी सहमति दी थी। यह प्रेस नोट दिल्ली प्रेस के मालिकों की सहमति या सहभागिता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता था जो कारवाँ के मालिक हैं । रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि दिल्ली प्रेस नाम से मीडिया के धंघे में लगी यह कंपनी पिछले कई सालों से अंग्रेजी और हिंदी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं छाप रही है। दिल्ली प्रेस के इस मीडिया हाउस का स्वर शत प्रतिशत हिंदू विरोधी रहता है। हिन्दू संस्कृति और उसके प्रतीकों को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। जो काम तरूण तेजपाल का मीडिया हाउस तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों के माध्यम से करता था वही काम दिल्ली प्रेस का मीडिया हाउस हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार द्वारा करता है ।  कहना चाहिए कि दोनों मीडिया हाउस एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरीकों से काम कर रहे हैं । इस उदेश्य की पूर्ति के लिए एक तीसरा समूह भी कार्यरत है। भारत में  चर्च के विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं को इस तीसरे समूह की संज्ञा दी जा सकती है। दिल्ली प्रेस की पत्र पत्रिकाओं और चर्च द्वारा भारत में मतांतरण आंदोलन को तेज करने के लिए प्रकाशित की जा रही पत्र पत्रिकाओं की भाषा का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो लगभग एक समान दिखाई देती है।

सोनिया गांधी की पार्टी को लगता होगा कि यदि संघ पर ये आरोप तरूण तेजपाल के मीडिया हाउस तहलका के माध्यम से लगाए जाते हैं तो उस पर कोई विश्वास नहीं करेगा क्योंकि तेजपाल की कथित करतूतों का पर्दाफाश हो जाने के कारण उसकी विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो गई है। शायद इसी मजबूरी में दिल्ली प्रेस को पर्दे के पीछे से निकाल कर यह खेल खेलने के लिए मैदान में उतारा गया। लेकिन दिल्ली प्रेस वालों ने शायद इस खेल में नए होने के कारण ऐसी भूलें कर दी जिससे उनका झूठ पकड़ा ही नहीं जा रहा बल्कि उसके भीतर के अंतरविरोध भी स्पष्ट नजर आ रहे हैं। कारवां के प्रेस वक्तव्य में अंतरविरोध इतने स्पष्ट थे कि उन्हें इस वक्तव्य के जारी हो जाने के तुरंत बाद भूल सुधार और स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा।

पिछले चार पाँच साल से सोनिया गान्धी की पार्टी सरकारी जाँच एजेंसियों के साथ मिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हिंसात्मक गतिविधियों से जोड़ कर, एक प्रकार से आतंकवादियों को कवरिंग रेंज प्रदान कर रही है। इस से होता यह है कि जाँच एजेंसियाँ यदि चाहें भी तो वे न तो इस्लामी आतंकवादियों की गतिविधियों की जाँच कर सकतीं हैं और न ही उन्हें रोक सकतीं हैं। सोनिया पार्टी को लगता है कि इस्लामी आतंकवाद के प्रति उसके इस रवैये से मुसलमान उसे एक मुश्ताक़ वोट दे देंगें। सरकार को अच्छी तरह पता होता है कि संघ को लेकर फैलाए जा रहे इस दुर्भावना पूर्ण इतालवी झूठ को सिद्ध करने के लिये उसके पास कोई प्रमाण नहीं है । इसलिये न्यायालय में किसी को आरोपित नहीं किया जा सकता है और न ही आज तक किया गया है। लेकिन सरकार की मंशा तो चुने गये मीडिया समूहों की सहायता से संघ और राष्ट्रवादियों को जनमानस में बदनाम करना है। दिल्ली प्रेस की सहायता से किया गया यह प्रयास भी उसी कोटि में आता है। कारवाँ के किसी  पत्रकार ने दावा किया है कि उसने जेल में असीमानन्द से दो साल में बार बार मुलाक़ात की है तो ज़ाहिर है यह सारी साज़िश सरकारी सहायता के बिना संभव नहीं हो सकती। दिल्ली प्रेस भी और सोनिया गान्धी की पार्टी और उसकी सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि तथाकथित टेपों की जब तक जाँच होगी तब तक तो संघ पर लगे यह आरोप सब जगह चर्चित हो चुके होंगे।

कारवाँ के इस कारनामे को एक और पृष्ठभूमि में भी देखना होगा। पिछले एक दो साल से देश में यह चर्चा फिर से हो रही है कि सोनिया गान्धी की इतालवी पृष्ठभूमि और उनके राजीव गान्धी से शादी से पूर्व के जीवन के बारे में तहक़ीक़ात की जाये। सोनिया गान्धी इस समय देश की सत्ता के केन्द्र बिन्दु में है और देश सुरक्षा के लिहाज़ से एक प्रकार से संक्रमण काल से ही गुज़र रहा है । वैश्विक इस्लामी आतंकवादियों के निशाने पर भारत भी है, यह रहस्य किसी से छिपा नहीं है। ऐसे समय में सोनिया गान्धी की सरकार आतंकवादियों के प्रति नर्म रवैया ही नहीं अपना रही बल्कि देश की जनता का ध्यान भी इस ओर से हटाने के लिये संघ पर दोषीरोपण कर रही है। पार्टी के एक महामंत्री तो खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन करते नज़र आते हैं। आख़िर आतंकवादियों के प्रति सरकार की इस नर्म नीति के पीछे कौन है ? ये प्रश्न और भी तेज़ होकर चारों ओर गूँजने लगें , उससे पहले ही देश की राष्ट्रवादी ताक़तों पर दोषारोपण कर उन्हें रक्षात्मक रुख़ अख़्तियार करने के लिये विवश किया जाये,लगता है संघ पर दोषारोपण के पीछे यही सरकारी नीति काम कर रही है।

क्या कारण है कि आज अमेरिका भी संघ को निशाना बना रहा है , पाकिस्तान भी और सोनिया गान्धी की पार्टी भी ? हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि यदि दुकानदार किसी ग्राहक की बुराई करें तो समझ लेना चाहिये कि ग्राहक ने उस दुकानदार के हाथों चुपचाप लुटने से इन्कार कर दिया है । इसी प्रकार अमेरिका भारत में जब किसी संगठन को गालियाँ देना शुरु कर दे तो मान लेना चाहिये कि वह संगठन भारत में अमेरिकी हितों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन क्या सोनिया गान्धी और उसकी पार्टी इस बात का ख़ुलासा करेगी कि वह संघ को बदनाम करने के काम में किसके हितों की रक्षा में लगी हुई है? रही बात कारवाँ की, इस लड़ाई में अभी पता नहीं कितने छिपे हुए कारवाँ लोकसभा के चुनावों तक प्रकट होते रहेंगे। तरुण तेज़पाल के जेल जाने से कारवाँ ख़त्म थोड़ा हो गया है।

स्वराज का सच !

दिल्ली विधानसभा में भले ही नियत समय पर स्वराज और जनलोकपाल विधेयक प्रस्तुत नहीं हो सका लेकिन स्वराज और जनलोकपाल विधेयक को दिल्ली विधानसभा में लाने और पास कराने की कोशिश खत्म नहीं होगी। स्वराज और जनलोकपाल को जहां एक ओर इसे केजरीवाल द्वारा आत्महत्या का प्रयास बताया जा रहा है वहीं दूसरी ओर स्वराज और जनलोकपाल विधेयक को मिलता अन्ना व गांधीजनों का साथ इसे ’पुनर्जीवन योजना’ बना रहा है। अब यह केजरीवाल का ’सुसाइड प्लान’ है, पुनर्जीवन योजना, राजनीति या काजनीति; यह जांचना राजनीतिक विश्लेषकों का विषय है, मेरे जैसे सामाजिक विश्लेषक के लिए जांच के प्रश्न दूसरे हैं। प्रश्न ये हैं कि जिस स्वराज की चादर ओढकर केजरीवाल सत्ता में आये; क्या वह उसी सूत से बुनी गई है, जिसकी पहचान गांधी जी ने स्वराज के रूप में थी ? क्या समर्थन देने वाले गांधीजन आश्वस्त हैं कि सूत दूसरा होने पर ’आप’ के स्वराज की चादर अराजक नहीं हो जायेगी? यदि ऐसा हुआ तो क्या एहतियात जरूरी होंगे?

हालांकि ’स्वराज बिल’ का मसौदा अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है; किंतु आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र का स्वराज और स्वराज की गांधीवादी अवधारणा... दोनो एक नहीं हैं। ’आप’ के स्वराज का मतलब ’जनता का राज’ है। गांधी के ’स्वराज’ का मतलब ’अपने ऊपर खुद का राज’ यानी स्वानुशासन है। गौरतलब है कि ’स्वराज बिल’ स्थानीय विकास का बजट व एजेंडा जनता के हाथ सौंपने का बिल है। इस दिशा में कदम बढाते हुए ’आप’ सरकार रेजिडेन्ट्स वैलफेयर एसोसिएशन की ’भागीदारी योजना’ का बजट शून्य करने की तैयारी में है।कानून बनने पर स्वराज बिल निगम पार्षदों के बजट को भी शून्य कर देगा। बकौल केजरीवाल, आबादी के हिसाब से मोहल्ला सभायें बनाई जायेंगी। औसतन एक हजार परिवार पर एक मोहल्ला सभा के हिसाब से दिल्ली में करीब 3000 मोहल्ला सभायें होंगी। उनके अपने-अपने स्थानीय सचिवालय होंगे। वे अपने प्रतिनिधि चुनेंगी। विधायक-निगम पार्षद भी इसके सदस्य होंगे। चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका मोहल्ला सभाओं की बैठकों का आयोजन, संयोजन व संचालन सुनिश्चित करने में होगी। असली ताकत मोहल्ला सभाओं के हाथ में होगी।’फंड, फंक्शन और फंक्शनरिज’... तीनों इन मोहल्ला सभाओं के अधीन होंगे। अच्छे काम करने पर कर्मचारियों की पुरस्कृत करने तथा गलत करने पर दंडित करने का अधिकार मोहल्ला सभाओं को होगा। मोहल्ला सभायें प्राप्त धन का अपनी योजना के मुताबिक आवंटन खर्च कर सकेंगी।
जनता के काज पर जनता का राज! स्वराज का यह सपना गांधी के स्वराज की परिभाषा से भिन्न सही, पर निश्चित ही सुंदर है; बावजूद इसके इस सपने को लेकर उस शंका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता, जो एक टी वी चैनल की एंकर ने उठाई थी। एंकर केजरीवाल से जानना चाहती थी कि यदि कोई मोहल्ला समिति अपने इलाके में मनमानी या उस तौर-तरीके पर उतर आये, जिस तौर-तरीके को लेकर स्वयं केजरीवाल पर अराजक होने के आरोप लग रहे हैं, तो.. ? जवाब में केजरीवाल ने कहा कि जिस तरह केन्द्र व राज्य स्तरीय अधिकार व कर्तव्यों का संवैधानिक खाका बना हुआ है, ऐसी ही संवैधानिक सीमा रेखा मोहल्ला सभाओं के लिए भी होगी। इसकी पालना मोहल्ला सभाओं को भी करनी होंगी और उनके प्रतिनिधियों को। पालना न करने पर मोहल्ला सभायें अपने प्रतिनिधियों को बदल सकेंगी। एक तरह से ’राइट टू रिकॉल’ इस स्तर पर लागू होगा। किंतु क्या ’स्वराज बिल’ के मसौदे में सचमुच ऐसा है? क्या मोहल्ला सभायें भी जनलोकपाल के दायरे में होंगी ? यदि नहीं, तो मोहल्ला सभाओं के भीतर स्वानुशासन सुनिश्चित करने का काम कौन करेगा ? ये प्रश्न जांचने के विषय रहेंगे।

जांचने का विषय यह भी है कि केजरीवाल एक ओर मोहल्ला सभाओं को संविधान की पालना नसीहत दे रहे हैं, दूसरी ओर कह रहे हैं - ’’हां! यदि महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक मुख्यमंत्री का सङकों पर उतरना अराजक है, तो मैं अराजक हूं।’’ वह कह रहे हैं कि कानून जनता के लिए हैं, जनता कानून के लिए थोङे ही हैं। जो कानून जनता के लिए हितकर न हो, उसे बदल डालो। कल को मोहल्ला सभायें भी यह कह सकती हैं। इस विरोधाभास से बचने के लिए क्या जरूरी नहीं है कि मोहल्ला सभाओं के अधिकार, कर्तव्य व कायदों को कानून में बदलने से पूर्व स्वयं मोहल्ला सभाओं की राय व सहमति ली जाये? मोहल्ला सभायें अभी अस्तित्व में ही नहीं हैं; तो क्या वर्तमान रेजिडेन्ट्स वैलफेयर एसोसिएशन्स से राय लेकर यह किया जा सकता है? क्या यह जरूरी नहीं है कि यदि मोहल्ला समितियों को योजना, कार्य व वित्तीय निर्णय के अधिकार सौंपे जायें तो भ्रष्टाचारमुक्त क्रियान्वयन प्रक्रिया, पारदर्शिता व निष्पक्षता की जवाबदेही भी मोहल्ला सभाओं की ही हों?

दरअसल ’स्वराज बिल’ एक ऐसा मसला है, जिस पर व्यापक बहस की जरूरत है। बहस इस पर भी संभव है कि क्या दिल्ली की जनता उन अधिकारों व कर्तव्यों केनिर्वाहन के लिए तैयार है, जोस्वराज बिल’ उन्हे देना चाहता है ? बगैर तैयारी व स्वानुशासन सुनिश्चित किए मोहल्ला सभाओं के उद्धार का यह हथियार कहीं उन्हे सचमुच अराजक तो नहीं बना देगा ? ऐसा ही एक प्रश्न को उठाते हुए स्वयं महात्मा गांधी ने लिखा था कि यदि ’स्वराज’ को प्रत्येक व्यक्ति, जाति, धर्म, संपद्राय, वर्ग, वर्ण, अमीर, गरीब ’अपना राज’ कहकर लागू करने पर लग जाये, तो सोचिए स्थिति कैसी हो जायेगी ? क्या स्थिति वाकई अराजक नहीं हो जायेगी ? पहला जवाब है -’’हां, बिल्कुल अराजक हो जायेंगी, यदि हम इसी तरह व्यक्ति, जाति, धर्म, संप्रदाय, वर्ग या वर्ण बने रहे, जैसा कि आज हम हैं।’’ दूसरा जवाब होगा -’’नहीं, बिल्कुल ऐसा नहीं होगा; बशर्ते हम भिन्न जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी ये सब न होकर ’समुदाय’ हो जायें।’’

दरअसल, यह समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। इस सामुदायिक भाव के आ जाने पर सरकार और समाज एक-दूसरे के विरोधी न होकर, सहयोगी हो जाते हैं। वैदिक काल में प्रत्येक गांव एक छोटा सा स्वायत्त राज्य था। स्वायत्त होने के बावजूद यह व्यवस्था अराजक नहीं थी। क्यों? क्योंकि राजा व गांव एक-दूसरे की सत्ता को चुनौती देने की बजाय एक-दूसरे के पोषक और रक्षक की भूमिका में थे। रामायण काल में गांव समितियों का हस्तक्षेप राज्यसभा तक था। मौर्यकालीन व्यवस्था में राजा ने कभी ग्रामीण संस्थाओं के कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया; बावजूद इसके लोग स्वेच्छा से नियमों का पालन करते थे। कहना न होगा कि स्व-अनुशासन सुशासन की पहली शर्त है। ऐसा कब होगा ? ऐसा तब होगा, जब प्रत्येक समुदाय स्व-अनुशासित होगा। क्या दिल्लीवासी स्वयं को इसके लिए तैयार पाते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं कि जो समाज स्वयं अनुशासित नहीं होता, उसमें सत्ता को अनुशासित करने की क्षमता नहीं होती।

आज की दिल्ली का सच यही है कि गांधी के स्वराज यानी स्व-अनुशासन के बगैर ’आप’ का स्वराज सचमुच अराजक ही हो जायेगा। बाहर आम राय को अहम् बताने वाली ’आप’ के भीतर ’आप’ की संस्थापक सदस्य श्रीमती मधु भादुङी को अपनी राय प्रस्तुत नहीं करने दी गई। उनसे माइक छीन लिया गया। वह ’आप’ की कार्यकारिणी बैठक में सोमनाथ भारती संबंधी मसले पर माफी प्रस्ताव प्रस्तुत करना चाहती थी। मुख्यमंत्री से समय दिलाने वाले विधु से लोग निराश हैं। आरोप है कि अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री से मुलाकात के लिए ’आप’ के विधायकों को टरकाया जाता है। सुना है कि अपनी देशभक्ति फिल्मों व जज्बे के लिए प्रख्यात अभिनेता मनोज कुमार भी विधु से निराश ही हुए। बाहर आ रही ये खबरें बताती हैं गांधी के बताये इस स्व-अनुशासन की जरूरत स्वयं ’आप’ को भी है। संभव है कि शासन, प्रशासन व मोहल्ला सभाओं को अनुशसित करने का जिम्मा जनलोकपाल को देकर हम निश्चिंत हो पायें। लेकिन ’आप’ के स्व-अनुशासन का जिम्मा तो स्वयं ’आप’ को लेना होगा। क्या ’आप’ लेगी ? तब शायद लोग भी ’आप’ का जिम्मा ले लें और सचमुच का स्वराज आ जाये।

13 February 2014

गैस का सौदागर बनाम आम आदमी !

1 लाख 76 हजार करोड़ का 2 जी स्कैम, 1 लाख 85 हजार करोड़ का कोयला घोटाला और अब करीब सवा लाख करोड़ का गैस घोटाला। 2जी घोटाले के खेल में 6 कॉरपोरेट घरानों के नाम आये। कोयला घोटाले में 27 कॉरपोरेट और 19 कंपनियों के नाम आये। और गैस घोटाले में रिलायंस इंडस्ट्री का नाम आया। 2जी घोटाला 2008 में हुआ। कोयला घोटाला 1998 से शुरु हुआ और 2010 तक जारी रहा। गैस घोटाले की शुरुआत 2004 में हुई। यानी 2जी घोटाला मनमोहन सिंह के दौर में हुआ तो कोयला घोटाला वाजपेयी के दौर से शुरु होकर मनमोहन सिंह के दौर में ज्यादा तेजी से होने लगा। और गैस के घोटाले पर हस्ताक्षर तो मनमोहन सिंह के दौर में हुये लेकिन केजी बेसिन को मुकेश अंबानी के हवाले 2002 में वाजपेयी सरकार के दौर में ही किया गया।

और इन तीनों की कीमत जिस औने पौने दाम में कॉरपोरेट को दी गयी और उससे जो मुनाफा कॉरपोरेट ने कमाया उसे अगर सीएजी के दायरे में देखें तो देश को 2जी, कोयला और प्रकृतिक गैस के घोटाले से 4 लाख 86 हजार 591 करोड का चूना लगा दिया गया। तो देश को चूना लगाने वाली इस रकम यानी 486591 करोड़ रपये के मायने भी समझ लें। मौजूदा वक्त में अगर यह रकम रसोई गैस और पेट्रोल डीजल में राहत के लिये जोड़ दी जाये। यानी तमाम लूट के बाद भी जो कीमत आम जनता से सरकार वसूल रही है अगर उसमें 4 लाख 86 हजार करोड की सब्सिडी मिलने लगे तो महंगाई में तीन सौ फीसदी की कमी आ जायेगी। क्योंकि तब पेट्रोल औसतन 70 रुपये लीटर से घटकर 36 रुपये लीटर पर आ जायेगा। डीजल में 60 फीसदी प्रति लीटर की कमी हो जायेगी। और रसोई गैस प्रति सिलेन्डर आम जनता को 250 रुपये में मिलने लगेगा।

यू महंगाई का सवाल इस लिये भी इन तीनों से जुड़ा है क्योंकि इन तीनों पर कॉरपोरेट का सीधा कब्जा है। यानी सरकार चाहे तो भी इनकी कीमत तय नहीं कर सकती है और जिन कॉरपोरेट के हाथ में इसका लाइसेंस होगा वह अपने मुनाफे को आंक कर ही कीमत तय करेगा। तो इन कीमतो से पड़ने वाले सीधे असर को समझें तो औघोगिक उत्पाद,खेती और सफर के महंगे होने में इन तीनो की भूमिका सबसे बड़ी है। क्योंकि इसी की वजह से गैस के पावर प्लांट से लेकर खाद तक की कीमतें बढ़ीं। जो 1 अप्रेल से और ज्यादा बढ़ेंगी। और इस लकीर पर संयोग से 2जी के घोटाले ने संचार व्यवस्था को भी लूटतंत्र में बदला है तो आधुनिक होते भारत में सिर्फ वहीं सुकून से जी सकता है, जिसकी जेब भरी हो या फिर औसतन कमाई हर महीने कम से कम 52 हजार जरुर हों। यानी जिस देश में सालाना कमाई ही औसतन 50 हजार बतायी जाती हो। और इस 50 हजार रुपये सालाना औसतन कमाई का सच यह हो कि देश की 80 फीसदी आबादी की सालाना कमाई महज 4 हजार रुपये से कम हो तो कल्पना कीजिये कि देश में असमानता का पैमाना कितना तीखा है और कारपोरेट की कमाई कितनी ज्यादा है। कारपोरेट-सरकार नैक्सैस के खेल में देश के ही संसाधनों की कीमत कैसे तय होती होगी यह भी अब खुले तौर पर सामने लगा है।

दरअसल, सवाल सिर्फ कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए का नहीं है, यह बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए का भी है। मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडिया लिमिटेड को को बारह बरस पहले वाजपेयी सरकार ने प्रकृतिक गैस निकालने के लिये केजी बेसिन सौपा। और वाजपेयी सरकार के जाने के बाद 2004 में मनमोहन सरकार ने मुकेश अंबानी के साथ गैस खरीदने का सौदा किया। दरअसल दिल्ली सरकार ने जिन दो केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले में एपआईआर दर्ज की है उसकी वजह उन्हीं के पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुकेश अंबानी की हर शर्त मानने का आरोप है। मसलन 2004 में पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर थे और 2006 में मणिशंकर अय्यर को तब पेट्रोलियम मंत्री पद से हटा दिया गया जब रिलांयस ने खर्च करने की आधिकतम निर्धारित रकम 2.39 बिलियन डालर से बढाकर 8.8 बिलियन डालर करने की मांग की। साथ ही प्रति यूनिट गैस की कीमत 2.34 डालर से बढ़ाकर 4.2 डालर करने की मांग की । अय्यर नहीं माने तो मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर मुरली देवडा को पेट्रोलियम मंत्री बना दिया और देवडा ने रिलायंस की तमाम शर्तो पर सहमति दी, जिस पर कैबिनेट ने मुहर लगा दी। इसी तरह रिलांयस ने अगला खेल 2012 में किया। उस वक्त जयराल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री थे और रिलांयस ने प्रति यूनिट गैस 4.2 डॉलर से बढ़ाकर 14.2 डालर प्रति यूनिट करने की मांग की। जयपाल रेड्डी नहीं माने तो मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर वीरप्पा मोइली को पेट्रोलियम मंत्री बना दिया। और मंत्री बदलते ही समझौता हो गया। तय यही हुआ कि 1 अप्रैल 2014 से प्रति यूनिट गैस की किमत 8.4 डालर प्रति यूनिट होगी।

दरअसल, गैस के इस खेल को बेहद बारिकी से अंजाम दिया गया। क्योंकि जब सरकार ने गैस के खरीद मूल्य को बढ़ाने से इंकार किया तो कई वजहो को बताते हुये गैस के उत्पादन में कमी कर दी गयी। उसके बाद जो रिपोर्ट सरकार के सामने आयी वह भी कम दिल्चस्प नहीं है। बताया गया कि मुकेश अंबानी से समझौता कर लें तो रिलायंस को 43000 करोड़ का लाभ होगा। और रिलायंस ने उत्पादन कम कर दिया है और विदेशी बाजार से गैस खरीदना पड़ रहा है तो सरकार पर 53000 करोड का बोझ पड़ रहा है। तो रिलायंस के आगे मनमोहन सरकार झुक गयी। और इसी मामले को सीपीआई सांसद गुरुदास दास गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट में भी उठाया। और सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट में करीब एक लाख 25 हजार करोड का मुनाफा रिलायंस को देने का आरोप भी लगाया। लेकिन इन सब के बाद अब दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने इस पूरे मामले को ही आपराधिक मामले करार दे दिया है। और दिल्ली के एंटी करप्शन ब्यूरो को एफआईआर दर्ज करने के आदेश दे दिये है। उसके बाद कई सवाल खड़े हो गये हैं। एफआईआर दर्ज करने के बाद एंटी करप्शन ब्यूरो क्या आरोपियों को गिरफ्तार करेगा। क्या गिरफ्तारी से बचने के लिये अब आरोपी हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटायेंगे। क्या खनिज संपदा को लेकर रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट को ही आधार बना लिया जायेगा। क्या सुप्रीम कोर्ट अब तेजी से काम करेगा और कोई फैसला जल्द सुना देगा। बड़ा सवाल कि 1 अप्रैल 2014 से गैस की कीमत क्या होगी। लेकिन सिस्टम का मतलब क्रोनी कैपटिलिज्म हो चुका है यह तो मान लीजिये।

11 February 2014

हसीबा अमीन की हसीन सपने !

लोकसभा चुनावों के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर तैयार कराए गए कांग्रेस का एक विज्ञापन किसी न किसी कारण से लगातार चर्चा में है, विवादों में है। खासकर चर्चा के केंद्र में है, वह विज्ञापन करने वाली लड़की, जो बड़े ही अल्मस्त अंदाज में देश के युवाओं को राहुल गांधी के साथ जुड़ने की अपील करती है। कांग्रेस का यह नया विज्ञापन ‘कट्टर सोच नहीं, बल्कि युवा जोश’ हसीबा अमीन ने की है। सफेद कमीज-सलवार और चश्मे में किसी कॉलेज गर्ल जैसी दिख रहीं हसीबा अमीन विज्ञापन में राहुल गांधी से जुड़ने की अपील कर रही हैं। हसीबा अमीन विज्ञापन में युवाओं को कट्टर सोच से दूर रहने के बात भी कहती हैं और खास अंदाज में आमिर खान की फिल्म ‘दिल चाहता है’ का गीत भी गाती हैं- हम हैं नए अंदाज क्यों हो पुराना। विज्ञापन में साधारण छात्रा जैसी दिखने वाली हसीबा इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। पूछा जा रहा है कि आखिर ये हसीबा अमीन हैं कौन?

पिछले विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से पराजित कांग्रेस ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए फिर राहुल गांधी पर ही यकीन किया है। यह बात और है कि भाजपा की तरह कांग्रेस ने अभी तक राहुल गांधी को पीएम उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि अगर चुनाव के बाद कांग्रेस को किसी भी तरह सरकार बनाने का मौका मिलता है, तो राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री की भूमिका में होंगे। यह तय है और सत्य भी। यही वजह है कि आगामी चुनाव को देखते हुए कांग्रेस बड़े स्तर पर विज्ञापन वॉर में उतर रही है। इस विज्ञापन वॉर के पीछे की दो वजहें हैं। एक तो यह कि देश के लोगों में कांग्रेस के प्रति विश्वास दिलाना और कांग्रेस की नीतियों से लेकर उसके कार्यक्रमों के बारे में जनता को अवगत कराना। और दूसरी वजह है भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी की सोच और उसकी नीतियों पर अटैक करना। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे कांग्रेस एक से बढ़कर एक अटैकिंग और अपीलिंग विज्ञापन लेकर सामने आएगी। हसीबा अमीन से जुड़ा विज्ञापन कांग्रेस का पहला विज्ञापन है, जो पहली दफा टीवी मीडिया के लिए जारी हुआ है। इस विज्ञापन में मोदी की तुलना कट्टरता से की गई है। 

40 सेकेंड के इस विज्ञापन की पंच लाइन है-कट्टर सोच नहीं, युवा जोश। और इस एड का थीम है-हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की। यहां हाथ संकेत कर रहा है कांग्रेस का। रणनीति के तहत इस एड के लिए मुस्लिम लड़की हसीबा अमीन को चुना गया है। 23 साल की हसीबा अमीन गोवा प्रदेश छात्र कांग्रेस युवा इकाई की अध्यक्ष हैं। हसीबा ने अभी हाल ही में एलएलबी की डिग्री भी ली है। हसीबा कहती हैं कि मेरा विश्वास है कि केवल कांग्रेस ही अपने वादों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्वपूर्ण रखती है। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से आती हूं। मेरा कोई पॉलिटिकल बैकग्राउंड नहीं है। राहुल से देश के युवा जुड़ रहे हैं और आने वाले समय में देश के युवा कांग्रेस के साथ होंगे।

कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि आगामी चुनाव को लेकर हसीबा अमीन वाले इस एड को कई भाषओं में बनाया गया है, लेकिन अभी केवल हिंदी वाला एड ही जारी हुआ है। इस विज्ञापन को कांग्रेस की एड एजेंसी डेंट्सू और उसकी इकाई टैपरूट ने बनाया है। हसीबा अमीन को लेकर हो रहे हल्ले पर अभी डेंट्सू कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन इस एजेंसी ने यह कहा है कि कांग्रेस इस तरह के कई और एड बनवा रही है और दस विज्ञापनों पर करीब 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे। ये सारे विज्ञापन रेडियो, टीवी, अखबार, सोशल मीडिया और सारे संचार माध्यमों के लिए बनाए जाएंगे। इसके अलावा 100 करोड़ रुपये की राशि ग्राउंड लेवल पर खर्च की जाएंगी। कांग्रेस इस चुनाव में चूकना नहीं चाहती।

 भारत निर्माण के विज्ञापन पर भी वह करोड़ों खर्च कर रही है। इस पर अभी तक 100 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं और कहा जा रहा है कि आगामी महीनों में इस पर और 75 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। कांग्रेस की हर रणनीति और विज्ञापन मोदी की राजनीति को मात देने की है। 2004 से लेकर 2009 के चुनाव तक कांग्रेस अपने हर विज्ञापन में ‘आम आदमी’ की बातें करती थी, लेकिन केजरीवाल की पार्टी आम आदमी के सामने आने के बाद अब कांग्रेस के हर विज्ञापन से आम आदमी को डिलिट कर दिया गया है। इसके साथ ही अब सारे विज्ञापन के फोकस में राहुल गांधी को रखा जा रहा है। इसके पीछे की रणनीति राहुल गांधी को पीएम उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करना है।

अब फिर हसीबा की चर्चा। हसीबा पिछले दिनों तब बहुत सक्रिय रहीं, जब सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर ने तरुण तेजपाल के खिलाफ रेप का आरोप लगाने वाली पीड़िता का नाम ट्विटर पर उजागर कर दिया। हसीबा अमीन ने मधु किश्वर के खिलाफ गोवा पुलिस की क्राइम ब्रांच में शिकायत दर्ज कराई थी। हालांकि विज्ञापन में आने के बाद हसीबा सोशल मीडिया में कई लोगों के निशाने पर भी आ गई हैं। ट्विटर पर हसीबा पर आरोप लगाया गया है कि वे करोड़ों के घोटालों में जेल जा चुकी हैं। हसीबा पर यह भी आरोप लगा है कि उन्होंने 2012 में गोवा में कांग्रेस नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ यूथ कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे कैंपेन को बंद करा दिया था। लेकिन हसीबा ने इन आरोपों को सिरे से नकार दिया है। हसीबा कहती हैं कि मेरे ऊपर जो भी आरोप लगाए जा रहे हैं, वह सच से परे है।

 एड करने से पहले मेरे ऊपर कोई आरोप नहीं थे और अब एड के बाद मेरे ऊपर आरोप लगाए जा रहे हैं। लगता है कि एक लड़की को परेशान करने की कोशिश की जा रही है। हम पर हमले किए जा रहे हैं। मुझ पर आरोप लगाने वालों को शर्म आनी चाहिए। उन्हें अगर मौका मिलेगा, तो वह दोबारा से राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए एड करेंगी। उधर, एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोहित चौधरी ने भी हसीबा का बचाव किया है। चौधरी ने कहा है कि हसीबा पर जो भी आरोप भाजपा की ओर से लगाए जा रहे हैं, उसमें कोई दम नहीं है। अगर कोई मामला है, तो उसे भाजपा के लोग सामने लाएं। कहा जा रहा है कि हसीबा जेल भी जा चुकी हैं। वह कब जेल गर्इं, किसी को मालूम नहीं। हमें हसीबा पर गर्व है।

गौरतलब है कि राहुल गांधी के विज्ञापन कट्टर सोच नहीं, युवा जोश से चर्चा में आईं हसीबा अमीन पर आरोप लगा है कि गोवा में टंकी घोटाले की आरोपी हैं। सोशल मीडिया पर भाजपा ने आरोप लगाया है कि हसीबा इन घोटालों की वजह से जेल भी जा चुकी हैं। वहीं सोशल मीडिया में यह भी कहा जा रहा है कि हसीबा अमीन राहुल गांधी की सोच से नहीं, बल्कि कैबिनेट मंत्री शशि थरूर से प्रभावित हैं। जिसके लिए उन पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्तिगत टिप्पणी भी की जा रही है।  अपने पूरे विज्ञापन में हसीबा यही जताने की कोशिश करती हैं कि देश का युवा, देश का मुस्लिम और देश की महिला तीनों को ही राहुल गांधी की नई और लीक से हटकर सोच प्रभावित करती है। 

वह अपने विज्ञापन में कुछ फिल्मी अंदाज में गाना भी गाती हैं, तो वहीं एक नेता की तरह पूरे दम से कहती हैं कि कट्टर सोच नहीं, बल्कि युवा जोश यानी कि वह अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी पर निशाना साध रही हैं। खैर इस विज्ञापन का लोगों पर क्या असर होता है? इसका पता तो लोकसभा चुनाव 2014 के परिणाम बता देंगे, लेकिन इतना तो तय है कि लोग अब इस विज्ञापन के बारे में नहीं, बल्कि इस विज्ञापन में लीड रोल करने वाली हसीबा अमीन के बारे में जानने को बेचैन हैं।

08 February 2014

क्या मोहन भागवत को फंसाने की कोशिश कि जा रही है ?

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर संघ और उससे जुड़े लोगों पर कीचड़ उछालनेद की कोशिश तेज हो गई है। एक अंग्रेजी पत्रिका में छपी भेंट-वार्ता के आधार पर कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवन ने असीमानंद को आतंकवाद फैलाने का आशीर्वाद दिया था। जबकि स्वामी असीमानंद ने जेल अधीक्षक को दिए लिखित बयान में कहा है कि उन्होंने कभी भी संघ प्रमुख का नाम नहीं लिया है। ऐसे में ये बेहद ही शर्मनाक और चैकाने वाली घटना है। पत्रिका का दावा है कि उसके एक संवाददाता ने जेल में स्वामी असीमानंद से कई बार भेंट-वार्ताएं की थीं और उसके पास असीमानंद का टेप है, जिसमें उन्होंने ये बातें कही है।

ऐसे में इस मुलाकात और टेप दोनों को लेकर कई गंभिर सवाल खड़ा होरहा है। सवाल ये है कि किसी कैदी से क्या कोई पत्रकार जाकर बार-बार मिल सकता है? जिसकी निगरानी तमाम प्रकार कि एजेंसियां इस वक्त रही हैं। दुसरा सवाल इस बात को लेकर खड़ा होता है कि इस टेप के प्रामाणिकता का आधार क्या है ? अगर ये टेप सही है तो फिर इसको सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है ?

या फिर अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ये टेप प्रामाणिक है तो भी असल सवाल ये है कि जो असीमानंद कह रहे हैं, वह कितना प्रामाणिक है? असीमानंद के इकतरफा दावे को सत्य कैसे माना जाए? जिस दावे को अभी तक कोई भी जांच एजेंसी या फिर न्यायालय ने सही नहीं माना है। ऐसे में ये असीमानंद का आरोप पूरी तरह से निराधार लगता है।

असीमानंद को लेकर हमेशा से अफवाहों का बाजार गर्म रहा है। ऐसे में कोई पत्रिका अगर बिना साबूत पेश किये ये दावा करे तो सवाल उसके पत्रकारिता और प्रमाणिकता दोनो को लेकर खड़ा होता है। असीमानंद शुरू से ही अपना बयान बदलते रहे हैं। ऐसे में अपनी खाल बचाने के लिए कुछ बड़े नामों को अगर हवा में उछाला जारहा है तो इसमे कोई नई बात फिलहाल नहीं दिखाई देरही है।

इन अफवाहों को संघ की ओर से जोरदार खंडन किया जा चुका है। ऐसे में अब कोई शक सुबहा बचता नहीं है। जाहीर है, सरसंघ चालक को फंसाने कि ये रणनीति अब खुल कर सामने आचुकी है। महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील ने 2010 में एक गुप्त रिकार्डेड टेप जारी कर विधानसभा में कहा था कि कुछ भगवा आतंकवादी मोहन भागवत और इंद्रेशकुमार की हत्या करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें दस लाख रु. भी दिए गए थे। यदि मोहन भागवत इन आतंकवादियों को आशीर्वाद दे रहे थे और प्रोत्साहित कर रहे थे तो फिर असीमानंद जैसे लोग उनकी हत्या का षड्यंत्र  क्यों कर रहे थे? ऐसे में भला मोहन भागवत जैसे लोग आतंकवाद फैलाने वाले को आशीर्वाद क्या दे सकते है? ये अपने आप में एक बंहद गंभिर समझ से परे सवाल है।

संघ प्रमुख पर आरोप लगने से चुनावी मौसम में कांग्रेस और विरोधी पार्टियों को बैठे-बिठाए बड़ा मुद्दा मिल गया है। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होने बताया कि असीमानंद ने जो कहा है वह सच ही कहा होगा। दूसरी तरफ, बीजेपी, शिवसेना और आरएसएस ने असीमानंद के इंटरव्यू को पूरी तरह से ही फर्जी करार दिया है। तो ऐसे में सवाल खड़ होता है कि क्या मोहन भागवत को फंसाने की कोशिश कि जा रही है ?

07 February 2014

क्या आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है ?

जाति बनाम आरक्षण का मुद्दा एक बार से सियासी सुर्खियों में है। जात पात के आधार पर आरक्षण होना चाहिए या नहीं ये एक बार फिर से बहस काविषय बन गया है। सोशल मीडिया से लेकर सत्ता की गलियारों तक हर कोई बयानबाजी कर सुर्खियां बटोरने में लगा है। कोई आरक्षण हटाओ का नारा देरहा है तो कोई आरक्षण बचाओं का। कांग्रेस पार्टी जनार्दन द्विवेदी के बयानों से इतर आरक्षण का जन्मदाता बता रही है, तो वहीं सोनिया गांधी इसे पीछड़े वर्गों की आस्था से जोड़ कर देख रहीं हैं। ऐसे में सवाल ये है कि आरक्षण की आड़ में वोट का बयापार आखिर कब तक जारी रहेगा?

कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने हाल में जब जाति के आधार पर आरक्षण को खत्म करने की मांग की तो राजनीतिक दल उन पर टूट पड़े। उनकी अपनी हीं पार्टी ने उनके बयानों से किनारा कर लिया। भारतीय राजनीति में आरक्षण शुरू से ही एक विवादास्पद का मुद्दा रहा है। इसको जारी रखने या फिर हटाने को लेकर आम सहमति कभी नहीं बन पाई।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने जब 1932 में भारत के दलित वर्ग और दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा तो गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया था। उनका मानना था कि इससे हिन्दू समुदाय विभाजित हो जाएगा। मगर ब्रिटिश हुकूमत  इसे लागू करने में सफल रही। मगर देश आजाद होने के बाद डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने इसे संविधान में विशेष रूप से स्थान दिया। 

जैसे जैसे समय बदलते गया वैसे वेसे आरक्षण का स्वरूप भी बदला। दिसंबर 1978 में मंडल कमीशन ने ओबीसी के लिए आरक्षण की सिफारिश की। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सत्ता में आने के बाद इसे लागू किया। मगर इनकी सरकार गिर गई। बाद में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनने के बाद मंडल कमीशन की सिफारिशों को एक बार फिर से 1991 में अमली जामा पहनाया गया। जिसके बाद पिछड़े वर्गों के छात्रों को केन्द्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलने लगे। यही आरक्षण आज सत्ता की चाशनी बन गई है। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड ने कहा था कि आरक्षण नीति की सफलता की कसौटी यही होगी कि कितनी जल्दी आरक्षण की आवश्यकता को समाप्त किया जाय। मगर इसके विपरीत आज राजनीतिक दल ये कोशिश कर रहे हैं कि इसे कैसे जारी रखा जाय।

1949 में भारतीय संविधान की धारा 335 में प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीमराव अम्बेडकर ने स्पष्ट कर दिया था कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति के आरक्षण का यह प्रावधान केवल दस वर्षों तक के लिए हीं होगा। मगर आज 65 साल बाद जब धारा 335 को हटाने के लिए किसी ने आवाज उठाई तो है तो अब हर दल को इसमें वोट बैंक दिखाई देने लगा है। अम्बेडकर ने आरक्षण देते समय ये भी कहा था कि आरक्षण एक बैसाखी है और लंबे दौर में वह दलितों को पंगु बना डालेगी। तो सवाल आज अंबेडकर के दिए आरक्षण का पैरोकारों से भी है कि क्या ये दलितों के साथ न्याय है या वोट के लिए बांधने की रस्सी। एक ओर आज समाज में जात पात की भेदभाव को खत्म करने की बात होरही है तो वहीं दुसरी इसी के आसरे समाज को जातीगत चैकठ लाकर बांध दिया जाता है। ऐसे सवाल ये है कि आज के बदले राजनीतिक दौर में क्या आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है?

                                भारत में आरक्षण

·     1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई.
·         ज्योतिराव फुले ने शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग  रखी.  

·         1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया.
·         सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे.

·         1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, आरक्षण शुरू किया गया.
·         1909 - भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया.

·         1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया.
·         1935 - कांग्रेस ने दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किया.

·         1942 - भीम राव अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित   वर्ग महासंघ की स्थापना की.

·         अम्बेडकर ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.

·    1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया.

·         1990 मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया.

·         छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया.

·         दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की.

·         1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया.

·        2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया.

·        2007- केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दिया.

·    2008- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा को सही ठहराया