26 August 2012

सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना कितना सही ?

असम हिंसा पर खुली सरकार की पोल। अपनी नाकामी छूपाने के लिए किया सोषल नेटवर्किंग साइटों को बैन। जी हां आज ऐसा ही हो रहा है देष में। सरकार बहाना बना रही है, कि सोषल नेटवर्किंग साइटों की वजह से ही देष में हिंसा फैल रही है। ये सही है कि नेटवर्किंग साइटों पर अफवाह फैलाकर देषद्रोही और देष के दुष्मन देष में हिंसा भड़का रहे हैं। मगर सरकार देषद्रोहियों की वजाय देषप्रेमियों को निषाना बना रही है। सरकार को सोषल साइट के जरिए हिंसा फैलाने वालों के आइपी पते भी मालूम हो गये, मगर फिर भी राश्ट्रवादियों को निषाना बनाया गया। वो भी उन राश्ट्रवादियों को जो आज भी देष की संस्कृति को बचाने और राश्ट्रप्रेम की भावना के साथ जीते और मरते हैं। सरकार ने उन देषद्रोहियों पर कोई षिकंजा नही कसा जो खुलेआम देष की अस्मितता को तार तार कर रहे थे। खुलेआम देष के षहीदों का अपमान हो रहा था। पुलिस तमाषबीन बनी हुई थी। सरकारी हुक्मरानों के इषारों पर विद्रोहियों को पुलिस पकड़कर छोड़ रही थी। ये विद्रोही खुलेआम पुर्वोत्तर वासियों को धमका रहे थे। हजारों की तादात में पूर्वोत्तर भारतीय पलायन कर रहे थे, विद्रोही खुलेआम नंगा नाच नाच रहे थे। सरकार को इन विद्रोहियों पर कार्यवाही की, कभी याद नही आयी। याद आयी तो पाकिस्तान के बहाने देष के देषप्रेमियों के सोषल एकाउट बंद करने की। कई वरिश्ठ पत्रकारों और राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एकाउंट को बंद कर दिया गया। सरकार को सब कुछ पता था कि पाकिस्तान से हिंसा के तार जुड़े है और इसे फैला रहे हैं भारत में मौजूद कटटरपंथी। मगर सरकार ने इनके वजाय देष में अलख जगाने वाले देषप्रेमियों को निषाना बनाया। लोग कह रहे है आखिर क्यों असली बात को छुपा रही है सरकार। क्यों असम हिंसा की असली तस्वीर बाहर नही आने दी जा रही। क्यों असम हिंसा की असली तस्वीर बताने वालों को निषाना बनाया जा रहा है। क्यों देषप्रेम की भावना जगाने वालों को निषाना बनाया जा रहा है। आखिर क्या है सरकार की मंषा। अब तो लोग आवाज उठाने लगे हैं कि सरकार सोषल साइटों के बहाने किसी ना किसी तरह से हिंदुओं और संघ से जुड़े लोगों को निषाना बना रही है। नही तो क्या वजह है देष में हिंसा फैलाने वालों को बचाया जा रहा और देषद्राहियों की करतूतों पर पर्द डाला जा रहा र्है। सब जानते है कौन हिंसा के लिए जिम्मेदार है। मगर उनसे केवल बात की जा रही है। देष के ग्रहमंत्री उसी पकिस्तानी ग्रहमंत्री से बात करते है जो हमेषा भारत से सबूत मांगता है। कभी सरकार को यहां कार्यवाही करने की याद नही आती । आती है तो बस देषभक्तों और राश्ट्रवादीयों की आवाज को दबाने की। तो क्या इस तरह से सोषल नेटवर्किंग साइटों पर प्रतिबंध लगाना सही है।

क्या भारत घोटालों का देश बन गया है ?

अक्टूबर 2010 में 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। और भारत ने 38 स्वर्ण पदक जीतकर देश का नाम रौशन किया। पर कॉमनवेल्थ गेम्स होने से पहले ही जो सच सबके सामने आया वह बेहद चैंकाने वाला था। तकरीबन 2000 करोड़ रूपए के कॉमनवेल्थ घोटाले में पानी के मग से लेकर एसी और छतरी से लेकर ट्रेडमिल की बात हो या फिर कुर्सी से लेकर फ्रिज-कूलर तक खरीदने अथवा किराए पर लेने की बात हो या स्टेडियम और टेनिस टर्फ कोर्ट के निर्माण का मामला। हर चीज में जमकर धांधली हुई। इतना ही नहीं कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन की तैयारियों के नाम पर आयोजन से जुड़े अधिकारी व कर्मचारी विदेश यात्रा का लुत्फ उठाते रहे। वहीं, बैठकों में चाय नाश्ते के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों रूपए उड़ाए गए। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। अब बात आईपीएल घोटाले की करते है। आईपीएल-3 के समापन के तत्काल बाद आईपीएल प्रमुख ललित मोदी के पद से निलंबित कर दिया गया। मोदी के खिलाफ ब्लू कॉर्नर नोटिस भी किया गया। किंग्स इलेवन पंजाब और राजस्थान रॉयल्स की मालिक के हक पर सवाल भी उठा। इस प्रतियोगिता में भारी मात्रा में काले धन लगाया गया। कोच्चि की टीम से जुड़े केंद्रीय मंत्री शशि थरूर को अपने पद से हाथ धोना पड़ा और उनकी महिला मित्र सुनंदा ने भी इससे खुद को अलग कर लिया। इसका नेतृत्व करने वाली कंपनी रांदेवू स्पोर्ट्स वर्ल्ड प्राइवेट लिमिटेड को इस सौदे में 25 प्रतिशत फ्री इक्विटी मिली थी। इस फ्री इक्विटी में से 17 प्रतिशत कश्मीरी ब्यूटीशियन सुनंदा पुष्कर को मिली। आईपीएल में 1200 से 1500 करोड़ रुपए का घोटाला होने की बात सामने आयी। कॉमनवेल्थ घोटालों को लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर भी आरोप लगा। संसद में पेश होने वाली सीएजी की रिपोर्ट में कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ ठेकों में गड़बड़ीयों को लेकर शीला दीक्षित सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया । हद तो तब हो गई जब कॉमनवेल्थ गेम्स के जांच के लिए बनाई गई षुंगलू कमेटी की रिपोर्ट दिल्ली विधान सभा में पेष होते ही षिला सरकार ने उसे खारिज कर दिया । और अपने आप को खुद पाक साफ करने के लिए कोई कोर कसर नही छोड़ा।

अगर वित्तीय घोटाले की बात करे तो यहा पर भी फेहरिस्त काफी लंबी है। सबसे पहले सुरूआत सत्यम घोटाले से करते है। भारत की चैथी सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी भी घोटाले से नही बच सकी । 7 जनवरी 2009 को उसके संस्थापक अध्यक्ष रामलिंगा राजू द्वारा 8000 करोड़ रूपये के घोटाले होने की बात जब सामने आयी तो देष में हड़कंप मच गया। इस घोटाले में रामलिंगा राजू ने माना कि पिछले सात वर्षों से उसने सिलसिलेवार ढंग से कंपनी के खातों में हेरा फेरी की और जो नकदी और बैंक बैलेंस खातों में दिखाई दे रहा है, वह वास्तव में आस्तित्व में है ही नहीं। उसकी नकदी और बैंक बैलेंस 5040 करोड़ा रूपये कम थे। देश में निवेश पर बुरा असर टालने, अंश धारियों के हितों की रक्षा और 51 हजार कर्मचारियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए पहले तो सरकार ने सत्यम के नये निदेशक बोर्ड का गठन किया और बाद में इस कंपनी को संकट से उभारने के लिए एक बचाव पैकेज देने का भी निर्णय किया। इस घोटाले से करोड़ो रूपया डूब गया है, हजारों कर्मी बेकारी की कगार पर पहुंच गये। राजस्व को भारी नुकसान हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सन् 1990 से 92 का वक्त बड़े बदलाव का वक्त था। देश ने उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह पर चलना शुरू ही किया था। इसी दौर में एक ऐसा घोटाला हुआ जिसने भारत में शेयरों की खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए। 1990 की शुरुआत से ही शेयर बाजार में तेजी का रुख था। इस तेजी के लिए जिम्मेदार शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता, कारोबारी मीडिया में ‘बिग बुल’ का दर्जा पाकर शेयर बाजार को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाला व्यक्ति बन चुका था। वह शेयर बाजार में लगातार निवेश करता जा रहा था और इसके चलते बाजार में तेजी बनी हुई थी। लेकिन किसी को भी ये अंदाजा नहीं था कि आखिर मेहता को बाजार में निवेश के लिए इतना पैसा कहां से मिल रहा है। आखिर जब इस रहस्य से पर्दा उठा तो लोग संन्न रह गये। 23 अप्रैल 1992 को एक अंग्रेजी अखबार में छपे एक लेख में बताया गया कि किस तरह मेहता बैंकिग के एक नियम का फायदा उठाकर बैंकों को बिना बताए उनके करोड़ों रुपए शेयर बाजार में लगाकर अकूत पैसा कमा रहा है। ये बात सामने आते ही शेयर बाजार तेजी से नीचे गिरा और निवेशकों को करोड़ों की रकम गंवानी पड़ी। इस घोटाले में कई बैंकों को सम्मिलित रूप से तकरीबन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। अब बात स्टांप पेपर घोटाले की करते है। 2001 में शहर के दिल्ली दरवाजा इलाके से 20 लाख रुपये के फर्जी स्टांप पेपर, रिवेन्यू स्टांप और शेयर हस्तांतरण स्टांप जब्त किये थे। बाद में मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी। सीबीआई ने घटलोदिया इलाके से तीन करोड़ रुपये के और फर्जी स्टांप पेपर आदि जब्त किये थे। पंजाब में कथित रुप से सामने आए 1,000 करोड़ रुपए गैरकानूनी हवाला कारोबार में अंतरर्राष्ट्रीय गिरोहों और दिल्ली के एक कारोबारी की संलिप्तता सामने आने के बाद एक बार फर देष में घोटाले की गुज सामने आयी। लुधियाना के दो कारोबारियों के कार्यालय और आवासीय परिसर से जब्त दस्तावेज और इलेक्ट्रानिक डाटासंग्रह उपकरणों से इस मामले के तार देश विदेश में दूर दूर तक फैले होने के सबूत मिले। जांच में जो बात सामने आया उसमें निर्यातक द्वारा फर्जी बिलों के आधार पर शुल्क वापसी योजना का दुरुपयोग करने और 60 करोड़ रुपए का प्रोत्साहन लाभ हथियाने का मामला सामने आया। जमीन हो या आसमान हर जगह घोटाला ही घोटाला है।

19 August 2012

आखिर कब बंद होगी गौ हत्या ?


भारतीय हिंन्दू समाज में गाय को मां कहा गया हैं। जिस गाय को हम देवी मानकर पूज़ा करते है, जिसके पुज़ा-पाठ करने से हमारा जि़वन धन्य हो ज़ाता है। इसके पुजा एवं सेवा करने मात्र सें मोक्ष की प्राप्ती हो जाती है। गाय में 33 करोड़ देवी देवता का वास होता है। मगर भारत जहाँ 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दू रहतें है। वहा गौ हत्या लगातार ज़ारी है। कहा जाता है कि गौमाता समस्त तीर्थो के समान होती है गाय, गोपाल, गीता और गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण है इसमें भी गौ माता का सर्वोपरी महत्व है। पूज्नीय गौ माता हमारी ऐसी मा है जिसकी बराबरी कोई देवी देवता नही कर सकता। गाय की सेवा करने मा़त्र से ऐसा पून्य पा्रप्त होता है जो बडे़-बडे़ यज्ञ दान जैसें कर्मो से भी नही होता। हिंन्दूधर्म के पुजा पाठ में गौ मू़त्र या दूध प्रयोग करते है, यहि बताता है कि हिंन्दूधर्म में गौ माता का क्या महत्व है। पुराणों में लिखा है कि गौ मा के गले में विश्णु,मुख , रूद्र, और गौमूत्र में गंगा का वास होता हैं। इतना ही नही गाय कें मूत्र,गोबर,दूध,दही और घी को पंचतत्व कहते है। मा और समाज का सबंध बहुत ही गहरा है क्योकि मा ही समाज की जननी होती है। जिस गाय को स्वयं भगवान श्रीकृश्ण जंगलो में चराते थे, और जि़न्होने अपना नाम ही गोपाल रखा, आज उस गाय को अपने स्वार्थ के लिए मारा जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि गाय को घास का एक टुकड़ा खिलाना मतलब 33 करोड़ देवी देवताओ को भोग लगाने ज़ैसा है। इसका सेवन मात्र कर लेने से इंसान पाप मुक्त हो जाता है। इसके बावज़ूद समाज में गौ हत्या लागातार ज़ारी है। आखि़र कयों, जिस गौ मा ने भारत कों षिखर पर बैठाया उसी गौ मा का चंद रूपयों के लिए वध किया जाता है। तो ऐसे में देष षिखर पर कैसे होगा जिस देष में उसकी मा का सम्मान ना हो । गाय हिन्दू समाज की सभ्यता और परंपरा को दर्षाती है। ऐसी मान्यता है, कि गाय निर्बल,दीनहीन जीवो का प्रतिनिधत्व करती है जो सरलता और षु़द्धता का प्रतीक भी है। भारत को पूरी दुनिया उसके धर्म और संस्कार के लिए जाना जाता है, लेकिन आज गौ हत्या के बढ़ने से देष का धर्म ही ख़तरे में है। हमारा देष ऋशि मुनियों का देष है और यहां पर युग युगों से गाय को माता के रूप में पूजा जाता है तो आखिर हत्या क्यों। आलम ये है कि आज उसी गाय को मौत के घाट उतारा जा रहा है जो स्वंय श्रीकृश्ण की प्यारी है। हमारे देष में लोग मंदिरों में नंदी को फूल माला चढ़ाते है और जीवित नंदी की हत्या कर पैसा कमाते है। गौ माता केवल भारत में ही नही विदेषो में भी पुजी जाती है तो फिर इनकी हत्या क्यों।ये जानते हुए की एक गाय की हत्या करनें से 33 करोड़ देवी देवताओ की हत्या होती है और एक बड़े समाज की आध्यात्मिक भावनाओ पर ठेस पहूचती है तो सरकार कदम क्यों नही उठाती है। कि पाप ही नही माहापाप है। आज़ देष में गाय दर-दर भटक रही है वर्तमान समय में गायों की दुर्दषा षहरों के सड़को पर समस्या बन गई है। सड़को पर गायों का झूंड उनके मौत का कारण बनता है। गौमाता केवल एक पषु ही नही है बल्कि वो हमारे समाज की जननी भी है। सरकार ने कई गौषाला भी बनायें लेकिन उनके हाल बद् से बद्तर है। वहां कोई व्यवस्था नही है जिससे गायों का पालन पोशण हो सके। गौ हत्या हमारे समाज की समस्या बन चुकी है। समाज़ कें कुछ वर्गो नं गौ हत्या को अपना व्यापार बना लिया है। चंद रूपयों के लिए अपनी मा समान गाय की हत्या करना क्या इस सभ्य समाज को षोभा देता है। आज़ हमारे समाज़ में गायों को खुलेआम काटा जा रहा है, हैदराबाद कें अलकबीर स्लटर हाउस में आज भी हजारों गायों को काटा जाता है। आलम ये है कि आज़ भारत विष्व का सबसे बड़ा मांस निर्यातक बन बैठा, और सरकार चुपचाप हाथ पर हाथ धरें बैठी है। आखिर कौन है इसका जिम्मेंवार और क्यों है सरकार चुप। लोग जिनका इरादा ही मा को बेचकर पैसा कमाने का है। गाव-षहरों से गाडि़यों में भर-भर कें गायों को बुचड़खाने तक लाया जाता है ताकि उनको काटकर पैसे कमाये जा सके। इस आधुनिक समय में सब कुछ करनें का तरीका आधुनिक होता जा रहा है। पहले तो बुचड़खाने में कुछ कर्मी इस घिनौने काम को अंजाम देते थें लेकिन अब आधुनिक मषीन इस काम को अंजाम देती है। गौहत्या का घिनौना खेल चोरी छुपे होता था लेकिन अब तों आलम ये है कि सरकारं इसकों बकायदा इज़ाज़त दे रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों देती है सरकारे ऐसी इज़ाजत? अगर आकड़ो पर ध्यान दे तो देष में लगातार गौ वंष की संख्या में गिरावट आयी है। अकेले केवल उत्तर प्रदेष में गौषालों की बात करें तो आकड़े चैका देने वाले है।

सहारनपुर में 7,97,877 जो घट कर 5,62,909 रह गई
मुरादारबाद मे 10,76,000 जो घट कर 7,54,595 रह गई
आगरा में 12,93,298 जो घट कर 9,56,006 रह गई
बरेली में 12,57,813 जो घट कर 10,29,837 रह गई
लखनउ में 35,47,304 जो घट कर 29,06,902 रह गई
वाराणसी में 18,84,928, जो घट कर 14,09,124 रह गई

इन आकड़ो पर ध्यान दे तो सबसे बुरा हाल लखनउ का है जहा गायों संख्या में भारी गिरावट आई है। अगर देष में गौ हत्या यू ही जारी रहा तो वो दिन दूर नही जब लोग दूध को तरस जायेंगें। और इसे माँ कहने वाले लोग देखते रह जाएंगे। माता कहलाने वाली इस पषुधन की दुर्दषा बढ़ती जा रही हैं। जहा पषुपक्षी भारत देष की अर्थव्यवस्था की रीड़ हैं वही इसको कुछ लोग खत्म करने में लगे है। भारत मे गायों की संख्या व उनकी खत्म होती नस्ले इस बात का सबुत है कि किस तरह से उनको देश के बाहर भोजन स्वरुप भेजा रहा है। खाद्यान्न उत्पादन आज भी गो वंश पर आधारित है। आजादी तक देश में गो वंश की 80 नस्ल थी, जो घटकर आज महज 32 रह गई है। यदि गाय को नही बचाया गया तो संकट आ सकता है। क्योंकि गाय से ग्राम और ग्राम से ही भारत है। 1947 में एक हजार भारतीयों पर 430 गोवंश उपलब्ध थे। 2001 में यह आँकड़ा घटकर 110 हो गयी और 2011 में यह आँकड़ा घटकर लगभग 20 गोवंश प्रति एक हजार व्यक्ति हो गया है। इससे ये अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जिसे हम माँ कहते है उनका आज कैसे हालातों से सामना हो रहा है। भारत देष के छोटे बड़े षहरों में बड़े पैमाने पर कृशि और दूध देने वाले पषुधन की हत्या हो रही हैं। यहा तक की पष्ओं की हत्या करने के लिए बहुत से कत्लखाने देष मे गैर कानुनी तरीके से संविधान का उलंद्यन कर के चलाऐ जा रहे है। इन गैर कानुनी कत्लखानों को बन्द करवाने के लिए कई गौरक्षा समीतिया सरकार से कत्लखाने बन्द करवाने की माँग कर है, पर सरकार द्वारा कोइ ठोस कदम अब तक नही उठाए जा सका है। सरकार को इस बात से कोइ अफसोस नही है की कृशि योग पषुओं की खुलेआम हत्या की जा रही हैं। बड़े दुःख की बात ये है कि हमारे देश मे भी ये धड़ल्ले से हो रहा है, मालेगँव एक ऐसा षहर जाहाँ इस साल केवल दो महिनें में पाँच सौ से ज्यादा पष्ओं की बली दी गयी। इस बात की जानकारीं सरकार को भी दी गयी लेकिन सरकार हाथ पे हाथ रखकर खिलवाड़ करती रही है।आज जिस तरह से भारत सरकार गौ मांस का निर्यात कर रही है। इससे देष के संविधान और धर्म दोनो को खतरा है। तब देष को जरूरत होगी दुसरे ष्वेत का्रंती की। गौ हत्या केवल एक कानूनी अपराध ही नही बल्कि अपने मा के साथ अन्याय और दुराचार भी है। गौ हत्या को लेकर देष में कई आंदोलन हुए।कुछ आज भी जारी है लेकिन मलाल है की किसी को कोई बडी़ कामयाबी नही मिली वजह साफ है इन आंदोलनों को जनसमर्थन ना मिलना। ये कहना कतई गलत नही होगा कि ज्यादातर आंदोलन अपनी सियासत को चमकाने या निजी स्वार्थ के लिए होते है लेकिन गौ हत्या विरोधी आंदोलनो को सियासत से जोड़ना क्या सही होगा? गौ हत्या के विरोध में कई हिन्दू संगठनों ने आवाज उठाई लेकिन जब पता चला कि इनका मालिक कोई रसूखदार है तो उनकी आवाज़ दबा दी गई। हैरत की बात है कि गौ हत्या पर पाबंदी की मांग लंम्बे समय से होनें कें बावज़ूद अभी तक कोई अमल नही हुआ है। इसके बावजूद गौ हत्या का खूनी खेल जारी है। सवाल केवल गाय को मार कर उसके मांस को बेचने का नही है। उसकी हडिड्यों से तेल और पाउडर भी बनाया जाता है जो कि हमारे सेहत के लिए नुकसानदेह भी है। जिस गाय का दूध प्रयोग न कर उसके हडिडयों का प्रयोग करना क्या सही है। आज सरकार गौ हत्या रोकने में नाकाम है। सत्ता में बैठे कुछ लोग इसके लिए स्वयं जिम्मेदार है। क्योंकि वो खुद इस माहापाप को बढा़वा दे रहे है। आपको बता दे कि गौ हत्या से बड़े पैमाने पर गौ तस्करों के साथ-साथ सरकार को भी फायदा होता है,आज देष के अनेको मुद्दों पर संसद भवन में चर्चा होती है ।लेकिन देष में गौ हत्या को रोकने के लिए कोई कानून क्यों नही बनता। देष में हर मुद्दे के लिए फास्ट टैªक कोर्ट बने है, लेकिन गौहत्या के लिए कोई कोर्ट नही? ऐसे मे सवाल उठता है कि कैसे रोका जाय गौ हत्या को। गुजरात,मध्यप्रदेष,उत्तराखंड और राजस्थान जैसे राज्यो में भी गौ हत्या पर 10 साल के सज़ा का प्रवधान है। गुजरात में गौ हत्या की सज़ा 6 महीने से बढ़ाकर 7 साल कर दी गई है साथ ही जुर्माने के तौर पर 1000 के बजाय 50,000रू देने होंगे। तो ऐसे में बडा़ सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार गौहत्या पर चुप क्यों है।04 नवंबर 1947 को प्रार्थना सभा में भारत के राश्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गाधी ने अपने एक बयान देते हुए कहा कि गौ रक्षा के लिए देष में कानून नही बन सकता है, क्योकि भारत कोई हिंन्दू र्धिर्मक राज्य नही है। इसलिए हिंन्दूओं के धर्म को दूसरों पे थोपा नही जा सकता है। मैं गौ सेवा में पुरा विष्वास रखता हूँ, लेकिन उसे कानून द्धारा बंद नही किया जा सकता है।इतना ही नही अपने एक बयान में देष के तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बडे़ ही कठोरता से कहा था कि गौ हत्या बंदी कानून से मुसलमान एवं ईसाई समाज कांग्रेस से नाराज हो जायेगा । इस बयान का मतलब साफ है उन्हे देष से नही बल्की अपने वोट बैंक से प्यार किया। गौ हत्या राकने के लिए आगे आयें। और गौ रक्षा के लिए कदम आगे बढ़ाए करें। देष के लिए यही एक सच्चा सेवा होगा।

भारतीय चिकित्सा विज्ञान में डॉ एल पी अग्रवाल की भूमिका

भारत का चिकित्सा विज्ञान आज जो तरक्की के बुलंद सपने देख रहा है। उसको पूंज देने वालों में एक प्रमुख नाम है, प्रोफेसर ललित अग्रवाल जिनके नाम में ही प्रकाष है। संयोग देखिए प्रकाष के धनी प्रोफेसर अग्रवाल की जन्म तिथी वही है जो महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाश चन्द्र बोस की हैं। तेजस्वी ललित अपने बडे़ भाई प्रेम प्रकाष अग्रवाल आईसीएस के तरह गणित पढ़ना चाहते थे। कुषाग्र बुद्धि और परिश्रमी स्वभाव से किंग जार्ज मेडिकल कालेज में उन्हे प्रवेष मिल गया। जब युवा ललित द्वितीय वर्श की पढ़ाई कर रहे थे, उसी वक्त देष में भारत छोड़ो आन्दोलन का बिगुल बज गया। ऐसे में एक देष भक्त युवक कहा रह सकता था पीछे। वे कूद पड़े आन्दोलन में इसकी वजह से उन्हें प्रषासन का प्रकोप भी सहना पड़ा। एमबीबीएस पूरी करने के बाद डा अग्रवाल उच्च षिक्षा के लिए लंदन चले गए। ब्रिटेन में षिक्षा लेते वक्त उनके गुरूजन भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उनके गुरू और विष्व प्रसिद्ध नेत्र विषेशज्ञ डा देवेन पोर्ट ने उन्हें एक पत्र में लिखा- आफ आल दा इंडियन पोस्टग्रेजुएट्स हू हैव बीन एट मुरफील्ड्स सिंस दा वार, देयर हैज बीन नो कीनर मैन नो मैन हू हैज डॅन बैटर इन हिज एक्जामिनेषन और वर्क हार्डर टू गैन एक्सीपियरेस इन एवरी ब्रांच आफ दासब्जैक्ट । पढ़ाई के बाद डा अग्रवाल ने भारत आकर अपने कार्य की षरूआत सिविल सर्जन के तौर पर एक छोटे से कस्बे बिजनौर से की। लेकिन उनकी मंजिल तो कुछ और ही थी। लग गए आगरा और कानपुर में युवा डाक्टरों का भारत खड़ा करने में। इस वक्त तक प्रोफेसर अग्रवाल की षोध विष्वप्रसिद्ध हो चुकी थी। महज 34 वर्श की आयु में ही वें प्रतिंश्ठत षोध पत्रिका, आप्थमेलाजीका, के संपादक मंडल के सदस्य बने। 37 वर्श की आयु में ही एम्स के प्रोफेसर के रूप में चुने गए। कानपुर मे अपनी और पत्नी डा. सावित्री के धनवर्शा करने वाली प्रैक्टिस नहीं भाई। भाती भी कैसे, एम्स में अपने सपने को साकार करने का अवसर जो मिल गया था। इस सपने के पीछे एक दर्द छुपा था, जो उन्हें लंदन में पढाई के वक्त मिला था। उन्हें पूजनीय मानने वाले डा. अग्रवाल के उसी दर्द को बताते हैं प्रोफेसर पी.के खोसला। उस वक्त तक प्रोफेसर अग्रवाल के साथ कई उपलब्धिया जुड़ चुकी थी। जैसे प्रोफेसर अग्रवाल ने एम्स परिसर में ही देष को आत्म निर्भर बनने वाले डा राजेन्द्र प्रसाद नेत्र संस्थान की स्थापना की। प्रोफेसर अग्रवाल के आर पी सेन्टर बनने के पीछे एक सोच थी। क्योंकि प्रोफेसर जानते थे, देष के हालातों के बारे में। प्रोफेसर मदनमोहन बताते हैं। आर पी सेन्टर के पीछे प्रोफेसर अग्रवाल की दूर- दृश्टि। वे भारत में आई सेन्टर और उसकी उपयोगिता जानते थे। जब देष में डा अग्रवाल ने आई सेन्टर और राश्ट्रीय नेत्र बैक की नींव रखी उस वक्त देष में कार्निया की कमी थी। प्रोफेसर अग्रवाल की दूरदर्षिता और कड़ी मेहनत सामने आने लगी। विदेषी भी सोचने पर मजबूर हो गए। भारतीय छात्रों की आवष्यकता को ध्यान में रखते हुए नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनेक पुस्तकें लिखीं। वे भारत सरकार के पहले आनेनरी ओपथेलमिक एडवाइजर बने। डा अग्रवाल के कई प्रतिश्ठित राश्ट्रीय और अंर्तराश्ट्रीय सम्मान मिले। विष्व के सबसे प्रतिश्ठित केवल साठ नेत्र वैज्ञानिको की संस्था ओपथेलमिक इंन्टरनैषनल के भारत के पहले और एकमात्र सदस्य थे। विष्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से प्रोफेसर अग्रवाल ने एसिया और अफ्रीका में अंधेपन को रोकने के लिए कार्ययोजना बनाई। देष, विदेष के वरिश्ठ डा उन्हें भारत में आप्थलमोलोजी को नई उचाई तक ले जाने का श्रेय देते हैं। एम्स के डा. राजेन्द्र प्रसाद सेन्टर परिसर मे स्थित ओपथेलमीक रिसर्च एसोसिएषन का पुस्तकालय उनके सम्मान में उनके नाम पर कर दिया गया। डा. अग्रवाल के परिवार की एन जी ओ संकल्प मे रोटरी कल्ब दिल्ली अपटाउन के सहयोग से डा. एल पी अग्रवाल रोटरी मेमोरियल आई बैंक की स्थापना की। इस आई बैंक का उदघाटन भारत के उपराश्ट्रपति महामहिम हांमिद अंसारी ने 26 दिसम्बर 2011 को किया। इस अवसर पर अपने उदघाटन भाशण मे उपराश्ट्रपति ने कहा, प्रोफेसर अग्रवाल अपने जीवन काल में ही एक नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त हस्ती बन चुके थे। प्रोफेसर अग्रवाल कर्म करते- करते कर्मयोगी बने। कर्मयोगी कभी सेवानिवृत नहीं होता। जीवन की अंतिम सास लेने से आधा घंटा पहले ये कर्मयोगी इंडिया हैबिटेट सेंटर में सेमिनार के आयोजन कर व्यवस्थाओं में सक्रिय भाग ले रहा था। आज ऐसे दूर दृश्टा और कर्मयोगी की कमी खलती रहेगी। ऐसे प्रेरणा विद् को षत् षत् नमन।

18 August 2012

क्या देश को बेचा जा रहा है ?

क्या आप भूल गये अंग्रेजी जमाने की हकीकत। कैसे अंग्रेज देष को लूट रहे थे और हम उस वक्त कुछ नही कर पा रहे थे। करते भी कैसे, हमारे अपनों के हाथ में कुछ भी जो नही था। लेकिन आज तो हमारे अपनो के हाथ में देष की सत्ता है। लेकिन सत्ताधारी हमें अपना दिखाने का दिखावा कर रहे हैं। मगर पीछे से देष की हर चीज को बेचा जा रहा है। कोयला महाघोटाला सामने आने के बाद अब तो ना देष की जमीन बची है ना आकाष ना पाताल। हर ओर महाघोटाले ही घोटाले हैं। हर ओर देष की अस्मत को बेचा जा रहा है। अब तो लगने लगा है देष के सत्ताधारी देष को चलाने के बजाय देष को बेचने के लिए ही काम करते हैं। देष के सत्ताधारी देष की जरूरतों और देषवासियों की गरीबी के लिए नही देष को बेचने की ट्रिक सोचते रहते हैं। जी हां सारे घोटालों की हकीकत सामने आने के बाद अब तो ऐसा ही महसूस हो रहा है। आज देष में जितना सरकार के पास खजाना है उससे कई गुनी ज्यादा देष की संपत्ति घोटालों की भेट चढ़ गई है। हवा में तरंगों को बेचा जा रहा है। देष के एयरोस्पेस को बेचा जा रहा है। तो वही देष के पाताल को बेचा जा रहा है। देषवासियों की जिंदगी को बेचा जा रहा है। आज देष के इंसानों की हालत चूहों से भी बदतर है। किसी भी देष में चूहों पर दवाइयों के परिक्षण के लिए भी, उस देष की सरकार की पर्मिषन की जरूरत होती है। मगर भारत में तो इंसानों पर भी दवाईयों के परिक्षण की पर्मिषन की जरूरत नही होती। खुलेआम विदेसी दवाई कंपनियां गरीबों के षरीर को दवाई परिक्षण का घर बना रही हैं। भोपाल गैस त्रासदी पीडि़तों के षरीर को बिना बताये दवाई परिक्षण की लेब बनाया जा रहा है। लोगों की किडनी बेची जा रही है। यहां तक कि डेड बीडियों तक को भी नही छोड़ा जा रहा र्है। राजनीति के लिए देष के थोड़े-थोड़े हिस्सों को बेचा जा रहा है। कभी कष्मीर की बारी आती है तो कभी असम की तो कभी अरूणाचल प्रदेष का नंबर आता है। देष के सत्ताधारी, तो राजनीति के लिए पूरे देष को ही बेच दें, मगर राश्ट्रवादी ताकतों से डरे हुए हैं। लोग कह रहे है आज देष में बढ़ती उथल-पुथल सत्ताधारी राजनेताओं की राजनीति की ही वजह है। देष के सत्ताधारी खुलेआम देष को बेच रहे हैं। मगर सेनापति अब भी मौन साधे हुए हैं। जनता कह रही है कि सेनापति की आखों के सामने ही देष को बेचा जाता है और सेनापति अपनी सरदारी में मशगूल है। तो आखिर क्यों लूट रहा है देष। कौन लूट रहा है देष को। कैसे लूट रहा है देष। क्या है हकीकत देष को लूटने वालों की। क्यों है हौंसले बुलंद देष के लूटेरों के। यही आज बता रहे है हम आपको।

जमीनी स्तर पर सेना में घोटालो की फेहरिस्त

अगर घोटालो की फेहरीस्त में जमीनी स्तर की बात करे तो यहा पर पूरी जमीन ही घोटले से भरी पड़ी है। बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया। गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामले में बिचैलिये की भूमिका अदा की, जिसके बदले में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। कुल चार सौ बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड़ डालर की रिश्वत बांटी थी। इसके बाद दुसरा घोटाला सेना से ही जुड़ा हुआ है जिसमें अमरीका से सेना में इस्तेमाल करने के लिए अल्यूमिनियम के कुछ ताबूत और शव रखने वाले थैले खरीदने के एक मामले में कुछ वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और अमरीका के एक ठेकेदार की भुमिका सामने आया। भारत के रक्षा मंत्रालय ने अमरीका की एक कंपनी से अल्युमिनियम के ताबूत और शव थैले खरीदे थे और उनका इस्तेमाल युद्ध क्षेत्र में शहीद हुए सैनिकों के शव सम्मानजनक तरीके से घर पहुँचाने के लिए किया जाना था। लेकिन इन संदिग्ध अधिकारियों ने 1999-2000 के दौरान ऐसे 500 अल्यूमुनियम ताबूत और 3000 शव थैले खरीदने के लिए अमरीका की एक कंपनी के साथ जो सौदा किया उसमें प्रति ताबूत 2500 अमरीकी डॉलर यानी लगभग एक लाख बीस हजार रुपए और शव थैलों के लिए 85 अमरीकी डॉलर प्रति थैला के हिसाब से भुगतान किया गया जो की बहुत बढ़ी हुई दर थी। यह सौदा करीब सात करोड़ रुपए का था। तिसरा घोटाला भी सेना ही जुड़ा हुआ है बीईएमएल के सीएमडी वीआरएस नटराजन ने 6000 करोड़ रुपये के टाट्रा ट्रकों का ठेका सीधे उत्पादन कंपनी को न देते हुए उसके ब्रिटिश एजेंट को दिया था। यह सौदा रक्षा खरीद दिशानिर्देशों का सीधा-सीधा उल्लंघन है। इस जवाब को भेजे 2 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और मामले की जांच का कोई नतीजा सामने नहीं आया है। यह घोटाला भी सेना से ही जुड़ा हुआ है, जिसमें पश्चिम बंगाल की सुखना छावनी क्षेत्र में कथित भूमि घोटाले में सैन्य अधिकारियों की संलिप्तता का मामला है। जहा पर सेना के जमीन को औने पौने दामो में बेचा गया। अब बात करते है सेना के अंदर हुए सबसे बड़ा घोटाला जो मुंबई के आदर्श हाउसिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटी का घोटाला है। इसमे न केवल कारगिल शहीदों की विधवाओं के नाम पर दी गई जमीन पर बड़े और प्रभावशाली लोगों ने आपस में बांट ली बल्कि इसकी कीमत भी नहीं चुकाई। इस बेशकीमती जमीन पर बने शानदार फ्लैट उन्हें कौड़ीयों के मोल दे दिए गए। करीब साढ़े आठ करोड़ रुपए कीमत वाले ये फ्लैट सदस्यों को 60 से 85 लाख रुपए तक में मिल गए। इन सब के अलावे एक और घोटाला विमान घरीद से जुड़ा हुआ हुआ है। जिसमें सेना को नई ताकत और धार देने वाले मानव रहित विमान-यूएवी की खरीद घोटाला हुआ। यूएवी विमान को इजरायल से खरीदा गया था। चाहे आसमान हो या जमीन हर जगह घोटाला ही घोटाला है।

17 August 2012

असम की प्रतितिक्रिया देश के अन्य हिस्सों में क्यों ?

असम की आग आज सारे देष में फैल रही है। पूर्वोत्तर के लोगों पर देष के कई हिस्सों में हमले हो रहे हैं। बैगलूरू, हैदराबाद और पुणे में रहने वाले पूर्वात्तर वासी पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं। मोबाइल पर मैसेज भेजकर लोगों को डराया धमकाया जा रहा है। वापस असम न जाने पर बुरे परिणाम भुगतने की धमकी दी जा रही है। जी हां आज भारतवासी ही भारत में हर जगह रहने के लिए स्वतंत्र नही हैं। जबकि बंग्लादेषी घुसपैठिए भारत में एषे-आराम की जिंदगी जी रहे हैं। डेढ़ करोड़ बंग्लादेषी भारत में ही भारतीयों का कत्लेआम कर रहे हैं। खुलेआम पाकिस्तानी झंडे फहराये जा रहे हैं। जी हां आज यही भारत में भारतीय लोगों की सहमी हुई आजादी और बंग्लादेषियों का भारतीयों पर खुलेआम कत्लेआम। आखिर क्यों हो रहे है भारतीय भारत में सहमी हुई जिंदगी जीने पर मजबूर। क्यों भारतीय लोगों को अपने ही देष में निषाना बनाया जा रहा हैं। आखिर क्यों है देष की सरकार, भारतीयों पर ढहते जुल्म पर चुप। बंग्लादेषी घुसपैठियों के लिए देष के आजाद मैदान पर विरोध प्रदर्षन होता हैं। देष के षहीदों का अपमान किया जाता है। मुम्बई के आजाद मैदान पर अमर जवान मेमोरियल को खंडित किया जाता है। पुलिस और मीडिया को पीटा जाता है। पुलिस जवानों द्वारा पकड़े गये दंगाइयों को पुलिस कमिषनर तुरंत छोड़ने को कहते हैं। दंगाईयों को उपद्रव और देष की अस्मितता से खेलने की खुली छूट दी जाती है। आखिर किसके कहने पर कमिषनर दंगाईयों को खुली छूट दे रहे हैं। ये सवाल आज भी छूपा हुआ है। लोग कह रहे हैं वोट बैक की राजनीति की वजह से ही देष की अस्मितता से खिलवाड़ हो रहा है। देष के कटटरपंथियों को कुछ सरकारी लोग और कम्युनिस्ट ही सह दे रहे हैं। इन्हीं की वजह से आज देष में कटटरपंथियों के हौंसले बंलंद र्हैं। देष के कटटरपंथी खुलेआम पाकिस्तन जिंदाबाद के नारे लगाते हैं। अमर जवान मैमोरयिल को तोड़कर पकिस्तानी झंडा फहराया जाता है। लोग कह रहे हैं, आखिर क्यों भारत में रहने वाले लोग पाकिस्तान को अपना मसीहा मानते हैं। ऐसे में सवाल उठता हैं कि क्या भारत में रहने वाला हर समुदाय भारतीय नही है। मजहब और मजहबी रिष्ते देष की मिटटी से बड़े हो गये हैं। लगता तो ऐसा ही है। आखिर कौन है ये लोग जो भारत में रहते हुए ही भारतीय अस्मितता और देष के षहीदों का अपमान कर रहे हैं। क्या ऐसे ही देष की अखंडता पाकिस्तानी मानसिकता के लिए तोड़ी जाती रहेगी। क्या कष्मीरी पंडितों की तरह ही भारतीय अपने देष से भगाये जाते रहेंगे। क्या अब ऐसे ही बंगलादेशी घुसपैठिये अपना नंगा नाच नाचते रहेगे। क्या इन बंग्लोदेसियों से सहानुभूति के नाम पर भारतीय कटटरपंथी भारतीयों पर ही कहर ढाते रहेंगे। क्या ऐसे ही देष के पुर्वोत्तर वासियों को देष से भगाया जाता रहेगा। आखिर कौन हे इसके लिए जिम्मेदार ? लोग सवाल उठा रहे हैं इसके लिए सरकार और सरकारी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। तो ऐसे में सवल उठता है कि क्या देष के नेता ही, देष की एकता और अखंडता को तोड़ने पर तुले हुए है।

क्या रामदेव को ब्लैकमेल किया जा रहा है ?

बाबा रामदेव रामलीला मैदान पर अंषन कर रहे है। सरकार की सेहत पर बाबा की मागों का कोई असर नही है। सरकार बाबा को ब्लैकमेल करने के लिए हर तरह की साजिष रच रही है। कभी बाबा के अंषन को रामलीला मैदान पर होने वाली, हर साल की रामलीला बताया जाता है, तो कभी बाबा को पहचानने से ही इंकार कर दिया जाता है। लेकिन सरकार का सबसे बड़ा सच तब सामने आता है जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय बाबा को धमकाते हुए, जेल में बाबा के सहयोगी बालकृश्ण की हत्या की बात करते हैं। जी हां बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने और बाबा को ब्लैकमेल करने के लिए, इसी तरह की साजिष रची जा रही हैं सरकारी आकाओं द्वारा। ये तो बाबा भी जानते हैं कि कांग्रेस का डर्टी डिपार्टमेंट आंदोलन को कुचलने के लिए कोई भी कदम उठाने से पीछे नही हटेगा। इसी को देखते हुए रामदेव बाबा जेल में अपने सहयोगी बालकृश्ण की हत्या की आषंका पहले ही जता चुके है। बाबा को पता था कि सरकार उन्हें कमजोर करने के लिए बालकृश्ण की हत्या की साजिष रच सकती है। लेकिन दिग्विजय सिंह का ये बयान सनसनी फैलाने वाला है। अब ये बाबा रामदेव के लिए धमकी है या आषंका ये तो दिग्विजय ही बता सकते हैं। मगर इससे सरकार की साजिष का खुलासा होता है। उसे बाबा राम देव की कालेधन और लोकपाल की मागों से कुछ नही लेना। ये सरकार तो हर तरह से बाबा को डराने धमकाने में लगी हुई है। वैसे भी ऐसी भ्रश्ट सरकार से उम्मीद ही क्या की जा सकती है। ये सरकार पहले भी बाबा के आंदोलन को आधी रात को कुचल चुकी है। कौन भूल सकता है उस आधी रात को जब सोते हुए आंदोलनकारियों को बुरी तरह से कुचला गया। कैसे सरकारी हुक्मरानों के हुक्म पर महिलाओं और बुजुर्गों को भी कुचला गया। अब जब बाबा रामदेव काले धन को वापस देष में लाने के लिए फिर देषहित में आंदोलन कर रहे है तो फिर सरकार बाबा को डराने के लिए उनके सहयोगियों की हत्या की धमकी दे रही है। लगता है बाबा इन्ही धमकियों से डरे हुए हैं। यहीं वजह है ना तो बाबा सरकार के खिलाफ आक्रामक हो रहे है और ना ही अपनी आगे की रणनीति का खुलासा कर रहे हैं। इसी वजह से सरकार बाबा की मागों पर कोई ध्यान नही दे रही है। वैसे भी ये सरकार भ्रश्टाचार और काले धन के लिए कोई कदम नही उठा रही है। तो आज हम सरकार की इसी साजिष का खुलासा कर रहे हैं कि कैसे बाबा के आंदोलन पर काला साया मंडरा रहा है। कैसे बाबा के खिलाफ शडयंत्र रच रही है सरकार। कैसे बाबा के सहयोगियों की हत्या की साजिष रची जा रही है। तो यही है आज का बिंदास बोल मुददा, कि कैसे सरकारी हुक्मरान बालकृश्ण की हत्या की धमकी दे रहे है और आषंका जता रहे हैं।

14 August 2012

भूखे पेट को क्या चाहिए रोटी या मोबाइल ?

आज के इस दौर में देश के राजनैतिक दल किस हद तक जा सकते हैं, लोग शायद ही इसकी कल्पना कर पाएंगे। जब भी देश में चुनाव निकट आते हैं तो सभी पालीटकल पार्टियां मतदाताओं के लिए प्रलोभनों का पिटारा खोल देती हैं। अब तक तो चुनाओं में टैलीविजन, साडि़या लैपटॉप, मंगलसूत्र, चावल-आटा व यहां तक कि सैनीटरी नैपकिन जैसी चीजें मुफ्त देने की घोषणाएं हो चुकी है। मगर सवाल यहा ये खड़ा होता है की जिस देश में गरीब इंसान को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती उस देश में सरकार उस गरीब इंसान को मुफ्त में मोबाइल देना चाहती हैं !!! ताज्जुब इसलिए भी है की तकरीबन 15 प्रतिषत लोग अमीर वर्ग की श्रेणी में आते हैं, देष में तकरीबन 30 प्रतिषसत लोग माध्यम वर्गीय श्रेणी में आते हैं और बचे हुए 55 प्रतिषत लोग या जनता गरीबी की श्रेणी में आती हैं। जाहिर सी बात हैं की इन 55 प्रतिषत जनता जनार्दन को अपनी और मोबाइल के द्वारा ही खीचा जा सकता हैं। क्या वाकई में भारत जैसे देश में एक गरीब को सिर्फ मोबाइल की ही जरुरत हैं, किसी और चीज की नहीं? क्या उसे उसकी प्राथमिक जरूरते जो की उसका एक भारतीय नागरिक होने के नाते और हक के तौर पर रोटी, कपड़ा और मकान की जरुरत नहीं हैं? ये सवाल यहाँ पर इसलिए उठता हैं की आखिरकार सरकार कही देश में भ्रष्टाचार से आहात तो नहीं है ? क्या किसी मोबाइल कंपनी ने कही अपने फायदे के लिए सरकार को कोई प्रस्ताव तो नहीं दिया है। जिससे उस मोबाइल कंपनी का फायदा हो और साथ में इस नाकारा और सरकार की डूबती नैया को भी एक सहारा मिल जाये। कही यह एक तरह से दोनों के बीच में डील तो नहीं हैं या सरकार इस तरह से परदे के पीछे कुछ और करना चाहती हैं? क्या भारत के गरीब इंसान की तरक्की सिर्फ मोबाइल से ही संभव हैं? देश में 44 प्रतिशत बच्चे ऐसे है जो रात को भूखे पेट सोते हैं। इनके सिर पर न तो कोई छत है और नहीं ये सरकार द्वारा संचालित किसी खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत आते हैं। भारत में 35.6 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं और 55.3 प्रतिशत महिलाओं में खून की कमी है। यहां जन्म लेने वाले 22 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है जबकि 79 प्रतिशत बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। प्रत्येक 1000 नवजात बच्चों में से 53 की मौत जन्म के पहले वर्ष में और 39 बच्चों की मौत जन्म के एक महीने के भीतर हो जाती है। देष में आज भी कई ऐसे इलाके है जहा पर बिजली भी नहीं है तो सोचना चाहिए कि मोबाइल को चार्ज कैसे किया जाएगा । क्या आज के दौर में देष आज इस मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है जहा सिर्फ चुनाव जीत कर सत्ता में बना रहना ही राजनीति है। आखिर सरकार ऐसी लोकलुभावन बाते क्यों करती है? क्या सरकार अपना विष्वाष आम आदमी से खो चुकी है? क्या सरकार विकास और विष्वाष के बुते चुनाव में उतरने से डरती है? या यू कहे की सरकार का सरोकार आम आदमी से खत्म हो गया हैं ? यानी संविधान का मतलब अगर लोकतंत्र है और लोकतंत्र का मतलब अगर हर नागरिक के वोट का अधिकार है और वोट का मतलब अगर संसदीय राजनीति है। और संसदीय राजनीति का मतलब अगर संसद के जरीये बनाई जाने वाली नीतिया हैं। और नीतियों का मतलब अगर तत्काल में देश के पेट को भरना है। और पेट के भरने का मतलब पैसो वालो के जरीये विकास का ढांचा बनवाना है। और विकास के ढांचे का मतलब अगर मुनाफा बनाना है। और मुनाफे का मतलब अगर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट को कमाने का लालच देकर निवेश कराना है। तो फिर संविधान का मतलब क्या है। तो इसका मतलब बिलकुल साफ है की सत्ता से उखडने की आहट सरकार षायद अभी से इस मोबाइ के ट्रिंग ट्रिग से सुनना चाहती है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की गरिब को क्या चाहिए रोटी या मोबाइल।

07 August 2012

सरकार द्वारा भगत सिंह को शहीद न मानना कितना सही ?

देश के लिए देश शहादत देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को केन्द्र सरकार आज भी स्वतंत्रता सेनानी नहीं मनाती। केन्द्र सरकार से आरटीआई के तहत जब इस सवाल का जवाब मांगा गया तो कोई भी इस बात पर संतुष्ट जवाब नहीं दे पाया। सवाल यहा ये है, की आजादी की लड़ाई में अपनी जान देने वाले भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सरकार स्वतंत्रता सेनानी क्यो नहीं मानती? क्या सिर्फ इन तीनों की कुर्बानी को किताबों में ही याद रखा गया है। आखिर सरकार बार बार क्यों शहीद को हर मोड पर नजर अंदाज कर रही है। क्या यह भी सरकार की वोट बैक की राजनीति का एक अहम हिस्सा है। जब भी स्वाधीनता आंदोलन की बात होती है तो, गांधी, नेहरू और पटेल को ज्यादा याद किया जाता है। भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति श्रद्धा के बावजूद उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाता। आखिर ऐसा क्यों? गांधी, नेहरू आदि नेताओं का जो भी योगदान रहा हो, लेकिन भगत सिंह के आंदोलन और बाद में उनके शहीद होने से ही आजादी को लेकर लोगों में जागृति फैली। मगर आज हमारे सरकार इन बिर हिदों के नमन करने के बजाय हिद का दर्जा देने से लेकर, सरकारी फाईलों में दर्ज जानकारी तक को सरकार और लालफिता शाही वाले अधिकारी उजागर करने से कतराते है। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव इन हिदों ने आजादी की लड़ाई में सबसे कामयाब शखिसयतों में से एक हैं। इन हिदों ने जो कुछ भी किया, उसके पीछे तर्क था, सोच थी। इनका लक्ष्य सत्ता प्राप्ति नहीं था, व्यवस्था परिवर्तन था। आज भी देगा ऐसे ही व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई चल रही है। मगर आम जनता आज भी महसूस कर रही है कि उसे अब भी वास्तविक आजादी नहीं मिल सकी है। रोज-रोज सिस्टम की नई खामियां सामने आ रही हैं। इस दौर में अब ये भी सवाल खड़ा होने लगा है की कहीं स्वाधीनता की लड़ाई में ही कोई बुनियादी गड़बड़ी तो नहीं थी? सवाल इस लिए भी जायज है की सरकार जिस प्रकार से आज सहिदों के प्रति अंधी, गुंगी, बहरी हो चुकी है ऐसे में ये कहना गलत नही होगा की

भारत क्यों तेरी साँसों के, स्वर आहत से लगते हैं,
अभी जियाले परवानों में, आग बहुत-सी बाकी है।
क्यों तेरी आँखों में पानी, आकर ठहरा-ठहरा है,
जब तेरी नदियों की लहरें, डोल-डोल मदमाती हैं।

भारतीय राष्ट्रवाद के इन नायकों से जो अपेक्षा थी उन्होंने तो अपने प्रयासों से अंजाम भी दिया। मगर आज भी हमारी सरकार देश को ऐसे राष्ट्रनायकों के पदचिन्हों का अनुसरण करना तो दुर उन्हें हिद मानने तक को तैयार नही है। एक ओर जहा देश की नई पीढियां ऐसे महान क्रांतिकारियों के कार्यों और विचारों से प्रेरणा लेना चाहती है तो वही सरकार उनके विचारो और आदर्शो को लाल फाईलो से बाहर नही निकालना चाहती है। आज देके युवाओं को ऐसे महान सपूतो की राह पर चलने की जरुरत है ताकी देश की बागडोर कर्तव्य निष्ठ युवाओं के हाथ में सुरक्षित रहे।

आज सभी आजाद हो गए, फिर ये कैसी आजादी
वक्त और अधिकार मिले, फिर ये कैसी बर्बादी
संविधान में दिए हकों से, परिचय हमें करना है,
भारत को खुशहाल बनाने, आज क्रांति फिर लाना है...

भगतसिंह और उनके साथियों के सपने आज भी अधूरे हैं। आज अगर देको बचाना है, प्रकृति को तबाह होने से बचाना है, आने वाली पीढियों के भविष्य को बचाना है तो आज हमारे पास इन हिदों के सम्मान करने और उनके राह पर चलने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है। आज हम शहीदे आजम भगतसिंह के विचारों को अमल में उतारने का संकल्प लें। आज एक बार फिर से इंकलाब को सिर्फ एक शब्द के बजाय अपने जीने का तरीका बनाना होगा। भगतसिंह और उनके सभी साथियों के प्रति यही एकमात्र सच्ची श्रद्धाजंलि हो सकती है। फिर सरकार क्या हर हिंदुस्तानी कहेगा इंकलाब जिंदाबाद।

हिदों के मजारो पर लगेंगे हर बरस मेंलें ।
वतन पर मिटने वालो का यही बाकी निशा होगा॥

04 August 2012

पाक को भारत में निवेश की अनुमति देना चाहिए ?

पाकिस्तान को भारत में प्रत्यक्ष तौर पर निवेश करने की इजाजत सरकार ने दी है। इस अनुमती से पाकिस्तान तत्काल प्रभाव से भारत में विदेशी निवेश कर सकेगा। मगर यहा बड़ा सवाल ये खडा होता है की जिस पाकिस्तान के तरतूतो से आए दिन भारत में अतंकी हमले हो रहे है। जिस पाकिस्तान द्वारा भारत में जाली नोटो का बढ़ावा दिया जा रहा है। ताकी भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाया जा सके। तो ऐसे ये सवाल रह उस हिंदुस्तानी के मन में उठ रहा है की क्या ये भी पाकिस्तान की कोई साजिद्गा तो नही है। डीआईपीपी के मुताबिक, पाकिस्तान का कोई भी नागरिक या पाकिस्तान की कोई भी कंपनी भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कर सकता है। ऐसे एक बार फिर सवाल उसी मोड पर आकर खड़ा हो जाता है की क्या अजमल आमिर कासाब जैसे पाकिस्तानी नागरिक भी भारत में निवेद्गा कर सकेगा। दाउद और ओसामा जैसे खुंखार आतंकवादीयों के परिवार के लोग भी भारत में अपनी पैसा लगा सकेंगे। अबैध तरिके से हवाला के जरिए होने वाले पैसे का लेन देन अब इस निवेद्गा के जरिए किया जाएगा। अमूमन सवाल कई सारे है मगर आज पाकिस्तान जिन हालातो से गुजर रहा उन हालातो से निपटने में क्या उसका भारत में किया गय निवेद्गा कुछ राहत दिला पाएगा? अगर निवेद्गा से पाकिस्तान को लाभ होता है तो क्या पाकिस्तान उस पैसे का इस्तेमाल हिंदुस्तान में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में नही करेगा। क्या निवेद्गा के जरिए किया गया मुनाफा हमारे देद्गा के सैनिको के उपर हमले करने और सिमा पार से अपनी घुसपैठी सक्रियता को बढ़ावा देने, और पाकिस्तान के सरजमी से हिदुस्तान को दहलाने का साजिद्गा रचने से पाकिस्तान बाज आ पाएगा? ये बड़ा सवाल है ऐसे में उंगली भारत सकार के उपर भी उठती रही है की आखिर सरकार ऐसे क्यों कर रही है । क्या उसे देद्गा के लोगों के बारे में कोई फिक्र नही है। क्या सरकार का सरोकार आम आदमी से टुट गया है। पाकिस्तान के साथ हर तरह का व्यापार लगातार हो रहा है, उसके साथ सदभावना एक्सप्रेस रेल गाड़ी चालू करने से लेकर एफ डी आई में निवेद्गा तक की अनुमती दी जा रही है। मगर पाकिस्तान हर बार भारत के साथ अपनी दोगली नीती ही अपनाता है। कारगिल युद्ध के दौरान भी पकिस्तान से आने वाली चीनी का अग्रिम भुगतान कर दिया गया था, भारत ने यह मिसाल कायम की, मगर पाकिस्तान उस रकम से हथियार खरीद कर कारगिल युद्ध में हमारे हजारों वीर जवानों को मौत की नींद सुला दिया। बात चाहे इतिहास का हो या वर्तमान का पाक का नपाक चेहारा हर बार उजागर हुआ है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या भारत में पाकिस्तान को बिदेशी निवेद्गा की अनुमती देना चाहिए ?

क्या अन्ना को राजनीती में आना चाहिए ?

देद्गा में चारों ओर भ्रच्च्टाचार ही भ्रच्च्टाचार है । जनता के चुने हुए ही जनता को चूना लगा रहे हैं। देद्गा का आम आदमी अपने आप को ठगा महसूस कर रहा है। लेकिन इसी वक्त देद्गावासियों में एक उम्मीद की लहर जगी। लगा जैसे देद्गा को लुटने से बचाया जा सकता है। आखिर टीम अन्ना जो एक उम्मीद बनकर आयी थी आम आदमी के लिए। ऐसा लग रहा था मानों दोराहे पर खड़े देद्गा को एक दिशा मिलेगी। देद्गा को लूटने से बचाया जा सकेगा। भ्रच्च्टाचारियों को जेल में डाला जायेगा। देद्गा की जनता सकून महसूस करेगी। जनता को उसका हक मिलेगा। जी हां यही उम्मीद थी टीम अन्ना के आंदोलन से जनता को। मगर अन्ना के चारों तरफ के कुछ लालची आंदोलनकारियों ने जनता को कहीं का न छोड़ा ये तो सबको पता था कि टीम अन्ना के सदस्य अपनी राजनैतिक रोटियां सेक रहे हैं। मगर ये किसी को नहीं पता था कि आंदोलन को ऐसे मझधार में छोड कर चले जायेंगे। जनता को लग रहा था कि टीम अन्ना जनलोकपाल की लड ई अंत तक लड़ेगी । मगर ये किसी को नही पता था कि जनलोकपाल की लड़ाई , टीम अन्ना अपने राजनैतिक मकसद के लिए लड रही है। देद्गा का, क्या बूढा क्या जवान, सब अन्नामय हो गये। देद्गा का हर समुदाय भ्रच्च्टाचार की लड़ाई में शामिल हुआ, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन देद्गा भ्रच्च्टाचार से मुक्त होगा। अन्ना की एक आवाज पर देद्गा का युवा जहां था वहीं रूक गया। हर देद्गावासी जहां था वो भ्रच्च्टाचार की इस लड़ाई का समर्थन कर रहा था। भ्रच्च्टाचारियों को अहिंसा का सबक सिखाया जा रहा था। भ्रच्च्टाचारी इस आंदोलन से घबराने लगे थे। ये लड़ाई पूरे देद्गा बनाम चंद भ्रच्च्टाचारियों की थी। भ्रच्च्टाचारियों के पांव उखड ने लगे थे। जनता अपने हक के लिए खरी हो गई थी। लेकिन टीम अन्ना की राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने जनता की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। टीम अन्ना अब राजनैति पार्टी बनाने की सोच रही है। नेता बनकर टीम अन्ना देद्गा का भ्रस्टाचार खत्म करना चाहती है। टीम अन्ना का विचार है संसद में पहुंचकर ही भ्रच्च्टाचारियों को खत्म किया जा सकता है। लेकिन क्या इस आंदोलन से भ्रच्च्टाचार खत्म नही होता। क्या देद्गा की सरकार इस आंदोलन से नही झुकती। क्या जनता टीम अन्ना का आंदोलन के रूप में समर्थन नही करती। लेकिन सवाल उठता है कि क्या भ्रच्च्टाचारी टीम अन्ना को संसद तक पहुंचने देंगे। क्या टीम अन्ना इन भ्रच्च्टाचारी राजनेताओं के सामने टिक पायेगी। सबको पता है ये भ्रच्च्टाचारी अपने सामने किसी को नही टिकने देंगे। ऐसा लगता है टीम अन्ना को न तो देद्गा की राजनैति दिशा का पता न भौगोलिक दिशा का। राजनीति के लिए क्या है टीम अन्ना के पास। थोड़े से इंटरनेंट यूजर और देद्गा का थोडा सा पढ़ा लिखा तबका। क्या देद्गा की इस एक डेढ पर्सेंट जनसंखया से चुनाव जीते जा सकते हैं। क्या देद्गा का ये छोटा सा समूह टीम अन्ना को संसद तक पहुंचा देगा। वैसे अन्ना हजारे कर्ई बार कह चुके हैं कि अगर वो चुनाव में आये तो उनकी जमानत जब्त हो जायेगी। मगर अन्ना के इर्दगिर्द वाले कुछ लोग लगता है अन्ना को अपने जाल में फंसाने में कामयाब हो गये। सरकार जो चाहती थी अब टीम अन्ना वहीं करती दिखाई दे रही है। लगता है टीम अन्ना को ये बात समझ में नही आयी। और एक सफल आंदोलन को चढ़ा दिया राजनीति की भेट। तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या टीम अन्ना राजनीति में आकर देद्गा को सुशासन की राह दिखा पायेगी। लगता तो नही है, कि राजनीति में आकर किसी ने देद्गा का भला किया।