15 December 2020

जनसंख्या नियंत्रण पर स्वास्थ्य मंत्रालय का भ्रमजाल क्यों ?

जनसंख्या नियंत्रण कानून पर भारत सरकार के स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपना रुख स्पष्ट किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने की बात सिरे से ख़ारिज कर दिया है. साथ ही ये विषय केंद्र ने राज्यों के साथ जोड़ दिया है. केंद्र का कहना है की इसपर राज्य सरकार क़ानून बना सकती है. मगर संविधान की अनुसूची 7 के कांक्रेंट लिस्ट में 20-A में साफ तौर पर उल्लेख है की इसपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. 

तो ऐसे में सवाल स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय के हलफनामे को लेकर खड़ा होता है की मंत्रालय इसपर टालमटोल क्यों कर रहा है. मंत्रालय का कहना है की भारत में किसी को कितने बच्चे हों, यह खुद पति-पत्नी तय करें. सरकार नागरिकों पर जबर्दस्ती नहीं करे कि वो निश्चित संख्या में ही बच्चे पैदा करे. स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय देश के लोगों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के साफ तौर पर विरोध में है.

मतलब साफ है की इसपर मंत्रालय बिल्कुल भी चिंतित नहीं है और ना ही जनसंख्या नियंत्रण पर कोई ठोस कदम उठाना चाहता है. ऐसे में अब सुप्रीम कोर्ट भी इस याचिका को लेकर असमंजस में दिख रहा है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने जवाब में ये भी कहा है की निश्चित संख्या में बच्चों को जन्म देने की किसी भी तरह की बाध्यता हानिकारक होगी. 

ऐसा करने से जनसांख्यिकीय विकार पैदा करेगी. देश में परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक है जिसमें अपने परिवार के आकार का फैसला दंपती कर सकते हैं और अपनी इच्छानुसार परिवार नियोजन के तरीके अपना सकते हैं. ऐसे में इसमें किसी तरह की अनिवार्यता नहीं है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का एक तर्क ये भी है की 'लोक स्वास्थ्य' राज्य के अधिकार का विषय है और लोगों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से बचाने के लिए राज्य सरकारों को स्वास्थ्य क्षेत्र में उचित एवं निरंतर उपायों से सुधार करने चाहिए. 

"स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार का काम राज्य सरकारें प्रभावी निगरानी तथा योजनाओं एवं दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया के नियमन एवं नियंत्रण के लिए विशेष हस्तक्षेप के साथ प्रभावी ढंग से कर सकती हैं." साथ में मंत्रालय ने अपने हलफनामे में ये भी बताया है कि सरकार परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बहुतसी योजनायें चला रही है. मंत्रालय का इरादा इसपर विषय पर क़ानून बनाने का नहीं है. 

07 December 2020

किसान आन्दोलन की फसल पर राजनीति क्यों ?

किसानों ने भारत बंद करने का एलान किया है. सुबह 11 बजे से शाम 3 बजे तक किसान सड़कों पर होंगे. मगर इस आन्दोलन को केंद्र सरकार के विरोध का माध्यम बनाने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हो गया है. हर दल किसान आन्दोलन के आसरे अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में जूट गयें हैं. 

कृषि क्षेत्र से जुड़े नए कानूनों को वापस लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति अब पूरी तरीके से राजनीति दलों ने हाईजैक कर लिया है. कांग्रेस, लेफ्ट, टीएमसी, बसपा, डीएमके, सपा समेत अधिकतर विपक्षी पार्टियों ने भारत बंद को समर्थन देने का ऐलान किया है. मतलब बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसे माहौल में किसान आन्दोलन तब्दील होगया है.

एकतरफ किसान संगठन ये कहते नहीं थक रहे हैं की वे किसी भी राजनीतिक दल को अपने आन्दोलन में नहीं बुलाया है...मगर बिपक्षी दल है की मानने को तैयार नहीं हैं...दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार नए कृषि कानून को राज्य में गजट नोटीफिकेसन जारी करके लागू भी कर चुकी है. मगर फिर भी अरविन्द केजरीवाल अपने आप को रोक नही सके और टीकरी बॉर्डर पर किसानों का समर्थन करने पहुंच गए.

किसान आंदोलन की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के किसान शामिल थे. बाद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन अब इस आंदोलन में राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के किसान शामिल होरहे हैं. तो सवाल यहां भी खड़ा होता है की आखिर एकाएक इतने राज्यों के किसान कैसे अचानक से सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया..?

आन्दोलन में शामिल होने वाले क्या सभी लोग किसान होंगे या राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता..? और अगर अधिकतर आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों से हैं तो फिर ये आन्दोलन किसानों तक सिमित कैसे रहा...? शरद पवार बतौर कृषि मंत्री कृषि उत्पाद विपणन समिति (APMC) ऐक्ट में बदलाव की वकालत कर चुके हैं मगर अब किसान आंदोलन के साथ खुद को हितैसी दिखा रहे हैं. 

वहीँ शिवसेना ने कृषि कानून का लोकसभा में समर्थन किया था मगर आज वो किसानों के सूर में सूर मिला रही है. किसानों के आंदोलन में राजनीतिक दलों के मौका देख स्टैंड चेंज लिया है. तो ऐसे में सवाल ये है की किसान आन्दोलन की फसल पर राजनीति क्यों ?

01 December 2020

भारत संघ के 16वें राज्य नागालैंड स्थापना दिवस पर विशेष

आज नागालैंड का स्थापना दिवस है. इस खास मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने नागालैंड के लोगों को राज्य के स्थापना दिवस पर बधाई दी है. नागालैंड की स्थापना एक दिसम्बर 1963 को देश के 16 वें राज्य के रूप में की गयी थी.

नगालैंड भारत का उत्तर पूर्वी राज्य है जिसकी राजधानी कोहिमा है. पहाड़ियो से घिरे इस राज्य की सीमा म्यांमार से लगती है. यहां आदिवासी संस्कृति अहम है जिसमें स्थानीय त्योहार और लोक गायन काफी महत्वपूर्ण हैं. 2012 की जनगणना के मुताबिक यहां की आबादी 22.8 लाख है.

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने 1 दिसंबर, 1963 को नगालैंड का भारत संघ के 16वें राज्य के रूप में उद्घाटन किया था. नागालैंड स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 1 दिसम्बर को मनाया जाता है. नागालैंड के पूर्व में म्यांमार, उत्तर में अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम में असम और दक्षिण में मणिपुर से घिरा हुआ है. इसे पूरब का स्विजरलैंडभी कहा जाता है. 

नागालैंड राज्य का क्षेत्रफल 16,579 वर्ग किमी है. इसकी सबसे ऊंची पहाड़ी का नाम सरमती है जिसकी ऊंचाई 3,840 मीटर है। यह पर्वत शृंखला नागालैंड और म्यांमार के मध्य एक प्राकृतिक सीमा रेखा का निर्माण देती है.

पीएम मोदी ने आज एक टि्वट संदेश में कहा, राज्य के स्थापना दिवस पर नागालैंड के भाइयों तथा बहनों को बधाई तथा शुभकामनाएं। नागालैंड के लोग अपने साहस और दयालु स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। इनकी संस्कृति असाधारण है और इसी के अनुरूप उन्होंने देश की प्रगति में योगदान दिया है। नागालैंड के निरंतर विकास की प्रार्थना करता हूं.

नागालैंड को पूर्वी भारत के प्रहरी की भूमि के रूप में भी जाना जाता है. नागा पीपुल्स कन्वेंशन और डॉ इम्कोन्ग्लिबा एओ, और अन्य दूरदर्शी नागा नेताओं के साहस और शांति के लिए भी आज उन्हें याद किया जाता है. इन नेताओं ने नागा लोगों की शांति और समृद्धि के लिए 16 बिंदुओं पर हस्ताक्षर किए थे. जो 1 दिसंबर 1963 को नागालैंड राज्य के निर्माण का मार्ग शुलभ हुआ.

27 November 2020

अवैध मस्जिद मजार पर शासन प्रशासन की चुप्पी

अगस्त 2013 नोएडा के कादलपुर गांव में एक मस्जिद की दीवार गिराने के आरोप में एक महिला एएसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित किया गया था। कारण दुर्गा नागपाल ने ग्राम समाज की भूमि पर अवैध ढंग से बन रही एक मस्जिद गिरा दी थी। तब दुर्गा नागपाल को पूरे देशभर से हिन्दुओं का समर्थन मिला था. 

प्रश्न खड़ा होता है कि सरकार को केवल अवैध मन्दिर ही क्यों दिखते हैं, वे अवैध मस्जिदें और मजारें क्यों नहीं दिखती हैं जो बीच चौराहों या सड़कों के किनारे तेजी से सरकारी जगह घेर कर अपना विस्तार कर रही हैं। संसद के आसपास भी तेजी से मजार और मस्जिदें बन रही हैं। दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस में कई अवैध मस्जिदें और मजारें हैं। पूर्वी दिल्ली में देखें तो भजनपुरा के मेन रोड के बीचो-बीच मजार बनी है। हसनपुर डिपो के सामने व्यस्त स्वामी दयानंद मार्ग पर मजार है, वर्षो बाद भी इसे यहां से नहीं हटाया जा सका। पूरी दिल्ली में अवैध मजारों और मस्जिदों की एक तरह से बाढ़ आई हुई है पर उनकी ओर से कोर्ट ने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं। कौन नहीं जानता कि लालकिले के सामने सुभाष पार्क में 24 घंटे के अन्दर एक मस्जिद खड़ी हो गई थी। उच्च न्यायालय ने इस मस्जिद को गिराने का आदेश भी दिया था। किन्तु उस समय दिल्ली सरकार की कृपा से यह मस्जिद बचा ली गयी थी।

ये सिर्फ अकेली दिल्ली का हाल नहीं है यदि यहाँ से बाहर निकलकर उत्तरप्रदेश का रुख करें तो अमूमन ऐसे ही हालत हैं। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक भूमि, पार्क और सड़क किनारे 28,355 मुस्लिम स्थल अवैध रूप से मौजूद हैं। राजधानी लखनऊ में ही 571 गैर कानूनी धार्मिक स्थल हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार ने अवैध मजिस्द तोड़ने के लिए आदेश दिया था मगर फिर भी उसे नहीं तोड़ा गया. 



दरअसल यह कोई धार्मिक प्रक्रिया नहीं है इसके कई कारण अहम् बिन्दुओं में छिपे हैं एक तो यह सरासर राजनीति का हिस्सा है जिससे धर्म को जोड़ दिया जाता है दबे शब्दों में ही सही कहा तो यह भी जाता है कि कुछ माफिया जमीन कब्जाने के लिए वहां पहले मस्जिद या मजार बनवाते हैं। धीरे-धीरे वह जगह धार्मिक स्थल का दर्जा पा जाती है। वोटों के सौदागर और नेताओं के दबाव के बीच अधिकारी चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते। दिल्ली लोकनिर्माण विभाग के आदेश पर मस्जिद मजार नहीं टूटा मगर मंदिर डीडीए मिनटों में तोड़ देता है.


 

जिस कारण अशिक्षित पिछड़े गरीब कमजोर लोगों की तरक्की को रोकने का यह धार्मिक षडयंत्र सफल हो जाता है। दूसरा परिस्थितिवश यदि कोई सरकार तोड़ना भी चाहे तो मजहब के नाम पर संवेदनशील लोग इसे अपने मजहबी गौरव पर आघात समझते हैं। तीसरा जब देश के बड़े नेतागण ही जानते हैं कि वोट मस्जिदों के घालमेल से आते हैं तो इनके अत्यधिक निर्माण को नाजायज कौन कहेगा ?

26 November 2020

हिंडन विहार के हिन्दुओं की भयावह तस्वीर

गाजियाबाद के प्रशासनिक अधिकारी कट्टरपंथी तत्वों को काबू करने के बजाय हिंदू समाज के ही संत और मंदिर को धमकाते है. तो कभी-कभी ऐसा लगता  है कि क्या सच में ये योगी आदित्यनाथ शासित यूपी ही है अब सवाल यह भी उठता है कि क्या महज हिंदुओं को भगाना या हिंदुओं से उस क्षेत्र को खाली कराना ही एकमात्र उद्देश्य है या कुछ औरऐसे अधिकारी भी वहां मौजूद हैं जिनका असल उद्देश्य योगी शासन को योगी सत्ता को पूरे प्रदेश भर में बदनाम करना और उनके समर्थकों को तोड़ना है जो समर्थक योगी की इंसाफ पसंद छवि के लिए उन्हें चाहते हैं मानते हैं.



जब पूरे मामले की गहराई से पड़ताल की तो सामने आया कि मंदिर परिसर में पुलिस वालों की ड्यूटी लगाने का जो अधिकारी है उसका नाम तौफीक है वह बार-बार ऐसे पुलिस कर्मियों की ड्यूटी में लगाता है जो या नशे के शौकीन हो या धर्म को मानते ही नहीं ज़रा आप सोचिए जो धर्म को नहीं मानता होगा वह पुलिस अधिकारी एक धर्मस्थल की रक्षा कितने और लगन के साथ करेगा. यहां के हिन्दू परिवार की माँ-बेटियों की इज़्ज़त पर बन आयी है. 



सरे बाज़ार यहाँ हिंदुओ की बेटियोंबहुओं को छेड़ा जाता है उनका पीछा किया जाता है और बुजुर्ग महिलाओं को गाली देने के साथ-साथ मारपीट भी की जाती है. आज यहाँ महिलाएंरात की तो बात छोड़िए दिन में भी घरों से बाहर नही निकलती है. जब सुदर्शन न्यूज़ ग्राउंड पर पहुँचा तो महिलाओं का दर्द उनकी आंखों से साफ झलकता नजर आया. जब शिकायत पुलिस प्रशासन में की जाती है तो उल्टे हिंदुओ को ही जेल में डालने की धमकी दी जाती है. 



जब सुदर्शन न्यूज़ की टीम ने हिंडन विहार का जायज़ा लिया तो देखातब उन 11 दावों में पूरी शत प्रतिशत सत्यता दिखी जिंदा ओं को सुनकर सुदर्शन की टीम वहां पर पहुंची थी वहां हालात बद से बदतर और भय से भयावाह दिखे. अब स्थिति ये है कि लगातार यहाँ पर ये कट्टरपंथी सरकारी जमीनों पर कब्जा कर अवैध निर्माण कार्य करके काले धंधों को अंजाम दे रहे है. 



जिसका विरोध अगर कोई हिन्दू करता है तो उनके परिवार वालों के साथ मारपीट की जाती है. ये वो स्थान है जहां संतगाय और नारी सभी असुरक्षित दिखे. यहाँ हिन्दू  मात्र अपना धर्म बचाने के लिए पलायन करने पर मजबूर है. गाज़ियाबाद का हिंडन विहार आज लगभग हिन्दू विहीन हो चुका है. 

हिन्दू विहीन होता गाज़ियाबाद का हिंडन विहार

यदि आप कल्पना करते होंगे कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ बांग्लादेश जैसे इस्लामिक मुल्कों में हिंदू किस तरह किस प्रकार से किन हालातों में रहते होंगे उसको जानने समझने देखने के लिए आपको इन इस्लामिक देशों में जाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है….आप इसका पूरा नजारा देश की राजधानी दिल्ली से मात्र 18 किलोमीटर दूर गाजियाबाद और दिल्ली की सीमा पर पड़ने वाले हिंडन विहार में देख सकते हैं जहां पर हिंदुओं की ऐसी दुर्दशा है जो संभवत किसी इस्लामिक मुल्क में भी ना हो मात्र 20 साल पहले 85% हिंदू आबादी का क्षेत्र सिकुड़ता और संकुचित होता हुआ आज मात्र 2% हिंदू आबादी का बन गया है और वहां हिंदुओं को वह सब कुछ झेलना पड़ रहा है जो हिंदू आए दिन हर उस स्थान पर झेलता है जहां पर वह अल्पसंख्यक हो जाता है. 



पीड़ा का विषय यहां इस बात का भी है कि जिन वर्दी वाली और प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे हिंदू समाज सबसे ज्यादा रहता है वर्दी वाले और प्रशासनिक अधिकारियों का सीधा सीधा विरोध भी हिंदू उन तमाम मजहबी आक्रांता और उनके साथ-साथ झेल रहा है. 



जरा कल्पना कीजिए जहाँ पर आरती और भजन तब होगा जब जहाँ की बहुसंख्यक आबादी अर्थात कट्टरपंथी तत्व करेंगे एक मंदिर जहां पर घंटे कब बजेंगे जहां पर आरती कब होगी जहां धूप दीप संध्या वंदन कब होगा. इसको वहां के कट्टरपंथी तय करेंगे और अगर आरतियां धूप अपने तरफ से देवी-देवताओं के नियत समय अनुसार किया गया तो उनके महंत को हत्या की धमकी दी जाती है और तो हालात और भी ज्यादा बिगड़ जाते हैं. जब मंदिर में घुसकर पुलिस सुरक्षा होने के बावजूद भी वहां की मूर्तियों को चुरा लिया जाता है जो कि तमाम महेनत और मशक्कत के बाद कई महीने बाद वापस दी जाती है. 



इतना ही नहीं वहां तैनात पुलिस बल को पीटने के लिए चारों तरफ से घेर लेते हैं तो संतो को हाथ पैर जोड़कर उन को बचाना पड़ता है जरा सोचिए जहां पुलिस के हाल हो वहां आम हिंदू समाज व साधु संतों की स्थिति क्या होगी लेकिन यहां सबसे बड़ी हैरानी और पीड़ा का विषय यह है कि ये क्षेत्र कट्टरपंथी तत्वों के खिलाफ सबसे कठोर फैसले लेने के लिए दुनिया भर में विख्यात योगी आदित्यनाथ द्वारा शासित उत्तर प्रदेश में है और यहां से जिला गाजियाबाद के प्रशासनिक अधिकारियों के ऑफिस की दूरी कुछ मिनटों के अंदर है  फिर भी इन टट्टरपंथियों का अत्याचार जारी है.  

24 November 2020

मुस्लिम छात्रों पर केंद्र और राज्य सरकारों की मेहरबानी, हिन्दू बेहाल मुस्लिम मालामाल

साल 2019  में केंद्र सरकार ने 80 फीसदी मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप दी: छात्रवृत्ति पाने वाले छात्रों में 88 लाख मुस्लिम, 8.26 लाख ईसाई, 5.45 लाख सिख और 5.2 लाख हिंदू हैं. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा संचालित राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल के अनुसार ईसाई छात्रों को 7.5 फीसदी छात्रवृत्ति मिली. सिख छात्रों को पांच प्रतिशत और हिंदू छात्रों को सिर्फ 4.7 प्रतिशत छात्रवृत्ति मिली. इस सत्र में 1.4 करोड़ से ज्यादा आवेदन मिले थे जिनमें से 1.08 करोड़ छात्रों को छात्रवृत्ति दी गई. छात्रवृत्ति योजनाओं के तहत 2,157 करोड़ रुपये वितरित किए गए. इस दौरान कुल राशि में से 1,032 करोड़ रुपये मुस्लिम छात्रों पर, 183 करोड़ रुपये सिख छात्रों और 128 करोड़ रुपये हिंदू छात्रों पर व्यय किए गए. कुल छात्रवृत्ति का 77 फीसदी देकर अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय शीर्ष पर रहा



छात्रवृत्ति पाने वाले शीर्ष पांच राज्य

पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल रहे हैं. जिन राज्यों को सबसे ज्यादा धनराशि मिली उनमें...उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा जिसे 336 करोड़ रुपये मिले वहीं दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल रहा जिसे 281 करोड़ रुपये मिले. साल 2018-19 में केंद्र सरकार की 20 योजनाओं के तहत दी जाने वाली छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) का करीब 80 फीसदी मुस्लिम छात्रों को दिया गया. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा संचालित राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल के अनुसार ईसाई छात्रों को 7.5 फीसदी छात्रवृत्ति मिली, सिख छात्रों को पांच प्रतिशत और हिंदू छात्रों को सिर्फ 4.7 प्रतिशत छात्रवृत्ति मिली. इस सत्र में 1.4 करोड़ से ज्यादा आवेदन मिले थे जिनमें से 1.08 करोड़ छात्रों को छात्रवृत्ति दी गई.



छात्रवृत्ति पाने वाले छात्रों में 88 लाख मुस्लिम, 8.26 लाख ईसाई, 5.45 लाख सिख और 5.2 लाख हिंदू हैं. छात्रवृत्ति पाने वालों में 1.94 लाख (1.8 प्रतिशत) बौद्ध तथा 1.07 लाख (एक प्रतिशत) जैन छात्र भी हैं.इस दौरान 14 केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा जारी छात्रवृत्ति योजनाओं के तहत 2018-19 में 2,157 करोड़ रुपये वितरित किए गए. इस दौरान कुल राशि में से 1,032 करोड़ रुपये मुस्लिम छात्रों पर, 183 करोड़ रुपये सिख छात्रों और 128 करोड़ रुपये हिंदू छात्रों पर व्यय किए गए.



कुल छात्रवृत्ति का 77 फीसदी देकर अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय शीर्ष पर रहा. श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, उच्च शिक्षा विभाग, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, दिव्यांग सशक्तिकरण विभाग भी शीर्ष पांच में रहे. छात्रवृत्ति पाने वाले शीर्ष पांच राज्यों में पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल रहे हैं. इन योजना के तहत जिन राज्यों को सबसे ज्यादा धनराशि मिली, उनमें उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा जिसे 336 करोड़ रुपये मिले, वहीं दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल रहा जिसे 281 करोड़ रुपये मिले.

केंद्र सरकार की 20 योजनाओं के तहत दी जाने वाली स्कॉलरशिप

अल्पसंख्यक छात्रों के लिए प्री मैट्रीक स्कॉलरशिप प्रदाता अल्पसंख्यक मंत्रालय

अल्पसंख्यक छात्रों के लिए पोस्ट मैट्रीक स्कॉलरशिप- प्रदाता-  अल्पसंख्यक मंत्रालय

व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रम- प्रदाता- अल्पसंख्यक मंत्रालय

विकलांग छात्रों के लिए प्री मैट्रीक स्कॉलरशिप- प्रदाता विकलांग व्यक्तियों के अधिकारिता विभाग

विकलांग छात्रों के लिए पोस्ट मैट्रीक स्कॉलरशिप प्रदाता विकलांग व्यक्तियों के अधिकारिता विभाग

नेशनल्स मींस कम मेरिट स्कॉलरशिप- प्रदाता- शिक्षा मंत्रालय

कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए केंद्रीय क्षेत्र योजना- प्रदाता- शिक्षा मंत्रालय़

प्रधानंमंत्री  स्कॉलरशिप योजना- सैनिक कल्याण विभाग, रक्षा मंत्रालय भारत सरकार

अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिए प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए पीजी स्कॉलरशिप

तकनीकी शिक्षा के लिए गर्ल्स डिग्री के लिए प्रगति स्कॉलरशिप  योजना

प्रधानमंत्री रिसर्च फेलोशिप योजना- प्रदाता शिक्षा मंत्रालय

स्वर्ण जयंती फेलोशिप योजना- प्रदाता- विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार

महिला वैज्ञानिक योजना- प्रदाता- विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार

ईशान उदय योजना- प्रदाता शिक्षा मंत्रालय

मैट्रिक पूर्व स्कॉलरशिप योजना

कक्षा 1 से 10वीं में पढ़ रहे अल्पसंख्यक छात्रों को प्रदान की जाती है

कम से कम 30 फीसदी स्कॉलरशिप छात्राओं के लिए तय है

इसके हकदार वे स्टूडेंट हैं जिनके अभिभावक की इनकम सालाना 1.00 लाख रु. से अधिक नहीं है

मैट्रिकोत्तर स्कॉलरशिप योजना

कक्षा 11वीं से पीएचडी स्तर तक पढ़ रहे अल्पसंख्यक छात्रों को दी जाती है

न्यूनतम 30 फीसदी स्कॉलरशिप लड़कियों के लिए तय है

वार्षिक आय 2.00 लाख रुपये से अधिक न हो

मेरिट-सह-साधन आधारित स्कॉलरशिप योजना

ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन स्तर पर व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई के लिए दी जाती है

85 संस्थान लिस्टेड हैं. जिनके लिए पाठ्यक्रम का पूरा खर्च दिया जाता है.

मौलाना आजाद राष्ट्रीय अध्येतावृत्ति योजना

एम. फिल और पीएचडी पाठ्यक्रमों का अध्ययन कर रहे शोध छात्रों को प्रदान की जाती है

इसका लाभ उनको मिलेगा जिनके अभिभावक की वार्षिक आय 6.00 लाख रुपये से अधिक नहीं है

बेगम हजरत महल राष्ट्रीय छात्रवृत्ति

यह स्कॉलरशिप अल्पसंख्यक समुदायों की मेधावी छात्राओं को 9वीं से 12वीं क्लास तक के लिए दी जाती है

पात्र होने के लिए छात्राओं के माता-पिता की सालाना आय 2.00 लाख रुपये तक होनी चाहिए.

साथ ही छात्रा के नंबर पिछली क्लास में 50 फीसदी से कम नहीं होने चाहिए

असम-मिजोरम सीमा पर बांग्लादेशी घुसपैठियों का आतंक

आज हम एक ऐसे मुद्दे को लेकर आएं हैं जिसे अक्सर हिंदी भाषा के चैनलों में प्रमुखता नहीं दी जाती है. मगर हमारे लिए ये राष्ट्र की एकता और अखंडता से जुड़ा हुआ है. ऐसे में ये विषय हमारे लिए महत्वपूर्ण है. पूर्वोत्तर के राज्यों का सीमा विवाद देश का एक आंतरिक विषय है मगर आज इस विवाद के मूल में हैं  बंगलादेशी घुसपैठी जो पूरे नार्थ ईस्ट को जला रहे हैं. आज हर ओर इनका आतंक मचा हुआ है.


असम और मिजोरम सीमा विवाद अब एक दूसरे के लिए कोई विवाद का मसला नहीं है... मगर अब बंगलादेशी घुसपैठीये एक बार फिर से इस विवाद की जड़ को खोद रहे हैं. जब सुदर्शन न्यूज ने मिजोरम के मूल निवासियों से बात की तो हमे पता चला की मिजोरम राज्य के गठन के बाद से दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद लगभग खत्म हो चुका है. 1972 में मिजोरम केंद्र शासित प्रदेश बना फिर 1987 में इसे एक पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया.


कुछ साल पहले असम और मिजोरम की सरकारों के बीच एक समझौता हुआ जिसमे ये तय हुआ था...की असम और मिजोरम के सीमा क्षेत्र में किसी भी नागरिक की भूमि पर यथास्थिति बनाए रखी जायेगी. मगर ये समझौता अब बांग्लादेशी घुसपैठियों को रास नहीं आरहा  है. 


बांग्लादेशी घुसपैठियों ने इस यथास्थिति को तोड़ दिया है. मूल स्थानीय निवासियों की घरों और झोपड़ियों को बांग्लादेशी जला रहे हैं. जिनका हक़ एक इंच जमीन पर नहीं है आज वो पूरे असम और मिजोरम को अपना जागीर समझ रहे हैं. आज इनका आधे से ज्यादा असम पर कब्ज़ा हो चुका है. अब ये अपना विस्तार करने के लिए मिजोरम और आस पास के राज्यों पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं.  


ये बांग्लादेशी पिछले महीने असम और मिजोरम राज्य के निवासियों से भिड़ गए...और देखते हीं देखते ये झड़प चीख पुकार और आगजनी में तब्दील हो गई. इस घटना में दोनों राज्य के दर्जन भर से ज्यादा लोग घायल हो गए. हिंसक बांग्लादेशियों ने वहां के स्थानीय लोगों की झोपड़ियों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया. दो राज्य के जीवन-रेखा असम मिजोरम राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़क को नाकाबंदी कर दी.


सड़कों पर बांस की घेराबंदी लगा दिया. बांग्लादेशी घुसपैठियों ने मिजोरम के निवासियों की झोपड़ियों और सुपारी के खेतों में आग लगा दी. बांग्लादेशी घुसपैठियों ने मिजोरम के पुलिस कर्मियों और मिजो निवासियों पर पथराव शुरू कर दिया. इस पथराव के बाद से दोनों राज्यों के सीमाओं  पर तनाव पैदा हो गया. बांग्लादेशी घुसपैठियों के इस हरकत की वजह से क्षेत्र में दहशत का माहौल खड़ा हो गया.



असम में बंगलादेशी घुसपैठीये काफी ज्यादा हैं इसलिए ये घुसपैठीये इन जमीनों पर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए वे इसतरह के विवाद को पैदा करके मिजोरम के नागरिकों की जमीनों को कब्ज़ा करना करना चाहते हैं.


मिजोरम और असम दोनों ही राज्यों की सीमाएं बांग्लादेश से लगती है. असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों ने इस समस्या को पैदा किया है. जो समय-समय पर झोपड़ियों और फसलों को नष्ट कर रहे हैं और पूरे नार्थ एस्ट को अपने आगोश में लेने की फ़िराक में है, जिसे कभी भी सफल नहीं होने दिया जायेगा.


ऐसे में अब दोनों राज्य सरकारों का ये दयित्व बनता है की इन बंगलादेशी घुसपैठीयों की नापाक इरादों को नाकाम करने के लिए कड़ा कदम उठाये ताकी राष्ट्र की एकता और अखंडता कायम रहे.

 

कर्नाटक सरकार का ईसाई प्रेम, चर्च पर लूटा रही है सरकारी धन

एक ओर जहां पर देश में इसाई धर्मांतरण अपने चरम सीमा पर है..तो वहीँ दुसरी ओर कर्नाटक सरकार अब चर्च मिशन को बढ़ावा देने के लिए चर्चों को फण्ड दे रही है...वो भी सरकारी खजाने से. आपको भले ही ये सुनने में असंवैधानिक और लगे, मगर कर्नाटक अल्पसंख्यक कल्याण निदेशालय की ओर से जारी 29 अक्टूबर 2020 को नोटिफिकेशन जारी किया गया है.



ईसाई विकास योजना के तहत चर्च का नवीनीकरण मिश्रित दीवार का निर्माण करने और कब्रिस्तान परिसर की दीवार तथा सामुदायिक हॉल और अनाथ व वृद्धाश्रम के लिए ये फंड जारी किया जायेगा. सरकार के इस मनसूबे से हिन्दुओं में गुस्सा और आक्रोश का माहौल है.



साथ ही इस प्रकरण को लेकर अब लोग सवाल उठा रहे हैं की जब संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार कोई भी केंद्र या राज्य सरकार सरकारी धन का उपयोग धार्मिक कार्य के लिए या किसी धर्म विशेष के लिए खर्च नहीं करेगी तो फिर ऐसे में कर्नाटक सरकार ऐसा कैसे कर रही है ?



इस वक्त देश में सबसे ज्यादा विदेशों से फण्ड ईसाई मिशनरियों के पास आरहा है. जिसका बेजा इस्तेमाल धर्मांतरण के लिए हो रहा है. ऐसे में कर्नाटक सरकार द्वारा इन्हें फण्ड देना अपने आप में कई सवाल खड़े कर रहे है.



साथ भाजपा शासित राज्य होने के कारण लोगों के मन में  कई तरह के सवाल खड़े हो रहे है. ईसाई विकास की योजना के तहत वर्ष 2020-21 के लिए कर्नाटक सरकार धन उपलब्ध कराएगी. साथ ही तालुका स्तर के तहत स्थित केंद्र के और अख़बारों के माध्यम से सरकार इस योजना का प्रचार-प्रसार कर रही है. कर्नाटक में इस वक्त हजारों की संख्या में हिन्दू मंदिर हैं जिसका रखरखाव नहीं होने के कारण अब वे खंडहर हो चुके हैं.



मगर इसके लिए सरकार ने कभी कोई फण्ड जारी नहीं किया. ऐसे में ईसाई मिशनरियों के उपर कर्नाकट सरकार की मेहरबानी पर सवाल उठना लाजमी है.


अल्पसंख्यक कल्याण निदेशालय कर्नाटक सरकार के विज्ञापन का हिन्दी अनुवाद

 

निदेशक का कार्यालय, अल्पसंख्यक कल्याण निदेशालय,                              दिनांक: 29.10.2020        

सेवा में,

जिला अधिकारी........

अल्पसंख्यक कल्याण विभाग

उप: ईसाई विकास योजना के तहत चर्च नवीकरण / मिश्रित दीवार / कब्रिस्तान परिसर की दीवार / सामुदायिक हॉल / अनाथ आश्रम और वृद्धाश्रम के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत करने के बारे में।

ईसाई विकास की योजना के तहत वर्ष 2020-21 के लिए उपरोक्त विषय के संबंध में, चर्च के जीर्णोद्धार / परिसर की दीवार / कब्रिस्तान परिसर की दीवार / सामुदायिक हॉल / अनाथ आश्रम (अनाथालय) और वृद्धाश्रम के लिए ईसाई विकास योजना के तहत अनुदान की स्वीकृति के बारे में.

अपने जिले के / तालुका स्तर के सामुहिक केंद्र के माध्यम से, प्रचार के माध्यम से अखबारों में वितरण और समाचार पत्रों के माध्यम से संबंधित संस्थान / चर्च से नियमानुसार प्रस्ताव प्राप्त करके उन्हें निदेशालय को सिफारिशों के साथ भेजें।

 (आपका आभारीनिदेशक, अल्पसंख्यक कल्याण निदेशालय)                                                    

अजमेर में अधर्म, टाक समाज के शिवमंदिर पर मुसलमानों का कब्ज़ा

देशभर के हिन्दू मंदिर और उसके संपतियों पर मुसलमानों का ताबातोड़ अतिक्रमण जारी है. कहीं रातोंरात मजार बना दिया जाता है तो कहीं पूरा का पूरा मंदिर और जमीन हीं कब्ज़ा हो जारहा है. ताज़ा मामला सामने आया है राजस्थान के अजमेर स्थित रामसर गांव से जहां पर टाक समाज के शिव मन्दिर के बगीचे में मुसलमानों ने जे.सी.बी. और भारी जनबल से पत्थर और सीमेंट से रातोंरात दिवार खड़ा कर दिया.



इस घटना की जानकारी मंदिर से जुड़े लोगों ने पुलिस प्रसाशन को दिया मगर अजमेर पुलिस इस संबंध में कोई कार्रवाई नही की क्योंकी मामला मुस्लिम समुदाय के अतिक्रमणकारियों से जुड़ा हुआ था. छत्रिय टाक समाज के ऐतिहासिक धरोहर और शिव मंदिर रामसर गांव में स्थित है, जो कि नसीराबाद सदर जिला अजमेर में आता है.



टाक समाज के ऐतिहासिक धरोहर शिव मन्दिर में शिवलिंग पहले से हीं स्थापित है. मन्दिर लगभग 300 साल पुराना है. छत्रिय टाक समाज के पास मंदिर का पूरा कागजात मौजूद है. इसके बावजूद पुलिस प्रसाशन कार्रवाई करने से कतरा रहा है. उस स्थान पर और कागजों में टाक समाज का शिलालेख भी दर्ज है.



मगर इस  सांस्कृतिक धरोहर पर अब मुसलमानों की गिद्ध जैसी नजर गड़ी हुई है. मंदिर के मेन गेट के बाहर आधी रात्रि को एक लंबी दिवार खड़ी कर दी गयी है जिसकी वजह से शिवमंदिर का गेट अवरुद्ध हो गया है. इस बाबत ग्रामीणों ने वहां के स्थानीय पुलिस अधीक्षक को पत्र लिख कर कार्रवाई करने की मांग की है.. मगर अब तक कोई भी पुलिस अधिकारी पीड़ित हिन्दू समाज की सुध लेने नहीं पहुंचा है. रामसर में 80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. रामसर पहले हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र था मगर अब ये क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य हो चुका है.



आज पूरा गांव हिन्दू विहिन होने के कागार पर है. 2015 में यहां पर साम्प्रदायिक हिंसा हो चुकी है. मगर फिर भी शासन-प्रशासन अब भी हाथ में हाथ धरे बैठा हुआ है. 



तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या राजस्थान सरकार मुस्लिम अतिक्रमणकारियों को हिन्दुओं की धार्मिक स्थलों पर कब्ज़ा करने के लिए खुली छूट दे रखी है.

17 November 2020

सरकारी तंत्र की जंजीरों से प्रेस को आजादी कब ?

आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है जिसे आज पूरा पत्रकारिता जगत बधाई संदेशों और शुभकामनाओं सहित मना रहा है. चार जुलाई, 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई थी, जिसने 16 नवम्बर, 1966 से अपना पूर्ण रूप से कार्य शुरू किया था। तभी से 16 नवम्बर को 'राष्ट्रीय प्रेस दिवस' के रूप में मनाया जाता है। मगर आज इसी प्रेस के सामने सबसे बड़ा सवाल ये है की सरकारी तंत्र की जंजीरों से आखिर कब मिलेगी प्रेस को आजादी ? क्योंकी ये आजादी कोई एक-आध दिन की बात नहीं है, बल्कि इसका एक लंबा इतिहास है.



प्रेस के अविष्कार से लेकर इसके नवजागरण तक एक सशक्त हथियार के रूप में हमेशा से हीं उपयोग होता रहा है. भारत में प्रेस ने आजादी की लड़ाई में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था. बालगंगाधर तिलक से लेकर सुभाष चंद्रबोश और लाला लाजपत राय तक सबसे प्रेस को एक अचूक अस्त्र के रूप प्रयोग किया. मगर आज इसी प्रेस की आजादी पर अब सरकारी तंत्रों का कब्ज़ा है. आए दिन किसी भी छोटे-मोटे मुद्दे पर आज संपादक को सरकारी नोटिस थामा दिया जाता है. तो कभी किसी पत्रकार को पुलिस प्रशासन जब चाहता है घर से उठा लेता है. जिसे आज गुलामी वाली तंत्रों से मुक्त करने की आवश्कता है. प्रेस की आजादी को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में आज एक विशेष धारणा बना दिया गया है जिसे तोड़ने की जरूरत है.



मीडिया आज के समय में सबसे बड़ा और प्रभावशाली हथियार है, जिसके जरिये किसी भी संस्था या सत्ता को बेपर्दा किया जा सकता है. शायद यही कारण है की अब राष्ट विरोधी ताकतें भी मीडिया का सहारा ले रही है. इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट यानी आई.एफ.जे. के सर्वे के अनुसार 2016 से लेकर अबतक लगभग हजारों पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. ये प्रेस की आजादी और उसके बढ़ते प्रभाव का नतीजा है. जान से मारने व डराने की धमकी आज पत्रकारों के लिए आम बात हो गयी है.



वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत तीन पायदान पीछे होते हुए 136 नंबर पर आ गया है। ये आकड़े बताने के लिए काफी है की भारत में प्रेस की आजादी पर बहुत बड़ा संकट है। सत्ता और मीडिया में हमेशा से हीं छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लेकिन कई बार शक्तिशाली सत्ताएं प्रेस की गला घोटने से भी परहेज नहीं करती। जिसका सबसे बड़ा उदहारण 1975 का आपातकाल है. 



आज पत्रकारिता जगत को सरकारी तंत्र सत्ता और बाजार के हाथों की कठपुतली बनाना चाहता है. अगर कोई मीडिया संस्थान इसके इतर जाने का प्रयाश करता है तो फिर या तो उसे दबाने की कोशिश की जाती है या फिर गुलामी की तंत्रों से उसे जकड़ने की भरपूर प्रयास होती है. फिर भी देश में आज भी बहुत से ऐसे राष्ट्रीयवादी मीड़िया संस्थान हैं जो राष्ट्र की एकता और अखंडा के लिए अपने मुनाफे की प्रवाह किये हर रोज जिहादी ताकतों से लड़ रहे हैं...और कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति की अधिकारों की लड़ाई भी अपने जान की प्रवाह किये बगैर लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। एडविन वर्क द्वारा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया। 



वहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता है। यानी की प्रेस की आजादी मौलिक अधिकार के अंतर्गत आती है। फिर भी समय-समय पर सरकार इस पर प्रतिबंध के जरिये जकड़ने की प्रयास करती है जो प्रेस की आजादी के लिए बेहद ही घातक है. इसलिए आज हम पूछ रहे हैं की सरकारी तंत्र की जंजीरों से प्रेस को आजादी कब ?

                          भारत में टीवी चैनल

प्रसारण मंत्रालय के अनुसार देश में कुल 877 सक्रिय टीवी चैनल है

न्‍यूज और करेंट अफेयर्स कैटेगरी में कुल 389 चैनल है

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भारत के कुल समाचार पब्लिकेशंस की संख्‍या 1,10,851 है

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इसमें हिंदी के 46,229 न्यूज़ मैगज़ीन है

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भारत में कुल 8 प्रिंट मीडिया के बड़े न्यूज़ एजेंसी हैं

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भारत में कुल 263000 न्यूज़ वेबसाइट है

भारत में 5 लाख से ज्यादा यूट्यूब चैनल है