30 March 2022

यूपी के मदरसों में पढ़ाई से पहले अब होगा राष्ट्र गान

उत्तर प्रदेश के मदरसों में अब क्लास शुरू होने से पहले राष्ट्रगान गान होगा. यह फैसला ऐसे वक्त में लिया गया है जब पिछले दिनों राज्य में मदरसा जाने वाले छात्रों की संख्या में तेजी से कमी आने की बात सामने आई थी. उत्‍तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद की बैठक में तय किया गया कि सभी अनुदानित और गैर अनुदानित मदरसों में नए सत्र से क्लास शुरू होने से पहले छात्रों को राष्‍ट्रगान गाना होगा.


इसके अलावा मदरसा शिक्षकों की बॉयोमेट्रिक हाजिरी और नए सत्र से ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की सुविधा शुरू करने का भी फैसला किया गया. मदरसा बोर्ड अब परीक्षा भी बेसिक शिक्षा परिषद की तर्ज पर ही लेगा। अब क्लास 1 से 8 तक मदरसे में छात्रों को मज़हबी शिक्षा के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के भी प्रश्न-पत्र होंगे.


उत्तर प्रदेश के मदरसों में पढ़ाई करने वाले छात्रों को नौकरी आसानी से नहीं मिल पाती इसलिए छात्रों की संख्या में कमी आ रही है. ऐसे अब देखना ये होगा कि सरकार के इस फैसले से कितना ज्यादा मदरसों के पाठ्यक्रम में सुधार हो पता है. मदरसों में राष्ट्र गान का अबतक कोई विरोध नहीं हुआ है.

मद्रास हाईकोर्ट ने किया हिंदू आस्था के बाद अन्याय

मद्रास हाईकोर्ट ने एक बार फिर से हिन्दू भावनाओं पर टिप्पड़ी की है. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि अगर भगवान भी सरकारी जगह पर अतिक्रमण करते हैं तो उसे हटाया जाएगा. मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि कोई भी भगवान नहीं कहते कि सार्वजनिक जगहों पर मंदिर बनाकर अतिक्रमण करो. तमिलनाडु के नमक्क में सड़क के किनारे बने अरुलमिघू पलापट्टराई मरिअम्मन तिरुकोइल मंदिर से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एस. आनंद वेंकटेश ने कहा, “हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं, जहाँ भले ही भगवान सार्वजनिक स्थान पर अतिक्रमण करें, अदालतें इन अतिक्रमणों को हटाने का निर्देश देंगी क्योंकि सार्वजनिक हित और कानून के शासन को सुरक्षित और बरकरार रखा जाना चाहिए.


न्यायाधीश ने कहा कि भगवान के नाम पर मंदिरों का निर्माण करके अदालतों को धोखा नहीं दिया जा सकता है. कुछ लोगों ने यह धारणा बना रखी है कि वे मंदिर बनाकर या मूर्ति लगाकर सार्वजनिक स्थानों पर कभी भी अतिक्रमण कर सकते हैं. हालाँकि, ऐसे कई मामले भी सामने आए हैं जब कोर्ट ने धार्मिक सद्भाव बिगड़ने का खतरा बताकर अन्य धर्मों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करने से इनकार करते हुए उसे खारिज कर दी है.


मगर जब इसी हिंदू धर्म परिषद ने ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों से संबंधित जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी तो कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था. कोर्ट का तर्क था कि इससे भाईचारा बिगड़ सकता है.


जब इसी हिंदू धर्म परिषद ने ईसाइयों द्वारा जारी प्रलोभन एवं धर्मांतरण को लेकर याचिका कोर्ट में दी तो सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 25 मार्च 2022 खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने ईसाइयों की गतिविधियों की निगरानी के लिए एक बोर्ड बनाने की माँग वाली याचिका पर विचार करने से ही मना कर दिया. 


पीठ ने कहा, “इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इस मामले में न्यायालय द्वारा उचित आदेश जारी करना सही नहीं है.

कर्नाटक के हिंदू मंदिरों में सिर्फ हिंदू दुकान चलाएंगे, मुसलमान नहीं बेच सकेंगे समान

हमने कुछ दिन पहले हिन्दू मंदिरों में मुसलमानों द्वारा प्रसाद बेचे जाने का विरोध किया था. अब कर्नाटक में राज्य के कई मंदिरों ने अपने वार्षिक महोत्सव कार्यक्रमों में स्टॉल लगाने की अनुमति केवल हिंदुओं तक सीमित कर दी है. हाल में पुत्तुर जिले में स्थित महालिंगेश्वर मंदिर ने शहर में होने वाले वार्षिक जात्रा उत्सव के मौके पर केवल हिंदुओं को ही स्टॉल लगाने की अनुमति दी है. ये समारोह 10 से 20 अप्रैल के बीच शहर में होगा. ऐसे में अस्थायी स्टालों की नीलामी केवल हिंदुओं के लिए सीमित है. मंदिर के प्रशासन ने इस संबंध में 19 मार्च 2022 को द हिंदू में एक नोटिस भी निकाला.


इससे पहले शिवमोगा में कोटे मरिकंबा जात्रा की आयोजन समिति ने 22 मार्च से शुरू हुए 5 दिवसीय उत्सव के दौरान केवल हिंदू दुकानदारों को अपनी दुकानें स्थापित करने की अनुमति देने का फैसला किया था. इसी तरह कर्नाटक के उडुपी में होसा मारिगुडी मंदिर ने भी अपने वार्षिक मेले में केवल हिंदू विक्रेताओं को दुकानें आवंटित करने का निर्णय लिया. मंदिर ने यह फैसला क्षेत्र में हुए हिजाब विवाद के बाद लिया और समिति ने ऐलान किया कि वार्षिक सुग्गी मारी पूजामें केवल हिंदू दुकानें लगाएँगे.


शिवमोगा और उडुपी की तरह महालिंगेश्वर मंदिर ने भी इस रास्ते को अपनाया है. नोटिस में लिखा है कि केवल हिंदू विक्रेताओं को ही जोथ्रावटी उत्सव में भाग लेने की अनुमति है, जो कि अप्रैल में होगा. जात्रा के दौरान मंदिर के सामने पूजा 29 मई को होगी और अस्थायी दुकानदारों को  मंदिर कार्यालय द्वारा दी गई जमीन पर दुकान लगाने की अनुमति होगी.

26 March 2022

कोर्ट ने दिया भगवान शिव को हाजिर होने का आदेश, अदालत पहुंचे महादेव शिव, तो नदारद हुए जज और तहसीलदार- हिन्दू भावनाओं से कोर्ट का खिलवाड़

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में हिन्दू आस्था के साथ महाखिलवाड़ हुआ है. हिन्दू भावनाओं को इस कदर ठेस पहुंचाया गया है कि सुनकर किसी के भी मन में गुसा और आक्रोस भर जाय. रायगढ़ के तहसील कोर्ट ने 10 लोगों समेत भगवान शिव को नोटिस जारी कर कोर्ट में तलब किया. उपस्थित न होने पर जुर्माना सहित बेदखली की चेतावनी दी गई. जब ये नोटिस गाँव में पहुंचा तो चारो तरफ सनसनी फ़ैल गई. 


25 मार्च को तहसील कार्यालय रायगढ़ में भगवान शिव सहित दर्जनों लोग पेशी में उपस्थित हुए. मगर एक बार फिर जन भावनाओं का अपमान हुआ, साथ हीं महादेव शिव के सम्मान को भी आघात पहुंचा...दरअसल नोटिस जारी करने वाले जज साहब और न्यायालय के अधिकारी कहीं और व्यस्त थे. नतीजा ये हुआ कि महादेव भगवान शिव को पेशी के लिए अगली तारीख दे दी गई. न्यायालय में आराध्य देव महादेव को तारीख पर तारीख का सिलसिला शुरू हुआ. अब अगली सुनवाई 13 अप्रैल 2022 को होगी. आपको ये पूरा घटनाक्रम भले ही सुनने में अटपटा लगे मगर ये आज कि हकीकत है जो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में देखने को मिला है.


मामला रायगढ़ नगर निगम वार्ड नंबर 25 के अंतर्गत कौहाकुंडा क्षेत्र का है, जहां नायब तहसीलदार रायगढ़ के द्वारा सरकारी जमीन और तालाब में कब्जे को लेकर 10 लोगों को नोटिस जारी किया था, जिसमे महादेव भगवान शिव का भी नाम शामिल था. इतना ही नहीं तहसील कार्यालय के नोटिस में भगवान शिव सहित सभी को चेतावनी भी दी गई थी. ये चेतावनी ये थी कि अगर सुनवाई में नहीं आए तो 10 हजार का जुर्माना देना होगा और कब्जे से बेदखल कर दिया जाएगा.


नायब तहसीलदार के द्वारा जो 10 कब्ज़ा धारियों को नोटिस जारी किया गया था, उसमे छठवें नंबर पर महादेव शिव मंदिर का नाम है. जबकि यह शिव मंदिर सार्वजनिक है. यहां पूरा गाँव हर रोज पूजा पाठ के आता है. नोटिस में मंदिर के ट्रस्टी, प्रबंधक या पुजारी को संबोधित नहीं किया गया है बल्कि सीधे शिव भगवान को ही नोटिस जारी कर दिया गया. पेशी की तिथि पर वार्ड पार्षद सपना सिदार सहित दर्जनों लोग शिव मंदिर के शिवलिंग को लेकर पेशी में पहुंच गए.


तहसीलदार के चेंबर के बाहर सुचना चस्पा कर दिया गया की पीठासीन अधिकारी किसी अन्य शासकीय कार्यो में व्यस्त है. मामले में जवाबदार अधिकारी ने  शासकीय कार्य में बाहर होने की बात कह कुछ भी कहने से मना कर दिया और बयान देने से बचते दिखे. निवासी सुधा रजवाड़े ने बिलासपुर हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी, जिसमें शिव मंदिर समेत 16 लोगों पर सरकारी भूमि और तालाब पर कब्जा करने का आरोप लगा था. हाईकोर्ट में इस मामले को लेकर सुनवाई हुई थी. इस मामले की चर्चा पूरे प्रदेश में हो रही है. ऐसे में अब देखना ये होगा कि भगवान शिव के साथ जज साहब क्या न्याय करते हैं.


कुछ महत्वपूर्ण सवाल


01.      किसी मंदिर केस में भगवान को हाज़िर हो का आदेश कैसे दिया ?

02.      किसी मस्जिद केस में अल्लाह हाज़िर हो का नोटिस दिया है ?

03.      किसी चर्च केस में यीशु या मैरी को उपस्थिती का आदेश दिखाओ ?

04.      कोर्ट सिर्फ हिन्दू धार्मिक मामले में हीं क्यों हस्तक्षेप करता है, अन्य धर्मों में क्यों नहीं ? 

05.      हिन्दू आस्था के साथ खिलवाड़ क्या हिन्दू समाज का अपमान नहीं है ?

06.      हिन्दू संगठन और संत समाज ऐसे मामले में अक्सर चुप्पी क्यों साध जाते हैं ?

07.      हिन्दू धार्मिक स्थलों पर बढ़ते लैंड जिहाद या सरकारी क़ब्ज़े के रोक के लिए अबतक कोई कानून क्यों नहीं ?

08.      आराध्य शिव को नोटिस जारी करते समय कोर्ट ने प्राण प्रतिष्ठा किए हुए भगवान का ध्यान क्यों नहीं रखा ?

09.      छत्तीसगढ़ सरकार ने अभी तक इस पर सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की ?

10.      आदेश देने वाले न्यायाधीश ने अभी तक भूल-चूक तक क़बूल क्यों नहीं की ?

16 March 2022

श्री बांके बिहारी जी की नगरी वृंदावन में भव्य उत्सव के साथ अध्यात्मिक संगीतमय होली

काशी मथुरा के होलिका के साथ हीं वृंदावन कि होली भी काफी प्रसिद्ध है. वृंदावन में फूलों वाली होली मनाई जाती है. इसके लिए श्री बांके बिहारी जी मंदिर के द्वार खोले जाते हैं और लोगों को उनके दर्शन करने का मौका दिया जाता है. यहां पर पुजारी लोगों पर फूल फेंकते हैं, इस तरह लोग फूलों से होली मनाते हैं. फिर होली के दिन, बांके बिहारी मंदिर में भव्य उत्सव मनाया जाता है. इस दिन लोग एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं. पूरे शहर में, भजनों और अन्य आध्यात्मिक गीतों के साथ होली का जश्न मनाया जाता है. श्री बांकेबिहारी मंदिर में रंग की होली रंगभरनी एकादशी से शुरू होती है. ठाकुर जी को लगाने के लिए एक खास तरह का रंग तैयार किया जाता है. इसे टेसू के फूलों से तैयार किया जाता है.


वृंदावन में उत्सव समाप्त होने के बाद मथुरा में उत्वस शुरू किया जाता है. मथुरा के श्री द्वारकाधीश मंदिर में कई तरह के रंग बिरंगे और सुगन्धित फूलों से होली मनाई जाती है. होली के दिन द्वारकाधीश मंदिर में भव्य समारोह आयोजित किए जाते हैं. 


उत्सव सिर्फ यहीं पर समाप्त नहीं होता है.. होली के एक दिन बाद शहर के बाहर दाऊजी मंदिर में दर्शन किए जाते हैं. यहां महिलाएं पुरुषों के कपड़े फाड़ देती हैं और उन्हें अपने फटे-पुराने परिधानों से पीटती हैं. पूरे वृन्दावन में चारो तरफ होली के उत्सव से माहौल और हीं मनोरम हो जता है.


वृंदावन होली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस दिन श्री बांके बिहारी का भजन कीर्तन किया जाता है और साथ ही साथ भव्य उत्सव को अध्यात्मिक गीत से सजाया जाता है. जिससे उत्सव में  खुशी की लहरउत्पन्न हो सके. जिसके परिणाम स्वरूप भक्तगण बांके बिहारी भक्ति में डूब सके.

योगेश्वर श्री कृष्ण जी कि नगरी मथुरा में होली ईश्वर के सामीप्य का अदभुत अनुभव और आनंद

भारत परम्पराओं और विविधता से भरा हुआ देश है. यहां के उत्सव यहां की संस्कृति का दर्पण हैं. हर त्योहार की अपनी-अपनी महत्ता और विशेषता अपने में समेटे हुई है. सभी त्योहारों को मनाने का अपना अलग हीं अंदाज़ है. यूँ तो यहां बहुत से त्योहार मनाये जाते हैं पर कुछ मुख्य त्योहार हैं जो विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हैं. उनमें से होली सबसे खास है. होली जिसे हम रंगोत्सव भी कहते हैं.. यानी रंगों का त्योहार. बात रंगों की चले और श्री कृष्ण जी का नाम ना लिया जाए तो बात थोड़ी अधूरी सी लगती है...क्योंकि भगवान कृष्ण का जीवन हर रंग से भरा हुआ है जैसे उनका साँवला वदन और श्वेत निर्मल मन, उनका रंगीन मोरपंख. ऐसे तो आज पूरा देश होली के रंगों मे मदमस्त है पर जो सबसे अनोखी होली खेलते हैं वो हैं श्री बाँके बिहारी जी.


होली की शुरुआत ही होती है मथुरा-वृंदावन से यानी श्री बाँके बिहारी जी मंदिर से जहाँ कृष्ण कन्हैया सबसे पहले अपने भक्तों के संग होली खेलते है चूँकि कान्हा ने मथुरा में जन्म लिया और वृंदावन में अपनी अदभुत लीलाएँ की हैं इसलिए इन दोनो जगह होली खास महत्व रखती है. वृंदावन में तो जनवरी के महीने से होली का उत्साह दिखने लगता है. बसन्त पंचमी को प्रभु को गुलाल अबीर लगाया जाता है. यहाँ श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर की विशेषता है कि यहाँ होली के एक दिन पहले होली खेली जाती है. उसके बाद अगले दिन नगर भर में लोग होली खेलते हैं. ये मान्यता है इस दिन श्री भगवान को सबसे पहले रंग लगाया जाता है. इसे छोटी होली भी कहते हैं.


मंदिर के पट खोले जाने के बाद सबसे पहले टेशू, गुलाब आदि के फूलों के बने पक्के रंग को श्री बाँके बिहारी जी को लगाया जाता है फिर उन पर ढेरों ढेर फूल बरसा कर अबीर गुलाल लगा कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है फिर लोगों के लिए उनका द्वार खोल दिया जाता है. भक्त- गण जम कर कान्हा पर रंग, अबीर- गुलाल, फूल इत्यादि बरसाते हैं. पूरा मंदिर गोविंद मय हो जाता है, चारो ओर कान्हा के नाम की जयकार होती है, श्री बाँके बिहारी के नाम को प्रेम से पुकारा जाता है. हर व्यक्ति यही महसूस करता है जैसे कान्हा उसी के साथ होली खेल रहे हैं. लगभग 1:30 बजे ये उत्सव समाप्त होता है. मथुरा वृंदावन की होली खासकर श्री बाँके बिहारी मंदिर की होली हमे जीवन की सम्पूर्णता का परिचय कराती है.


ईश्वर के सामीप्य का अदभुत अनुभव कराती है. ये होली बहुत खास है क्योंकि इसमें भक्ति है प्रेम है और ईश्वर के प्रत्यक्ष होने का एहसास है. बरसाने में होली से एक हफ्ते पहले से ही होली का उत्सव शुरू हो जाता है. परंपरा के अनुसार, इस दिन नंदगांव के पुरूष बरसाने आकर राधा रानी के मंदिर पर झंडा फहराने की कोशिश करते हैं. इसी समय बरसानी की महिलाएं एकजुट होती हैं और उन्हें लट्ठ से खदेड़ने की कोशिश करती हैं. इस समय का माहौल देखने लायक होता है. इसी दौरान पुरूष, महिलाओं पर गुलाल छिड़ककर उनका ध्यान बांटने की कोशिश करते हैं और झंडा फहराने का प्रयास करते हैं. फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को बरसाने में लट्ठमार होली मनाई जाती है.

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में देवस्थान से लेकर महाश्मसान तक होली के रंग

देशभर में होली की धूम और उत्सव चल रहा है. मगर बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की होली कुछ खास है. यहां पर देवस्थान से लेकर महाश्मसान तक होली के रंग विरंगे उत्सव बाबा की नगरी में देखने को मिलती है. ऐसे तो कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ की नगरी में जन्म और मृत्यु दोनों मंगल है. यही कारण है कि यहां पर होली की अलबेली रंग कुछ अलग हीं छटा बिखेरती है. ऐसी अलबेली अविनाशी काशी में खेली जाती है दुनिया कि सबसे अनूठी जलती चिता की राख और भस्म से होली. महाश्मशान मणिकर्णिका पर बाबा मसान नाथ के चरणों में चिता की राख समर्पित कर फाग और राग-विराग दोनों का ही उत्सव आरम्भ हो जाता है. यह पूरा दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि जैसे भूतभावन महादेव स्वयं वहां अपने देवगणों के साथ साक्षात प्रकट हो गए हों.


हर वर्ष रंगभरी एकादशी के अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली होती है. लेकिन माहौल बनाने के लिए रंगभरी एकादशी के दिन भी हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर चिता की राख से होली खेलकर काशी में चिता-भस्म की होली की शुरुआत हो जाती है. इसी दिन से बनारस में रंग-गुलाल खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिनों तक चलता हैकाशी में मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेलने और उत्सव मनाने के लिए भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी, औघड़, सन्यासी, अघोरी, कपालिक, शैव-शाक्त सब आते हैं.

महादेव शिव अपने ससुराल पक्ष के निवेदन पर अपने गणों को जब माता पार्वती का गौना लेने जाते हैं तो बाहर ही रोक देते हैं. क्योंकि, जो हाल महाशिवरात्रि पर शिव के विवाह में हुआ था वही अराजकता दोबारा पैदा न हो जाए. इसलिए अगले दिन मिलने का वादा करके सबको महाश्मशान बुला लेते है जिनको गौना में बुलाने पर उपद्रव तय था.


काशी की आदिकाल से चली आ रही यह परंपरा उसे अविमुक्त क्षेत्र बनाती है. जहां आम से लेकर खास तक, संत से लेकर सन्यासी तक चिता भस्म को विभूति मानकर माथे पर रमाए भाँग-बूटी छाने होली खेलते हैं. ऐसे में राग-विराग की नगरी काशी की प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराएँ भी निराली हैं. जहां रंगभरी एकादशी पर महादेव काशी विश्वनाथ अड़भंगी बारात के साथ माता पार्वती का गौना कराकर ले जाते हैं तो वहीं दूसरे दिन बाबा अप्पने वादे के अनुसार गणों के साथ उत्सव मनाने महाश्मशान मणिकर्णिका भी जाते हैं. जहां चिता भस्म के साथ ये होली खेली जाती है.

परंपराओं के अनुसार भगवान शिव के स्वरूप बाबा मशान नाथ की पूजा कर महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर उनके गण जलती चिताओं के बीच गुलाल की जगह चिता-भस्म की राख से होली खेलते हैं. हर वर्ष काशी मोक्षदायिनी सेवा समिति द्वारा बाबा कीनाराम स्थल रवींद्रपुरी से बाबा मसान नाथ की परंपरागत ऐतिहासिक शोभायात्रा निकाली जाती है.

लौकिक परंपरा की बात करें तो मणिकर्णिका पर जहां अनवरत चिताएं जलती रहती हैं वहां पारम्परिक चिता भस्म की होली खेलने न केवल देश के कोने-कोने से साधक और शिव भक्त आते हैं बल्कि विदेशों से भी लोग पहुँचते हैं.

वहीं इस सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी काशी में हर वर्ष रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है. वे दूल्हे के रूप में सजाए जाते हैं. फिर विधिपूर्व​क हर्षोल्लास से बाबा विश्वनाथ के संग माता गौरा का गौना कराया जाता है. पूरी परंपरा का बनारस में विधिवत पालन होता है.

काशीवासी आज भी बाराती, भक्त तो शिव के गण बनते हैं. महाशिवरात्रि पर जो गण बाराती बनकर शिव विवाह में शामिल हुए थे वही अब बाबा की पालकी लेकर गौना कराने निकलते हैं. माँ गौरी की विदाई कराकर शिव जब काशी विश्वनाथ मंदिर की तरफ प्रस्थान करते हैं तो काशी में शिव के गण बने शिव-भक्त रंग-गुलाल उड़ाते हुए साथ चलते हैं. ये पूरा मनोरम दृश्य मनो स्वर्ग की छटा बिखेर रही हो.

बनारस में कहा जाता है कि महादेव कितनी भी मस्ती में क्यों न हों लेकिन अपने दृश्य-अदृश्य उन गणों को उत्सव में बिसरा दें यह हो नहीं सकता. वे गण जो थोड़े डरावने हैं. वही जो बिना बुलाए जब शिव बारात में सब चलें गए तो द्वारचार में माँ गौरा की माँ मैना देवी ऐसी बारात और बारातियों को देखकर बेहोश हो गई थीं. इसलिए, कहा जाता है कि गौना में ऐसे भूत-पिचास, अदृश्य आत्माएँ थोड़ी दूरी बना लेती हैं ताकि सब सकुशल संपन्न हो जाए.

काशी की संगीत परंपरा भी अपने आप में अद्भुत है. बनारस की होली भी बनारस के मिजाज के अनुसार ही अड़भंगी है. दुनिया का इकलौता शहर जहाँ अबीर, गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली होती है. घाट से लेकर गलियों तक होली के हुड़दंग का हर रंग अद्भुत होता है. महादेव की नगरी काशी की होली भी अड़भंगी शिव की तरह ही निराली है.

परंपराओं के अनुसार, आज भी महाश्मशान मणिकर्णिका पर, भगवान शिव के स्‍वरुप बाबा मशाननाथ की पूजा कर श्‍मशान घाट पर चिता भस्‍म से उनके गण होली खेलते हैं। कहते शैव-शाक्त, अघोरी से लेकर तमाम महादेव के भक्त-गण इस अवसर का साक्षी होने के लिए कई जन्मों तक प्रतीक्षा करते हैं. कहा तो यह भी जाता है जब तक महादेव न बुलाएं तब तक किसी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता कि वह स्वयं काशी में महादेव संग होली खेलने का पुण्य अवसर प्राप्त करे.


काशी मोक्ष की नगरी है और दूसरी मान्‍यता यह भी है कि यहां भगवान शिव स्‍वयं तारक मंत्र देते हैं. लिहाजा यहाँ पर मृत्‍यु भी उत्‍सव है और होली पर चिता की भस्‍म को उनके गण अबीर और गुलाल की भाँति एक दूसरे पर फेंककर सुख-समृद्धि-वैभव संग शिव की कृपा पाने का उपक्रम भी करते हैं.

आपको यह भी बता दूँ कि होली बनारस और बिहार के गया में बुढ़वा मंगल तक चलता है. होली के बाद आने वाले मंगलवार को काशीवासी बुढ़वा मंगल या वृद्ध अंगारक पर्व भी इसे कहते हैं. काशी में होली जहां युवाओं के जोश का त्यौहार है तो बुढ़वा मंगल में बुजुर्गों का उत्साह भी दिखाई पड़ता है.

होली की अध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक, पौराणिक, जैविक, ऐतिहासिक, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व।

भारत में होली का त्यौहारोत्सव सभी के जीवन मे बहुत सारी खुशियॉ और रंग भरता है, लोगों के जीवन को रंगीन बनाने के कारण इसे आमतौर पर 'रंग महोत्सव' कहा गया है। यह लोगो के बीच एकता और प्यार लाता है। इसे "प्यार का त्यौहार" भी कहा जाता है। यह एक पारंपरिक और सांस्कृतिक हिंदू त्यौहार है, जो प्राचीन समय से पुरानी पीढियों द्वारा मनाया जाता रहा है और प्रत्येक वर्ष नयी पीढी द्वारा इसका अनुकरण किया जा रहा है।


यह एक प्यार और रंगो का त्यौहार है जो प्रत्येक वर्ष हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा आनन्द और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह मन को तरोताज़ा करने का त्यौहार है,जो न केवल मन को तरोताजा करता है बल्कि रिश्तों को भी करता है। यह ऐसा त्यौहार है जिसे लोग अपने परिवार के सदस्यो और रिश्तेदारों के साथ प्यार और स्नेह वितरित करके मनातें हैं जो उनके रिश्तों को भी मजबूती प्रदान करता हैं। यह एक ऐसा त्यौहार हैं जो लोगों को उनके पुराने बुरे व्यवहार को भुला कर रिश्तों की एक डोर मे बॉधता हैं।


इस दिन लोग लाल रंग और लाल गुलाल का प्रयोग करते है जो केवल लाल रंग नही है बल्कि एक दूसरे से प्यार और स्नेह का भी प्रतीक हैं। वास्तव मे यह न केवल लोगों को बाहर से रंगता हैं, बल्कि उनकी आत्मा को भी विभिन्न रंगों मे रंग देता हैं। इसे साधारण त्यौहार कहना उचित नही है क्योंकि यह बिना रंगे व्यक्तियों को रंग देता हैं। यह लोगों के व्यस्त जीवन की सामान्य दिनचर्या मे एक अल्पविराम लाता हैं।


यह भारतीय मूल के हिंदुओं द्वारा हर जगह मनाया जाता है हालांकि, यह मुख्य रूप से भारत और नेपाल के लोगों द्वारा मनाया जाता है। यह एक त्यौहारी रस्म है, जिसमे सब एक साथ होलिका के आलाव को जलाते है, गाना गाते है और नाचते है, इस मिथक के साथ कि सभी बुरी आदतें और बुरी शक्तियॉ होलिका के साथ जल गयी और नई ऊर्जा और अच्छी आदतों से अपने जीवन में उपलब्धियों को प्राप्त करेंगें।

होली खेलने के लिए वे खुले सड़क, पार्क और इमारतों में पानी की बंदूकों (पिचकारी) और गुब्बारे का उपयोग करते है। कुछ संगीत वाद्ययंत्र गीत गाने और नृत्य करने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। वे अपना पूरा दिन रंग, गायन, नृत्य, स्वादिष्ट चीजें खाने, पीने, एक-दूसरे के गले मिलने, दोस्तों के घर पर मिलने और बहुत सारी गतिविधियों मे व्यतीत करते है।

होली कब मनाई जाती है

हिंदू कैलेंडर के अनुसार, होली महोत्सव फाल्गुन पूर्णिमा में मार्च (या कभी कभी फरवरी के महीने में) के महीने में वार्षिक आधार पर मनाया जाता है। यह त्यौहार बुराई की सत्ता पर अच्छाई की विजय का भी संकेत है। यह ऐसा त्यौहार है जब लोग एक दूसरे से मिलते हैं, हँसते हैं, समस्याओं को भूल जाते हैं और एक दूसरे को माफ करके रिश्तों का पुनरुत्थान करते है। यह चंद्र मास, फाल्गुन की पूर्णिमा के अंतिम दिन, गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में, बहुत खुशी के साथ मनाया जाता है। यह बहुत सारी मस्ती और उल्लास की गतिविधियों का त्यौहार है जो लोगों को एक ही स्थान पर बाँधता है। हर किसी के चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान होती है और अपनी खुशी को दिखाने के लिए वे नए कपड़े पहनते हैं।

होली क्यों मनायी जाती है

हर साल होली के त्यौहार को मनाने के कई कारण हैं। यह रंग, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ, एकता और प्रेम का भव्य उत्सव है। परंपरागत रूप से, यह बुराई की सत्ता पर या बुराई पर अच्छाई की सफलता के रुप मे मनाया जाता है। यह "फगवाह" के रूप में नामित किया गया है, क्योंकि यह हिन्दी महीने, फाल्गुन में मनाया जाता है।


होली शब्द "होला" शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है नई और अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए भगवान की पूजा। होली के त्योहार पर होलिका दहन इंगित करता है कि, जो भगवान के प्रिय लोग है उन्हे पौराणिक चरित्र प्रहलाद की तरह बचा लिया जाएगा, जबकि जो भगवान के लोगों से तंग आ चुके है उन्हे एक दिन पौराणिक चरित्र होलिका की तरह दंडित किया जाएगा ।


होली का त्यौहार मनाने के पीछे (भारत में पौराणिक कहानी के) कई ऐतिहासिक महत्व और किंवदंतियों रही हैं। यह कई सालों से मनाया जाने वाला, सबसे पुराने हिंदू त्यौहारों में से एक है। प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न अवशेष पाये गये हैं। अहमदनगर चित्रों और मेवाड़ चित्रों में 16 वीं सदी के मध्यकालीन चित्रों की मौजूदा किस्में हैं जो प्राचीन समय के दौरान होली समारोह का प्रतिनिधित्व करती है।

होली का त्योहार प्रत्येक राज्य में अलग-अलग है जैसे देश के कई राज्यों में, होली महोत्सव लगातार तीन दिन के लिए मनाया जाता है जबकि, अन्य विभिन्न राज्यों में यह एक दिन का त्यौहार है। लोग पहला दिन होली (पूर्णिमा के दिन या होली पूर्णिमा), घर के अन्य सदस्यों पर रंग का पाउडर बरसाकर मनाते हैं। वे एक थाली में कुछ रंग का पाउडर और पानी से भरे पीतल के बर्तन डालने से समारोह शुरू करते हैं। त्यौहार का दूसरा दिन "पुनो" कहा गया इसका अर्थ है कि त्यौहार का मुख्य दिन, जब लोग मुहूर्त के अनुसार होलिका का अलाव जलाते है।


यह प्रक्रिया बुराई के ऊपर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में होलिका और प्रहलाद के प्राचीन इतिहास के मिथक के रुप मनाया जाता है। तीसरे दिन का त्योहार "पर्व" कहलाता है अर्थात् त्योहार का अंतिम दिन, जब लोग अपने घरों से बाहर आते है, एक दूसरे को गले लगाते है, माथे पर गुलाल लगाते है, रंगों से खेलते है, नाचते है, गाते है, एक दूसरे से मिलते है, स्वादिष्ट व्यंजन खाते हैं और बहुत सारी गतिविधियॉ करते है। रीति रिवाजों और परंपराओं के अनुसार होली उत्तर प्रदेश में 'लट्ठमार होली' के रूप में, असम में "फगवाह" या "देओल", बंगाल में 'ढोल पूर्णिमा", पश्चिम बंगाल में ''ढोल जात्रा", और नेपाल आदि में "फागू" नामों से लोकप्रिय है।

मथुरा और वृंदावन में होली

होली महोत्सव मथुरा और वृंदावन में एक बहुत प्रसिद्ध त्यौहार है। भारत के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले कुछ अति उत्साही लोग मथुरा और वृंदावन में विशेष रूप से होली उत्सव को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं। मथुरा और वृंदावन महान भूमि हैं जहां, भगवान कृष्ण ने जन्म लिया और बहुत सारी गतिविधियों की। होली उनमें से एक है। इतिहास के अनुसार, यह माना जाता है कि होली त्योहारोत्सव राधा और कृष्ण के समय से शुरू किया गया था। राधा और कृष्ण शैली में होली उत्सव के लिए दोनों स्थान बहुत प्रसिद्ध हैं।


मथुरा में लोग मजाक-उल्लास की बहुत सारी गतिविधियों के साथ होली का जश्न मनाते है। होली का त्योहार उनके लिए प्रेम और भक्ति का महत्व रखता है, जहां अनुभव करने और देखने के लिए बहुत सारी प्रेम लीलाऍ मिलती है। भारत के हर कोने से लोगों की एक बड़ी भीड़ के साथ यह उत्सव पूरे एक सप्ताह तक चलता है। वृंदावन में बांके-बिहारी मंदिर है जहां यह भव्य समारोह मनाया जाता है। मथुरा के पास होली का जश्न मनाने के लिए एक और जगह है गुलाल-कुंड जो की ब्रज में है, यह गोवर्धन पर्वत के पास एक झील है। होली के त्यौहार का आनंद लेने के लिये बड़े स्तर पर एक कृष्ण-लीला नाटक का आयोजन किया जाता है।

बरसाने में होली या लठमार होली

बरसाना में लोग हर साल लट्ठमार होली मनाते हैं, जो बहुत ही रोचक है। निकटतम क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में होली उत्सव को देखने के लिए आते हैं। बरसाना उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में एक शहर है। लट्ठमार होली, छड़ी के साथ एक होली उत्सव है जिसमें महिलाऍ छड़ी से पुरुषों को मारती है। यह माना जाता है कि, छोटे कृष्ण होली के दिन राधा को देखने के लिए बरसाने आये थे, जहां उन्होंने उन्हें और उनकी सखियों को छेड़ा और बदले में वह भी उनके द्वारा पीछा किये गये थे। तब से, बरसाने और नंदगांव में लोग छड़ियों के प्रयोग से होली मनाते हैं जो लट्ठमार होली कही जाती है।


आस-पास के क्षेत्रों से हजारों लोग बरसाने में राधा रानी मंदिर में लट्ठमार होली का जश्न मनाने के लिए एक साथ मिलते है। वे होली के गीत भी गाते हैं और श्री राधे और श्री कृष्ण का बयान करते है। प्रत्येक वर्ष नंदगांव के गोप या चरवाहें बरसाने की गोपियों या महिला चरवाहों के साथ होली खेलते है और बरसाने के गोप या चरवाहें नंदगांव की गोपियों या महिला चरवाहों के साथ होली खेलते है। कुछ सामूहिक गीत पुरुषों द्वारा महिलाओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए गाये जाते है; बदले में महिलाऍ आक्रामक हो जाती हैं और लाठी के साथ पुरुषों को मारती है। यहाँ पर कोल्ड ड्रिंक या भांग के रूप में ठंडई पीने की परंपरा है।

होली महोत्सव का इतिहास और महत्व

होली का त्यौहार अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं की वजह से बहुत प्राचीन समय से मनाया जा रहा है। इसका उल्लेख भारत की पवित्र पुस्तकों,जैसे पुराण, दसकुमार चरित, संस्कृत नाटक, रत्नावली और भी बहुत सारी पुस्तकों में किया गया है। होली के इस अनुष्ठान पर लोग सड़कों, पार्कों, सामुदायिक केंद्र, और मंदिरों के आस-पास के क्षेत्रों में होलिका दहन की रस्म के लिए लकड़ी और अन्य ज्वलनशील सामग्री के ढेर बनाने शुरू कर देते है।

लोग घर पर साफ- सफाई, धुलाई, गुझिया, मिठाई, मठ्ठी, मालपुआ, चिप्स आदि और बहुत सारी चीजों की तैयारी शुरू कर देते है। होली पूरे भारत में हिंदुओं के लिए एक बहुत बड़ा त्यौहार है, जो ईसा मसीह से भी पहले कई सदियों से मौजूद है। इससे पहले होली का त्यौहार विवाहित महिलाओं द्वारा पूर्णिमा की पूजा द्वारा उनके परिवार के अच्छे के लिये मनाया जाता था। प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस त्यौहार का जश्न मनाने के पीछे कई किंवदंतियों रही हैं।


होली हिंदुओं के लिए एक सांस्कृतिक, धार्मिक और पारंपरिक त्यौहार है। होली शब्द "होलिका" से उत्पन्न है। होली का त्यौहार विशेष रूप से भारत के लोगों द्वारा मनाया जाता है जिसके पीछे बड़ा कारण है।

होली के क्षेत्र वार उत्सव के अनुसार, इस त्यौहार के अपने स्वयं के पौराणिक महत्व है, जिसमें सांस्कृतिक, धार्मिक और जैविक महत्व शामिल है। होली महोत्सव का पौराणिक महत्व ऐतिहासिक किंवदंतियों के अंतर्गत आता है जो इस त्यौहार के साथ जुड़ी है।

होली की पौराणिक महत्व

होली उत्सव का पहला पौराणिक महत्व प्रहलाद, होलिका और हिरण्याकश्यप की कथा है। बहुत समय पहले, हिरण्याकश्यप नामक एक राक्षस राजा था। उसकी बहन का नाम होलिका था और पुत्र प्रह्लाद था। बहुत वर्षों तक तप करने के बाद, उसे भगवान ब्रह्मा द्वारा पृथ्वी पर शक्तिशाली आदमी होने का वरदान प्राप्त हुआ। उन शक्तियों ने उसे अंहकारी बना दिया, उसे लगा कि केवल वह ही अलौकिक शक्तियों वाला भगवान है। वह तो उसने हर किसी से खुद को भगवान के रूप में उसे पूजा करने की मांग शुरू कर दी।

लोग बहुत कमजोर और डरे हुए थे और बहुत आसानी से उसका अनुकरण करना शुरू कर दिया, हालांकि, उसका बेटा जिसका नाम प्रहलाद था, अपने ही पिता के फैसले से असहमत था। प्रहलाद बचपन से ही बहुत धार्मिक व्यक्ति था, और हमेशा भगवान विष्णु को समर्पित रहता था। प्रहलाद का इस तरह के व्यवहार उसके पिता, हिरणयाकश्प को बिल्कुल पसन्द नहीं था। उसने प्रलाद को कभी अपना पुत्र नही माना और उसे क्रूरता से दण्ड देना शुरु कर दिया। हालांकि, प्रहलाद हर बार आश्चर्यजनक रुप से कुछ प्राकृतिक शक्तियों द्वारा बचाया गया।


अंत में, वह अपने बेटे के साथ तंग आ गया और कुछ मदद पाने के लिए अपनी बहन होलिका को बुलाया। उसने अपने भतीजे को गोद में रख कर आग में बैठने की एक योजना बनाई, क्योंकि उसे आग से कभी भी नुकसान न होने का वरदान प्राप्त था। उसने आग से रक्षा करने के लिए एक विशेष शाल में खुद को लपेटा और प्रहलाद के साथ विशाल आग में बैठ गयी। कुछ समय के बाद जब आग बडी और भयानक हुई उसकी शाल प्रहलाद को लपेटने के लिए दूर उडी। वह जल गयी और प्रहलाद को उसके भगवान विष्णु द्वारा बचा लिया गया। हिरण्याकश्प बहुत गुस्से में था और अपने बेटे को मारने के लिए एक और चाल सोचना शुरू कर दिया।वह दिन जब प्रहलाद को बचाया गया था होलिका दहन और होली को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक के रूप में मनाना शुरू कर दिया।


होली महोत्सव का एक अन्य पौराणिक महत्व राधा और कृष्ण की कथा है। ब्रज क्षेत्र में होली के त्यौहार को मनाने के पीछे राधा और कृष्ण का दिव्य प्रेम है। ब्रज में लोग होली दिव्य प्रेम के उपलक्ष्य में को प्यार के एक त्योहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन, लोग गहरे नीले रंग की त्वचा वाले छोटे कृष्ण को और गोरी त्वचा वाली राधा को गोपियों सहित चरित्रों को सजाते है। भगवान कृष्ण और अन्य गोपियों के चहरे पर रंग लगाने जाते थे।


दक्षिणी भारतीय क्षेत्रों में होली के अन्य किंवदंती, भगवान शिव और कामदेव की कथा है। लोग होली का त्यौहार पूरी दुनिया को बचाने के लिये भगवान शिव के ध्यान भंग करने के भगवान कामदेव के बलिदान के उपलक्ष्य में मनाते है।

होली का त्यौहार मनाने के पीछे ऑगरेस धुंन्धी की गाथा प्रचलित है। रघु के साम्राज्य में ऑगरेस धुंन्धी बच्चों को परेशान करता था। होली के दिन वह बच्चों के गुर से खुद दूर भाग गया।

होली की सांस्कृतिक महत्व

होली महोत्सव मनाने के पीछे लोगों की एक मजबूत सांस्कृतिक धारणा है। इस त्योहार का जश्न मनाने के पीछे विविध गाथाऍ लोगों का बुराई पर सच्चाई की शक्ति की जीत पर पूर्ण विश्वास है। लोग को विश्वास है कि परमात्मा हमेशा अपने प्रियजनों और सच्चे भक्तो को अपने बङे हाथो में रखते है। वे उन्हें बुरी शक्तियों से कभी भी हानि नहीं पहुँचने देते। यहां तक कि लोगों को अपने सभी पापों और समस्याओं को जलाने के लिए होलिका दहन के दौरान होलिका की पूजा करते हैं और बदले में बहुत खुशी और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। होली महोत्सव मनाने के पीछे एक और सांस्कृतिक धारणा है, जब लोग अपने घर के लिए खेतों से नई फसल लाते है तो अपनी खुशी और आनन्द को व्यक्त करने के लिए होली का त्यौहार मनाते हैं।

होली की सामाजिक महत्व

होली के त्यौहार का अपने आप में सामाजिक महत्व है, यह समाज में रहने वाले लोगों के लिए बहुत खुशी लाता है। यह सभी समस्याओं को दूर करके लोगों को बहुत करीब लाता है उनके बंधन को मजबूती प्रदान करता है। यह त्यौहार दुश्मनों को आजीवन दोस्तों के रूप में बदलता है साथ ही उम्र, जाति और धर्म के सभी भेदभावो को हटा देता है। एक दूसरे के लिए अपने प्यार और स्नेह दिखाने के लिए, वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए उपहार, मिठाई और बधाई कार्ड देते है। यह त्यौहार संबंधों को पुन: जीवित करने और मजबूती के टॉनिक के रूप में कार्य करता है, जो एक दूसरे को महान भावनात्मक बंधन में बांधता है।

होली की जैविक महत्व

होली का त्यौहार अपने आप में स्वप्रमाणित जैविक महत्व रखता है। यह हमारे शरीर और मन पर बहुत लाभकारी प्रभाव डालता है, यह बहुत आनन्द और मस्ती लाता है। होली उत्सव का समय वैज्ञानिक रूप से सही होने का अनुमान है।

यह गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में मनाया जाता है जब लोग स्वाभाविक रूप से आलसी और थका हुआ महसूस करते है। तो, इस समय होली शरीर की शिथिलता को प्रतिक्रिया करने के लिए बहुत सी गतिविधियॉ और खुशी लाती है। यह रंग खेलने, स्वादिष्ट व्यंजन खाने और परिवार के बड़ों से आशीर्वाद लेने से शरीर को बेहतर महसूस कराती है।

होली के त्यौहार पर होलिका दहन की परंपरा है। वैज्ञानिक रूप से यह वातावरण को सुरक्षित और स्वच्छ बनाती है क्योंकि सर्दियॉ और वसंत का मौसम के बैक्टीरियाओं के विकास के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करता है। पूरे देश में समाज के विभिन्न स्थानों पर होलिका दहन की प्रक्रिया से वातावरण का तापमान 145 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ जाता है जो बैक्टीरिया और अन्य हानिकारक कीटों को मारता है।


उसी समय लोग होलिका के चारों ओर एक घेरा बनाते है जो परिक्रमा के रूप में जाना जाता है जिस से उनके शरीर के बैक्टीरिया को मारने में मदद करता है। पूरी तरह से होलिका के जल जाने के बाद, लोग चंदन और नए आम के पत्तों को उसकी राख(जो भी विभूति के रूप में कहा जाता है) के साथ मिश्रण को अपने माथे पर लगाते है,जो उनके स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करता है। इस पर्व पर रंग से खेलने के भी स्वयं के लाभ और महत्व है। यह शरीर और मन की स्वास्थता को बढ़ाता है। घर के वातावरण में कुछ सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करने और साथ ही मकड़ियों, मच्छरों को या दूसरों को कीड़ों से छुटकारा पाने के लिए घरों को साफ और स्वच्छ में बनाने की एक परंपरा है।